आचार्य प्रशांत: दूसरे चरित्र का जो अंतिम अध्याय है, चतुर्थ अध्याय, उसे मैं पढ़े देता हूँ। पहले सुन लें, फिर उस पर चर्चा करेंगे।
"अत्यंत पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर तथा उसकी दैत्य सेना के देवी के हाथ से मारे जाने पर इंद्र आदि देवता प्रणाम के लिए गर्दन तथा कंधे झुकाकर उन भगवती दुर्गा का उत्तम वचनों द्वारा स्तवन करने लगे। उस समय उनके सुन्दर अंगों में अत्यंत हर्ष के कारण रोमांच हो आया था। देवता बोले, ‘सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरुप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रख है, समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं। वे हम लोगों का कल्याण करें’।”
“जिनके अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान शेषनाग, ब्रह्मा जी तथा महादेव जी भी समर्थ नहीं हैं। वे भगवती चंडिका सम्पूर्ण जगत का पालन एवं अशुभ भय का नाश करने का विचार करें। जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मी रूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रता रूप से, शुद्ध अंतःकरण वाले पुरुषों के हृदय में बुद्धि रूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धा रूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जा रूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं।”
“देवी, आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिए, देवी आपके इस अचिन्त्य रूप का, असुरों का नाश करने वाले भारी पराक्रम का तथा समस्त देवताओं और दैत्यों के समक्ष युद्ध में प्रकट हुए आपके अद्भुत चरित्रों का हम किस प्रकार वर्णन करें। आप सम्पूर्ण जगत के उत्पत्ति में कारण हैं। आपमें सतो गुण, रजो गुण तथा तमो गुण, ये तीनों गुण मौजूद हैं, तो भी दोषों के साथ आपका संसर्ग नहीं जान पड़ता।”
“भगवान विष्णु और महादेव आदि देवता भी आपका पार नहीं पाते। आप ही सबका आश्रय हैं। यह समस्त जग आपका अंशभूत है क्योंकि आप सबकी अधिभूत, अव्याकृता, परा प्रकृति हैं। देवी, सम्पूर्ण यज्ञों में जिसके उच्चारण से सब देवता तृप्ति लाभ करते हैं, वो स्वाहा आप ही हैं। इसके अतिरिक्त आप पितरों की भी तृप्ति का कारण हैं, अतएव सब लोग आपको स्वधा भी कहते हैं।”
“देवी, जो मोक्ष की प्राप्ति का साधन हैं, अचिन्त्य महावृत स्वरूपा हैं, समस्त दोषों से रहित जितेन्द्रिय तत्व को ही सार वस्तु मानने वाले तथा मोक्ष की अभिलाषा करने वाले मुनिजन जिसका अभ्यास करते हैं, वह भगवती पराविद्या आप ही हैं। आप शब्द स्वरूपा हैं, अत्यंत निर्मल ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा उद्गीत के मनोहर पदों के पाठ से युक्त सामवेद का आधार भी आप ही हैं।”
“आप देवी, त्रयी और भगवती हैं। इस विश्व की उत्पत्ति एवं पालन के लिए आप ही वार्ता, खेती एवं आजीविका के रूप में प्रकट हुई हैं। आप सम्पूर्ण जगत की घोर पीड़ा का नाश करने वाली हैं। देवी, जिससे समस्त शास्त्रों के सार का ज्ञान होता है, वो मेधा शक्ति आप ही हैं। दुर्गम भवसागर से पार उतारने वाली नौकारूप दुर्गा देवी भी आप ही हैं।”
“आपकी कहीं भी आसक्ति नहीं है। कैटभ के शत्रु भगवान विष्णु के वक्षस्थल में एकमात्र निवास करने वाली भगवती लक्ष्मी तथा भगवान चंद्रशेखर द्वारा सम्मानित गौरी देवी भी आप ही हैं। आपका मुख मंद मुस्कान से सुशोभित, निर्मल, पूर्ण, चन्द्रमा के बिम्ब का अनुकरण करने वाला और उत्तम स्वर्ण के मनोहर कांति से कमनीय है। तो भी उसे देखकर महिषासुर को क्रोध हुआ और सहसा उसने उस पर प्रहार कर दिया। यह बड़े आश्चर्य की बात है।”
“देवी, वही मुख जब क्रोध से युक्त होने पर उदय काल के चन्द्रमा की भाँति लाल और तनी हुई भौंहों के कारण विकराल हो उठा, तब उसे देखकर जो महिषासुर के प्राण तुरंत नहीं निकल गए, यह उससे भी बढ़कर आश्चर्य की बात है क्योंकि क्रोध में भरे हुए यमराज को देखकर भला कौन जीवित रह सकता है?”
“देवी, आप प्रसन्न हों। परमात्मा स्वरूपा आपके प्रसन्न होने पर जगत का अभ्युदय होता है और क्रोध में भर जाने पर तत्काल ही आप कुलों का सर्वनाश कर डालती हैं, यह बात अभी अनुभव में आई है क्योंकि महिषासुर की यह विशाल सेना क्षणभर में आपके कोप से नष्ट हो गई है।”
“सदा अभ्युदय प्रदान करने वाली आप जिन पर प्रसन्न रहती हैं, वे ही देश में सम्मानित हैं, उन्हीं को धन और यश की प्राप्ति होती है, उन्हीं का धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और भृत्यों के साथ धन्य माने जाते हैं। देवी, आपकी ही कृपा से पुण्यात्मा पुरुष प्रतिदिन अत्यंत श्रद्धा पूर्वक सब प्रकार के धर्मानुकूल कर्म करता है और उसके प्रभाव से स्वर्गलोक जाता है। इसलिए आप तीनों लोकों में निश्चय मनोवांछित फल देने वाली हैं।”
“माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिंतन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख, दरिद्रता और भय हरने वाली देवी, आपके सिवा दूसरा कौन है जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिए सदा ही दयाद्र रहता हो।”
“देवी, इन राक्षसों के मरने से संसार को सुख मिले तथा ये राक्षस चिरकाल तक नरक में रहने के लिए भले ही पाप करते रहे हों, इस समय संग्राम में मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्ग लोक में जाएँ, निश्चित ही यही सोचकर आप शत्रुओं का वध करती हैं। आप शत्रुओं पर शस्त्रों का प्रहार क्यों करती हैं? समस्त असुरों को दृष्टिपात मात्र से ही भस्म क्यों नहीं कर देतीं? इसमें एक रहस्य है। ये शत्रु भी हमारे शस्त्रों से पवित्र होकर उत्तम लोकों में जाएँ, इस प्रकार उनके प्रति भी आपका विचार अत्यंत उत्तम रहता है।”
“खड्ग के तेज पुंज की भयंकर दीप्ति से तथा आपके त्रिशूल के अग्र भाग की घनीभूत प्रभा से चौंधियाकर जो असुरों की आँखें फूट नहीं गईं, उसमें कारण यही था कि वे मनोहर रश्मियों से युक्त चन्द्रमा के समान आनंद प्रदान करने वाले आपके सुन्दर मुख का दर्शन करते थे।”
“देवी, आपका शील दुराचारियों के बुरे वर्ताव को दूर रखने वाला है, साथ ही यह रूप ऐसा है जो कभी चिंतन में आ भी नहीं सकता और जिसकी कभी दूसरों से तुलना भी नहीं हो सकती तथा आपका बल और पराक्रम तो उन दैत्यों का भी नाश करने वाला है जो कभी देवताओं के पराक्रम को भी नष्ट कर चुके थे। इस प्रकार आपने शत्रुओं पर भी अपनी दया ही प्रकट की है।”
“वरदायिनी देवी, आपके इस पराक्रम की किसके साथ तुलना हो सकती है तथा शत्रुओं को भय देने वाला एवं अत्यंत मनोहर ऐसा रूप भी आपके सिवा और कहाँ है। हृदय में कृपा और युद्ध में निष्ठुरता, ये दोनों बातें तीनों लोकों के भीतर केवल आपमें ही देखी गई हैं।”
“माता, आपने शत्रुओं का नाश करके इस समस्त त्रिलोकी की रक्षा की है, उन शत्रुओं को भी युद्ध भूमि में मारकर स्वर्गलोक में पहुँचाया है तथा उन्मत्त दैत्यों से प्राप्त होने वाले हम लोगों के भय को दूर किया है। आपको हमारा नमस्कार है।”
“देवी, आप शूल से हमारी रक्षा करें। अम्बिके! आप खड्ग से हमारी रक्षा करें तथा घंटा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हम लोगों की रक्षा करें। चण्डिके! पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में आप हमारी रक्षा करें तथा ईश्वरी, अपने त्रिशूल को घुमाकर आप उत्तर दिशा में भी हमारी रक्षा करें। तीनों लोकों में आपके जो परम सुन्दर या अत्यंत भयंकर रूप विचरते रहते हैं, उनके द्वारा भी आप हमारी तथा इस भूलोक की रक्षा करें। अम्बिके! आपके कर पल्लवों में शोभा पाने वाले, खड्ग, शूल और गदा आदि जो-जो अस्त्र हों, उन सबके द्वारा आप सब ओर से हम लोगों की रक्षा करें।”
ऋषि कहते हैं – “इस प्रकार जब सब देवताओं ने जगन्माता दुर्गा की स्तुति की और नंदनवन के दिव्य पुष्पों एवं गंध चन्दन आदि के द्वारा उनका पूजन किया, फिर सबने मिलकर जब भक्तिपूर्वक दिव्य धूपों की सुगंध निवेदन की, तब देवी ने प्रसन्नवदन होकर प्रणाम करते हुए सब देवताओं से कहा, ‘देवताओं तुम सब लोग मुझसे जिस वस्तु की अभिलाषा रखते हो, उसे माँगो’।”
तो देवता बोले – “भगवती ने हमारी सब इच्छा पूर्ण कर दी है, अब कुछ भी बाकी नहीं है क्योंकि हमारा यह शत्रु महिषासुर मारा गया। महेश्वरी! इतने पर भी यदि आप हमें और वर देना चाहती हैं तो हम जब-जब आपका स्मरण करें, तब आप दर्शन देकर हम लोगों के महान संकट दूर कर दिया करें तथा प्रसन्नमुखी अम्बिके! जो मनुष्य इन स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करे, उसे वित्त, समृद्धि और वैभव देने के साथ ही उसकी धन और स्त्री आदि की संपत्ति को भी बढ़ाने के लिए आप सदा हम पर प्रसन्न रहें।”
तो ऋषि कहते हैं – “राजन्, जब देवताओं ने अपने तथा जगत के कल्याण के लिए भद्रकाली को इस प्रकार प्रसन्न किया तब वे ‘तथास्तु’ कहकर वहीं अंतर्ध्यान हो गईं। इस प्रकार पूर्व काल में तीनो लोकों का हित चाहने वाली देवी जिस प्रकार देवताओं के शरीरों से प्रकट हुई थीं, वह सब कथा मैंने कह सुनाई। अब पुनः देवताओं का उपकार करने वाली वे देवी दुष्ट दैत्यों तथा शुम्भ-निशुंभ का वध करने तथा सब लोकों की रक्षा करने के लिए गौरी देवी के शरीर से किस प्रकार प्रकट हुई थीं, वह प्रसंग मेरे मुख से सुनो, उसका मैं यथावत वर्णन करता हूँ।"
यह द्वितीय चरित्र का अंतिम अध्याय हुआ। जो भी अभी आपने सुना, उसमें कौन सी बात विशेष लगी?
प्रश्नकर्ता: देवता देवी की सुंदरता का वर्णन कर रहे हैं और बोल रहे हैं कि महिषासुर उनको देख करके भी उनके ऊपर आक्रमण करने आया।
आचार्य: उसका उत्तर भी आगे था न, कि देवता कह रहे हैं, “अगर आपके त्रिशूल के तेज़ मात्र से समस्त दानव सेना तत्काल भस्म नहीं हो गई तो उसके पीछे बात बस यही है कि उनको आपका चन्द्रमा के समान आनंदप्रद और सुन्दर चेहरा लगातार दिखाई दे रहा था।”
सत्य के विरुद्ध लड़ने में भी हम सहारा सत्य का ही लेते हैं, देवी के विरुद्ध लड़ने में भी ये दैत्य सहारा देवी के ही सुन्दर चेहरे का ले रहे थे। नहीं तो देवता कह रहे हैं कि जब आप ही जन्मदायिनी और मृत्युदायिनी हैं, तो इन सब दानवों को क्षण भर में स्वयं ही राख हो जाना चाहिए था। वो इतना संघर्ष कर कैसे पाए? वो देवी के विरुद्ध संघर्ष भी देवी की ही कृपा से कर पाए।
अब सत्य से, उदाहरण के लिए, बुद्धि है। सत्य से क्या है? बुद्धि है। बुद्धि से क्या है? तर्क है। पर तर्क का ही दुरुपयोग सत्य के विरुद्ध किया जा सकता है। देखा नहीं है कि लोग कितने कुतर्क करते हैं सत्य के ही ख़िलाफ़? ऐसे। तो जो सत्य के विरुद्ध भी हैं, वे वास्तव में सत्य की ही अनुकम्पा के कारण सत्य का विरोध कर पा रहे हैं। यही तो खेल है।
सत्य का अनुगमन करने के लिए तो तुम्हें अनुकम्पा चाहिए ही, सत्य का विरोध करने के लिए भी तुम्हें सत्य की ही अनुकम्पा चाहिए। अब बताओ कौन जीता? तुम चाहे समर्थन करो, चाहे विरोध करो, तुम चाहे स्तुति करो, चाहे संग्राम करो; तुम जो भी करोगे, उसके पीछे ऊर्जा तो सत्य की ही है न।
प्र२: आचार्य जी, इस पाठ में काफ़ी बार जिस पर्सनल सेल्फ़ या निजी जीवन, जिसके कारण अहंकार फलता-फूलता है, उसको ही आधार बनाकर देवी से वर माँगा जा रहा है। जैसे कि कहा गया है कि भाई-बंधुओं के साथ, परिवारजनों के साथ काफ़ी ख़ुशी से जीते हैं, ऐसा दो-तीन बार वर्णन आया है। वो किस तरफ़ इशारा कर रहा है?
आचार्य: नहीं, आप किसी के साथ भी प्रसन्न होकर जी सकते हैं। बात यह है कि प्रसन्नता का आधार क्या है। आप अपने सम्बन्ध बना रहे हैं इस आधार पर कि दैत्य का जैसे दैत्य से सम्बन्ध बनता हो, तो वह एक बात है। और एक सम्बन्ध होता है वैसे बनाना जैसे यहाँ पर कहा जा रहा है कि देवी की कृपा से बंधु-बांधवों के साथ रहें, कि दो लोग साथ भी हैं लेकिन देवी की कृपा से। दोनों के लिए प्रथम देवी हैं।
देखो, जो तुम्हारा पर्सनल सेल्फ है, वह तो रहेगा ही जब तक शरीर है; जो तुम्हारी व्यक्तिगत सत्ता है, जो तुम्हारा निजी अहंकार है, वह तो रहेगा ही। बात यह है कि वह समर्पित किसको है। सम्बन्ध भी बनेंगे-ही-बनेंगे, बात यह है कि किस आधार पर। किसने बनाए हैं और क्यों बनाए हैं? क्या बनकर तुम किसी से सम्बंधित हो रहे हो और किस हेतु सम्बंधित हो रहे हो?
देवी को कहा है कि ह्रदय में कृपा है और युद्ध में निष्ठुरता है, और फिर उसने श्रोता को भी समझाया है कि वो निष्ठुरता इसलिए है ताकि जो धर्मविरुद्ध आचरण कर रहा है, उसका आचरण वहीं पर रुक जाए। वो निष्ठुरता ज़रूरी है।
जो धर्म विरुद्ध जा रहा हो उसके प्रति सबसे बड़ी दया, सबसे बड़ी कृपा यही है कि उसको रोक दिया जाए।
तो देवी की स्तुति करते वक्त कहते हैं देवता कि आपके हृदय में कृपा है और आपके युद्ध में निष्ठुरता है, क्योंकि युद्ध में अगर निष्ठुर नहीं हो तुम तो आसक्त हो जाओगे। किससे आसक्त हो रहे हो? जो धर्मविरुद्ध जा रहा है। धर्मविरुद्ध जो जा रहा है, उससे आसक्ति माने तुम स्वयं भी अब धर्मविरुद्ध हो जाओगे।
तो ये दोनों विपरीत बातें नहीं हैं – ह्रदय में कृपा और युद्ध में निष्ठुरता। ये दोनों एक ही बात हैं, कृपा प्रदर्शित करने का तरीका है युद्ध में निष्ठुरता। तुमने निष्ठुर हो करके अगर विधर्मियों को, अचेत व्यक्तियों को रोका नहीं, उनका विरोध नहीं किया तो तुम तो उन्हें परोक्ष रूप से प्रोत्साहित ही कर रहे हो न और ज्यादा अधर्म करने के लिए? तो उन्हें रोक करके तुम उन पर कृपा ही कर रहे हो, उन पर और सारे जग पर, क्योंकि अगर वो आगे बढ़ेंगे तो सब को ले डूबेंगे।
अहिंसा बड़े शौर्य की बात है। अहिंसा ऐसे ही है – हृदय में कृपा, और उसी फिर अहिंसा का तकाज़ा है युद्ध में निष्ठुरता। युद्ध में निष्ठुर होना अहिंसा की माँग होती है। लेकिन जो भी हम बातें कर रहे हैं उनमें, याद रखना, किसी को सताना, किसी को दंड देना, किसी को चोट देना, किसी की हत्या करना, ये बातें आख़िरी विकल्प होती हैं। उद्देश्य यह नहीं है कि किसी को सता दिया, किसी को घायल कर दिया; उद्देश्य है चेतना की रक्षा, उद्देश्य है सत्य को समर्पण।
कहा बस यह जा रहा है कि सत्य को तुम्हारा जो समर्पण है, वह इतना सम्पूर्ण होना चाहिए, इतना बेशर्त होना चाहिए कि उसके लिए अगर यह नौबत आए कि तुम्हें वध करना पड़े तो वध भी कर दो — यह कहा जा रहा है। वध करना प्रमुख बात नहीं है, सत्य को समर्पण प्रमुख बात है, उस पर ध्यान दीजिए। ऐसा न हो कि कहीं आप खून बहाने और रक्तपात में ही ज़्यादा उत्सुकता दिखाने लग जाएँ, वो बहुत बाद की बात है। उस बात के आने की नौबत न आए, वो ज़्यादा अच्छा। मूल बात यह नहीं है कि शत्रु पर आक्रमण करना है, मूल बात यह है कि सत्य की रक्षा करनी है।
और यदि किसी भी तरीके से सत्य की रक्षा ऐसे हो सकती हो कि शत्रु सुधर ही जाए, तो वह पहला विकल्प होगा। मारना पहला विकल्प नहीं हो सकता, क्योंकि आपकी दुश्मनी व्यक्ति से नहीं है, उस व्यक्ति के भीतर के अहंकार और अज्ञान से है। अगर कोई ऐसी विधि निकल सके कि उसे मारे बिना ही उसका अहंकार और अज्ञान मिट सके, तो आपको उसका ही उपयोग करना चाहिए।
यहाँ पर जो आपको स्थितियाँ बताई जा रही हैं, वो एकदम आख़िरी हैं, भीषण हैं, अति हो चुकी है। अब उस व्यक्ति के सुधरने की कोई संभावना ही नहीं बची, उस स्थिति का यहाँ पर वर्णन है। पर यदि कोई सुधर सकता हो तो उसे सुधारना है।
अंगुलिमाल बुद्ध के सामने आया तो बुद्ध ने उसको मार थोड़े ही दिया, कि तू इतना बड़ा हत्यारा है, विधर्मी है, पापी है। बुद्ध ने उसको सुधार दिया। एक तरह से बुद्ध ने भी उसकी हत्या ही करी। किस अंगुलिमाल की? वह जो पहले होता था अंगुलिमाल, उसको मारा। लेकिन उसकी मानस हत्या करने के लिए शारीरिक हत्या करना तो कोई ज़रूरी नहीं है न।
तो शरीर पर आघात सिर्फ़ तब होगा जब कुछ कोई विकल्प न बचे। वह बिल्कुल मैं कह रहा हूँ कि आख़िरी स्थिति होनी चाहिए। यह न हो कि आप अपने अहंकार और अपनी भीतरी शत्रुता से प्रेरित हो करके रक्तपात में उद्यत हो जाएँ और कहें कि देखो, हमारे यहाँ तो सब देवी देवता मार-काट करते हैं तो मैंने भी कर दी। यह नहीं होना चाहिए। सुधार सकते हो तो सुधारो, सुधारो, सुधारो, लगातार कोशिश यही रहे कि सुधर जाए, सुधर जाए, सुधर जाए।
बस यह याद रहे कि किसी व्यक्ति के प्रति तुम्हारी आसक्ति, सत्य के प्रति तुम्हारे समर्पण से बड़ी न हो जाए। यह न हो जाए कि तुम्हें दिख रहा है कि जो सामने बैठा है वह प्रतिबद्ध हो गया है कि नहीं सुधरूँगा, और किसी की प्रतिबद्धता तुम तोड़ ही लो, यह आवश्यक तो नहीं है न।
हर व्यक्ति अपने भीतर यह बल रखता है कि वह निश्चित करेगा कि उसे क्या करना है। किसी ने अगर यह निश्चित कर ही लिया कि मुझे तो सत्य के विरुद्ध ही जीना है, तो तुम उससे ज़बरदस्ती तो नहीं कर सकते न? यह तो उसकी आतंरिक बात है, उसने तय कर लिया है, कमिटमेंट है, प्रतिबद्धता है उसकी कि मैं तो उल्टा ही जिऊँगा। तो तुम क्या कर लोगे अब?
तो ऐसा न हो कि तुम्हें दिख रहा हो कि वह प्रतिबद्ध हो गया है सत्य के विरुद्ध, लेकिन फिर भी उससे अपनी व्यक्तिगत आसक्ति के कारण तुम कहो, “नहीं, नहीं, सुधर जाएगा। अभी संभावना है, सुधर जाएगा। मैं अभी और कोशिश कर रहा हूँ, सुधर जाएगा।”
बिल्कुल निष्पक्ष होकर, साफ़ दृष्टि से, पूरे विवेक से तुम्हें तय करना होगा कि कब वह बिंदु आ गया है जहाँ तुम्हें दिख गया है कि अब यह सुधरने का नहीं, कि अब यह व्यक्ति अपने पूरे जीवन के लिए निर्णय ले चुका है कि इसे तो उल्टी ही चाल चलनी है। तो अपनी उस आसक्ति से और अपने भीतर की उस कमज़ोरी के विरुद्ध तुम सावधान रहना जो तुम्हें बार-बार यह जताती रहेगी कि अभी दंड देने का समय नहीं आया है क्योंकि अभी तो सुधरने की संभावना है।
देखो, हमें आदर्शों की नहीं व्यावहारिकता की बात करनी है, हम कल्पनाओं में नहीं यथार्थ में जी रहे हैं। बहुत लोग हैं दुनिया में जो अभी सुधर सकते हैं, लेकिन बहुत लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने तय कर लिया है कि वे अब नहीं सुधरेंगे। जो सुधर सकता है, वहाँ आपको साफ़ पता होना चाहिए कि अभी संभावना है, कोशिश करो, जान लगा दो उसको सुधारने में। लेकिन साथ-ही-साथ आपको यह भी पता होना चाहिए कि कौन सा व्यक्ति अब जीवन भर के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हो गया है कि मैं तो नहीं सुधरूँगा, जान दे दूँगा पर सुधरूँगा नहीं।
क्या आप नहीं जानते कि ऐसे भी लोग होते हैं जो कहते हैं कि जान दे दूँगा लेकिन सुधरूँगा नहीं। वहाँ पर यह मत सोचते रहिएगा कि अभी तो हमें इसको बहुत प्रेम से, बड़े सौहार्द से बहुत सहला-सहलाकर, पुचकार-पुचकार के सुधारना है। बात आपकी है ही नहीं कि आपको क्या करना है, बात यह है कि वह पहले ही प्रण कर चुका है, तय कर चुका है।
प्र२: आचार्य जी, इस पूरे पाठ से एक निष्कर्ष पर पहुँच रहा हूँ जो मैं साझा करना चाहता हूँ यह पता करने के लिए कि बाकी सबका भी अनुभव यही है या मैं ग़लत जा रहा हूँ। यह ऐसा अनुभव हो रहा है कि ये किसी स्त्री देही गुरु का ही वर्णन हो रहा है जिसने कभी शाब्दिक रूप में गीता नहीं कही, मगर कर्मों से ये सन्देश दिया।
आचार्य: ठीक है, ऐसे देख सकते हो। देखो, बात तो एक ही होती है, उसको समझाने के तरीके बहुत होते हैं। कभी शब्द से समझाते हैं, कभी कर्म से समझाते हैं, कभी कृपा से, कभी दंड से। सत्य तो एक ही है न, समझाने वाली जो बात है, वो भी एक ही है, संकेत भी एक ही दिशा में हैं, लक्ष्य भी एक ही है, पर लोग अलग-अलग तरीके के होते हैं, सुनने वाले कान अलग-अलग तरीके के होते हैं, सुनने वाले मन भिन्न-भिन्न, तो फिर उन तक बात पहुँचाने के लिए भिन्न-भिन्न उपायों का प्रयोग किया जाता है एक ही बात को कहने के लिए।