हिंदुओं का इतना धर्म-परिवर्तन क्यों? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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हिंदुओं का इतना धर्म-परिवर्तन क्यों? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मैं आपका स्पष्टीकरण चाहूँगा कि इतिहास में ये भी देखा गया है कि धर्म परिवर्तन भी सबसे ज़्यादा भारतीयों का या स्पसिफिक्ली (विशेष रूप से) कहूँ तो हिन्दुओं का ही ज़्यादा हुआ है; तो उस पर भी मैं आपसे कुछ स्पष्टीकरण चाहूँगा कि इतनी आसानी से क्यों धर्म परिवर्तन हो जाता है हिन्दुओं का?

आचार्य प्रशांत: देखो, एक भूल हो गई है। जो पूरा सनातन धर्म है, वो एक की उपासना को ले करके है। सत्यनिष्ठ है सनातन धर्म; और सत्य के अतिरिक्त किसी पर निष्ठा नहीं होनी चाहिए। सत्य एक है। लेकिन सत्य के प्रति एकनिष्ठा के साथ-साथ हिन्दू धर्म में अनेकेश्वरवाद (बहुदेववाद) भी चला है। जिसमें तमाम तरह के दो छोटे-मोटे देवी देवता, ये-वो, सबकी पूजा कहा गया।

अब उसका एक प्रयोजन था, जो प्रकृति की पूजा की गई, जो इतने सारे देवी-देवता रचे गए कि ये पूज्य हैं; उसका प्रयोजन था, उसका प्रयोजन ये था कि मनुष्य को जीना तो संसार में ही है, तो संसार के प्रति एक अनुग्रह का भाव होना चाहिए। संसार में जो कुछ भी हो उसके प्रति एक मैत्री का, अपनेपन का भाव होना चाहिए। तो, इसलिए संसार मे जो कुछ भी है उसको भी पूजनीय मानो। लेकिन हुआ क्या कि इस चक्कर में हिन्दुओं ने संसार को ही पूजना शुरू कर दिया। वो जो एक ब्रह्म है, उसको बिलकुल भूल गए। ये जो बाकी सब तत्व थे, जिनकी सनातन धारा में आराधना होती थी; वो तत्व इसलिए थे ताकि वो आपको ब्रह्म की ओर, माने मुक्ति की ओर ले जा सकें। पर मुक्ति को हम बिलकुल भूल गए। हमने अपने सामने जो मूर्ति रख ली, हमने उस मूर्ति को ही भगवान समझ लिया। मूर्ति के सामने मुक्ति को हमने भुला दिया।

जब आपकी निष्ठा बँट जाती है न, तो उसमें दम नहीं रह जाता। ये अच्छे से समझिएगा―ये सूत्र है―जब आपकी निष्ठा चालीस जगह बँट जाती है तो उसमें बहुत दम नहीं रह जाता। आप एक आम हिन्दू का पूजा घर देखें, उसमें चालीस मूर्तियाँ, पोस्टर, छोटा-बड़ा पता नहीं क्या-क्या सब रखा होता है। होता है कि नहीं? निष्ठा बँट गयी। इस बँटी हुई निष्ठा में अब बल नहीं रह जाता। वहाँ से फिर ये प्रश्न आ रहा है कि दुनिया में सबसे ज़्यादा धर्मांतरण हिन्दुओं का ही क्यों हुआ? और आज भी हो रहा है।

मैं इसको इस तरह से रखना चाहूँगा कि दुनिया में सबसे ज़्यादा हिन्दू ही क्यों हैं जो धर्म परिवर्तन करना स्वीकार कर लेते हैं? एक के प्रति आपकी निष्ठा, वफ़ादारी, प्रेम, समर्पण, होना चाहिए। एक के प्रति। बँट गया तो घट गया। बँटा नहीं कि घटा।

इस बँटने के कारण हिंदू बलहीन हो गया। इस बँटने के कारण ऐसा होता है कि दुनियाभर में जितना भी प्रासलिटाइज़ेशन, माने धर्मांतरण का बजट होता है, वो अस्सी-नब्बे प्रतिशत भारत की ओर आता है; बल्कि शायद और ज़्यादा होगा। इस्लाम और ईसाईयत, ये प्रासिलटाइज़िग रिलीजन्स (धर्मों का प्रचार करना) हैं। वहाँ ये बात जायज़ है कि आप दूसरे का धर्म परिवर्तन कराएँ, आप उसे ईसाई या मुसलमान बनाएँ; वहाँ ये बात जायज़ है।

वहाँ ये अधिकार है कि आप जाएँ, दूसरे से बात करो और आप उससे कहें कि ‛चलो तुम कलमा पढ़ो; या कि चलो, चर्च चलो तुम्हारा भी अब बैप्टिज़म (दीक्षा-स्नान) होगा।' और उनको सबको पता है कि अगर किसी का धर्म बदलवा सकते हो तो वो हिन्दू ही है; और कोई तैयार ही नहीं होता। और किसी पर कोशिश करना ही बेकार है, वो अपना धर्म छोड़ने को तैयार नहीं होगा; हिन्दू तैयार हो जाता है। क्योंकि हिन्दू ने एक सत्य, एक ब्रह्म, एक निष्ठा की जगह हज़ार और चीज़ें पकड़ लीं; और उन बातों को बहुत महत्व दे दिया। तो हिन्दू बलहीन हो गया।

और वो जो और सत्तर चीज़ें पकड़ीं, ठीक उन्हीं से जुड़ी हुई चीज़ जाति प्रथा भी है। ये जो हम पचास चीज़ों की उपासना करते हैं, उसी कर्मकाण्ड से जुड़ी हुई चीज़ है, जातिप्रथा। आप जब अपने ही लोगों को नीचा, निम्न, दलित घोषित कर दोगे तो वो क्यों धर्म में रहना चाहेंगे! वो तैयार हो जाते हैं, वो कहते हैं, ‛हम जा रहे हैं हम, हम दूसरा धर्म स्वीकार कर लेंगे; हमें मिल भी क्या रहा है?'

भई, दुनिया के सब धर्म इतना तो करते हैं कि दूसरे धर्मों को नीचा समझते हैं; ये बिलकुल है। आप एक आम मुसलमान के पास जाएँ, उसमें एक आंतरिक श्रेष्ठता का भाव होगा। वो कहेगा, ‛मुस्लिम ऊपर हैं, हिंदू नीचे हैं।' आप एक सिख के पास जाएँ, उसमें भी श्रेष्ठता का भाव होगा वो कहेगा, ‛सिख ऊपर हैं, बाकी सब नीचे हैं।' ईसाई के पास जाएँ, उसमें भी यही भाव होगा कि ‛ईसाई बेहतर होता है, बाकी सब नीचे होते हैं।' हिन्दू अकेले लोग हैं जो कहते हैं, ‛हिन्दुओं के अंदर भी कुछ ऊपर हैं, कुछ नीचे हैं।' वो कहते हैं, ‛ये बात तो बाद की होगी कि हिन्दू ऊपर हैं और बाकी ऊपर हैं कि नीचे हैं? सबसे पहले तो ये समझो कि हिन्दुओं में भी कुछ ऊपर के हिन्दू हैं, कुछ नीचे के हिन्दू हैं।' ये गज़ब कारनामा करके दिखाया है हिन्दुओं ने।

जब तुम अपने ही घर के अंदर अपने ही कुछ भाई-बहनों को नीचे का घोषित कर दोगे तो वो भाई-बहन तुम्हारा घर छोड़ के जाएँगे कि नहीं जाएँगे? फिर तुमको अचरज क्यों होता है? और हमको थोड़ा आत्मचिंतन की ज़रूरत है, हमें बिलकुल ये बात अपनेआप से पूछनी पड़ेगी कि दुनिया में हिंदू ही अकेला व्यक्ति क्यों है जो जल्दी से अपना धर्म त्यागने को तैयार हो जाता है? ये पूछना पड़ेगा।

देखिए, मेरी बात का विरोध आप कई तरह के तर्क देकर कर सकते हैं। आप उदाहरण के लिए तर्क दे सकते हैं कि ‛नहीं, हिन्दू इतनी आसानी से नहीं त्यागता। देखो, उदाहरण के लिए―जब इस्लाम की लहर आयी तो अरब से ले करके सिंध तक सबने इस्लाम स्वीकार कर लिया; पर गंगा की कछार पर आकर इस्लाम की लहर रुक गई; भारत अकेला था जिसने इस्लाम को पूरा नहीं स्वीकारा। तो हम ऐसे नहीं हैं जो धर्म बदल ही देते हैं, हम अड़ते भी हैं।' ये दिल को बहलाने वाली बात है। ये दिल को बहलाने वाली बात है। और अतीत तो छोड़िए, आप आज भी देख लीजिए न, आज भी क्या हो रहा है! आज भी छोड़ने को तैयार हैं।

व्यक्ति कब नहीं छोड़ता धर्म को? समझिए बात को; व्यक्ति तब नहीं छोड़ता है जब प्रेम हो, प्रेम। और प्रेम हज़ार से नहीं हो सकता। जो हज़ार से प्रेम करता हो, उसका प्रेम कैसा होगा? कैसा होगा?

श्रोतागण: झूठा।

आचार्य: कैसा होता है?

श्रोतागण: प्रेम ही नहीं है।

आचार्य: प्रेम ही नहीं है न। प्रेम तो एक से हो सकता है न। हाँ। एकनिष्ठा नहीं है सनातन धारा में, इसलिए सनातन धारा इतनी बलहीन हो गई। एक निष्ठा। सबके अपने-अपने हैं। सबके अपने-अपने हैं। जब अपने-अपने रीति-रिवाज़, अपनी-अपनी मान्यताएँ, अपने-अपने विश्वास और इसको फिर हम बोलते हैं, ‛यही तो हमारी ख़ूबसूरती है, हमारी विविधता।' हम सबकुछ स्वीकार कर लेते हैं, यहाँ सबकुछ चलता है; ‛कोई कौआ की पूजा कर रहा है, वो भी चलता है।' कहते हैं, ‛कौआ ही तो असली है, यही है।' ये सब नहीं चलेगा कौआ पूजन! ये सब ताक़त को कम करने वाली प्रथाएँ हैं।

मन तो वैसे ही बँटा हुआ है, मन में हज़ारों तो पहले से ही हैं। धर्म होता है मन को एक की तरफ़ ले जाने के लिए, अगर धर्म भी आपको एक की जगह अनेकों की तरफ़ ले जा रहा है, तो ऐसा धर्म आपमें बल का संचार नहीं करेगा। बात समझ मे आ रही है?

और समझना, वो जो एक है न, जिसके प्रति आपकी निष्ठा होनी चाहिए; वो ऐसा होना चाहिए कि उससे ऊपर का कुछ हो ही न। बात थोड़ी सी सूक्ष्म है, ध्यान देंगे तो ही समझ मे आएगी। भई अगर मैं कहता हूँ कि एक है मेरा मालिक और बस मैं उस मालिक के आगे झुकता हूँ किसी और के आगे झुकूँगा नहीं। तो फिर मेरा वो मालिक कैसा होना चाहिए? वो मेरा मालिक फिर अव्वलों में अव्वल होना चाहिए, बियॉन्ड द बियॉन्ड (भावातीत) होना चाहिए। ठीक? तभी तो उस मालिक से मुझे ताक़त मिलेगी न।

अब अगर मैंने अपना मालिक ही ऐसा बना लिया, जिसको ले करके सौ कहानियाँ मैंने ही रची हैं; तो उस मालिक को ले करके वाकई मुझमें विश्वास ही कितना आएगा। दिल ही दिल तो मैं जानता हूँ न कि उस मालिक को लेकर के कहानियाँ भी तो मैंने ही बनाई हैं। ऐसे मालिक में ही कितना दम है, जिसकी कहानियाँ मैं ही बनाता हूँ? बोलो जल्दी। इसीलिए वो जो मालिक है, वो जो एक सत्य है, जो ब्रह्म है, उसको इंद्रियतीत होना बहुत ज़रूरी है। ट्रैन्सेन्डेन्टल (अनुभवातीत) होना बहुत ज़रूरी है। वो ऐसा होना चाहिए जिसके बारे में न तुम सोच सको, न कुछ कह सको। वही समस्त उपनिषदों का लक्ष्य है। उसी की बात बार-बार भगवद्गीता में हुई है। वो ऐसा होना चाहिए―जिसकी बात न ज़बान कर सकती हो, आँखें जिसको देख नहीं सकती, कान जिसको सुन नहीं सकते, जिसकी कोई मूर्ति नहीं हो सकती, जिसकी कोई छवि नहीं हो सकती, जो बिलकुल निर्गुण हो, जो एकदम निराकार हो। तभी तो उससे ताक़त आएगी न। क्योंकि जो सगुण है, साकार है, वो तो हमारे ही जैसा है। जो कुछ सगुण, साकार है वो तो मिट्टी से उठा है, और मिट्टी में मिल जाना है; बताओ, उस पर हम कितना भरोसा कर सकते हैं! कर सकते हैं क्या?

जिस किसी के बारे में कोई कथा-कहानी बनाई जा सकती हो वो तो हमारे ही जैसा हो गया न? तो वो जिसके लिए हममें निष्ठा होनी चाहिए वो ऐसा होना चाहिए जिसके बारे में कोई कहानी कही नहीं जा सकती, जो वाणी की पहुँच से आगे का हो; लेकिन देखो हमारी जिनमें निष्ठा है वो सब कौन हैं? हमनें कहानियों में अपनी निष्ठा रख ली है।

हम पौराणिक लोग बन गए हैं। कहानियाँ ही कहानियाँ हैं हमारे पास। ‛फिर फ़लाने भगवान ने ऐसा कहा, फिर वो इसके पास गए, फिर फ़लाने मुनि ने ये करा, तो फ़लानी देवी कुपित हो गईं। फिर ऐसा हुआ, फिर वैसा हुआ। इन कहानियों से बल थोड़ी ही मिलेगा!' इसलिए फिर जब परीक्षा की घड़ी आती है तो हिन्दू अपनेआप को कमज़ोर पाता है;क्योंकि उसके पास बस कहानियाँ हैं।

आपका मालिक वो होना चाहिए जिसके बारे में कोई कहानी कभी कही नहीं जा सकती। वो कहाँ से आया, कहाँ को जाएगा? कुछ कहा नहीं जा सकता। मुझे इतनी तकलीफ़ हुई, अभी शिवरात्रि बीती; उस पर एक सज्जन हैं, वो शिव से अपना बड़ा ताल्लुक बताते हैं, वो बता रहे थे कि ‛शिव के माँ-बाप कौन हैं?' मतलब चोट कितनी लगी है मैं बयान नहीं कर सकता। जो परम है, जो उच्चतम है, जो अनादि है; तुमने उसके भी माँ-बाप की बात कर दी! जिसका माँ-बाप है कोई, वो तो फिर तुम्हारे ही जैसा हो गया न; क्योंकि अगर उसका जन्म हुआ है तो मृत्यु भी होगी। जिसकी मृत्यु हो सकती है वो अनंत कहाँ हुआ! और अगर वो अनन्त नहीं है तो तुम्हें अनन्त बल कैसे देगा!

लेकिन भारतीयों ने ये बड़ी भूल कर दी है। हमनें परम शक्ति को भी अपनी कहानियों का विषय बना लिया और नाचना शुरू कर दिया। हम ख़ूब नाचते हैं। हमें बड़ा मज़ा आता है बताने में कि ‘फिर शिव ने क्या कहा!’ और पौराणिक कहानियाँ भरी हुई हैं इन सब बातों से कि फिर शिव रोने लग गए। हमने अपने आराध्यों को भी बिलकुल अपने जैसा बना डाला और अगर आपका आराध्य आपके जैसा है तो वो आपकी सहायता कैसे करेगा! आपकी सहायता तो वही कर सकता है न जो आपसे कहीं ज़्यादा श्रेष्ठ हो। हमनें अपने आराध्यों को भी बिलकुल अपने जैसा बना दिया।

हमें बड़ा मज़ा आता है अहंकार को तुष्टि मिलती है न, कि देखो वो जो भगवान हैं भगवान भी हमारे ही जैसे हैं। जैसे हमारा परिवार होता है वैसे ही भगवान का परिवार है―पति-पत्नी, दो बच्चे। इससे ये सिद्ध होता है कि मेरी ज़िंदगी ठीक चल रही है, क्योंकि जैसे ये मेरा परिवार चल रहा है वैसे ही भगवान का भी मैं परिवार बना दूँगा।

अगर तुमने अपने भगवान को अपने ही जैसा बना डाला तो मुझे बताओ वो भगवान अब तुमसे श्रेष्ठ कहाँ रहें? वो कैसे तुम्हारी सहायता करेंगे? कितनी कहानियाँ बनती हैं! ‛और फिर उसने उनसे क्या कहा!' हमें इसी में बड़ा मज़ा आता है। हमनें अपने आराध्यों को अपनी गासप (गपशप) का विषय बना दिया है। ‛और फिर धीरे से देवी मुस्कुराईं' तुमने देखा था क्या?

श्रोतागण: हँसते हैं।

आचार्य: ये कैसी बातें कर रहे हो! ये जो कथाएँ होती हैं—भागवत कथा और अन्य कथाएँ जो होती हैं, वहाँ कभी जाके देखना कि कथावाचक क्या कर रहे होते हैं? ‛और तभी फ़लानी गोपी का घूँघट धीरे से सरक गया।' ये क्या कर रहे हो! ये कौन सा रस है और इतना मज़ा आता है महिलाओं को, खड़ी होके नाचना शुरू कर देती हैं, ‘धिन-चक, धिन-चक'। नाचे ही जा रही हैं।

श्रोतागण: हँसते हैं।

आचार्य: ये धर्म है? इससे बल मिलेगा? इस धर्म के भरोसे जीवन की नैया पार लगेगी? गीता से मतलब नहीं, उपनिषद से कोई मतलब नहीं, जो एक सत्य है उसके अनुसंधान से कोई मतलब नहीं; किस्से कहानियाँ, नाच-गाना, नाचो। इस नाच-गाने ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। आप जानते हो ये नाच-गाने की शुरुआत भी कब हुई थी? ये थोड़ा सा मुड़ेगी कहानी। उत्सुकता हो तो ही बताऊँ?

श्रोतागण: जी।

आचार्य: ये सब था नहीं सनातन धर्म में। बारहवीं शताब्दी के आसपास से भारत की दास्ताँ लगभग पूर्ण हो गयी। उसके दो सौ साल पहले से आक्रमण होने शुरू हो गए थे। बारहवीं शताब्दी के आसपास से दिल्ली पर ही बैठ गए आकर के आक्रांता, और आक्रांताओं के पास राजनैतिक कारण थे, आर्थिक कारण थे, लेकिन धार्मिक कारण भी थे। ठीक है? आर्थिक कारण ये थे कि यहाँ का पैसा उन्हें लूटना होता था, राजनैतिक कारण ये थे कि उन्हें अपने क्षेत्रफल का विस्तार करना होता था। लेकिन हम इंकार नहीं कर सकते कि तुर्कों के पास, अरबों के पास, मंगोलों के पास, जिन्होंने बीच-बीच में आक्रमण करें, और मुग़लों के पास, धार्मिक कारण भी थे। तो उन्होंने धार्मिक अत्याचार भी करें।

भारतीय जनमानस को काफ़ी दबाया गया। रीढ़ टूट गयी आम भारतीय की। जब आपकी रीढ़ टूट जाती है न तो आप गीता नहीं पढ़ सकते। क्योंकि गीता तो कहती है, ‛उठो और युद्ध करो।' गीता तो कहती है कि ‛जान भले ही चली जाए अर्जुन उठ और युद्ध कर।'

तो फिर चौदहवें-पंद्रहवीं शताब्दी में एक बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण काम हुआ भारत में; हमने कृष्ण का संबंध गीता से हटा करके नाचने-गाने से जोड़ दिया। क्योंकि गीता को छूना मुश्किल हो गया था। मंगोल बैठे हुए हैं, मुग़ल बैठे हैं, मुसलमान बैठे हैं, गीता पढ़ोगे कैसे? गीता कह रही है, युद्ध करो। युद्ध करोगे तो मारे जाओगे, तो हमने कहा गीता अलग रखो। फिर ज़्यादा महत्व देना शुरू किया भागवत पुराण को; क्योंकि उसमें सुविधा है। वहाँ पर क्या हैं बातें—रासलीला। नाचो-गाओ।

तो एक पूरा कल्ट (पंथ) ही निकल आया जो नाचने-गाने लगा। उसका कारण यही था―हिम्मत की कमी। गीता में कहीं पर है, ‛अर्जुन तू छोड़ न लड़ाई, वड़ाई तू नाच?'

श्रोतागण: हँसते हैं।

आचार्य: गीता बोलती है, ‛अरे! अगर युद्ध भूमि है जीवन तो युद्ध करो न। अगर तुम्हारे देश पर, अगर तुम्हारे धर्म पर आक्रांता चढ़ आए हैं तो युद्ध करोगे न, या नाचोगे?'

लेकिन भक्ति के नाम पर नाचना-गाना शुरू हो गया है हिंदुस्तान में, जबकि भक्ति बिलकुल दूसरी चीज़ है। भक्ति में ये नहीं है कि कृष्ण पुरूष हैं, मैं उनकी स्त्री हूँ, मैं नाचूँगी। ये बिलकुल भी नहीं है। भक्ति के नाम पर लोगों ने ये सुविधा निकाल ली कि अब लड़ना नहीं पड़ेगा। कर्मयोग में क्या करना पड़ता है? कर्म। भक्ति में नहीं करना है, ठीक है; पिटाई हो रही है, होती रहे; हम तो कीर्तन कर रहे हैं अंदर; और फिर नाच लेंगे। श्रोतागण: हँसते हैं।

आचार्य: बाहर पिटाई चल रही है, अंदर कीर्तन चल रहा है। सुविधा है, बराबर की बात। ये पाखण्ड की सुविधा है, ये बड़ी कायर सुविधा है। है या नहीं है?

श्रोतागण: है।

आचार्य: हाँ, और फिर जैसे ही गीता पीछे हुई और पौराणिक कहानियाँ आगे आ गईं, अब उसमें तो चरित्रों की भरमार है। एक के बाद एक चरित्र; ये देवी आ गईं, ये देवता आ गए, ये ऋषि आ गए, फिर उनका ये जन्म हो गया, फिर सात सौ जन्म बाद वो ये बन गए, ये बन गए। कहानियाँ ही कहानियाँ हैं, कहानी ही कहानी है। इन कहानियों से तुम्हें ताक़त थोड़े ही मिलेगी।

आज भी भारत में जो लोग अपनेआप को कृष्ण के अनुयायी बोलते हैं, उन तक में व्यवहारिक रूप से आप अगर देखिए तो गीता का कम महत्व है और भागवत पुराण का ज़्यादा। क्योंकि गीता में मनोरंजन नहीं है। गीता सीधे-सीधे ठोस युद्ध के लिए ललकारती है। ‛खड़े हो जाओ, कोई बेकार की बात नहीं अर्जुन; चुपचाप खड़े हो जाओ और युद्ध करो।'

गीता पढ़ना आम आदमी के लिए बड़ा ख़तरनाक है, उसकी हिम्मत ही नहीं है युद्ध की; वो गीता पढ़के क्या करे? तो फिर लोग जाकर के पौराणिक कहानियों में शरण लेते हैं और वहाँ शरण लेने से न आपमें बोध आता है, न बल। समझ में आ रही है बात? अध्यात्म के नाम पर मनोरंजन बंद करो। अध्यात्म तपस्या है। अध्यात्म का अर्थ है, जीवन को ही अपना कुरुक्षेत्र जानो। कुरुक्षेत्र।

अच्छा सोचिए, अगर हम गीता को महत्व देते होते तो हमारा सबसे बड़ा तीर्थ क्या होता?

श्रोतागण: कुरुक्षेत्र।

अचार्य: बताइए।

श्रोतागण: कुरुक्षेत्र।

अचार्य: मथुरा, वृन्दावन; इन सबसे कहीं ज़्यादा महत्व कुरुक्षेत्र का नहीं होता, अगर वाकई गीता का सम्मान होता! कुरुक्षेत्र जाता है कोई? जहाँ गीता अविर्भूत हुई थी, उस जगह से हमारा कोई लेना ही देना नहीं। हमें चाहिए रास। हमारा ज़्यादा मन लठमार होली में है। कुरुक्षेत्र से कोई मतलब ही नहीं। सबसे ऊँचा तीर्थ होना चाहिए था, है न? जीवन ही रणक्षेत्र है, जीवन ही कुरुक्षेत्र है। सतत संघर्ष ही साधना है, यही है अध्यात्म।

बल बाज़ुओं में नहीं होता। अर्जुन के पास बड़े मज़बूत बाज़ू थे। उन बाज़ुओं से धनुष उठाए नहीं उठ रहा था। धनुष नहीं उठाया जा रहा, पाँव काँप रहे हैं, वो रथ के पीछे जाकर के थप से बैठ गए थे, कोई बल नहीं बचा था। बल आता है कृष्ण की निकटता से, कौन से कृष्ण की निकटता से? गीता वाले कृष्ण की निकटता से। बल आता है जब आप सांख्ययोग पढ़ते हो, जब आप निष्काम कर्मयोग पढ़ते हो, बल वहाँ से उठता है। और जब वैसा बल उठता है तब किसी की हिम्मत नहीं होती कि आकर आपका धर्म परिवर्तन करा दे। तब आप कहते हो जान ले लो। युद्ध है युद्ध में जान तो चली ही जाती है कई बार। तुम जान ले सकते हो हमारी, लेकिन हमें कृष्ण से दूर नहीं कर सकते। अर्जुन अगर मरते भी तो रथ पर ही मरते। कृष्ण के साथ ही मरते।

जो वाकई गीता के साथ है उसका धर्मांतरण नहीं हो सकता। बाकी सब आप नाच-गाना कर रहे हो तो कभी भी आपका शिकार हो सकता है। और हुआ है इतिहास में, आज भी हो रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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