हम पशुओं को क्यों मारते हैं? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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हम पशुओं को क्यों मारते हैं? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

वक्ता: तीन-चार सवाल हैं जिनको हम कह रहे हैं कि ऐसे सवाल हैं जिनको हम आमतौर पर जीवन से दूर ही रखते हैं, जिनको हम पूछना नहीं चाहते| पहला सवाल है: ‘जीव हत्या क्या है?’ हम जीवों को क्यों मारते हैं? तुमने जो अगला सवाल लिखा है वो पहले से जुड़ा ही हुआ है| तुमने तीसरे सवाल में लिखा था कि मैन इज़ गौड्ज़ सुप्रीम क्रिएशन, ऐसा हम क्यों कहते हैं – कि आदमी ही जानवरों में, जीवों में, प्रकृति में सर्वोत्तम है?

श्रोता: मैंने कहीं पढ़ा है कि ये जो पूरी प्रक्रिया है, ये कहीं ना कहीं हमें खौफ देने के लिए है|

वक्ता: ये बात सुनने में बड़ी गड़बड़ लग सकती है, आसानी से समझ में नहीं आएगी| तुम यहाँ बैठे हो, तुम दुनिया को एक तरीके से देखते हो क्योंकि तुम्हारा मस्तिष्क एक तरीके का है| तुम्हारी जो पूरी संरचना है, प्रकृति ने तुम्हें जैसा बनाया है, वो एक तरीके का है इसलिए तुम दुनिया को वैसा ही देखते हो| उदाहरण के लिए, चार हज़ार से आठ हज़ार ऐंग्स्ट्रॉम लाइट वेव्स को ही तुम्हारी आँखे देख पाती हैं, तुम्हारे कान बीस से बीस हज़ार हर्ट्ज़ के बीच की ही साउंड वेव्स को सुनते हैं – तो अगर तुम कहो कि इस कमरे में शान्ति है तो इसका क्या मतलब है? इस कमरे में हो सकता है बहुत शोर हो, पर तुम कह रहे हो, ‘शान्ति है’| क्यों? क्योंकि जो वेव्स हैं उनकी फ्रीक्वेंसी बीस हज़ार से ज्यादा हो सकती है या बीस से कम| तभी यहाँ पर एक कुत्ता आ गया, वो सुन सकता है वही साउंड वेव्स जिसको तुम सुपरसोनिक बोलते हो| वो सुन पा रहा है, तो वो क्या कहेगा? कि इस कमरे में क्या है? बहुत शोर है| पर तुम कहोगे कि, ‘नहीं, मुझे पता है कि इस कमरे में शान्ति है’| वो कहेगा, ‘नहीं, यहाँ पर शोर है’| तुम उतना ही देख पाते हो जितने तुम हो, पर हमारा अहंकार इतना गहरा होता है कि हम सोचते हैं कि जितना हमको दिख रहा है वही सच है| जब कुत्ता कहेगा कि यहाँ पर शोर है तो हम क्या करेंगे? कुत्ते को ज़ोर से मारेंगे, ‘कुत्ता कहीं का, शान्ति को शोर बताता है’, और उसको निकाल देंगे, क्योंकि हमने ये मान लिया है कि हम जो सोच रहे हैं वही सच है|

सोच को क्या मान लिया है? सच|

बिलकुल भूल गए हैं कि ये मेरी सोच है, ये आखिरी सत्य नहीं है| ये मेरी सोच है| तुम एक तरीके से रहते हो, कुछ कबीले हैं जो वैसे नहीं रहते| तुम कपड़े पहनते हो, वो कम कपड़े पहनते हैं| पर जब तुम्हें वो दिखते हैं तो तुम क्या बोलते हो? ‘ये तो बर्बर हैं, आदिम हैं, असंस्कृत हैं, असभ्य हैं’| यही कहते हो ना? क्योंकि तुमने मान लिया है कि कपड़े पहनना ही सभ्यता है| कपड़े पहनना तुम्हारी सोच है| सही बात तो ये है कि कपड़े पहनना बहुत बड़ी मूर्खता भी हो सकती है| भारत में लोग टाइ लगा के घूमते हैं, ये बहुत बड़ी मूर्खता है| भारत जैसे गर्म और उमस वाले देश में अगर आप टाइ लगा कर घूम रहे हो तो आप पागल ही हो, पर हमने कपड़ों के साथ सभ्यता को जोड़ दिया है| हमने भाषा के साथ सभ्यता को जोड़ दिया है| आदिवासियों की भाषा आदिम है, ज्यादा कपड़े नहीं पहनते| उनके जीने का जो ढँग है वो हमसे बहुत अलग है तो हम क्या कहते हैं कि, ‘बर्बर, असभ्य लोग हैं और हम बोलते हैं, ‘दे नीड सम एजुकेशन, दे नीड सम सिविलाइज़ेशन’ .

इस सबमें सिर्फ मेरा अहंकार है कि जैसा मैं हूँ, वही ठीक है और तुम्हें मेरे जैसा होना पड़ेगा|

श्रोता: सर, आप ही ने थोड़ी देर पहले कहा था कि अपनी सोच को मानो|

वक्ता: मैंने ये नहीं कहा है कि अपनी सोच को सही मानो| मैं ये कह रहा हूँ कि अपनी नज़र से खुद को देखो तो इसका मतलब ये नहीं है कि अपने बारे में सोचो | तुम अभी मुझे देख रही हो, सुन रही हो, क्या सोच रही हो या सिर्फ सुन रही हो? ध्यान से बताना| अभी जब तुम मुझे देख रहे हो, तो क्या सोच रहे हो या बस सुन रहे हो, सीधे? सुन रहे हो न? जब मैं कहता हूँ कि अपनी दृष्टि से खुद को देखो तो मैं सोचने के लिए नहीं कह रहा हूँ, मैं सीधे-सीधे देखने के लिए कह रहा हूँ| इसको डाइरेक्ट ऑब्सर्वेशन कहते हैं| सीधे-सीधे देखना, सोचना नहीं| अपने बारे में सोचना नहीं है, सीधे-सीधे देख लेना है| वो सोच नहीं है, वो कुछ और है|

तो वापिस आते हैं कि आदमी के अंदर इगो बहुत गहरी है, अहंकार बहुत गहरा है और जो कोई हमारे जैसा नहीं है, उसको हम कैसा समझते हैं? तुच्छ| उसको हम कह देते हैं कि ये तो नालायक है| अब आदिवासी कम कपड़े पहनता है तो हम कह देते हैं कि ये असभ्य है और जानवर तो बेचारा एकदम ही कपड़े नहीं पहनता, तो उसको हम क्या बोल देते हैं? कि ये तो बिलकुल ही जानवर है| आदिवासी की जो भाषा है, वो बहुत ज्यादा विकसित नहीं है, कई बार तो वो सिर्फ इशारों में काम चला लेते हैं| उनका काम चल रहा है, मज़े में चल रहा है| तो हम आदिवासी को क्या बोल देते हैं? कि असभ्य हैं और जानवर के पास तो भाषा हमें दिखती ही नहीं, तो हम जानवर को क्या बोल देते हैं? कि ये तो बिलकुल ही तुच्छ है|

ये आदमी का अहंकार है कि वो जानवर को अपने से नीचे समझता है| अगली बात, तुमने कहा कि हम अक्सर कहते हैं कि पौधों से बड़े जानवर| उससे भी पहले, कि जो इनेनीमेट चीज़ें हैं, जिनमें जान नहीं है, उनसे बड़े पौधे, पौधों से बड़े जानवर और जानवरों से भी ऊँचे? इंसान, ये हम बोल देते हैं| ये सिर्फ एक मूर्खतापूर्ण बात है जो हमारे अहंकार से निकलती है| जानवर तुमसे अलग है, तुमसे नीचे नहीं है| अगर कोई तुमसे अलग है तो इसका अर्थ ये नहीं है कि वो तुमसे नीचे है| तुम मुझसे अलग हो या नहीं? मैं तुमसे अलग हूँ या नहीं? इसका अर्थ ये नहीं है कि मैं तुमसे नीचे या ऊपर हो गया| अभी बाहर देखो, इतने सारे पौधे हैं, सब एक दूसरे से अलग-अलग हैं कि नहीं? देखो ऊँचे-ऊँचे पेड़ भी दिख रहे हैं और थोड़ा उठोगे तो ज़मीन की घास भी दिखेगी| पर क्या ये कहना सही होगा कि पेड़ घास से ज्यादा बेहतरीन क्रिएशन हैं? पेड़ पेड़ है, घास घास है और दोनों की अपनी जगह है, दोनों का अपना महत्व है| पर पेड़ में अगर अहंकार हो तो पेड़ क्या कहेगा? ‘ऐ घास, तू तो छोटी है, तू तो पाँव तले आ जाती है और मैं ऊँचा हूँ|’ पेड़ घास को कह सकता है, कहता नहीं| सिर्फ आदमी ही पागल है कि ऐसा कहे, और कोई भी पागल नहीं है| जैसे पेड़ घास को कहे कि तुझमें कोई कमी है, तो पागलपन की बात करेगा| जैसे मछली, चिड़िया को कहे कि, ‘ऐ चिड़िया, तू तैर नहीं सकती’ और जैसे चिड़िया मछली को कहे कि, ‘ऐ मछली, तू उड़ नहीं सकती’, तो ये सब बेढंगी बातें होगी ना ? वैसे ही जब आदमी सारे जानवरो को कहता है कि मैं तुमसे ऊपर हूँ और मुझे तुम्हें काट कर खाने का हक़ है, तो ये बड़ी बेढंगी बात, बड़ी क्रूर बात है, बड़ी गलत बात है|

हम पूरी प्रकृति का सिर्फ शोषण करते हैं और वो हम सिर्फ इसी अहंकार में करते हैं कि हम पूरी प्रकृति से ऊपर हैं, श्रेष्ठ हैं| ऐसा कुछ नहीं है| ये सिर्फ तुम्हारा एक मिसप्लेस्ड नोशन है| कोई किसी से ऊपर नहीं है, सब अपने-अपने तरीके के हैं और अलग-अलग हैं, कोई तुलना नहीं है| जानवरों को खाने के पीछे जो अक्सर दूसरा तर्क दिया जाता है वो स्वाद का और पोषण का होता है कि प्रोटीन मिलता है या स्वाद बहुत अच्छा आता है| ये भी तथ्य नहीं है, ये बात फैक्चुअली ठीक नहीं है| दुनिया के कितने ही बड़े-बड़े एथलीट हैं जो माँस क्या, दूध भी नहीं छूते क्योंकि वो भी जानवरों का शोषण कर के आता है| वो कहते हैं कि हम दूध भी नहीं पियेंगे| गाय का दूध मेरे लिए नहीं है,गाय के बछड़े के लिए है| बछड़े के साथ अन्याय है अगर मैं दूध पी रहा हूँ| बड़े-बड़े पहलवान हैं जिन्होंने दूध भी नहीं पिया, माँस तो छोड़ दो| तो अगर कोई कहे कि बिना जानवरों को खाये शरीर का पोषण कैसे होगा तो वो पागलपन की बात कर रहा है|

तुम अगर इंटरनेट पर थोडा देखोगे कि ऐसे कौन से प्रमुख लोग हैं, जिन्होंने माँसाहार बिल्कुल ही छोड़ दिया तो तुम्हें एक लम्बी सूची मिल जायेगी| तो जो पोषण वाला तर्क है, वो बिल्कुल बेबुनियाद है, उसका कोई आधार नहीं| तुम्हें सब्ज़ियों, फलों से पूरा पोषण मिल सकता है, तुम्हें माँस की कोई ज़रुरत है ही नहीं| जो तीसरी बात होती है, वही प्रमुख है, स्वाद| आदमी की जो ज़बान है, वो चटोरी होती है, तुम्हें स्वाद लगा गया है और असली बात यही है| तुम्हें स्वाद लग गया है, और तुम्हारे भीतर संवेदना है नहीं, तो इस कारण जानवरों को मारा जाता है| जानवरों को इसके अलावा रिसर्च के लिए बहुत मारा जाता है| फ़र और इस तरह की और चीज़ों के लिए भी बहुत मारा जाता है और इस सब मारने के पीछे आदमी का अहंकार है कि मेरे कपड़े के लिए अगर किसी की जान जाती है तो कोई दिक्कत नहीं| मैं तो प्यारा सा फर का कोट पहनना चाहती हूँ| अब उस फर के कोट के लिए कोई जानवर मर भी रहा है तो कोई बात नहीं| मुझे तो सिल्क की साड़ी पहननी है, उस सिल्क की साड़ी के लिए अगर उस कीड़े को उबाला जा रहा है तो कोई बात नहीं| पता है कैसे सिल्क बनता है? वो सिल्क का कीड़ा ज़िंदा होता है जब उबालते हैं| सिल्क इतनी क्रूर प्रक्रिया से आता है, उसके बाद भी तुम सिल्क पहनते हो| तुममें से कई लोगों के घरों में सिल्क के कपड़े पहनते होंगे|

ये सब आदमी का अहंकार है और इसका नुकसान जानवर को तो जो होता है, वो होता है, वो जान से जाता है, इसका नुकसान आदमी को भी उतना ही होता है| क्योंकि तुम अगर क्रूर हो गए तो तुम्हारा मन सिर्फ एक प्राणी के प्रति क्रूर नहीं रहेगा| जो आदमी जानवर के प्रति क्रूर है वो अपने बच्चे के प्रति भी क्रूर रहेगा, वो अपने परिवार के प्रति, पूरी दुनिया के प्रति क्रूरता से ही भरा रहेगा| आदमी अपने आप को बाकी प्रकृति से श्रेष्ठ मान करके अपना ही नुकसान कर रहा है| आज देख रहे हो ये ग्लोबल वार्मिंग? ये इसी का नतीजा है कि तुमने प्रकृति को बहुत छेड़ा, तुमने ये माना कि मैं इसका कितना भी दोहन कर सकता हूँ और अब दुनिया के बीस शहर हैं – जिनमें से तीन भारतीय शहर हैं – जो नष्ट होने की कगार पर खड़े हैं| जितने भी तटीय शहर हैं, उनमें बाढ़ का जबरदस्त खतरा है| समुद्र का तल उठ रहा है, जिससे कई शहरों के डूबने का खतरा है| तुम्हारी मुंबई बड़े खतरे में है| ग्लोबल वार्मिंग से बर्फ पिघलेगी, बर्फ पिघलेगी तो समुद्र का तल उठेगा|

ये आदमी ने जो प्रकृति के साथ नाजायज़, मूर्खतापूर्ण, अहंकारपूर्ण हरकतें की हैं, यह उन्हीं का नतीजा है| जानवरों की, पक्षियों की, कीड़ों की, कितनी ही प्रजातियाँ विलुप्त हो गयी, अब वो कभी लौट कर नहीं आएँगी और हर प्रजाति जो विलुप्त होती है उसके साथ तुम्हारा जीवन भी थोडा-थोड़ा नष्ट हो जाता है| मैं कहीं पढ़ रहा था कि अगर मधुमक्खी नष्ट हो जाए पूरी तरह, तो कुछ ही वर्षों के भीतर आदमी को भी नष्ट होना पड़ेगा| क्योंकि पूरी इकोलॉजी जो है, एक तंत्र है, एक जाल है| जैसे जाल को तुम एक तरफ से काटना शुरू करो तो जाल के बाकी जोड़ों पर इतना ज़ोर पड़ेगा कि वो भी टूट जायेंगे| तो जो पूरा इकोलॉजिकल साइकिल है, बैलेंस है, वो टूट रहा है और ये आदमी की इसी हरकत का नतीजा है कि मैं तो सर्वोत्तम हूँ, सर्वोच्च हूँ| ये तुम्हारा अहंकार है जिसके कारण तुम जानवरों को कुछ समझते नहीं, तुम सोचते हो कि कुछ भी करो इनके साथ| तुम्हारे दिल में जानवरों के प्रति कोई प्रेम नहीं होता| कितनो के घर में कोई पालतू जानवर है?

एक श्रोता: मेरे घर में कुत्ता है|

वक्ता: कैसा लगेगा अगर तुम्हारे कुत्ते को कोई पका कर खा रहा हो? कल्पना भी कर पा रही हो? वो तुम्हारा है, इसलिए नहीं कल्पना कर पा रही हो, तुमसे जुड़ा हुआ है| और दुनिया भर के जो बाकी जानवर हैं उनका क्या? अगर कुत्ते को कोई खा रहा है और ये कल्पना भी बड़ी वीभत्स लगती है तो ये बताओ कि कुत्ते में और मुर्गे में कोई विशेष अन्तर है क्या? पर मुर्गा खाते हुए नहीं पछताते तुम| और अभी हमने ग्लोबल वार्मिंग की बात की- ये जो पूरा पॉल्ट्री बिज़नेस है, मुर्गा पालन, मुर्गी पालन- ग्लोबल वार्मिंग में इसका भी बहुत बड़ा हाथ है| तुम्हारा जो कुत्ता है, वो तुमसे बात भी करता है, बोलना नहीं जानता पर बात करता है| बात करके देखो तो| पर तुम उसे मार दो, पका कर खा जाओगे तो फिर थोड़े ही बात करेगा| आदमी का अहंकार है ये, ‘मैं ऊँचा, सब नीचे, मैं शासन करूँगा, मैं शोषण करूँगा, मैं खा जाउँगा’| हम जानवरों के पास भी कहाँ जाते हैं ठीक से| हमें डर भी तो कितना लगता है? तुम मारते हो पत्थर, ‘तू भाग यहाँ से, गन्दा कुत्ता’| मेरा कुत्ता है- तो उसको नहलाते भी हो| उसे कोई डाँट भी दे तो बुरा लगता है, और सड़क पर जो कुत्ते होते हैं, उनके साथ क्या होता है? देखा है सड़क पर कितने कुत्ते मरे रहते हैं? कई बार तो मरते भी नहीं है, चोट लग गयी है, पांच-सात दिन तड़पेंगे, फिर मरेंगे| बात सिर्फ कुत्तों की नहीं, हर जानवर की है| कुत्ता दिखता बहुत है इसलिए उसकी बात कर रहा हूँ| चिकन तो खाते ही होंगे सभी? अंडे तो खाते ही होंगे?

श्रोता: पता नहीं सही है कि नहीं पर मैंने कही पढ़ा था कि जब अण्डा खाने में इस्तेमाल होता है तो उसमें जान नहीं होती है|

वक्ता: सोचो ना, कि मुर्गी क्यों इतने सारे अण्डे देगी? कोई जानवर पागल तो नहीं हुआ है| मुर्गी ने क्या ठेका ले रखा है पूरी मानवता का पेट भरने का? मैं इतने अण्डे दूँगी कि सभी का पोषण हो? मुर्गी को ऐसा कोई विचार नहीं है| तुमने कभी सोचा कि इतने अण्डे कैसे आते होंगे? कैसे आते हैं? इतने अण्डे पैदा कैसे होते हैं? आता तो मुर्गी के शरीर से ही है न? इतने सारे कैसे आ जाते हैं? ज़बर्दस्ती की जाती है| अण्डे में जान न हो मान सकता हूँ, पर मुर्गी में तो है| उससे तुम जबर्दस्ती अण्डे निकलवा रहे हो| ये वैसे ही कि जैसे किसी औरत से जबर्दस्ती बच्चे पैदा करवाये जाएँ| कैसा लगेगा?

श्रोता: अगर हम अकेले खाना छोड़ भी दें तो होगा क्या?

वक्ता: अकेले खा सकते हो तो अकेले छोड़ भी सकते हो| हर आदमी ये ही सवाल पूछता है कि, ‘मैं अकेला क्या करुँ?’ जब खाता है तब तो नहीं कहता कि, ‘मैं अकेला क्यों खाऊं?’ तब तो खा जाता है| कभी खाते वक्त भी पूछते हो? तब तो अकेले-अकेले खा जाते हो| खाते वक्त नहीं कहते कि, ‘अकेले क्यों खाऊँ’, छोड़ते वक्त कहते हो, ‘अकेले क्यों छोड़ूँ, जब सब खा रहे हैं?’, ये कोई सवाल हुआ? अरे, जिसे समझ में आएगा वो छोड़ेगा| वो कहेगा, ‘सब खाते होंगे, खाएं, मैं नहीं खाऊंगा; सब करते होंगे, करें, मैं नहीं करूँगा’| बात तो यही ठीक है और बात तो ये है कि दूध तुम्हारे लिए कोई आवश्यक भी नहीं है| बच्चे को जितना दूध चाहिए, उतना उसे माँ से मिल चुका| दुनिया में तुमने कौन सा ऐसा जानवर देखा है जो बीस साल की उम्र में माँ का दूध पीता हो? तुम जब छोटे थे तो कुछ पोषण की ज़रुरत थी, वो तुम्हें प्रकृति ने दे दिया| अब तुम क्यों ज़बर्दस्ती दूध पिए जा रहे हो?

श्रोता: ये बात समझने में बड़ी दिक्कत हो रही है कि हमें दूध की ज़रुरत ही नहीं है|

वक्ता: अगर बच्चे को दूध की इतनी ज़रुरत होती तो उसकी माँ में इतनी क्षमता होती कि वो बच्चे को दूध पिलाती रहती| माँ उसको दूध कितने दिन पिला पाती है? छह महीने, साल भर| फिर समझ लो, उतना ही चाहिए, उससे ज्यादा चाहिए ही नहीं| तुम बछड़े का दूध पिए जा रहे हो बेचारे का, उसके हिस्से का है| कभी देखा है जब गाय का या भैंस का दूध निकालते हैं तो उनका जो बछड़ा-बछिया होती है उसकी क्या हालत होती है? वो तड़प रहा है, तुम उसको खींच रहे हो, उसके हिस्से का दूध है और वो तुम पी रहे हो| इतने जवान-जवान लोग दूध पी रहे हैं, क्यों पी रहे हैं भाई? अरे, दूध बच्चों के लिए होता है और यहाँ बूढ़े भी दूध, घी, मक्खन, पनीर…जब बछड़ा बड़ा हो जाता है तो क्या गाय के तब भी दूध आता है? बछड़ा बड़ा हो गया, क्या गाय के अब भी दूध बनता है? नहीं, क्योंकि अब ज़रुरत नहीं बछड़े को| हम बहुत कृत्रिम हो गए हैं और उसमें नुकसान अपना ही करते हैं|

ऐसा भी कुछ नहीं है कि मैं कह रहा हूँ कि जीवों पर दया करो| मैं कह रह हूँ कि अपने आप पर दया करो, क्योंकि नुकसान तो तुम्हारा ही है| मुर्गा तो गया जान से, उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा, तुम बताओ कि अब तुम्हारा क्या होगा? मुर्गा तो गया, मुक्ति मिल गयी उसको| तुम्हारा क्या होगा?

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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