सूफी फकीरन राबिया और हसन की कहानी पर आधारित (राबिया को किसी भी चीज़ में कोई बुराई दिखती ही नहीं थी पर यह बात हसन को अजीब लगती थी)
प्रश्नकर्ता: इस यात्रा में हर पल जीना है तो कैसे सम्भव है हम रस या विरस के हो जाते हैं किसी चीज़ में?
आचार्य प्रशांत: हम जिस भी चीज में हो रहे हैं, रस हो विरस हो, अच्छा-बुरा, जैसा भी लग रहा है, जो भी लग रहा है, चल तो जीवन ही रहा है न? ये सारी घटनाएँ, घट तो चेतना में ही रही है न?
प्र: हर पल होश जगाना होता है?
आचार्य: नहीं, हर पल होश जगाना नहीं होता है। आपके ऊपर कोई ज़िम्मेदारी नहीं है होशमंद रहने की, कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। बस, वो सब कुछ जो आपने होश के पर्याय के रूप में पकड़ रखा है, उसकी निरर्थकता को देख लीजिए। असली को हासिल करने की या आत्मा को जगाने की कोई ज़रूरत नहीं होती। ये इंसान का दायित्व है ही नहीं।
आप में से कौन है जो हसन की स्थिति पर नहीं है? देखिए हम क्या कह रहे हैं। हसन अभाव की स्थिति में जी रहा है और हम कह रहे हैं हमें वो अभाव की स्थिति भी पहले प्राप्त करनी है। एक तो बात यह हुई कि पूर्णता प्राप्त करनी है। हसन अपूर्णता में जी रहा है और हमारा दावा है कि वो अपूर्णता भी पहले प्राप्त करनी पड़ेगी। दुहरा खेल हो गया। कौन है यहाँ पर जो अपूर्णता में फिलहाल नहीं जी रहा है? कौन है जो हसन नहीं है? कौन है जो दरवाज़ो पर दस्तक नहीं दे रहा है? कौन है जो नहीं कह रहा कि खोलो दरवाज़ें? कोई बैठा है यहाँ पर जो दस्तक न दे रहा हो? जिसे कोई न कोई दरवाज़ा खुलवाना न हो?
किसी के लिए भी कर रहे हो, बात मन की मूलभूत अहमवृत्ति की है जो अपनेआप को हमेशा अकेला अनुभव करती है, जिसे कुछ चाहिए होता है संग के लिए।
हम सब हसन हैं और इसीलिए इस कहानी की सार्थकता है। राबिया ने जो कहा यदि किसी व्यक्ति विशेष से कहा होता तो हम क्यों सुनते? राबिया ने जो कहा है वो हमसे कहा है; हसन हम हैं। फ़र्क नहीं पड़ता आप किसे पुकार रहे हैं। आप अल्लाह को पुकार रहे हो, आप अपनी प्रियतमा को पुकार रहे हो, आप एक उज्ज्वल भविष्य को पुकार रहे हो, आप समाज कल्याण को पुकार रहे हो।
हम आप किसी को भी पुकार रहे हों, यहाँ कोई ऐसा नहीं है जो कुछ-न-कुछ पुकार नहीं रहा है। जिसने जो भी सहारा पकड़ रखा है, वहीं पर उसकी पुकार है। राबिया आप से कह रही है, व्यर्थ। जो पूरा है वो अपनेआप को ज़बर्दस्ती यह एहसास दिलाए पड़ा है कि अधूरा है। मज़ेदार सा खेल है — पहले तो अपनेआप को यह भरोसा दिलाओ कि तुममें कोई खोट है और फिर जीवनभर उस खोट का उपचार करते रह जाओ। जो खोट ही अवास्तविक हो, उसका कोई उपचार नहीं हो सकता, उसका सिर्फ़ निदान हो सकता है; उसका सिर्फ़ तथ्य जाना जा सकता है; डायग्नोसिस , जानना की क्या है। उपचार नहीं, जानना कि तुम में कोई समस्या है नहीं। तुम समस्याग्रस्त हो इस बात में यकीन करना ही तुम्हारी समस्या है।
समस्याग्रस्त होने में यकीन करना, इसका मतलब समझते हैं क्या है? इसका मतलब यह है कि कुछ है परिस्थितियों में जो इतना बड़ा है कि मैं उसे समस्या का नाम दे दूँ; कुछ है मुझ से बाहर जो इतना चुनौतीपूर्ण है कि मुझसे संभाला नहीं जा रहा है; जिसको संभालने के लिए मुझे अभी अतिरिक्त बल और कुछ और समय की आवश्यकता पड़ेगी।
हसन आप हैं। बनना नहीं है आपको हसन। आप जहाँ खड़े हैं वहीं पर अपने खालीपन को देख लीजिये। राबिया आप से कह रही है — वो नकली है वो व्यर्थ है। कोई आवश्यकता नहीं है उसके पीछे जाने की।
प्र: आचार्य जी, एक बात बताएँ। अध्यात्म में जीना कैसे?
आचार्य: अध्यात्म में जीना कैसे? यह अभी यहाँ बैठे हैं, तो ग़ौर से सुन रहे हैं न। बेईमानी तो नहीं कर रहे न कि बैठे यहाँ हैं और ख्याल कहीं और का है। यही अध्यात्म है। अध्यात्म यह नहीं है कि आप इस वक्त किसी पवित्र जगह पर बैठे हैं। अध्यात्म इसमें है कि आप जहाँ भी बैठे हैं, ध्यान में बैठे हैं। उस ध्यान को, उस होश को अध्यात्म कहते हैं। अब यह चीज़ इतनी आसान है कि मुश्किल हो जाती है; इतनी सहज है कि दुष्कर हो जाती है।
प्र: ऐसे ही ध्यान से बैठे रहे तो इसमें आनन्द नही आता। जैसे कोई पिक्चर देखने गए तो खुशी होती है।
आचार्य: यह अच्छा सवाल है। कह रहे हैं कि अगर सिर्फ़ ऐसे ध्यान से, होश से जीवन को देखते रहे तो इसमें आनन्द की कमी लगती है। कोई पिक्चर देखने जाओ तो उसमें खुशी अनुभव होती है। पर इस आध्यात्म में तो कुछ रस नहीं है, मज़ा नहीं आ रहा है।
यह बात भी आप देखिये कि क्यों कह पा रहे हैं? इसलिए कह पा रहे हैं क्योंकि आमतौर पर अध्यात्म के नाम पर जो चल रहा है वो मनोरंजन है; मन को प्रसन्नता देने के उपाय।
बिलकुल ठीक उदाहरण लिया आपने फिल्म का। जो मन को खुश कर दे, वो सब एक तल पर ही है। फिर वो चाहे सत्संग हो, चाहे कोई मूवी। और इसीलिए सत्संगियों के ऊपर बड़ा दबाव रहता है कि वो सत्संग फिर किसी मूवी जितना ही मनोरंजक हो। नहीं होगा तो लोग कहेंगे कि खुशी नहीं मिली। और हमारी खुशी तो बहुत सस्ती है। दी जा सकती है, तुरंत दी जा सकती है। हम सब जानते हैं कि आप फ़िल्म भी देखने जाते हैं तो उसमें कब आपको बिलकुल उबाल आता है खुशी का। अदने से अदना निर्देशक भी जानता है कि....
अध्यात्म भूल जाइए कि खुशी हासिल करने का नाम है। यह बात आप सिर्फ़ तब तक कहेंगे जब तक आपने खुशी की प्रकृति को समझा नहीं है। जिसने खुशी की प्रकृति को समझ लिया, वो खुशी का पीछा करना छोड़ देता है।
अध्यात्म खुश होने का नाम नहीं है, खुशी को समझने का नाम है। अध्यात्म दुखी होने का नाम भी नहीं है। वो दुख को भी समझने का नाम है। क्या आप समझ भी रहे हैं कि ये क्या हो रहा है? मन में ये जो झंझा उठ रहे हैं, ये क्या है? यह अध्यात्म है। मन की किसी विशेष स्थिति को आध्यात्म नहीं कहते कि बड़े प्रसन्न हो गए तो अध्यात्म है, न! कि बड़ी मस्ती छा गई तो आध्यात्म है, न! कि कोई नाम रखने लगे तो आध्यात्म है, न!
ये नशे हैं। और नशों के कई प्रकार होते हैं। और आदमी नशे के पीछे इतना दीवाना रहता है कि एक नशा छोड़कर के दूसरा नशा लेने के लिए तुरंत तत्पर हो जाता है।
नशा माने अ-ध्यान। मुझे बड़ी समस्या आती है यह समझाने में कि समस्या सा कुछ होता नहीं है। पहले तो यह होता है कि मैं बात करूँ कैसे। क्योंकि जो भी लोग बात करने आये हैं, वो सब बड़े जानकार लोग हैं, पढ़े-लिखे। और पढ़े-लिखे लोगों से, अनुभवी लोगों से, जानकार लोगों से बात करना बड़ा मुश्किल होता है। अब बाहर किताबें हैं, उनको देखेंगे तो उनमें से कइयों पर यह लिखवा दिया है— ओनली फॉर एडवांस सीकर्स और एब्सोल्यूट बिगनर्स। (सिर्फ़ उन्नत साधकों के लिए या फिर निपट शुरुआती लोगों के लिए)। और इन दोनों श्रेणियों में भी, मैं जो निपट अबोध होता है, उसको पसंद करता हूँ। उससे बात करी जा सकती है। जो जीवन भर ग्रन्थों के साथ हो लिया, किन्ही गुरुजी के साथ हो लिया, उसके साथ बात नहीं हो सकती।
वो कहानी आपने सुनी ही होगी कि एक जर्मन संगीतज्ञ था। तो उसके पास दो लोग आये कि हमें भी संगीत विद्या सीखनी है। सुनी है? तो एक था जिसे कोई अनुभव नहीं था बिलकुल अनाड़ी। उसने पूछा कि मुझे कितना समय लग जाएगा और आप कितनी राशि लेंगे मुझसे? तो उसने कहा, 'देखो, तुम्हें पाँच साल लग जाएँगे और तुमसे इतनी राशि लूँगा।' फिर दूसरा आया, वो बोले, 'देखिए, हमारी बड़ी उम्र हो गयी। हमारे बाल पक गए और हमने दस अलग-अलग शिक्षकों के तत्वावधान में सीखा है, हमारा बताइए।' वो उम्मीद कर रहे थे कि बोला जाएगा कि तुम्हें एक साल और तुम्हें तो मुफ़्त में करा देंगे, तुम तो वैसे ही होशियार हो।
गुरु जी बोले, 'तुम्हें तो लगेंगे पंद्रह साल और तुम्हारी राशि होगी पाँच गुनी क्योंकि तुम्हें कुछ भी बताने से पहले वो सब साफ़ करना पड़ेगा जो तुम्हारे भीतर भरा हुआ है।' किसने बोल दिया आपसे कि अध्यात्मिकता में खुशी होनी चाहिए? यह आई कहाँ से धारणा मन में? कहाँ से आई, मैं जानता हूँ। आप टीवी पर देखते हैं — खुश रहना अच्छा नहीं लगता। जो आपको अच्छा लगता है उसी का नाम आप खुशी दे देते हैं। वो एक ही बात है। लेकिन ये कहाँ से धारणा आई कि अध्यात्म भी यही है — अच्छा लगना, खुश रहना? यह आपसे किसने बताया कि आनन्द खुश रहने का नाम है? यह इतनी किताबें हैं, इनमें से एकाध-दो भी उठा के देख लेना। आनन्द का और प्रसन्नता का कोई लेना देना नहीं है। जब प्रसन्नता की ज़रूरत ही नहीं रहती, उस स्थिति को आनन्द कहते हैं।
प्र: ब्लिस, ब्लिस स्टेट?
आचार्य: हाँ, जो भी कह लीजिए। ब्लिस, जॉय , जो भी नाम उसको देना चाहें। हैप्पीनेस और प्लेज़र , ये क्या है समझियेगा। कोई भी यदि आपसे बोल रहा है, स्पिरिचुअल हैप्पीनेस या स्पिरिचुअल प्लेजर , तो वो और कुछ नहीं है वो बाज़ार में आइस्क्रीम बेच रहा है। वहाँ मिलती है कि नहीं मिलती है? ये पोर्नोग्राफी बेच रहा है, उसमें भी काफ़ी हैप्पिनेस मिल जाती है।
अध्यात्मिकता का मतलब है, कुछ ऐसा जिसके बाद प्रसन्नता की तलाश ही व्यर्थ लगे। मैं नहीं कह रहा हूँ कि आप अप्रसन्न हो गए, दुखी हो गए, नहीं। दुखी भी हो सकते हैं, सुखी भी हो सकते हैं। लेकिन जिस भी स्थिति में हैं, वो स्थिति बहुत अर्थपूर्ण नहीं लग रही। सिग्निफिकेंस (महत्व) नहीं बची उसमें अब बहुत ज़्यादा। खुश हैं तो हैं, बावले नहीं हो गए कि खुशी मिल गई है। दुखी हैं तो हैं, पगला नहीं गए कि दुख आ गया है, पहाड़ टूट पड़ा है। ये है आध्यात्मिकता।
सुख-दुख और आनन्द, इनको कभी एक साँस में बोल मत दीजिएगा। और कोई बोल रहा हो तो जान जाइएगा कि निपट अनाड़ी है। सुख और दुख द्वैतात्मक स्थितियाँ हैं। एक-दूसरे के साथ चलती हैं। सुख का अनुभव आपको हो नहीं सकता बिना दुख के और दुःख जितना गहरा होगा उसके अन्त की अनुभूति उतनी सुखद होगी। और सुख जितना ऊपर उठेगा उसके छूटने की आशंका उतनी दुखद होगी।
आनन्द है सुख-दुख के फ़ेर से, सुख-दुख के उतार-चढ़ाव से मुक्ति। सुख में भी आनन्द है, दुख में भी आनन्द है। और सटीक बोलता हूँ, आनन्द में सुख भी है, दुख भी है। आनन्दित हम हैं, सर्वथा, सर्वदा। आनन्द तो स्वभाव है। अब इस आनन्द में सुखी होना होगा हो लेंगे, दुखी होना होगा वो भी हो लेंगे।
सुख की कोई होड़ नहीं है, दुख से कोई बैर नहीं है। जो भी आएगा सबकुछ निर्विरोध स्वीकार कर लेंगे। ये जो निर्विरोध हो जाने की ताकत है, उसे आनन्द कहते हैं।
प्र२: एक भाव है। कुछ वक्त गुजरा बहुत परेशानी हुई। शारीरिक भी और मानसिक भी और एक स्टेज आती है जब कम्पलीटली नंबनेस वाला फील जनरेट (पूरी तरह सुन्नता का एहसास) होने लगता है। और वो जो नंबनेस है वो परमात्मा है?
आचार्य: नहीं। आपने उस नंबनेस का अनुभव कर लिया न? आप जो कुछ भी अनुभव कर रहे हैं, वो एक मानसिक उपस्थिति है। परमात्मा का कोई अनुभव नहीं होता, आनन्द कोई अनुभव की बात नहीं है। आप पूछेंगे, 'फिर पता कैसे चलता है की आनन्द है?' पता ऐसे चलता है कि खुशी आपको भीतर तक बींध नहीं जाती; दुख आपको भीतर तक तोड़ नहीं जाता। कुछ है जो अनछुआ रह जाता है, क्या अनछुआ रह जाता है नहीं जानते। पर कुछ है जो अनछुआ रह गया, उसी को आनन्द कहते हैं।
उसका कोई अनुभव नहीं हो रहा है। उसके बारे में हम सिर्फ नकार के तौर पर बात कर सकते हैं। निषेधात्मक रूप में, निगेटिव में।
सुख बहुत था लेकिन ठीक उस पल भी जब सुख भोग रहे थे, कुछ था जो इतना ऊँचा था कि सुख से अछूता था। कुछ था जो इतना गहरा था कि वहाँ तक सुख की पहुँच ही नहीं है। दुख बहुत था। क्लेश था, रो रहे थे, बरस रहे थे आँसू। लेकिन ठीक तब जब आँसू भी बरस रहे थे, कोई ऐसी जगह थी जो आँसुओं से गीली नहीं थी ― इसे आनन्द कहते हैं।
प्र: नम्ब्नेस?
आचार्य: नहीं, वो तो एक अनुभूति है।
प्र३: सर एस्ट्रोलॉजी अध्यात्म है?
आचार्य: नहीं है, कुछ नहीं है, बिलकुल नहीं। आप जी रहे हैं न? आप क्या करोगे चाँद-सितारे का? आप अपनी पत्नी का, बच्चे का, पड़ोसी का मुँह देखते हो या चाँद-सितारा देखते हो? अपने गृह को देखिये ग्रहों को नहीं। आपके घर में है अध्यात्मिकता। बृहस्पति ग्रह या किसी और ग्रह में नहीं है।
प्र४: सर, अध्यात्मिकता के लिए धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ना चाहिए?
आचार्य: बेशक पढ़िए। पर उनको वैसे मत पढ़िए जैसे हम जीते हैं। दस-बारह चश्में लगाकर मत पढिए। अब ग्रन्थ में तो लिखा होगा आनन्द। अब आपने उस आनन्द का अर्थ अपने मुताबिक कर लिया तो खेल हो गया न खराब? ग्रन्थों को अपने तल पर मत उतार लीजिए। ग्रन्थों के सामने नमन करिये ताकि आप ग्रन्थ के तल पर पहुँच सके। हम ग्रन्थों को ऐसे पढ़ते हैं कि खींच लाओ, इसको नीचे ले आओ।
हम जहाँ बैठे हैं, ग्रन्थ को वैसा होना चाहिए और फिर एक से एक अभूतपूर्व अर्थ निकाले जाते हैं, खौफ़नाक।