होश ही धर्म है || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

Acharya Prashant

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होश ही धर्म है || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

श्रोता: सर, धर्म क्या है?

वक्ता: देखो, कुछ बातें ऐसी होती हैं जो बहुत सरल होती हैं दुनिया में। लेकिन उनके चारों तरफ इतनी आवाज़ें भर दी गयी हैं, इन शब्द के चारों तरफ इतना प्रदूषण कर दिया गया है कि बात कहीं गड़बड़ हो जाती है। जैसे प्रेम! इसके चारों तरफ आवाज़ों का बहुत बड़ा वातावरण है। अब जैसे ही प्रेम का नाम आएगा, आपके दिमाग में हज़ार तरीके की छवियाँ उभरती हैं जबकी उन छवियों से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है जब मैं उच्चारित कर रहा हूँ “प्रे-म”। पर आपके दिमाग में ‘प्रे-म’ या ‘ध-र्म’ सुनते ही हज़ार तरीके की छवियाँ आती हैं।

मैंने कहा, ‘प्रेम’, और अगर आप लड़के हैं तो आपके दिमाग में कुछ बात आएगी। मैंने कहा, ‘धर्म’, और अगर आप हिन्दू हैं, तो आपके सर के पीछे एक ज़ोर का घंटा बजेगा।

मैंने कहा धर्म, आपने सुना घंटा! मैंने नहीं बजाया घंटा। अगर आप मुसलमान हैं, तो आपको अज़ान सुनाई देगी। मैंने कहा तो नहीं ऐसा। और जो ‘धर्म’ शब्द है, उसमें यह सब कुछ ठीक भी नहीं है कि धर्म बोला जाए तो उस से आपको एक प्रतिमा दिखाई दे या कुछ सुनाई दे। लेकिन यह सब कुछ सुनाई देने लग जाता है। बड़ी दिक्कत हो जाती है। मैं आपसे कुछ शब्द बोलूंगा और आप देखिये आपके मन में कितनी छवियाँ उभरती हैं।

‘अभिभावक’ – जितने लोग यहाँ बैठे हैं उतनी छवियाँ। शायद दोगुनी। और उतनी ही नहीं, उस से भी ज्यादा । क्योंकि एक छवि दूसरे को जन्म देती है, जुड़ी हैं एक दूसरे से।

‘देश’ – आयी ना बहुत सारी छवियाँ? देश सुनते ही आपने देश नहीं सुना। उस से सम्बंधित जितनी छवियाँ हैं, एक-एक करके सामने आ गयी। तिरंगा भी दिखाई दे गया, राष्ट्रगान भी सुनाई दे गया, सब हो गया।

श्रोता: सर मेरे मन में यह नहीं था।

वक्ता: मैंने कब दावा किया कि किसके मन में क्या-क्या चल रहा है। अगर पता चल गया तो बोल नहीं पाऊँगा। अगर मुझे पता चल गया कि सबके मन में क्या चल रहा है, तो मुझे भागना पड़ेगा। अगर अभी तुम ही जान जाओ कि तुम्हारे मन में क्या चल रहा है और यहाँ दिखा दिया जाए तो तुम्हें मुँह छुपाने की जगह नहीं मिलेगी। दावा करोगे कि यह हमारे मन में नहीं चल रहा था, झूठ है यह। हमने बिल्कुल ऐसा नहीं सोचा।

छवियाँ कौंधती हैं और यह पक्का है कि कौंधती हैं। अगर सुबह किसी वजह से माँ-बाप से झगड़ कर आये हो तो जैसे ही कहा जाएगा “पेरेंट्स”, तो तुरंत एक लहर कौंध पड़ेगी और वह अशांति की होगी। और वहीँ अगले दिन कुछ मीठी बातें करके आये हो तो वह लहर दूसरे प्रकार की होगी।

हर शब्द अपने आसपास बहुत सारी आवाज़ समेटे हुए है। और कुछ शब्द उस मामले में बहुत ज्यादा प्रभावशाली हैं। धर्म उनमें से एक है, जो है बहुत सीधा, साधारण और स्पष्ट है लेकिन उसके आस-पास इतने जाल बुन दिए गए हैं कि वह हमें स्पष्ट दिखाई नहीं देता। धर्म बोलते ही पता नहीं कितना कुछ है जो मन में आ जाता है।

श्रोता: सर मन इंटरनेट की सर्च की तरह है कि “अ” लिखा तो जितना उसके बारे में भरा है, वह आ जाएगा।

वक्ता: ठीक ऐसा ही है! और जैसे गूगल सिर्फ उन चीज़ों को सर्च कर सकता है जो उसमें डाली गयी हों, ठीक उसी तरह मन भी उसी क्षेत्र में सर्च करता है जो उसके अनुभव में हैं। पर गूगल हमसे फिर भी बहुत बहतर है, उतना ही सर्च करेगा जितना उसे कहा गया है।

करके देखते हैं। ‘मौसम’ – ठण्ड! गर्मी भी हो सकती थी। गर्मी में पंखा चलता है। अरे पंखा, पंखा तो कोका-कोला के रंग का है। कोका-कोला याद आया तो पेप्सी याद आ गयी। अच्छा पेप्सी। एक दोस्त था जिसको पेप्सी बोलता था। पेप्सी याद आया तो पेप्सी की बहन याद आयी।

मन इस तरीके से काम करता है। यहाँ आया, तो दिमाग में आया कि पिछली बार मौसम अलग था। मौसम से याद आयी गर्मी। गर्मी से याद आया पंखा। पंखे में दिखा एक रंग। रंग से याद आया पेप्सी। पेप्सी से याद आयी उसकी बहन और फिर पता नहीं क्या- क्या। यहाँ तो क्या, कहाँ पहुँच जाएगा उसका कुछ भरोसा नहीं।

अगर तुम ध्यान से सुन रहे हो, तो यही धर्म है। इतना सरल है कि अविश्वसनीय है। तुम्हें यकीन नहीं होगा कि क्या इसका नाम धर्म है? नहीं धर्म तो यह होता है कि मैं त्यौहार मनाऊँ, मैं जितने भी नैतिक कृत्य हैं, वह करूँ। नैतिकता का नाम धर्म है। तुम्हारे मन में यह सारे विचार आयेंगे। जबकी किसी नैतिकता का नाम धर्म नहीं, किसी ख़ास किताब के प्रति श्रद्धा रखने का नाम धर्म नहीं है, मंदिर या मस्जिद जाने का नाम धर्म नहीं है। कुछ ख़ास विचारों को मानना और दूसरों को दूर रखना, इसका नाम धर्म नहीं है।

तो जो कुछ सोच सकते हो, वह धर्म नहीं है।

अब बड़ी दिक्कत हो गयी। तो हम क्या सारे अधर्मी हैं? नहीं, यह बात पूरी तरह सही नहीं है। क्योंकि अगर हम अपने आप को एक लेबल दे भी दें कि हम अधर्मी हैं, तो हमने ऐसा माना है कि एक निरंतरता है । धर्म कोई निरंतर प्रक्रिया नहीं है, कि इस पल मैं धार्मिक हूँ, तो अगले क्षण भी धार्मिक रहूँगा।

जब भी तुम होश में हो, तुम धार्मिक हो और जिस क्षण होश गया, धर्म गया। तो धर्म निरंतर नहीं है। सुबह यहाँ आने से पहले पूजा कर आये हो, या अगरबत्ती घुमा आये हो, तो उस से तुम धार्मिक नहीं हो गए हो। किस को बेवक़ूफ़ बना रहे हो?

श्रोता: सर किसी की मदद करना धर्म नहीं है?

वक्ता: किसकी मदद की है आज तक?

श्रोता: सर कोई ट्रेन में बैठा है, वह भूखा है…

वक्ता: तुम्हें कैसे पता कि तुम मदद कर रहे हो? तुम्हें कैसे पता कि जो तुम कर रहे हो वह मदद है? माँ-बाप अपने बच्चों की मदद ही कर रहे होते हैं ना बचपन से? और बच्चे कैसे हो जाते हैं? बड़ी मदद की गयी है तुम्हारी ताकि तुम ऐसे हो जाओ।

तुम्हारी नीयत से क्या होता है? क्या तुम्हें होश है कि मदद के मायने क्या हैं? एक शराबी है, वह मदद करना चाहता है। शराबी क्या मदद करेगा? एक दारु की बोतल दे देगा।

श्रोता: मदद मेरे अनुसार…

वक्ता: मदद किसी के अनुसार नहीं होती। मदद तुम्हारे और मेरे अनुसार नहीं होती। यह अस्तित्व का काम है। इसका तुम्हारी और मेरी राय से कोई मतलब नहीं है। यह सापेक्ष नहीं है।

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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