का जाति: । जाति रीति च । न चर्मणो न रक्तस्य न मांसस्य न चास्थिन: । न् जातिरात्मनो जातिर्व्यवहारपरकल्पिता ।।२०।। शरीर (त्वचा, रक्त, हड्डी आदि) की कोई जाति नहीं होती। आत्मा की भी कोई जाति नहीं होती। जाति तो व्यवहार में प्रयुक्त कल्पना मात्र है। ~ निरालंब उपनिषद् (श्लोक १०)
आचार्य प्रशांत: आज जो हम श्लोक लेने जा रहे हैं आरम्भ में ही, उसका बड़ा समसामयिक महत्व है। वास्तव में यह श्लोक जो बात कह रहा है, उसको साफ़-साफ़ समझ लिया जाए तो पूरे विश्व की — विशेषकर भारत की — सामाजिक, राजनैतिक स्थिति बिलकुल पलट जाएगी, सुधर जाएगी। बहुत सारी मान्यताएँ जो आम जनमानस में ही नहीं बल्कि बुद्धिजीवियों में भी प्रचलित हैं, उनका पूरी तरह से खंडन हो जाएगा। इतने श्लोक हैं उपनिषद् में, और वास्तव में श्लोक क्रमांक दस जिस पर अभी हम वार्ता करेंगे, उससे कहीं गहरे, कहीं चमत्कारिक, कहीं ज़्यादा कालातीत भी, दूसरे श्लोक प्रचुरता से मौजूद हैं, उपलब्ध हैं। लेकिन इस श्लोक की सम्प्रत्ति जो प्रासंगिकता है वो बेमेल है। तो रोचक रहेगा, आरम्भ करते हैं।
ऋषि कहते हैं, जाति, चर्म, रक्त, माँस, अस्थियों और आत्मा की नहीं होती। जाति की प्रकल्पना तो केवल व्यवहार निमित्त है। ऋषि कह रहे हैं कि न तो शरीर की जाति है, न आत्मा की जाति है, शरीर प्रकृति है पूरे तरीक़े से। ख़ून और ख़ून में क्या अंतर होता है? कोशिका और कोशिका में क्या अंतर होता है? समझ में आ रही है बात?
आपके शरीर में भी प्राणवायु है, किसी और के भी है; क्या अंतर होता है? रोग सबको एक से होते हैं। दुनिया में आठ अरब लोग हैं लेकिन आठ अरब अलग-अलग दवाइयाँ नहीं हैं। एक रोग की एक दवाई बनती है, उस रोग के रोगी हो सकता है दस करोड़ हों, वो एक दवाई लगभग उन सभी दस करोड़ लोगों को लाभ पहुँचा देती है। कौन-सी जाति?
आपको अगर कोई छोटी-मोटी हो सकता है त्वचा की बीमारी हो, कोई हो सकता है आपको बड़ी बीमारी हो जैसे कैंसर; छोटी-से-छोटी लेकर, बड़ी-से-बड़ी बीमारी तक कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि आप किस जाति से हैं, किस तबके से हैं, किस वर्ण से हैं, किस वर्ग से हैं। शरीर तो देखो एक ही है। इतना ही नहीं है, बहुत सारी बीमारियाँ होती हैं जो मनुष्यों और पशुओं में भी साझी होती हैं। और जैसा कि आपने अनुमान कर ही लिया होगा, उन बीमारियों के लिए पशुओं को भी लगभग वही दवाई दी जाती है जो मनुष्यों को दी जाती है, थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है। अंतर जो ज़्यादा होता भी है वो मात्रा में होता है, तो मात्रा में तो अंतर मनुष्यों में भी होता है। छोटा बच्चा होता है उसको आधी गोली देते हैं, वयस्क को कहते हैं, दो गोली लीजिएगा। लेकिन मूलतः शरीर में ऐसा कुछ नहीं जिससे दो शरीरों के मध्य भेद किया जा सके। बहुत दूरगामी बात है यह, समझिए इसको।
सब शरीर एक से ही हैं, चीज़े अलग-अलग होतीं तो अग्नि से गुज़रने पर उनका उत्पाद भी अलग-अलग होता। पर आग से गुज़ारने पर अगर सब शरीर राख ही हो जाते हैं, आदमी का, औरत का, बच्चे का, बूढ़े का, अमीर का, गरीब का, विद्वान का, अल्पज्ञ का, तो शरीर के बारे में क्या बात पता चली? शरीर की जाति नहीं हो सकती। इसका मतलब जो पैदा होता है उसकी कोई जाति होती नहीं है। यह जो शरीर पैदा हुआ है, उसकी कोई जाति नहीं होती। माने जन्म से कोई जाति हो ही नहीं सकती। ऋषि बहुत साफ़-साफ़ बोल रहे हैं, जन्म से जाति नहीं हो सकती।
और मैं इसीलिए कह रहा था कि इस श्लोक का बहुत ही समसामयिक महत्त्व है क्योंकि हमने जाति को जन्म से ही मिली हुई कोई चीज़ मान रखा है। इतना ही नहीं, हमने कह रखा है कि यह जो जन्म के साथ जाति के निर्धारण की व्यवस्था है, यह धर्मसम्मत है। हम कहते हैं, साहब! यह बात तो हमारे धर्म शास्त्रों ने कही है कि ब्राह्मण घर में ब्राह्मण पैदा होता है, लुहार के घर में लुहार, सुनार के घर में सुनार पैदा होता है। तो मैं बिलकुल साफ़-साफ़, दो-टूक सबसे कहना चाहता हूँ कि वेदान्त ने जाति प्रथा का समर्थन करना तो छोड़िए, जाति को ही अवैध घोषित किया है।
जो लोग सनातन धर्म पर आरोप लगाते हों, या दुखी अनुभव करते हों कि यहाँ तो जातिवाद चलता है, उनको वेदान्त में छाँव मिलेगी, वेदान्त उनका सम्बल बनेगा, वेदान्त उनका गौरव है। होंगीं रूढ़ियाँ, प्रथाएँ, परम्पराएँ या कुछ पुस्तकें पारिधिक क़िस्म की जिनमें जाति प्रथा की बात कर दी गई इत्यादि-इत्यादि। पर सनातन मत के जो केंद्रीय ग्रंथ हैं, वेद और वेदों का भी दार्शनिक मर्म जहाँ संकलित है, उपनिषद, वो बहुत साफ़-साफ़ कहते हैं, और एक बार नहीं दोहरा-दोहरा कर सौ बार कहते हैं, जाति जैसा कुछ नहीं होता, जाति जैसा कुछ नहीं होता।
तो मैं और आगे बढूँ इससे पहले विचारणीय है कि ऋषि को जाति के प्रश्न पर यह बात बोलनी क्यों पड़ी? ऋषि का स्वभाव मौन है, ऋषि मूलतः मौन रहते हैं, वो मात्र कब शब्द उच्चारित करते हैं? जब उनसे कोई सम्यक प्रश्न किया जाए किसी गहरे जिज्ञासु द्वारा। सिर्फ़ तब वो उत्तर देते हैं।
तो ऋषि के सामने जिज्ञासा करी गई है कि भई बताइए जाति क्या है? है न? आरंभिक श्लोक में ही पूछ लिया शिष्य ने कि जाति क्या है? तो ऋषि साफ़-साफ़ समझा देते हैं कि भईया! न देह की जाति है, न आत्मा की जाति है, अब तुम ख़ुद ही सोच लो जाति क्या है। मैं चाहता हूँ कि आप सोचें कि यह प्रश्न किया ही क्यों शिष्य ने? क्योंकि जाति व्यवस्था तब भी बहुत व्यापक रही होगी और जाति को लेकर के जो थोड़े भी समझदार लोग रहे होंगे, जैसे प्रश्न पूछने वाले शिष्य हैं यहाँ पर, उनका माथा थोड़ा ठनकता होगा, उनको बात थोड़ी अखरती होगी। वो कहते होंगे कि यह क्या चीज़ है? क्या यह बात वाकई सत्य सम्मत है, जाति?
एक ओर तो हम कहते हैं, “नास्ति देहम्”, देह नहीं हूँ मैं और दूसरी ओर हम कहते हैं, देह के साथ जाति जुड़ी होती है और जाति असली है। देह को हम मिथ्या कह रहे हैं और देह की जाति को हम वास्तविक मान रहे हैं। तो यह बात तो अगर थोड़ा भी सोचने-समझने वाला व्यक्ति होगा तो उसको अखर ही जाएगी। वो कहेगा, दाल में काला है। इसीलिए यह प्रश्न पूछा गया है ऋषि से। अब आप उस समय पर भी जाकर के, उस समय की जो सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक व्यवस्था है, उसका मन में थोड़ा खाका खींचिये। समाज में उस समय भी जाति व्यवस्था प्रचलित है, नहीं प्रचलित होती तो प्रश्न नहीं आता। समाज में उस समय भी मौजूद है जाति और उपनिषद और ऋषि उस समय भी कह रहे हैं, व्यर्थ है जाति। वही स्थिति आज भी है।
समाज ऋषियों के कहे अनुसार नहीं चलता, ऋषियों के सामने तो समाज एक चुनौती की तरह, एक विपक्षी और विरोधी की तरह खड़ा होता है। समाज अगर ऋषियों के कहे अनुसार ही चल रहा होता तो ऋषियों को समाज की सीमाओं से बाहर जंगलों में क्यों ठिकाना बनाना पड़ता? हम कहते हैं, ‘नहीं, समाज में जो विकृतियाँ हैं, जो मलिनताएँ हैं, वो धर्म ने दी हैं, या ऋषियों ने दी हैं’। जबकि तथ्य इसके बिलकुल विपरीत है भाई!
समाज की मलिनताएँ, आदमी के पाश्विक मन की मलिनताएँ हैं। वो सदा से रही हैं और सदा रहेंगी। प्रत्येक बच्चा अपने साथ बड़ी विकृतियाँ, बड़ी पाश्विक वृत्तियाँ लेकर के पैदा होता है। यही बच्चे बनते हैं समाज। ऋषि तो अपवाद हैं, ऋषि सामाजिक व्यक्ति नहीं हैं। ऋषि तो समाज की मुख्य धारा से कटे हुए एक प्रकाशित, गौरवान्वित अपवाद मात्र हैं।
तो समाज पूरा वही करेगा जो उससे उसकी वृत्तियाँ कराती हैं। और सामाजिक वृत्ति क्या होती हैं? कि साहब हमें अहंकार को बचाना है, और अहंकार बँटवारे पर जीता है। देखो! बाँटोगे नहीं, तो ‘मैं’ कहाँ से आएगा? बच्चा पैदा होते ही पहला बँटवारा कर लेता है। क्या? 'मैं' हूँ और संसार है। यहाँ तक कि अपनी माँ को भी दूसरा ही मानता है। माँ से उसका बड़ा नज़दीकी शारीरिक रिश्ता होता है आरम्भ से ही लेकिन फिर भी दूजेपन की भावना तो जन्म के पहले क्षण से ही होती है। उदाहरण के लिए बच्चे को कभी यह डर नहीं सताएगा कि उसका अपना अँगूठा दूर चला जाएगा, पर माँ दूर चली जाएगी इसका डर उसे लगता है। बात समझ रहे हो? तो बँटवारा, विभाजन हमारे शरीर में समाया होता है, हमारी कोशिकाओं में समाया होता है, वो हमें किन्हीं ग्रंथो ने नहीं सिखा दिया, वो चीज़ हम ले करके पैदा होते हैं।
जबकि आज का फ़लसफ़ा यह चलता है कि देखिए, बच्चा तो मासूम पैदा होता है, उसके बाद उसको जात-पात वग़ैरा तो धर्म सिखा देता है। यह बहुत मूर्खता की बात है, बच्चा मासूम नहीं पैदा होता है। असल में अगर आप बस इस झूठी मान्यता से ऊपर उठ जाएँ, तो आप बहुत सारे भ्रमों से बच जाएँगे। क्या है वो मूल झूठी धारणा? कि बच्चा निर्मल, निर्दोष, मासूम पैदा होता है। नहीं, बच्चा घनघोर रूप से मलिन पैदा होता है, बच्चा बड़ा गड़बड़ पैदा होता है, एकदम पशु की तरह पैदा होता है वो। इसीलिए समझने वालों ने कहा है कि पैदा तो सब शूद्र होते हैं। उन्होंने कहा है कि अगर जाति तुम्हें शरीर को देनी भी है तो जितने भी शरीर आज तक पैदा हुए हैं सबको एक ही जाति देना, शूद्र।
शूद्र से क्या तात्पर्य है? कि चेतना का जो निम्नतम स्तर हो सकता है, वो ले करके बच्चा पैदा होता है। सारे बच्चे, फ़र्क नहीं पड़ता किसके घर में पैदा हुआ है, सब बच्चे, बिना अपवाद के। अब मनुष्य में और पशु के बच्चे में अंतर यह होता है कि पशु का बच्चा जैसा पैदा होता है, वैसा ही रह जाता है ज़िंदगी में। मनुष्य के बच्चे के साथ संभावना यह होती है कि उसको शिक्षा वग़ैरा मिले तो वो वैसा न रह जाए जैसा वो पैदा हुआ था। समझ रहे हो?
वो जो शिक्षा है, वो जो चेतना को ऊपर उठाती है, वो लेने को सब तैयार नहीं होते क्योंकि बड़ी अखरती है, उसकी क़ीमत अदा करनी पड़ती है। इसीलिए मैंने कहा कि ऋषि अपवाद जैसे होते हैं। हज़ारों में, लाखों में कोई एक ऋषि हो पाता है। क्योंकि आप जिस गंदे आंतरिक बोझ के साथ पैदा हुए हो उसकी सफ़ाई करने की, उसको त्यागने की, उससे मुक्ति पाने की क़ीमत हर आदमी देना ही नहीं चाहता। क्यों नहीं देना चाहता? क्योंकि उसकी वृत्ति उसे अनुमति नहीं देती। वृत्ति से मुक्ति की अनुमति तुम्हें कौन नहीं देता? स्वयं वृत्ति ही। वृत्ति कहती है, मैं बहुत मूल्यवान हूँ। तो वृत्ति मूल्यवान है, यह भी तुम्हें किसने बता दिया? वृत्ति ने ही बता दिया। बड़ा ज़बरदस्त फंदा है, काटना मुश्किल हो जाता है।
तो ऋषि अपवाद होते हैं, सैकड़ो-लाखों में एक। तो यह जो बँटवारे की बात है, यह हर तन में जन्मगत होती है। उसे किसी-न-किसी तरीक़े से बाँटना है। अब बाँटने का मतलब होता है कि कुछ अच्छा होगा, कुछ बुरा होगा। आप कभी भी दो चीज़ो को बाँटते हो तो यह थोड़ी कहते हो कि दोनों बिलकुल एक बराबर हैं। बँटवारे का तो मतलब ही है उसमें कुछ ऊँचा है, कुछ नीचा, कुछ पसंद है, कुछ नापसंद है। कुछ कहेंगे, अच्छा है, बुरा है, उचित है, अनुचित है, यही सब तो करोगे। तो बँटवारे का मतलब ही है कि उसमें फिर तुम स्तर निर्धारित करोगे। एक हैरार्की की स्थापना करोगे, तल तय करोगे।
फिर से उसी छोटे बच्चे के पास जाओ, अभी मेरे पास मिलने के लिए आये, उनकी छोटी बेटी, चार-पाँच दिन पहले की बात है, एकदम छोटी है अभी वो, स्कूल भी नहीं जाती और बोल रहे हैं कि यह मीठा पसंद नहीं करती। तय कर लिया न उसने, नमकीन ऊपर मीठा नीचे। फिर फलों की बारी आयी तो बोले, फलों में सिर्फ़ केला पसंद करती है। तय कर लिया न उसने, बँटवारा कर दिया कि नहीं कर दिया? उसने भी एक क्रम निर्धारित कर दिया कि नहीं कर दिया? एक वरीयता सूची बनाई कि नहीं बनाई? कुछ ऊपर है कुछ नीचे, अहंकार इसी में जीता है। अगर सबकुछ एक बराबर है, तो ‘मैं’ टिकेगा कहाँ? अगर सबकुछ एक बराबर है, तो ‘मैं’ चुनाव कैसे करेगा? चुनाव करने के लिए कुछ अच्छा कुछ बुरा, कुछ करणीय कुछ अकरणीय होना चाहिए। कुछ वरणीय, कुछ अवरणीय होना चाहिए। तो बँटवारे के साथ चलती है वरीयता, पहले बाँटो और फिर कहो, यह अच्छा यह बुरा। यह अहंकार का काम है, वो विविधताएँ देखता है। समझ में आ रही है बात?
अब दिख रहा है जातिप्रथा क्या है? तुम्हें यह करना-ही-करना है, चाहे जिस रूप में करो, चाहे जिस नाम से करो, चाहे जिस आधार पर करो। यह तुमको शास्त्रों ने नहीं सिखाया, यह तुमको तुम्हारे शरीर ने सिखाया है। समझ में आ रही है बात? और शरीर की बँटवारे की वृत्ति इतनी प्रबल होती है कि वो अपनी वृत्ति को वैध ठहराने के लिए, जायज़ बताने के लिए, धर्म ग्रंथों का भी सहारा ले लेता है। या इस तरीक़े के ग्रंथों की रचना भी कर लेता है जिसमें जाति प्रथा इत्यादि को वैध बताया गया हो। समझ में आ रही है बात? इसीलिए सिर्फ़ वेदों को अपौरुषेय कहा गया है; स्मृतियों इत्यादि को नहीं। अब मनुस्मृति है, वह अपौरुषेय नहीं है। कोई नहीं कहेगा कि वह अपौरुषेय है। अपौरुषेय नहीं है तो फिर वो कहाँ से आयीं? माने आदमी से आयी न, मनुष्य के मन से आयी और मनुष्य का मन तो जैसा है वैसा है।
वैदिक नहीं है जाति व्यवस्था, अच्छे से समझ लीजिए। वैदिक यदि होती जाति व्यवस्था तो वेदों के ही जो अमृत हैं उपनिषद्, वो जाति व्यवस्था का बार-बार इतना ज़ोरदार, प्रबल खंडन नहीं करते। और कोई नहीं है जो उपनिषदों के पास आकर के कहे कि यहाँ भी जाति मौजूद है। नहीं, बिलकुल नहीं मौजूद है। समझ में आ रही है बात?
आप पूरी बात समझ पा रहे हैं, कैसे जाति का खेल चलता है? मुझे अपनी शारीरिक वृत्तियों के चलते किसी-न-किसी तरीक़े से अपनेआप को ऊपर रखना है, किसी को नीचे रखना है। मुझे कुछ ऐसा है जो अपना मानना है, कुछ मुझे पराया मानना है। तो मैं कुछ सीमाएँ खींचूँगा, मैं बँटवारा करुँगा। और उस बँटवारे को उचित ठहराने के लिए, वैध ठहराने के लिए मैं कुछ ऐसी पुस्तकों की भी रचना कर लूँगा जिसमें इस तरीक़े की बातें हों। वो पुस्तकें आसमान से नहीं उतरी, वो पुस्तकें मैंने ही लिखीं हैं और मैंने लिखीं ही इसलिए हैं ताकि मैं वो काम कर सकूँ जो मुझे करना है।
भई! भारत का संविधान है, उसका जो आमुखी है, जो प्रियम्बल ही है, वही कहता है, ”वी द पीपल ऑफ़ इंडिया गिफ्ट टू अवरसेल्व्ज़ दिस कॉन्स्टिट्यूशन।" हम भारत के निवासी यह संविधान स्वयं को अर्पित करते हैं। बड़ी ईमानदारी की बात है, कहीं आसमान से नहीं उतरा है संविधान, हम ही ने बनाया है और हम बनाकर के ख़ुद को अर्पित करते हैं। ऐसी ही होती हैं मानव रचित सब किताबें और मानव रचित सब सामाजिक व्यवस्थाएँ और संविधान, हम ही ने बनाएँ हैं। हम ही ने बनाए हैं, माने? यह जो आमजन घूम रहे हैं, उन्होंने ही बनाए हैं। ऋषियों ने नहीं बना दिये, ऋषियों ने जो ग्रंथ बनाए वो बिलकुल दूसरे हैं। बार-बार कह रहा हूँ, उन्हें उपनिषद् कहते हैं। और उपनिषद् क्या कह रहे हैं वो बात आपके सामने है। उपनिषद् तो खिल्ली उड़ा रहे हैं जाति व्यवस्था की। कह रहे हैं, ‘किसकी जाति?’
ऋषियों का यही तरीक़ा है। आप उनसे जाकर पूछेंगे कि महाराज! जाति में कुछ वैधता है या नहीं? तो कहेंगे जाति, पर किसकी? पहले स्पष्ट तो कर दो, प्लीज़ स्पेसिफाई किसकी? बाल की (हाथ से अपने बाल छूते हुए)?
नहीं, नहीं, इंसान की बताइए न ऋषिवर? जाति ठीक होती है कि नहीं?
नहीं, इंसान माने क्या? पहले इंसान माने क्या? यह बताओ कि नाक, उसकी पुतली, उसकी ज़बान, उसकी खाल, उसके कपड़े।
नहीं नहीं नहीं, इनकी तो कोई जाति नहीं।
तो इंसान माने क्या?
नहीं, इंसान माने जो वो अंदर से होता है।
अच्छा! अंदर से माने इंसान की सच्चाई की बात कर रहे हो, आत्मा, आत्मा?
नहीं आत्मा भी नहीं।
तो इंसान माने क्या? किसकी जाति की बात कर रहे हो?
बस बात साफ़ हो गई। उन्होंने एक बार यह पूछ लिया न कि जाति पर किसकी? बात वहीं साफ़ हो जाती है। हाड-माँस की जाति नहीं हो सकती। और कह रहे हैं, आत्मा की भी जाति नहीं हो सकती। आत्मा तो एक है, जाति के लिए तो विभाजन चाहिए। आत्मा तो निर्गुण है, जाति के लिए कोई गुण चाहिए। आत्मा अजात है, जाति के लिए जन्म चाहिए। समझ में आ रही है बात?
ऋषियों ने तो कोशिश करी है जाति व्यवस्था को हटाने की। उलटी गंगा मत बहाओ, उलटे आरोप मत लगाओ, यह मत कहो कि ऋषियों ने जाति व्यवस्था बढ़ाई, फैलाई। यहाँ देख रहे हो न ऋषि क्या कर रहे हैं? समाज से उठकर आया है शिष्य और शिष्य पूछ रहा है जाति क्या है? माने, समाज में क्या प्रचलित है? जाति। समाज में है जाति और ऋषि कह रहे हैं, जाति व्यर्थ है। ऋषि तो जाति का उपहास कर रहे हैं।
यह तब भी हो रहा था, यह आज भी हो रहा है। जाति सामाजिक है, धार्मिक नहीं। अच्छे से समझो! और सामाजिक क्यों है? यह जाकर तुम समाज के ठेकेदारों से पूछो। ऋषियों से क्या सवाल-जवाब कर रहे हो कि अरे! अरे! तुम लोगों ने जाति फैलाई। उन्होंने तो यथाशक्ति प्रयत्न करा है जाति जैसी मूर्खतापूर्ण चीजों को हटाने का। उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे।
तुम सामाजिक लोग जो समाज में रहते हो, समाज के नियम-क़ायदों से चलते हो इत्यादि-इत्यादि। जाति वग़ैरा तुम्हारी दुनियादारी की बात है भई, तुम्हें सौ तरीक़े से बँटवारे करने होते हैं, यह मेरा घर, यह पड़ोसी का घर। फ़लाना चचा मुझे पसंद है, फ़लना ताऊ मुझे नापसंद है। इस रंग की धोती पहनता हूँ, उस रंग की धोती ठीक नहीं है। हफ़्ते में फ़लाने दिन मैं बाल नहीं कटाता, हफ़्ते में फ़लाने दिन मैं खाना नहीं खाता, यह सब तरीक़े के विभाजन तुम करते हो, यह ऋषियों ने थोड़ी करे हैं। जैसे तुम हज़ार तरीक़े से विभाजन करते हो, वैसे ही तुम विभाजन आदमी और आदमी में भी कर लेते हो। कहते हो, यह ऊँचा है, यह नीचा है। भारत में ही नहीं, दुनियाभर में ऐसे ही विभाजन हुए हैं, एक काला एक गोरा है।
तुम मुझे कोई धार्मिक धारा बता दो जिसके भीतर विभाजन न हों? ईसाइयत ले लो, इस्लाम ले लो, यहाँ तक कि तुम उन धाराओं को भी ले लो जिनका जन्म ही इस आधार पर हुआ था कि यहाँ कोई भेद-भाव नहीं होगा। वहाँ भी भेद-भाव है, इसलिए नहीं कि उन धर्मों ने, उन सम्प्रदायों ने भेद-भाव सिखाया है। वहाँ भेद-भाव इसलिए है क्योंकि कितना भी सिखा लो, आदमी का बच्चा रहता तो जानवर-का-जानवर है।
यह ऐसी सी बात है कि मरीज़ की हालत बहुत ख़राब है, बहुत ख़राब है, और तुम उसे लेकर के आओ चिकित्सक के पास और चिकित्सक भरपूर उसके साथ कोशिश कर रहा है, कर रहा है, कर रहा है, लेकिन मरीज़ है बिलकुल दुर्बुद्धि और हठी। चिकित्सक के बताए अनुसार चलता भी नहीं है। ऋषियों की सीख पर यह समाज चलता है क्या? तो चिकित्सक जो बात बता रहा है, उसको मरीज़ मान भी नहीं रहा है। नतीजा? उसका रोग पहले की तरह बना हुआ है या ठीक होता भी है तो थोड़ा-बहुत। और तुम यह सब देखो और जा करके चिकित्सक का सर फोड़ दो। कहो कि बहुत बेकार है यह, इसी ने तो उसको रोग लगा दिया, इसकी दवाई से ही उसको रोग लग गया है।
तुम पागल हो बिलकुल! कैसी बातें कर रहे हो? वो जो मरीज़ है, वो पैदाइशी रोगी है, उसके शरीर की हर कोशिका में रुग्णता है। उसको किसी ने बीमार नहीं किया है, उसको जन्म ने बीमार किया है। हर इंसान आंतरिक रूप से बीमार ही पैदा होता है। किसी को दोष मत देना कि किसी बच्चे में तुम हिंसा देखो तो, किसी ने उसमें हिंसा स्थापित नहीं कर दी है। और छोटे बच्चे बहुत हिंसक होते हैं। बाल नोंचना, घूँसे मारना, छोटे-छोटे नीचे जानवर जा रहे हों कीड़े-मकोड़े, प्राणियों को उनको काट देना, कुछ भी कर देना। वो तो उनके पास शारीरिक सामर्थ्य नहीं होती, नहीं तो यह जो नन्हें बालक होते हैं, यह बहुत कुछ ऊट-पटाँग कर जाएँ। ईर्ष्या छोटे बच्चों में नहीं होती? बिलकुल छोटे बच्चों में? भरपूर होती है। डर नहीं होता वहाँ पर?
और तो और अगर तुम मनोविज्ञान पढ़ोगे तो पाओगे कि छोटे-से-छोटे बच्चों में कामवासना तक होती है, बीज रूप में मौजूद। कई बार अपनी कामवासना को खुलेआम प्रदर्शित भी कर देते हैं। आपको मेरी बात अटपटी लगेगी, लेकिन एकदम ही जो छोटे बालक होते हैं, वो तक हस्तमैथुन की कोशिश करते हैं, एकदम ही छोटे होते हैं जो। नहीं, उनके प्रयास से कुछ होता नहीं, पर यह वृत्ति जन्मगत होती है। और मेरी बात अगर आपको पच ना रही हो, तो पढ़ लें, या गूगल कर लें, या जाकर के किसी मनोवैज्ञानिक से बात कर लें। वो जो ज़रा सा बच्चा है, वो अपने साथ सारे दोष, सारे दुर्गुण लेकर पैदा हुआ है। कहाँ से आपने राग अलापना शुरू कर दिया कि बच्चे की तरह मासूम; कौन सी मासूमियत?
मासूमियत तो बड़ी साधना के बाद किसी ऋषि में मिलती है। बच्चे में थोड़ी मासूमियत होगी कि पैदा भर होने से मासूम हो गया। मासूम होना बहुत बड़ी नियामत होती है। निर्दोषता को उपलब्ध हो जाना निर्वाण से कम नहीं। ऐसे ही आप निर्दोष हो जाएँगे कि पैदा हुए तो निर्दोष हो गए? कहते हैं, यह तो निर्दोष है, निर्मल, मासूम बच्चा है, निष्कपट, यह तो कुछ जानता ही नहींl तो फिर तो वो साक्षात् बुद्ध ही होगा अगर एकदम ही वो निरंजन, निष्कपट हो गया है तो। ऐसा नहीं है। बात समझ में आ रही है?
तो हम पैदाइशी बीमार हैं। ऋषि हमारे चिकित्सक हैं। लेकिन हम ऐसे मूर्ख और हेय कोटि के मरीज़ होते हैं कि ऋषि कितनी भी कोशिश कर लें, हम सुधरते नहीं। और उस पर तुर्रा यह कि जब हम सुधरते नहीं तो हम आरोप लगाते हैं कि ऋषि ने हमें बीमार कर दिया। जाति व्यवस्था ऋषियों की ही तो फैलाई हुई है। यह आरोप देखो! इस आरोप में मूर्खता तो है ही — मुझे बड़ा दुख होता है कि — कृतघ्नता कितनी है।
कृतघ्नता समझते हो? अहसान-फ़रामोशी। उन्होंने तुम्हें क्या दिया और तुम उन पर क्या लांछन लगा रहे हो। और जो यह लांछन है, अब बड़ा समाज स्वीकृत हो चुका है। किसी ऋषि का कोई चित्र हो, तो आजकल के उदारमना बुद्धिजीवी जितने हैं, वो उसको देखकर कहेंगे, यही तो है, यही तो है, इसी ने तो जाति व्यवस्था शुरू कर रखी है, यही तो, यही तो है। उसने नहीं शुरू कर रखी है, तुमने शुरू कर रखी है। उन्होंने तो जाति हटाने की पूरी कोशिश की थी पर तुम मानों तब न।
जो तुम्हें बचाने आया था, तुम उसी का हाथ काट रहे हो। जो तुम्हारे ऊपर का और अंदर का मल साफ़ करने आया था, तुम उसी के ऊपर कीचड़ उछाल रहे हो। तुमको उपनिषदों और मनुस्मृति में अंतर नहीं समझ में आता। कुछ समझ में आ रही है बात?
साफ़ कह रहे हैं कि जाति की प्रकल्पना तो केवल व्यवहार के निमित्त है। यह तुम्हारा सामाजिक व्यवहार चलता है, इसमें तुमने जाति बैठा रखी है, नहीं तो जाति की बात बिलकुल प्रपंच है, कुछ नहीं है। एकदम मिथ्या, मानसिक, क्योंकि शरीर की नहीं जाति, आत्मा की नहीं जाति, ले-देकर के जाति का खिलौना खड़ा किसने करा है? यह बखेड़ा पूरा आया कहाँ से? मन से। तो मानसिक है, माने काल्पनिक है।
तुम्हारी सोच में है जात; न शरीर में है, न आत्मा में है न प्रकृति में है, न सत्य में है, विचार मात्र में है।
प्रश्नकर्ता: भगवानश्री प्रणाम, हम लोग यह भी सीखे हैं कि मन भी शरीर ही है। शरीर और मन एक ही चीज़ हैं तो जब जाति शरीर की नहीं और सत्य यह है नहीं, तो फिर यह मन की कहाँ से आ गई? मन भी तो शरीर ही है?
आचार्य: नहीं, मन शरीर से उठने वाली वृत्तियों का आरोपण है आत्मा पर। मन क्या है? अगर आप शरीर मात्र को लें, तो वो पदार्थ है। उसमें कोई चेतना होती नहीं, मन में चेतना कहाँ से आ गई?
शारीरिक वृत्तियाँ जब आत्मा को ढक लेती हैं, उस चीज़ को मन कहते हैं। आत्मा है विशुद्ध चेतना, शरीर है विशुद्ध पदार्थ, तो मन क्या चीज़ हुई फिर? कि यह जो पदार्थ है, यह जब चेतना को संक्रमित कर देता है, चेतना पर स्वयं को आरोपित कर देता है, सुपर इम्पोज कर देता है, उसको मन कहते हैं। बात समझ रहे हैं?
और यही जो मन है, यही सबसे मिथ्या चीज़ है। क्योंकि आप देख ही नहीं पा रहे हो — मन होकर के — कि आत्मा और शरीर एकदम पृथक हैं। मन क्या करता है? जो दो अलग-अलग हैं, आत्मा और शरीर, उनको एक बना देता है। ठीक है न? जब वो उनको को एक बना देता है, तो मन के अनुसार शरीर ही आत्मा हो जाता है। क्योंकि दोनों को तो उसने एक बना दिया न, और फिर शरीर ही क्या हो जाता है? सत्य हो जाता है। शरीर यदि आत्मा है तो शरीर सत्य है। समझ रहे हैं?
तो जहाँ तक पदार्थ की बात है, उसकी कोई जाति नहीं होती। लेकिन वही पदार्थ जब सत्य पर चढ़ बैठता है तो तमाम तरीक़े के विचित्र खेल खेलता है, अर्धविक्षिप्त चेतना बनकर। न तो शुद्ध पदार्थ की कोई जाति है, न शुद्ध चेतना की, माने आत्मा की कोई जाति है। पर यह दोनों जब मिल बैठें हैं जिसको माया कहते हैं — दो ऐसों को मिला देना जिनका कोई मेल हो नहीं सकता — यह दोनों जब मिल बैठें हैं तो मन का निर्माण होता है। तो इस तरह से मन मात्र शरीर नहीं है, मन शरीर मात्र नहीं है। मन यदि शरीर मात्र होता तो मुर्दे में भी मन होता। मन यदि शरीर मात्र होता तो आपके शरीर में नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा बस कार्बन है, आक्सीजन है, नाइट्रोजन है, यह तीन तत्त्व हैं। इन तीनों को आप ले लेते और शरीर में जिस अनुपात में यह मौजूद हैं, उसी अनुपात में मिला देते तो भी चेतना आ जाती। नहीं आती न? बात समझ रहे हैं?
तो शरीर से ही मन नहीं हो जाता है। शरीर और आत्मा के मध्य जब एक विचित्र सेतु बन जाता है, उसको मन कहते हैं। वो सेतु करता क्या है? वो आत्मा को शरीर और शरीर को आत्मा बना देता है। माने उसके लिए जो सत्य है, वो संसार हो जाता है। पदार्थ ही उसका सत्य हो जाता है। शरीर माने पदार्थ, आत्मा माने सत्य, दोनों को अगर एक बना दिया तो पदार्थ ही क्या हो गया? सत्य हो गया। तो शरीर की कोई जाति नहीं होगी, आत्मा की भी कोई जाति नहीं होगी लेकिन यह जो बीच में घपला हो जाता है, यह जाति पैदा कर देता है। समझ में आ रही है बात?
कार्बन, अक्सीजन, नाइट्रोजन यह जो आपका शरीर है, इसकी कोई जाति नहीं होने वाली। न यह जो आपके शरीर में अणु-परमाणु हैं, यह कूदकर के आएँगे कहने, जाति! जाति! आपकी चेतना प्रसुप्त हो, माने मन सोया पड़ा हो तो क्या आपका शरीर याद रखता है? आप अपनेआप को कुछ मानते होंगे, मान लीजिए आप अपनेआप को ब्राह्मण मानते हैं, जब मन सोया पड़ा है तब भी क्या आप ब्राह्मण होते हैं? पर शरीर तो होता है न, शरीर तो होता है। तो पहली बात तो शरीर और मन बिलकुल एक नहीं होते, क्योंकि शरीर है और मन सोया पड़ा है। जब मन सोया पड़ा है तो शरीर की जाति बचती है क्या?
तो दो बातें। पहली, मन और शरीर एक ही नहीं हैं, शरीर आपका जैसा है ऐसा रहते हुए भी मन बिलकुल बदला जा सकता है। शरीर आपका जैसा है, ऐसा रहते हुए भी मन बिलकुल बदला जा सकता है और मन तो बदलता ही रहता है। “बहुतक रंग हैं, पल-पल बदले सोय। ” क्या शरीर भी बदल रहा है साथ में? तो मन शरीर से भिन्न है, और यह जो भिन्नता है यही जाति की कल्पना करे बैठे है। मन न हो तो शरीर कभी उठकर नहीं कहने वाला कि मेरी जाति है।
जाति से फिर मुक्त कौन होता है? अच्छे से समझेंगे! जाति से दो ही हैं जो मुक्त हो सकते हैं। एक वो जो पूरे तरीक़े से प्रकृतिस्थ हो जाएँ, उनके लिए अब जाति जैसी कोई चीज़ नहीं रहेगी। चेतनाशून्य ही हो जाएँ बिलकुल, कह लीजिए जैसे करीब-करीब बेहोश आदमी, उसके लिए कोई जाति नहीं बचेगी। चेतना को बिलकुल गिरा दो, कोई जाति नहीं बचेगी। बेहोश हो गए।
दूसरा उदाहरण देता हूँ। पंडित जी दिन में छाया से भी बचकर रहते थे कुछ तथाकथित निचली जाति के लोगों की। एक दिन, आधी रात में पाया गया कि पंडित जी उन्हीं तथाकथित निचली जाति के लोगों के साथ नशे में धुत्त हैं। नशे के जो यार होते हैं, उनके बीच जात-पात चलती है क्या? अपनी चेतना को आप खूब गिरा दीजिए; जाति हट जाएगी। आप उन कामों में लग जाइए जिनमें चेतना अपने न्यूनतम स्तर पर रहती है, निम्नतम स्तर पर; जाति हट जाएगी। जो व्यक्ति वेश्यालय जा रहा है, वो वेश्या से उसकी जाति पूछकर के सम्भोग करता है? घटिया कामों में आप उतर आइए, जाति बिलकुल मिट जाएगी। हाँ, उसके बाद वो सुबह-सुबह जाएगा, पवित्र जल में स्नान करेगा और सब आते-जातों से पूछेगा — मैं थोड़ा अतिश्योक्ति कर रहा हूँ, पर बात समझिएगा — सब आते-जातों से जाति वग़ैरा पूछेगा और हो सकता है कि वेश्या कि छाया से भी बचकर चले कि अरे! अरे! यह तो गर्हित स्त्री है। और रात में उसी गर्हित स्त्री का थूक चाट रहा था। घटिया कामों में लिप्त हो जाओ, जाति मिट जाएगी।
खेद की बात यह है कि आधुनिक लिबरल समाज ने जाति को मिटाने का यही तरीक़ा निकाला है। सबको चेतना के सबसे निचले स्तर पर गिरा दो, जाति मिट जाएगी। और जाति मिटाने का दूसरा तरीक़ा उपनिषदों का है, सबको चेतना के ऊँचे और ऊँचे स्तरों पर ले जाओ, वहाँ भी जाति मिट जाएगी, जो काम ऋषि करते हैं। अब आपको तय करना है कि जाति कैसे मिटानी है।
सबमें कामवासना बुरी तरह भड़का दीजिए और शहर भर में तमाम अलग-अलग नामों से, अलग-अलग बहानों से, तरह-तरह के वेश्यालय खड़ा कर दीजिए, जाति मिट जाएगी। आपको बस यह करना है कि शहर के सब जवान लोगों में कुछ करके लगातार आप कामवासना भड़काये रहें। और आपको यह करना है कि वेश्यालय को वेश्यालय न बोलें, उसे कुछ ओर बोल दें। आप उसे थिएटर बोल सकते हैं या कुछ और बोल सकते हैं, जाति मिट जाएगी। कोई एक-दूसरे से नहीं पूछेगा कि तुम किस जाति के हो।
और जाति को मिटाने का एक और तरीक़ा है जो थोड़ा कठिन है इसीलिए लोग उसको आज़माते नहीं। वो यही है कि आदमी को ऐसी शिक्षा मिले, ऐसा ज्ञान मिले कि उसका मन साफ़ हो, उसकी समझ में गहराई आये, उसकी चेतना ऊँचाई पाये, वो भी जाति का ख़्याल नहीं करेगा।
सिगरेट, हुक्का यह सब जब चल रहा होता है, तो आप देखते हो न, एक ने क़श मारा और वो दूसरे को थमा देता है। कौन उस वक़्त सोच रहा है कि किसके होठों से उठकर सिगरेट मेरे होठों तक आई है? हाँ, आप सिगरेट के साथ कुछ खा-पी रहें हैं तो सबके चम्मच अलग-अलग होंगे। यह बात बहुत अजीब है। चम्मच अलग हैं, सिगरेट एक है, यह कैसे हुआ?
प्र: भगवानश्री, एक संदेह और है कि त्रिगुणात्मक प्रकृति है — तीन गुण वाली, सत्व, रज, तम वाली — तो उस आधार पर भी कभी-कभी लिंक कर देते हैं जाति को कि जो सत्व वाला है वो ब्राह्मण?
आचार्य: वो ठीक है पर जिनका जन्म हो रहा है, उनमें कौनसा भेद है? आप अगर यह भी कहना चाहते हो कि कोई बच्चा पैदा होता है तो वो ज़्यादा सतोगुणी है, कोई पैदा होता है, ज़्यादा तमोगुणी है। ठीक है। तो फिर तो उसमें भी आपके लिए जाति का विभाजन करना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। आप क्या कहोगे कि दुनियाभर में जितने तमोगुणी लोग हैं, वो सब एक जाति के हैं। दूसरे जो हैं रजोगुणी, वो एक जाति के हैं। सतोगुणी तीसरी जाति के हैं। तीन ही जातियाँ फिर चलनी चाहिए दुनिया में। और यह तीन जातियाँ आप चलाओगे, तो भी मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि जो आज तमोगुणी है, ज़रूरी नहीं है कि कल भी रहे। इतना ही नहीं हो सकता है कि वो तमोगुणी से उठकर के सात्विक हो जाए, यह तक हो सकता है कि वो त्रिगुणातीत चला जाए। कौन-सी जाति?
अगर आप यह मान भी लो कि प्रकृति में तीन गुण होते हैं तो इन तीन गुणों के आधार पर तीन विभाजन कर दिये जाएँ। तो भी यह तीन विभाजन स्थायी नहीं हो सकते और अध्यात्म तो करता ही यही है कि तुम प्रकृति के जिस भी गुण से आबद्ध हो, तुम्हें उससे छुटकारा दिला दे। तो अध्यात्म का तो काम है आपकी जाति को नष्ट कर देना। आप अगर कहोगे कि आपकी जाति है रजोगुणी, तो अध्यात्म आपकी जाति को नष्ट कर देगा। और वैसे भी जिस तरह से जाति प्रथा चलती है, उसमें यह थोड़ी ही देखा जाता है कि कौन किस गुण के आधिक्य के साथ पैदा हुआ है। उसमें तो यह देखा जाता है कि कौन किस घर में पैदा हुआ है। घर के साथ कोई जाति इत्यादि नहीं चल सकती।
आदमी और आदमी में देखिए फ़र्क अगर करना ही है तो सिर्फ़ एक आधार पर हो सकता है कि किसकी चेतना का तल कितना है। और यह अंतर करना वैध होगा, जायज़ होगा, न्यायसंगत होगा। क्यों? क्योंकि अपनी चेतना का निर्धारण करने की शक्ति और विकल्प आपको उपलब्ध है। यह कोई जन्मगत, जाति जैसी बात नहीं है कि मैं क्या करुँ मेरा घर ही अगर फ़लाने परिवार में हो गया, मैं क्या कर सकता हूँ?
आप अगर पच्चीस वर्षीय हैं, या पैंतीस या पैंतालिस वर्षीय हैं और आपकी चेतना बड़े निचले तल की है, आपकी सोच में कोई गहराई नहीं है, आपकी समझ में कोई पैनापन नहीं है, तो आप यह नहीं कह सकते कि आप क्या करें, आपकी तो पैदाइश ही ग़लत हुई है या परवरिश ही ग़लत हुई है। आपके पास सदा चुनाव का विकल्प था, आपमें सामर्थ्य था कि जिंदगी जैसी भी है उसको और गहराई से देखें, सोचें-समझें, आपने नहीं किया। तो बस एक वही आधार है, जिस आधार पर आप किसी मनुष्य को श्रेष्ठ कह सकते हो और किसी मनुष्य को हीन कह सकते हो।
मैं फिर कह रहा हूँ, कुछ मनुष्य श्रेष्ठ होते हैं, कुछ मनुष्य हीन होते हैं लेकिन वो श्रेष्ठता और वो हीनता जन्म से नहीं होती। वो आपके अपने चुनावों और कर्मों से होती है। आपने क्या चुना, आप कैसे जिए, इससे निर्धारित होता है कि आप कितने ऊँचे आदमी कहलाने योग्य हो। और वो जो श्रेष्ठता है, और हीनता है, वो जीवन में कभी भी पाई जा सकती है और गँवाई भी जा सकती है। जाति की तरह नहीं है कि एक बार ठप्पा लग गया तो लग गया। आप पैंतालिस की उम्र में भी अगर संकल्प करो कि आपको एक बेहतर व्यक्ति बनना है तो आपको मौका उपलब्ध है। आपमें बस कुछ ऊँचा होना तो चाहिए, मौका उपलब्ध है। जीवन किसी के साथ यह अन्याय नहीं करता।
देखिए, हो सकता है आर्थिक तरक्की के रास्ते आपको उपलब्ध न हों, हो सकता है राजनैतिक सत्ता के रास्ते आपको उपलब्ध न हों, लेकिन आंतरिक तरक्की का रास्ता प्रत्येक व्यक्ति को, प्रत्येक क्षण पर उपलब्ध होता है। वो आपसे कोई नहीं छीन सकता, यह इंसान की सबसे बड़ी ताक़त है।
आपसे सबकुछ छीना जा सकता है लेकिन आपसे यह ताक़त नहीं छीनी जा सकती कि आप समझ जाएँ कि क्या छिन रहा है।
कोई कहे कि उसने आपका सब छीन लिया। आप कहें, तुम मेरे समझने की ताक़त थोड़े ही छीन सकते हो। वो एक चीज़ है जो आपकी अपनी है और अगर वो आपकी अपनी है तो उसका प्रयोग करने, न करने की ज़िम्मेदारी भी पूरी तरह आपकी है।
मन को ऊँचा उठाने के विकल्प का आपने कभी इस्तेमाल नहीं किया, किसी और को दोष मत दीजिएगा! मत कहिएगा कि मैं क्या करुँ, मुझे तो बचपन से माहौल ही अच्छा नहीं मिला। किताबें अच्छी नहीं मिलीं, मैं फ़लाने विद्यालय नहीं गया, मेरा कॉलेज ऐसा नहीं था, मेरी यूनिवर्सिटी में संगत ही ठीक नहीं थी। अरे! यूनिवर्सिटी में लोग नहीं ठीक थे, तुम कहीं और की संगति करते। और तुम्हारे विश्वविद्यालय में अगर तीन हज़ार, पाँच हज़ार लोग थे, पंद्रह हज़ार लोग थे, वो सबके सब व्यर्थ थे? सब बेहूदा थे? तुम क्या बोल रहे हो?
साफ़-साफ़ मानते क्यों नहीं कि संगति का चुनाव व्यक्ति स्वयं करता है? हाँ, यह कह सकते हो तुम ज़रूर कि कई बार कुछ चुनाव कठिन होते हैं। कई बार कुछ चुनावों में बड़ा श्रम लगता है, बड़ा मूल्य देना पड़ता है। वहाँ तक आपकी बात सही होगी लेकिन अगर आप यह कहें कि आपके पास कोई विकल्प ही नहीं, तो आप झूठ बोल रहे हैं, आप बेईमानी कर रहे हैं। समझ रहे हैं?
इंसान और इंसान में भेद अवश्य किया जाना चाहिए, यहाँ तक कि एक व्यक्ति को भी अपनी एक और दूसरी अवस्था में भेद करना चाहिए। एक क्षण हो सकता है आपके अनुभव में जब आप उपनिषदों के सामने बैठें हैं, और देखिए आपका उस समय मन कैसा है। देखिए कि भीतर उस वक़्त कितनी शुद्ध गंगा बह रही है। और उसी के कुछ घंटों आगे या पीछे एक क्षण हो सकता है, जब आप किसी फूहड़ काम में लिप्त थे, नशाखोरी कर रहे थे, मारा-पीटी कर रहे थे, गाली-गलौज कर रहे थे, तब याद करिए कि उस समय आपकी शक़्ल कैसी थी और ऑंखें कैसी थी और मन कैसा था।
तो यह तो छोड़िए कि दो आदमियों में अंतर होता है, एक आदमी की भी अपनी चेतना में अंतर होता है। एक समय पर उसको ‘आप’ कहना चाहिए और उससे कुछ घंटों बाद ही वो ऐसा हो सकता है कि उसे ‘तू’ कहकर सम्बोधित किया जाए। एक ही व्यक्ति दिन में ग्यारह बजे सम्मान का अधिकारी हो सकता है और रात में ग्यारह बजे घोर अपमान का अधिकारी हो सकता है। तो अंतर तो ज़रूर किया जाना चाहिए। जो अपमान का अधिकारी है, उसे इस आधार पर नहीं छोड़ सकते कि सुबह ग्यारह बजे तो यह सम्माननीय था, अब कैसे इसका मान छीन लें?
इसी तरीक़े से एक बार जिसका अपमान कर लिया, अगर क्षण भर बाद ही पाओ कि उसने मन के किसी ऊँचे तल का चुनाव कर लिया है, वो व्यक्ति भीतर से अभी कहीं और ऊँचा जा करके बैठ गया है तो उसको सम्मान दो। फिर यह न कहो कि अभी एक घंटे पहले ही तो यह मूर्ख कैसी बहकी हुई बातें कर रहा था। एक घंटे पहले मूर्ख था, अभी नहीं है। अगर अभी वो मूर्ख नहीं है तो उसे सम्मान दो। बात समझ में आ रही है?
ठप्पे मत लगाओ! कोई भी व्यक्ति, कुछ भी सदा नहीं होता, हम एक प्रवाह हैं, हम निरंतर परिवर्तनशील हैं। क्या ठप्पे लगा रहे हो। जो जिस वक़्त जैसा है, वो उस वक़्त उसके अनुसार वर्ताव का, व्यवहार का अधिकारी है।
तुम भी जिस वक़्त जैसे हो, उस समय उसी अनुसार अपने प्रति कर्म करो, अपने प्रति दृष्टि रखो। स्वयं को पुरस्कार भी दिया करो, दंड भी, क्योंकि तुम एक नहीं हो। कोई भी एक नहीं होता, हम सब लगातार बदलते रहते हैं। जिस वक़्त जैसे हो, उस वक़्त वैसा अपनेआप को देखो! जानों!
जाति क्या कर देती है कि कोई अब निश्चितरूप से, अपरिवर्तनीय रूप से ऊपर है और कोई निश्चितरूप से, अपरिवर्तनीय रूप से नीचे है। यह बात एकदम ग़लत है, ऐसा नहीं हो सकता। अगर निश्चितरूप से कोई ऊपर है तो वो सत्य है। निश्चितरूप से कोई नीचे है तो वो असत्य है। इनके अलावा कुछ नहीं है जिसको तुम्हें निश्चित मानना है। सब प्रवाहमान है।
प्र: प्रणाम आचार्य जी, जाति व्यवस्था इतनी अंतर्निहित है कि उससे निजात पाना बहुत मुश्किल है, तो क्या इसका प्रयोग आध्यात्मिक प्रगति के लिए किया जा सकता है?
आचार्य: नहीं, ऐसा कोई प्रयोग नहीं किया जा सकता। जो चीज़ ही व्यर्थ है, झूठी है, उसका आप सही क्या प्रयोग कर लोगे? और आप क्यों कह रहे हो कि यह चीज़ इतनी गहरी है कि इससे निजात पाना मुश्किल है? न जानें कितने हज़ार, कितने लाखों लोग हैं, जो जाति के संकीर्ण दायरों से कब के बाहर आ चुके हैं। मैं हिंदू समाज की बात कर रहा हूँ। लाखों बल्कि हो सकता है करोड़ो लोग हों जिनके मन से और जिनके जीवन से जाति पूरी तरह निकल चुकी हो। तो आप ही क्यों कह रहे हैं कि बड़ी मुश्किल है, और पता नहीं क्या है इसका मतलब?
मैं आपके सामने बैठा हूँ, मैं सच कह रहा हूँ, अभी यहाँ जो लोग मौजूद हैं, मुझे शायद उनमें से दो-चार की भी जाति नहीं पता। जिनकी एकदम ही स्पष्ट है, उनकी तो पता चल ही जाती है। क्योंकि वो तो उनका उपनाम ही ढिंढोरा पीट देता है। शर्मा साहब हैं, तो पता है कि क्या हैं। वरना इतने लोग तो संस्था में ही हैं, सालों से हैं, मुझे नहीं पता उनकी जाति। विचार ही नहीं आया कभी। अब आप कह रहे हैं कि जाति बड़ी अकाट्य चीज़ है, तो इसलिए मैं उदाहरण के तौर पर बता रहा हूँ। जिस दिन से आप लोगों से बात ही करना शुरू कर दिया कि अब यही है, उस दिन से तो मैंने भी अपना जो जातिसूचक उपनाम था, वो त्याग ही दिया। वो बस अब सरकारी फ़ाईलों में है। जाति से मुक्ति, कैसे आपको इतनी दुष्कर लग रही है, मैं नहीं समझ पाता।
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