प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपको सुनने से बहुत स्पष्टता बढ़ी है। लेकिन जीवन के व्यावहारिक स्तरों पर अपनी और कमज़ोरियाँ प्रकट होने लगी हैं, तो मैं फँस जाता हूँ। जैसे गन्तव्य तक जाने के लिए सड़क के मार्ग का चुनाव से लेकर जीवन के बड़े निर्णयों तक। तो इन सब में मुझे बड़ी दुविधा रहती है और अगर मैं निर्णय ले भी लूँ, तो फिर पुनर्विचार करता रहता हूँ कि मैंने ठीक किया कि नहीं किया। तो मैं क्या करूँ? कृपया मार्गदर्शन दें।
आचार्य प्रशांत: अभी थोड़ी देर पहले जो आत्मसंशय वाला प्रश्न आया था, वो यही बात है न। कोई बुराई नहीं है हिचकिचाहट में, जिज्ञासा में, सोच-समझकर विचार के साथ क़दम रखने में। जिसको आप कहते हैं डाउटफुल (सन्देहपूर्ण) होना या हेज़ीटेंट (दुविधा में पड़ा हुआ) होना, वो कोई दुर्गुण नहीं हो गया। सच्चे आदमी के लिए वो अच्छी बात है। दुर्भाग्य बस ये है कि हम ऐसे युग में जी रहे हैं जिसका आदर्श है बक-बक करने वाला बातूनी आत्मविश्वासी व्यक्तित्व।
हम बात को ही यथार्थ मानते हैं, हमारे लिए शब्द ही कर्म बन गया है, हम आत्मविश्वास को ही आत्मा मानने लग गये हैं। हम किसी व्यक्ति के मूल्य और गुणवत्ता का निर्धारण उसके जीवन से नहीं करते हैं, उसके धाराप्रवाह शब्दों से करने लग जाते हैं। और शब्दों को भी तोल पाने की हममें सामर्थ्य नहीं होती, तो ले-देकर बस ये होता है कि जो जितना ज़्यादा बोल रहा है और जितने आत्मविश्वास के साथ बोल रहा है, जितना धाराप्रवाह बोल रहा है, जितना बहिर्गामी होकर बोल रहा है, वो व्यक्ति उतना ही अच्छा है, उतना ही मूल्यवान है, उतना ही आदर्श है।
तो अपने भीतर हम जब भी कभी हिचक पाते हैं, संशय पाते हैं, दुविधा पाते हैं, अनिर्णय पाते हैं तो हमें अच्छा नहीं लगता। हम कहते हैं, ‘अरे! ये तो कोई आदर्श बात नहीं हुई।’ आदर्श बात तो ये है कि मंच मिल जाए या माइक मिल जाए, या श्रोता मिल जाए और लगो प्रवचन करने या लगो कोई और बात बोलने जिसमें कि आपका आत्मविश्वास बरस रहा हो।
ऐसा व्यक्तित्व हमें भाता ही नहीं जिसमें विनम्रता हो, जिसमें आत्म-जिज्ञासा हो, जो सिर झुकाकर ईमानदारी से कहना जानता हो, ‘मैं जानता नहीं या मुझे अभी निश्चित नहीं या मैं अभी विचार कर रहा हूँ।’
हमारे मन में वो छवि बैठा दी गयी है जिसका विचार से कोई ताल्लुक़ ही नहीं। जिससे आप जब भी कुछ पूछें, तो वो तत्काल ऐसे उत्तर दे दे, जैसे उसे सबकुछ बहुत पहले से ही पता है। और वो बात हमें ऐसी भाती है, हम कहते हैं, ‘वाह! वाह! वाह! यही, यही तो होना चाहिए, यही तो होना चाहिए।’ वही होना चाहिए, मैं भी कह रहा हूँ वही होना चाहिए, लेकिन वो आख़िरी बात है, बहुत बाद की बात है। वो बात आनी चाहिए पूरी क़ीमत चुकाने के बाद, पूरी साधना करने के बाद, ज्ञान के बाद। वो बात आरम्भ में ही नहीं आ सकती न।
आरम्भ में साधक को ये नहीं शोभा देता कि उसके पास तत्काल, त्वरित उत्तर हों, समाधान हों। साधक को शोभा देती है विचारशीलता। वो विनम्र होता है, उसके पास पके-पकाये उत्तर नहीं होते। वो अपने अज्ञान को हमेशा लक्ष्य में रखकर चलता है। उसे पता है अज्ञान है, और नज़रें मेरी अज्ञान पर हैं पूरी, मैं जानता हूँ वो है। मैं दृष्टि नहीं हटाऊँगा उससे, मैं जानता हूँ वो है। उससे दृष्टि हटाऊँगा, वो ओझल हो जाएगा। मुझे भ्रम हो जाएगा कि मैं ज्ञानी हूँ।
तो उसके बहुत लाभ हैं, उससे आन्तरिक जीवन स्वस्थ होता है, प्रगति होती है। लेकिन आजकल उससे सामाजिक जीवन ध्वस्त हो जाता है। अब आपको चुनाव करना है कि आपको आन्तरिक जीवन स्वस्थ करना है या सामाजिक जीवन ध्वस्त करना है। दोनों साथ-साथ चलते हैं। और सामाजिक जीवन आप बहुत पुष्ट रखना चाहते हों, तो आन्तरिक जीवन आपका बर्बाद रहेगा। दुनिया कहेगी, ‘वाह! वाह!’ भीतर से कोई कहेगा, ‘आह! आह!’
बात समझ रहे हैं आप?
ये चिन्ता की बात कैसे हो सकती है कि आपको कुछ नहीं पता या आपको किसी बात को लेकर शंका है, अनिर्णय है, ये अच्छी बात है न। या उम्मीद ये है कि बचपन से ही आप ज्ञानी पैदा हों? अज्ञान का साक्षात्कार कीजिए, धीरे-धीरे अज्ञान कटेगा। दुनिया ज़रूर बोलेगी कि अरे! देखो कितना अज्ञानी है। आप सहर्ष कहिए, ‘हाँ, अज्ञानी हूँ ये बात तो सही है, सब अज्ञानी ही पैदा होते हैं। ज्ञान तो लक्ष्य है, ज्ञान मेरा यथार्थ नहीं। अज्ञान से परिचित रहूँगा तो धीरे-धीरे ज्ञान बढ़ेगा मेरे लिए।’
मौन में सौन्दर्य है, मौन में खोज है। आँखें कुछ खोजती हुई सी रहें। आँखें झूठे ज्ञान के नशे में मदमस्त न रहें। आँखें बहुत सुन्दर हो जाती हैं जब उनमें जिज्ञासा होती है, जब वो जानना चाहती हैं। और आँखें बड़ी विकृत, कुरूप दिखती हैं जब उनमें झूठे ज्ञान का नशा होता है। मैं नहीं जानता, ये बोलना कभी भी लज्जा की बात नहीं हो सकती। मैं जानना चाहता ही नहीं, ये बात घोर लज्जा की है — अन्तर स्पष्ट रखें!
प्र: आचार्य जी ये बात स्पष्ट हुई, लेकिन इसके बाद भी हमको कुछ चीज़ें तय करनी पड़ती हैं। तो जब हम तय कर रहे हैं चीज़ें, वो हम क्या बनकर तय करें और तय करने के लिए क्या आधार होना चाहिए?
आचार्य: बढ़िया! मैं अधिकतम अभी जितना जान सकता हूँ उसके आधार पर मैंने कुछ तय कर लिया, ये पहली बात। दूसरी बात, मैं इस तरीक़े से कुछ तय नहीं करूँगा कि जो मैंने तय करा है, वो पलटा ही न जा सके। यदि मैं अपने अज्ञान और अपनी सीमाओं से परिचित हूँ, तो मैं कोई निर्णय इस प्रकार का नहीं करूँगा जो आख़िरी, अन्तिम हो जाए जिसे पलट न सकें, जो इर्रिवर्सिबल हो जाए।
तो पहली बात, बिलकुल ठीक कहा आपने, निर्णय लेने आवश्यक होते हैं जीवन में। आप सदा मुक्ति की प्रतीक्षा में नहीं बैठे रह सकते कि जिस दिन मुझे आख़िरी ज्ञान प्राप्त होगा, उसी दिन मैं कोई निर्णय लूँगा। अभी तो मैं अज्ञानी हूँ, अभी मैं निर्णय कैसे ले सकता हूँ, आप ऐसा तर्क नहीं दे सकते। व्यावहारिक जीवन माँग करता है कि लगातार छोटे-बड़े निर्णय लिये जाएँ। तो उन निर्णयों को लेते समय हमें देखना है कि मैं जो उच्चतम विवेक ला सकता हूँ, जो मैं उच्चतम मूल्य ला सकता हूँ, उनके साथ निर्णय लूँ।
और फिर मैं सविनय कहूँगा, ‘इससे बेहतर निर्णय मैं अपनी वर्तमान स्थिति और वर्तमान ज्ञान के साथ नहीं ले सकता था’ — तो ये तो पहली बात कि निर्णय ऐसे लेना है। और दूसरी बात, चूँकि कि मैं जानता हूँ कि ये निर्णय एक तुलनात्मक अज्ञान की स्थिति में लिया गया है, इसीलिए मैं इस निर्णय को ज़रा हल्का रखूँगा। मैं इस निर्णय को बस तात्कालिक रखूँगा। अभी लिया है, इसके साथ मैंने कोई अनन्त अनुबन्ध नहीं कर लिया। निर्णय इस प्रकार का रखूँगा कि आज लेकर कल पलट भी सकूँ।
नहीं तो ये तो बड़ी विचित्र बात हो जाएगी न कि एक ओर मैं कहूँ कि मैं अज्ञानी हूँ और दूसरी ओर मैं कोई ऐसा निर्णय ले लूँ जो दूरगामी हो। अज्ञानी व्यक्ति दूरगामी निर्णय कैसे ले सकता है? अज्ञानी को तो चाहिए कि वो निर्णय ले भी तो बस व्यावहारिक तल पर — आज, कल, परसों भर के लिए, परसों से आगे का नहीं। क्योंकि क्या पता परसों आप ही बदल जाएँ। आपका अज्ञान छॅंटेगा, आप दूसरे व्यक्ति हो जाएँगे। और निर्णय आपने ले लिया है आठ महीने का, जीवन भर का, व्यक्ति आप दूसरे हो गये। आपके जीवन में ज्ञान उदित हो रहा है धीरे-धीरे और आप पायें कि आपने अपनेआप को तमाम तरीक़े के अनुबन्धों से, समझौतों से, करारों से, बाँध लिया है, अब क्या करोगे बताओ?
इसीलिए सत्य का साधक हल्का जीवन जीता है, वो बहुत सारा बोझ लेकर नहीं चलता। वो बहुत सारी बाध्यताएँ, कर्तव्य, जिम्मेदारियाँ, ऑब्लिगेशन्स (दायित्वों को) लेकर नहीं चलता।
उसको पता है, आज जो सही लग रहा है, कल वो ग़लत लग सकता है। आज जो ग़लत लग रहा है, वो सही हो सकता है। आज जो राहें दिख रही हैं, इनके अतिरिक्त कल पाँच नयी राहें फूट सकतीं हैं, तो आज मैं कैसे अपनेआप को समर्पित कर दूँ, स्वयं को सुपुर्द कर दूँ किसी एक राह को। मैं नहीं जानता कल मेरे लिए क्या लेकर आएगा, मैं नहीं जानता कल मैं, मैं रहूँगा या नहीं।
जब मैं ही बदल सकता हूँ, तो मैं ऐसे निर्णय क्यों लूँ जो मुझे बदलने के विरुद्ध विवश करते हों। नहीं तो बड़ा पछताना पड़ता है फिर। अज्ञान में निर्णय लिया और उस निर्णय की ज़ंजीर से स्वयं को ही बाँध लिया और कल को बात बेहतर समझ में आयी, अब मुक्त होना चाहते हो, लेकिन पुराना वादा कर बैठे हो, बेहोशी में कड़ी ज़ंजीर से स्वयं को बाँध बैठे हो, अब सिर धुनो! ठीक है?
प्र: आचार्य जी, जब हम निर्णय लेते ही पहला क़दम रखने में एक डर रहता है। डर हमेशा कई तरह की चीज़ों को लेकर रहता है, तो क्या हमें डर को नकार देना चाहिए। मतलब हमें डर से कैसा रिश्ता रखना चाहिए?
आचार्य: नहीं, डर बढ़िया चीज़ है, बस डर किसकी सुरक्षा करना चाहता है ये पूछ लो। डर में क्या बुराई है। डर बताता है कि कुछ है जो खो सकता है, क्या खो सकता है? कोई बढ़िया चीज़ है जो खो सकती है, तो डर तुम्हारा मित्र हुआ। कोई व्यर्थ की चीज़ डर यदि सुरक्षित रखना चाहता है तो ऐसे डर को झाड़ दो, हटा दो। डर क्या होता है? डर ये विचार है कि कुछ नुक़सान हो जाएगा — कुछ बढ़िया है जो खो जाएगा, कुछ बुरा है जो हो जाएगा, यही तो है न डर? तो डर का हमेशा एक विषय होता है। विषय क्या है डर का, उसकी बात करो, डर पीछे है।
क्या विषय है डर का? एक डर ये हो सकता है कि राम खो जाऍंगे। ये डर शुभ है। यहाँ पर (ऋषिकेश में) मैंने एक जगह दीवार पर उकेरे हुए देखा, ‘हे नाथ! हे मेरे नाथ, मैं आपको भूलूँ नहीं!’ ऐसे लिखा हुआ था। देखोगे यदि तो इस वक्तव्य में भी डर है, डर है भूल जाने का। लेकिन ये डर बहुत शुभ डर है — ‘हे नाथ! हे मेरे नाथ, मैं आपको भूलूँ नहीं!’ — शुभ डर है न?
वैसे ही संस्था में हम प्रार्थना करते हैं, ‘हे राम! मुझे मुझसे बचा!’ यहाँ भी देखोगे तो डर, पर अच्छा डर है। और एक डर वो होता है कि अरे! चोरी का माल गाँठ बाँध लिया है, कहीं पुलिस को ख़बर न लग जाए। डर किसकी सुरक्षा करना चाहता है, डर का विषय क्या है, इस बारे में स्पष्ट रहो।
प्र: आपने जैसे बताया कि एक साथ सारी चीज़ें नहीं आऍंगी, आप क़दम-दर-क़दम आगे बढ़ते जाएँ। तो उसमें आधारभूत चीज़ें कौनसी होती हैं जो कि हमें क़दम उठाने में सहायक रहती है?
आचार्य: समझाकर बताओ।
प्र: जब हम आपके वीडियोज़ सुनते हैं तो उसमें आत्मा और षड्-रिपु को लेकर कई सारे आयाम होते हैं। जब हम व्यावहारिक क्षेत्र में जाते हैं तो कई सारी चीज़ें दिखती हैं जिन पर हमें अपने साथ और दूसरों के साथ भी काम करना है। सब में एक साथ जाएँ तो हम बिलकुल खप जाते हैं, ऊर्जा नहीं बचती, सब चुक जाता है। तो हम छोटे क़दमों से शुरुआत कर सकते हैं, ये चीज़ समझ में आती है। तो हम किस दिशा में फ़ोकस करें?
आचार्य: अब ध्यान से सुनना। ठीक वो करना शुरू करो जिसको ठीक करना सबसे आसान हो। और निर्णय वो लेने से बचो जो निर्णय सबसे ज़्यादा महत्व का हो। मैंने साफ़ नहीं बताया, दोहराकर बताऊँगा — ठीक उन चीज़ों को करना शुरू करो जो चीज़ें तुम्हारे लिए दूर की हैं। दूर की हैं माने समाज की हैं? नहीं। दूर की हैं माने तुम्हारे इतने निकट नहीं हैं कि तुम उनको बदलो तो तुम्हारा आन्तरिक ढाँचा ही ध्वस्त हो जाए। उनको तुम्हारे लिए बदलना आसान रहेगा।
जैसे कहते हैं न कि रोटी किनारे से काटी जाती है आरम्भ में, बीच से काटोगे तो हाथ जल जाता है। तो जो रोटी तुम्हारे सामने रखी है गरमा-गरम, उसका कोना तोड़ते हैं। तो जो चीज़ें ठीक करनी हैं, जहाँ तोड़-फोड़ करनी है, जहाँ नेति-नेति करनी है, उन चीज़ों की करो जिनकी आसानी से कर सकते हो, शुरुआत वहाँ से करो। ठीक? लेकिन जहाँ नये निर्णय लेने जा रहे हो, वहाँ सबसे ज़्यादा सतर्क़ उन निर्णयों में रहो जो सबसे ज़्यादा तुम्हारे लिए आत्यन्तिक हो जाऍंगे, निकट के हो जाऍंगे, आत्मिक हो जाएँगे।
क्योंकि उन्हीं निर्णयों को तो आगे पलटना मुश्किल हो जाता है। तो पलटने की शुरुआत वहाँ से करो, जहाँ पलटना आसान हो। और रोकने की शुरुआत वहाँ से करो, जहाँ पलटना आसान नहीं होने वाला। इसीलिए तो रोकना है, क्योंकि अगर कर दिया तो पलट नहीं पाऍंगे। हम उल्टा कर देते हैं, खासतौर पर युवा लोग, वो अध्यात्म के सम्पर्क में आते हैं और मैं जो बोलता हूँ, उसमें से वो दो-चार शब्द पकड़ लेते हैं — विरोध, विद्रोह, संघर्ष, क्रान्ति, ज्वालामुखी, भूचाल — और वो शुरुआत कर देते हैं बिलकुल वहाँ से जहाँ उनके अहंकार का और माया का केन्द्र है।
और फिर इतनी ज़ोर का प्रतिघात आता है माया का कि उनसे झेला नहीं जाता। और फिर हाय-हाय करते घूमते हैं, कहते हैं, ‘अरे! आचार्य ने मरवा दिया।’ तुमसे कौन कह रहा था कि एक झटके में तुम जाकर उसके गढ़ में उसको चुनौती दे दो, तुम्हें उसकी ताक़त का अन्दाज़ा नहीं। तुम इतने बड़े सूरमा होते, तो तुम आज तक हारते क्यों रहते! जीवन भर हारते आये हो, अब आचार्य जी से दो बातें सुनकर सीधे माया के दुर्ग में घुस गये और वहाँ जाकर उसको चुनौती दे रहे हो, वो पलटकर ऐसा मारती है फिर कि ज़िन्दगी भर हाय-हाय करते घूमते हो।
जिन्हें युद्ध जीतना होता है, जो विजय और संघर्ष के प्रति गम्भीर होते हैं, वो बहुत सोच-समझकर अपने मोर्चों का चुनाव करते हैं, है न? जो सबसे ज़बरदस्त मोर्चा होता है, उसको वो आसानी से या प्रतिकूल समय में खोलते ही नहीं हैं। वो कहते हैं, ‘ये मोर्चा मुझे जीतना-ही-जीतना है, चूँकि मैं इसको जीतने के प्रति बेहद गम्भीर हूँ, इसीलिए इसको उपयुक्त समय पर ही खोलूँगा।’
हिटलर की हार का बड़ा कारण क्या था? ग़लत समय पर ग़लत मोर्चा खोल दिया। रूसियों से भिड़ने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी, जाकर वहाँ पर सिर दे दिया, हार हो गयी। जापानियों ने जाकर अमरीकियों से मोर्चा खोल दिया, पर्ल हार्बर (अमरीका का प्रसिद्ध बन्दरगाह एवं नौसैनिक अड्डा) उड़ा दिया। तुम पर्ल हार्बर उड़ाओगे, तो हिरोशिमा और नागासाकी पाओगे।
समझ में आ रही है बात?
शिवाजी की तरह गोरिल्ला युद्ध करना सीखो। ये नहीं कि दिल्ली पर धावा बोल दिया — महाराष्ट्र से चले और सीधे जाकर दिल्ली में बोले, ‘यलगार’ — वो क्या करते थे? उन्हें अपनी सामर्थ्य का पता था, अपनी सीमाओं का भी पता था। तो वो इस तरीक़े से लड़ते थे कि विजय मिल सके। ठीक है?
प्र: मैं आपकी वीडियोज़ से सीखा हूँ कि दो तरह के केन्द्र हैं — एक ग़लत केन्द्र या अहंकार का केन्द्र है और एक मौन का या सत्य का। मैं ये तो समझा हूँ कि भय, लोभ, काम, ईर्ष्या से उठे जो कर्म होंगे वो अहंकार के केन्द्र के होंगे, वो हमें और अन्धेरे में धकेल देंगे। तो सही केन्द्र और सही काम की पहचान कैसे करें और उसकी निश्चितता कहाँ से जानें?
आचार्य: ध्यान से समझिएगा। जब ग़लत केन्द्र बोल रहे हैं न, छद्मकेन्द्र, वो सक्रिय रहता ही सही केन्द्र की पृष्ठभूमि में है। वास्तव में वो सक्रिय इतना रहता ही इसीलिए है क्योंकि वो डरता है कि अगर वो सक्रिय नहीं रहा, तो जो सही है, वो उसको खा जाएगा। और सही जो है, वो वास्तव में उसको (झूठे को) खा जाएगा। तभी तो झूठे को इतने हाथ-पाँव चलाने पड़ते हैं, लगातार इतनी गतिविधि करनी पड़ती है।
तो इससे हमें क्या पता चल रहा है? जो ग़लत है, जो झूठा है, वो वास्तव में अपनी जान बचाने के लिए ही ग़लत और झूठा है। जो सही है वो तो लगातार पार्श्व में, पृष्ठभूमि में, आधार में या बैकग्राउंड में मौजूद ही है, वो रहता है। चूँकि वो रहता है इसीलिए उसके विपरीत को इतने हाथ-पाँव चलाने पड़ते हैं।
चूँकि वो निरन्तर रहता है, चूँकि उसे कभी भी पूरी तरह शून्य नहीं किया जा सकता, वो अजर है, अमर है, वो अजेय है, आप उसे कभी पूरी तरह से हरा नहीं सकते। आप उसे पीछे धकेल सकते हो, आप उसके ऊपर परत-दर-परत कोहरा और चादर चढ़ा सकते हो, पर आप उसे कभी भी मार नहीं सकते, मिटा नहीं सकते। आप कभी उस पर कोई अन्तिम विजय प्राप्त नहीं कर सकते। उसको आत्मा, उसको सत्य कहते हैं।
वो लगातार है। चूँकि वो हमारे भीतर ही लगातार है, इसीलिए तो हमारी वृत्तियों को इतनी असुरक्षा, इंसिक्योरिटी रहती है। तो वो लगातार कोशिश करती रहती हैं, ‘अरे! अरे! अरे! कुछ करो, कुछ करो, नहीं तो आत्मा हमें खा जाएगी।’
झूठ इसीलिए इतना विचलित, इतना अशान्त, इतना उपद्रवी रहता है, क्योंकि वो जानता है भलीभाँति कि वो झूठ है, उसे बहुत कुछ करना पड़ेगा बने रहने के लिए। और सच तो सच है, सच अगर चुपचाप भी बैठा है तो वो ख़त्म नहीं हो रहा। झूठ अगर चुपचाप बैठ गया, तो ख़त्म हो जाएगा। झूठ की विवशता है एक विक्षिप्त सक्रियता।
बात समझ रहे हैं?
झूठ की मौजूदगी ही प्रमाण है कि सत्य पीछे मौजूद है, तभी तो झूठ इतनी दौड़ लगा रहा है। जिसको आप ग़लत कह रहे हैं, उसकी मौजूदगी ही प्रमाण है सही के होने का। सही कहीं आस-पास ही है, तभी तो झूठ को इतनी आफ़त मची हुई है।
तो आप पूछ रहे हैं, ‘सच का पता कैसे लगे?’ सच का पता तो है, सच न होता तो झूठ कहाँ से आता? इसी को फिर ऋषि लोग बता गये हैं न कि माया क्या है? माया ब्रह्म की सुपुत्री है। (मुस्कुराते हुए) संसार क्या है? सत्य का विवर्तन है। झूठ की मौजूदगी ही सत्य का प्रमाण है। आपके भीतर अगर कुछ चल रहा है, कोई झूठी चीज़, यक़ीन मानिए, वो झूठी चीज़ इसीलिए चल रही है, क्योंकि अगर वो नहीं चलेगी, तो आप सच्चे हो जाएँगे।
तो सच क्या है ये आप जानते हैं। सच जो है, वो आत्मनिर्भर है, वो स्वावलम्बी है, वो स्वाश्रित है, वो अपनेआप के भीतर अपने दम पर मौजूद है। झूठ बेचारा पर-निर्भर है, वो सच के दम पर मौजूद है। सच को अपने होने के लिए झूठ नहीं चाहिए, झूठ को अपने होने के लिए सच चाहिए, नहीं तो वो झूठ कैसा!
कोई चीज़ झूठ तभी होती है न जब वो सच के विपरीत होती है। लेकिन सच की परिभाषा ये नहीं है कि वो जो झूठ न हो, उसको सच बोलते हैं। सच वो जो है! तो सच है ही। मत पूछिए कि मैं सही काम का पता कैसे करूँ, सही काम का पता आपको नहीं होता तो आप ग़लत काम की ओर जाते ही नहीं। आप ग़लत काम की ओर गये ही हैं सही काम से बचने के लिए। अब बताइए मैं आपको कैसे बताऊँ कि सही काम क्या है? आपको पहले से ही पता है सही काम क्या है। बस आप सही काम को बहुत पीछे ढकेल देते हैं, बहुत दूर कर देते हैं, उसे ढक वगैरह देते हैं, तो आपको ख़ुद ही पता लगना बन्द हो जाता है।
तो करना क्या है फिर? करना ये है कि जो चीज़ ग़लत है न, बस उसको हटा देना है, बिना इस उम्मीद के कि मुझे सच चाहिए। या कि मुझे ये बड़ी जिज्ञासा है कि सच क्या है, मैं झूठ को हटाऊँगा तो सच अनावृत हो जाएगा; ये सब मत आशा रखिए। सच को आशा में क़ैद करने का प्रयास नहीं करना है, बस झूठ को हटाते चलना है। सच बिलकुल अगल-बगल ही है, मौजूद है, निरन्तर, आस-पास है, आधार में है। कोहरा छा गया है, आप कहेंगे क्या कि अरे! कोहरे के पार जो पेड़ है, वो पेड़ कहाँ से लाऊँ मैं। पेड़ लाना है कि कोहरा हटाना है?
प्र: कोहरा हटाना है।
आचार्य: तो सारा ध्यान झूठ पर रखिए, सच पर ध्यान रखने की कोई ज़रूरत नहीं है। वास्तव में जब हम कहते भी हैं कि साधक का लक्ष्य सत्य होता है, तो अर्थ इसका यही होता है कि साधक नेति-नेति की तलवार से अपने झूठ को काटता चलता है। अपने झूठों को काटते चलिए, सच तो मौजूद था। तभी तो इतने सारे झूठ उसके इर्द-गिर्द डोल रहे थे।
और आप देखिएगा कि ख़तरनाक सच आपके जितने निकट आता जाएगा, बिलकुल डरे, सहमे, विक्षिप्त झूठ उतनी ऊँची आवाज़ में आपसे दरख़्वास्त और अपील करने लगेंगे क्योंकि और डर रहे हैं कि सच पास आ गया, सच पास आ गया। सच जितना पास आएगा, झूठ उतना घिघियाएगा। तो झूठ की ऊँची आवाज़ सच की निकटता का ही द्योतक होती है। सच जितना आसन्न होता है, जितना सन्निकट होता है, झूठ उतनी दुहाई देता है, उसको मौत निकट दिखाई पड़ती है। वो बिलकुल बदहवास हो जाता है। झूठ बहुत ज़ोर से बोल रहा हो तो ये मत पूछने लगिएगा कि सच क्या है, सच आस-पास है, अन्दर है, जानते हैं आप उसको।
सही काम क्या है, मत पूछिए बार-बार, जो ग़लत काम आप पकड़ रहे हैं वो सही काम के डर से ही तो पकड़ रहे हैं। ग़लत काम हटा दीजिए, सही काम प्रकट हो जाएगा। वो अपनेआप प्रकट होता है। उसी को स्फूर्णा बोलते हैं। वो अपनी शक्ति से प्रकट होता है, वो किसी के भरोसे नहीं है कि आप खोजेंगे तो मिलेगा। वो अपना मालिक आप है। आप बस अपनी क्षमता और पात्रता दिखाइए कि मैंने इन झूठों का साथ नहीं दिया। अकस्मात् आप पाऍंगे कि राह खुल गयी, किरण सामने आ गयी, सच फूट पड़ा।
बात समझ में आ रही है?
और ये बहुत लोगों का सवाल रहता है, आप कहते हैं, ‘आचार्य जी, उपनिषदों ने तो नकार का रास्ता बता दिया है। आप भी बार-बार ये बोलते रहते हैं कि समस्या क्या है। समाधान बताइए न, समाधान बताइए।’ बहुत लोग ऐसी उलाहना लिखते हैं। अब मैं उनको क्या बताऊँ, सच कोई वस्तु तो है नहीं कि जिसकी खोज की जा सके, जिसे आप हाथ में पकड़ लें कि ऐसे चाय की तरह उठाकर पी लें, शक्कर मिलाकर। सच तो है, उसकी खोज क्या करोगे! झूठ से बँधे हुए हो, अपनी बेड़ियाँ काट दो, बस ये करना है।
ये बात बहुत सन्तोषप्रद नहीं लग रही होगी, क्योंकि हम सुनना चाहते हैं कि सच क्या है। हम सुनना चाहते हैं, सही रास्ता क्या है। हमें कोई सूत्र, विधि, फ़ॉर्मूला चाहिए कि सही चीज़ पकड़ लें और ऐसे हो जाए। कोई प्रिस्किप्शन लिख दें न, जैसे आप लिखते होंगे अपने मरीज़ों को कि ये बता दो। आपके पास कोई मरीज़ आया, आप उसे परहेज़ बता दें, तो वो थोड़ा सा असन्तुष्ट सा रहेगा, कहेगा, ‘बस परहेज़ बताते हैं डॉक्टर, नेति-नेति बोलते हैं, कुछ दवाई तो बताओ न बढ़िया वाली।’
तो कहिए तो मैं भी कुछ प्लेसीबो (नकली इलाज) बता दूँ कुछ आपको। कोई फ़ायदा नहीं है न प्लेसीबो से। मैं समझता हूँ कि आप इतने वयस्क और इतने समझदार हैं कि मैं आपको सीधी बात बताऊँ तो आप समझ जाएँ, अमल कर पायें। जो ग़लत उठ रहा है बस उसकी ओर सतर्क रहिए, उसे हटाइए। जो सही है, मैं कह रहा हूँ, उसकी चिन्ता छोड़िए, वो राजा है, वो मालिक है, वो अपनेआप प्रकट हो जाएगा।
ठीक है?
प्र: जी आचार्य जी, शुक्रिया। मैं सभी लोगों की तरफ़ से आपको फिर से एक बार धन्यवाद बोलना चाहूँगा। क्योंकि मैंने सच में बहुत खोजा था और अब मेरी जो सारी ज़िन्दगी के अन्त में जो निचोड़ निकला है वो यही निकला है। आपसे मिलने से पहले मैंने जो नोट्स बनाये थे वो बहुत पहले ही ख़त्म हो चुके हैं, क्योंकि मुझे उसमें से कहीं आधार नहीं मिला। और पिछले साढ़े-चार सालों से मैंने लगभग चार-पाँच-सौ पृष्ठों के नोट्स सिर्फ़ आप ही को सुनकर निकाले हैं — जो मुझे निचोड़ लगता है और जो लगता है कि मुझे याद रखना है।
जैसे आप बोलते हैं कि याद रखने जैसा कुछ नहीं है, बस हर वक़्त चीज़ अन्दर चली जानी चाहिए, तो अन्दर चली जाती है। मैं सच में सभी लोगों की तरफ़ से आपको एक बार थैंक्यू बोलना चाहूँगा। क्योंकि मुझे लगता है भारत में ही नहीं, यहाँ तक कि विदेश में भी, इस वक़्त मेरी नज़र में तो ऐसा कोई नहीं है जो इतनी स्पष्टता से और बिना डरे पूर्णतः सच्ची बातें करें। बहुत धन्यवाद!
(आचार्य जी स्वयं भी सिर झुकाकर धन्यवाद देते हैं व स्वीकार करते हैं)