हम पूर्ण से अलग हुए ही क्यों?

Acharya Prashant

8 min
191 reads
हम पूर्ण से अलग हुए ही क्यों?

प्रश्नकर्ता: मैं आज अमृतबिंदु उपनिषद पढ़ रहा था, जो आज भेजा गया था। उसमे लिखा है, “विषय-भोगों के संकल्प से रहित होने पर ही इस मन का विलय होता है। अतः मुक्ति की इच्छा रखने वाला साधक अपने मन को सदा ही विषयों से दूर रखे। इसके अनन्तर जब मन से विषयों की आसक्ति निकल जाती है तथा वह हृदय में स्थिर होकर उन्मनी भाव को प्राप्त हो जाता है, तब वह उस परमपद को प्राप्त कर लेता है।” (अमृतबिन्दु उपनिषद: श्लोक ४)

“मन के दो प्रकार कहे गए हैं, शुद्ध मन और अशुद्ध मन। जिसमें इच्छाओं, कामनाओं के संकल्प उत्पन्न होते हैं, वह अशुद्ध मन है और जिसमें इन समस्त इच्छाओं का सर्वथा अभाव हो गया है, वही शुद्ध मन है।” (अमृतबिन्दु उपनिषद: श्लोक १)

एक बार आपके विडियो में भी सुना था कि हम जो अह्म हैं, ये अपूर्ण वृत्ति है। अपूर्ण है तो ये हर किसी के साथ जुड़ जाना चाहती है। आपने एक एचआईडीपी (समग्र व्यक्तिगत विकास कार्यक्रम) में भी कहा था कि वो इतनी छोटी सी है कि वो छोटी-से-छोटी चीज़ से भी जुड़ जाती है। और यह निकली भी पूर्ण से है, यह भी आपने ही बताया है, तो फिर यह पूर्ण से अलग क्यों हुई है? ये ऐसी व्यवस्था क्यों चल रही है?

आचार्य प्रशांत: उसी से पूछिए जिसने चलाया है। जल्दी-से-जल्दी कोशिश करिए उस तक पहुँचने की।

प्र: एक सवाल और भी है; मैं जैसे गुरुओं की वाणी पढ़ता हूँ, शबद सुनता हूँ उनके, सभी शबद में दो ही चीज़ें हैं - एक तो उसके (प्रभु के) गुणों की चर्चा है और बार-बार वो यही बोलते हैं ‘गुण गावा दिन रात नानक जाओ इहो’ और एक फरीद जी का भी शबद है - ‘अजै सु रबु न बाहुड़िओ देखु बंदे के भाग।’ मतलब सभी गुरु भगवान को याद करने को बोल रहे हैं। तो मेरा प्रश्न है हम सब अलग ही क्यों हुए हैं उनसे?

आचार्य: सुनते नहीं हैं न हम। उत्तर तो मैंने पहली बार में ही दे दिया, उसके आगे भी पूछे ही जा रहे हैं।

अलग क्यों हुए ये तभी तो पूछेंगें न जब लगे कि अलग हैं? जो अलग अपने-आपको मानता है वही तो यह पूछेगा न कि अलग है। तो अलग क्यों हुए? क्योंकि अभी आपको लग रहा है कि अलग हैं। जो अलग है उसके लिए हम अलग हुए हैं, जो अलग है ही नहीं वो ये पूछेगा ही क्यों कि हम अलग क्यों हुए?

तो अलग क्यों हुए? क्योंकि आप पूछ रहे हैं कि अलग क्यों हुए। अभी आपकी हालत ऐसी है इसलिए। आपकी हालत ऐसी क्यों है? क्योंकि ये आपका चुनाव है। आप जो हैं, आत्यंतिक रूप से, वो तो परम-मुक्त है न। उसे किसी ने मज़बूर तो किया नहीं होगा। तो ये जो अलग होने की बात है, वियोग की बात है, ये वियोग भी कोई विवशता नहीं हो सकती, यह भी अपना चुनाव ही है।

जैसे कि कोई जानते-बूझते ऐसी गोली खा ले जिससे उसकी याद्दाश्त चली जाए। अब वो गोली खाना क्या था? चुनाव। लेकिन वो गोली खाने के बाद जैसे चुनाव करने की काबिलीयत भी चली गई। अब याद्दाश्त ही चली गई, अब भूल ही गए कि हम हैं कौन वास्तव में। अब बड़ी कोशिश करनी पड़ रही है, जान लगानी पड़ रही है, ज़ोर डालना पड़ रहा है कि याद आए कि हम हैं कौन।

और इतना ही नहीं, हम यह भी कह रहे हैं कि, "मेरी ये हालत करी किसने?" अरे! याद्दाश्त चली गई, नहीं तो याद रहता कि खुद ही का चुनाव है। खुद ही चुना था एक दिन कि चलो ये खेल भी खेल कर देखते हैं, जन्म लेकर देखते हैं, सगुण होकर देखते हैं। हम ही ने चुना था एक दिन, अब याद नहीं है क्योंकि वो विकल्प चुनने का मतलब ही होता है अपने असली रूप को भुला देना। और ये बात हमें पता थी कि अगर जन्म लेने का विकल्प चुनेंगें तो भूल ही जाएँगे कि हम वास्तव में क्या हैं। पर हमने कहा, "नहीं चलो ठीक है, भूल जाएँगे कोई बात नहीं, कोशिश करने में क्या हर्ज है। मज़ा आएगा, रोमांच, एडवेंचर * ।" तो हो गए पैदा। (व्यंग करते हुए) अब लूटो मजे, मिल रहा है न रोमांच, * हाऊ थ्रिलिंग! (कितना रोमांचक)

जैसे कि कोई खुद ही खेले आँख-मिचोली और पट्टी बांध ली है आँखों पर, और ज़बरदस्त गाँठ लगाई है खुद ने ही और अब गाँठ खुल नहीं रही। गाँठ खुल नहीं रही और सबको गरिया रहे हैं - “किसने यह गाँठ लगाई है रे?” अरे तुम्हीं ने लगाई है, तुम्हीं ने लगाई थी, तुम्हीं खोलोगे। तुम्हारे अलावा कोई दूसरा है ही नहीं।

प्र२: इस चुनाव का आधार क्या है?

आचार्य: तुम जानो, मैंने थोड़े ही चुना है। चुनाव तुम्हारा है, आधार मुझसे पूछ रहे हो। जैसे कि पूछो कि, "मैं फलाने को वोट देकर आया हूँ, मेरा आधार क्या है?" मैं क्या बताऊँ तुम्हारा आधार। विवाह करके बैठे हो, तुम बताओगे न आधार क्या है, मैं थोड़े ही बताऊँगा।

आमतौर पर निराधार है। कोई आधार नहीं है, यूँ ही। एक बेहोश आदमी कुछ कर रहा हो, कोई आधार होता है? ऐवे ही। हाँ जो पहले-पहल का चुनाव है उसको तुम कह सकते हो लीला। पर वो लीला शब्द बहुत कम प्रयुक्त किया जाना चाहिए। लीला सिर्फ़ तब है जब तुम कहना चाहो कि निर्गुण ब्रह्म अवतार बनकर अवतरित हो गया। निर्गुण ब्रह्म ने मनुष्य रूप मे जन्म ले लिया तब तुम कह सकते हो लीला।

"हम भी कूद पड़े हैं पैदा होकर के!" इसको तुम बोलो लीला कर रहे हैं, तो लीला तो नहीं लग रही है। काला, पीला हर जगह (चेहरे पर) दिखाई दे रहा है। आँख काली है, गाल नीला है और कह रहे हो यह हमारी राम-लीला है। बात जँच नहीं रही। और फिर चले जा रहे हो, चले जा रहे हो किसी रास्ते से। रास्ता इधर से उधर से, अंधेरी रात में, कहीं जंगल के बीच से, कहीं छोटे-मोटे गाँव के बीच से, तंग गलियों से, टूटी सड़कों से निकल रहा है, न जाने कहाँ पहुँच गए सौ-डेढ़-सौ किलोमीटर यूँ ही भटकते हुए।

अब कोई मिलेगा और वो तुमको लगेगा कि इलाके का जानकार है तो उसको बुलाकर ऐसे पूछोगे? “ऐ भाई! इधर आना, मैं यहाँ तक पहुँचा कैसे?” ये कोई सवाल है? ये पूछोगे या कुछ और पूछोगे? क्या पूछोगे? “यहाँ से निकलने का रास्ता बताओ।” मुझसे ये पूछा करो। क्या? यहाँ से निकलने का रास्ता, यह नहीं कि “आचार्य जी, मैं यहाँ तक पहुँचा कैसे?” अब कैसे पहुँचे तुम जानो। तुम्हारी करतूत है।

आग लगी हो घर में और तुम फँसे हुए हो और दमकल की गाड़ी आई हुई है, एक आया है फायर-फाइटर (आग बुझानेवाला) वो तुम्हें बाहर खींच रहा है, तुम उसे कह रहे हो, “ठहरो! पहले बताओ आग लगी कैसे, मैं फँसा कैसे?” तुम खुद तो मरोगे ही उसको भी मारोगे।

प्र२: तो यहाँ से प्रयास और अभ्यास से निकलेंगे?

आचार्य: चुपचाप हाथ थाम लो, बाहर आओ, इतनी भी बात मत करो। प्रयास और अभ्यास इसी बात का करो कि जब मदद सामने हो तो चुपचाप ले लो।

जिसको पता हो कि अपना मददगार है, उसका विरोध नहीं करते, उससे सवाल-जवाब नहीं करते। चुपचाप उसका हाथ पकड़ लेते हैं और जान बचाते हैं। व्यर्थ के सवाल भी, कोरी उत्सुकता भी विरोध करने का एक प्रच्छन्न तरीका है। जिसको हम कहते हैं न "मेरी बौद्धिक जिज्ञासा, मैं तो एक इन्‌टले᠎क्‌चुअल्‌ (बुद्धिजीवी) हूँ, मैं तो सवाल तो पूछूँगा ही", वो भी मदद का विरोध करने का एक प्रच्छन्न— प्रच्छन्न माने छुपा हुआ तरीका है — कि खुले आम तो विरोध कर नहीं सकते तो ऐसे विरोध करेंगे। इधर के सवाल पूछो, उधर के सवाल पूछो।

फायर-फाइटर आया है उससे कह रहे हो, "चलो अपनी वोटर आईडी दिखाओ।" फिर पूछ रहे हो, "बताओ तुम अमेरिका में किसका समर्थन करते हो? और ब्रेक्जिट (ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से बहिर्गमन) के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?"

“क्यों?”

"अब भाई! बौद्धिक जिज्ञासाएँ तो हम करेंगे न।"

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories