आचार्य प्रशांत: मैं खुद को बहुत कम आँकती हूँ जिस कारण नकारात्मकता हमेशा मन पर छाई रहती है। इस कारण जीवन में एक लचरता आ गई है, संकल्पबल और विज़न की कमी है, एकाग्रता भी कम है, क्या करूँ?
मैं खुद को बहुत कम आँकती हूँ जिसके कारण मन पर बहुत ज़्यादा नकारात्मकता छाई रहती है। मेरे मन का कटोरा, मेरे मन का आकार बहुत छोटा है, आचार्य जी, जिसके कारण उसमें बहुत सारी नकारात्मकता भरी रहती है।
आपको दिख नहीं रहा आप क्या कह रही हैं? आप अगर वास्तव में अपनेआप को कम आँकती होती तो इतनी ज़्यादा नकारात्मकता कहाँ बैठती आप में? अगर आपका कुल कटोरा ही छोटा होते-होते एकदम शून्य बराबर हो रहा होता तो उसमें इतनी सारी नकारात्मकता कहाँ से समा जाती? इतनी नकारात्मकता तो तभी आएगी न जब आप अपनेआप को कम आँके ही न, आप बहुत बड़े हो भीतर। जितने बड़े आप, उतना बड़ा आपके पास स्थान, बहुत चीजों को भरने के लिए सकारात्मकता, नकारात्मकता, जीवन को लेकर के तमाम धारणाएँ-सिद्धान्त, इत्यादि-इत्यादि।
जो वास्तव में अपनेआपको कम जानने लगेगा वो तो अहंकारशून्य होने लग जाएगा न? और नकारात्मकता तो बड़े अहंकार की निशानी है। जो अपनेआप को वास्तव में कम जानने लगेगा उसका जीवन नकारात्मकता, सकारात्मकता, हर चीज़ से खाली होने लगेगा। आप अपनेआप को कम नहीं आँकती । मैं बताता हूँ, आप क्या करती हैं। आप अपनेआप को किसी से कमतर आँकती हैं लेकिन आप जिससे कम आँकती हैं अपनेआप को तुलनात्मक रूप से वो भी है आपके ही मन में, तो कितना बड़ा हुआ आपका मन?
ऐसे समझिए! कि कोई कहे कि मेरा तो आकार बहुत ही छोटा है, मेरा तो आकार बहुत ही छोटा है। कैसे भाई, तुम्हारा आकार बहुत ही छोटा कैसे है? बोल रहा है, ‘वो मेरा कमरा है न कमरा वो बहुत छोटा है, उसमें मैं रहता हूँ, मैं भी छोटा हूँ।’ अच्छा! अरे भाई, तुम्हेँ ये जितनी बातें बोल रहे हो वो पता कैसे हैं कि कमरा छोटा है, तुम छोटे हो? अपनेआप को छोटा बोलने का या बड़ा बोलने का तुम्हारे पास कुछ परिमाण होना चाहिए न? कोई यार्डस्टिक, कोई पैमाना होना चाहिए न, कि नहीं होना चाहिए? तो तुम बोल रहे हो, “वो न मेरे कमरे में जो हाथी रहता है उसको देखकर मैं समझ जाता हूँ मैं बहुत छोटा हूँ, मेरा कमरा बहुत छोटा है।“ मेरे कमरे में जो हाथी रहता है उसकी तुलना में मैं देख लेता हूँ कि बहुत छोटा हूँ।
बाबा! जब तुम्हारे कमरे में हाथी रहता है तो तुम्हारा कमरा बहुत बड़ा होगा न? तुम अपनेआप को जिनसे कम आँक रहे हो वो भी तो तुम्हारे मन के भीतर ही हैं न? उन्हीं की तुलना में तुम अपनेआप को कह पाते हो कि मैं छोटा हूँ। जिनकी तुलना में तुम अपनेआप को छोटा बोल रहे हो, जिन बड़े लोगों की, जिन विशाल लोगों की तुलना में या जिन विशाल सिद्धान्तों या छवियों की तुलना में, तुम अपनेआप को छोटा बोल रहे हो वो सब भी कहाँ हैं? तुम्हारे मन के भीतर ही हैं।
तो इसका मतलब तुम्हारे मन का विस्तार कितना है? बहुत बड़ा। जब इतना बड़ा है तुम्हारे मन का विस्तार तो उस विस्तार में नकारात्मकता आकर के बैठ गई है, ताज्जुब क्या। आप अपनेआप को कम नहीं आँकते। जितने लोग बोलते हैं कि हम क्षुद्र भाव या हीनभावना से ग्रसित हैं, हीनभावना वगैरह कुछ नहीं है। उनका अहंकार बहुत बड़ा है, हीन नहीं है, अतिशय है। किसी ने कहा है न कि हीनभावना कुछ होती नहीं है। जो अपनेआप को छोटा भी समझ रहा है, वो अपनेआप को कुछ-न-कुछ समझने में बड़ी आतुरता रखता है, ‘मैं कुछ तो हूँ।’ उसे पूछो ‘तुम क्या हो?’ तो गौर करिएगा, ‘मैं बहुत छोटा हूँ।’ मैं क्या हूँ? मैं बहुत छोटा हूँ, मैं अतिशय छोटा हूँ। बहुत, बहुत माने (हाथ फैलाकर बड़े का इशारा करते हुए)। तो ये बहुत सारा छुटपन तो आपने अपने भीतर रखा हुआ है न? इतना बड़ा स्थान आपने अपने भीतर निर्मित किया हुआ है। यही तो बड़ी अहंता है। इतना बड़ा स्थान बनाकर रखोगे तो उसमें फिर उल्टी-पुल्टी चीजें आकर बैठ ही जाएँगी। जो वास्तव में कम हो गया होता, उसका ‘मैं’ ही कम हो गया होता। और कम या ज़्यादा होने को होता क्या है?
जीवन जिसे हम कहते हैं, उसका केन्द्रीय तत्व है अहंकार, वो ही बढ़ता है, वो ही घटता है। उसीकी जो रुग्ण विराटता होती है, उसीका जो बीमार विस्तार होता है, वही बन्धन कहलाता है। और उसीका कम होते जाना, शून्य होते जाना, ‘मुक्ति’ कहलाता है।
‘मैं’ शब्द के साथ आप जो कुछ कहेंगे वो आपके अहंकार का ही परिचायक होगा। कोई कहे, ‘मैं बहुत बड़ा हूँ’, अहंकारी, कोई कहे, ‘मैं बहुत छोटा हूँ’, बराबर का अहंकारी, नहीं अन्तर है। ‘मैं बहुत अच्छा हूँ’, अहंकारी है, ‘मैं बहुत बुरा हूँ’, बराबर का अहंकारी है। ‘मैं महान हूँ’, आप तुरन्त कह देंगे, अहंकारी है। ‘मैं मलिन हूँ’, ये भी बराबर का अहंकारी है। आप जब कहती हैं, ‘मैं खुद को बहुत कम आँकती हूँ’, तो ये तो आप बहुत ज़्यादा बोल गई न? देखिए न, आपने अपनेआप को कितनी बड़ी हैसियत दे दी। आप कह रही हैं, ‘मैं वो हूँ जो आँकना जानती हूँ।’ आप अपने जीवन की परीक्षक खुद ही बन बैठी, ‘मैं कुछ हूँ, साहब।’ ‘मैं कौन हूँ?’ मैं आँकलनकर्ता हूँ, मैं आँकूँगी। अगर आप अपनेआप को बहुत कम आँकती होती तो आप कहती, ‘मैं होती कौन हूँ आँकनेवाली?’ जो वास्तव में विनम्रता से भरा होगा, जो वास्तव में अपनी हस्ती के खोकलेपन को, और क्षुद्रता को और मिथ्यता को जान चुका होगा वो अपनेआप को ये अधिकार कैसे दे देगा कि मैं इसको आँकूँगा और उसको आँकूँगा। पर आप तो खुदको ही आँक बैठी! आँकलन करनेवला, परीक्षण करनेवाला तो हमेशा बड़ा आदमी होता है न? कोई कुछ कर रहा है और एक दूसरा आदमी है जो उसका परीक्षण कर रहा है, एग्ज़ैमिनेशन कर रहा है। जो परीक्षण कर रहा है वो छोटा आदमी होता है? बड़ा आदमी होता है? बड़ा आदमी।
आप तो आँकने में लगी हुई हैं तो आप बड़ी ही होंगी लेकिन दावा देखिए, ‘मैं खुदको बहुत कम आँकती हूँ।’ इतना ही नहीं, आगे आपने जो कार्यकारण का जोड़ा है वो भी खुद ही पकड़कर निर्धारित कर लिया, कह रही हैं, ‘मैं खुद को बहुत कम आँकती हूँ’, जिस कारण नकारात्मकता हमेशा मन पर छाई रहती है। ‘आप अपना आत्मविश्वास देखिए न, आपको पहले ही पता है, आपने अपनी पूरी कहानी खुद ही साफ़ करके मेरे सामने रख दी है। आप कह रही हैं, “आचार्य जी, ऐसा, ऐसा”। आप थोड़ी पूछ रही हैं कि मुझे पहले मेरी वास्तविक स्थिति से तो अवगत करा दीजिए। नहीं, ये प्रश्न नहीं है, आप कह रही हैं, “हालत मेरी ऐसी-ऐसी है।”
अब आप भी कुछ बोलना चाहते हों तो बोल दीजिए। आपको तो सब पता है, पहले ही पता है। मैं खुदको कम आँकती हूँ, उसके कारण नकारात्मकता आ गई है।
नकारात्मकता क्या होती है, भाई? बताइएगा।
क्या होती है नकारात्मकता? लेकिन अपने आप बड़े आत्मविश्वास को तो देखिए। आपने पूरे आत्मविश्वास के साथ मेरी ओर ही जुमला उछाल दिया, ‘मैं कम आँकती हूँ तो निगेटिविटी भरी हुई है।’ घनघोर आत्मविश्वास चाहिए कि आप मुझी से ऐसी बातें कर डालें जब कि मैं कुख्यात हूँ कि मेरे सामने उल्टी-पुल्टी बात करोगे तो बुरा हो जाएगा तुम्हारे साथ और तो भी इस अतिशय आत्मविश्वास को देखिए कि आए यहाँ पर और बिलकुल गोला दाग दिया, ‘मैं खुदको बहुत कम आँकती हूँ उस कारण जीवन में नकारात्मकता छाई हुई है।’ ये लो! आप ही इतना जाँचे ले रही हैं तो मेरी ज़रूरत क्या है?
कम-वम आप नहीं आँकती। आपकी द्रष्टि में आप बहुत बड़ी हैं, वो आपकी आत्मछवि है कि आप बहुत बड़ी हैं लेकिन आपके जीवन के तथ्य आपकी छवि से मेल नहीं खाते तो आपको बुरा लग जाता है, ये है। आप जिसकी तुलना में अपनेआप को कम आँकती हैं न वो है आपकी एक विराट छवि। आप कह रही हैं, देखो, मैं इस काबिल हूँ कि मुझे ऐसा तो होना ही चाहिए।
लेकिन जीवन आपको उस तरह के अनुभव देता नहीं, जीवन आपको उस तरह का सम्मान देता नहीं तो फिर चोट लग जाती है। कम आँकने का मतलब समझ रही हैं न? ‘मैं इस काबिल हूँ’, उदाहरण के लिए, बहुत उदाहरण हैं, उसको बहुत आगे तक मत लेकर जाइए। बस समझिए।
मैं इस काबिल हूँ कि मुझे महीने के दो लाख रुपए तो मिलने ही चाहिए थे, मिलते हैं पचास ही हजार तो मैं बहुत कम हूँ, मैं बहुत कम हूँ। तुम कम हो या बहुत ज़्यादा हो? अपनी नज़र में तुम फ़न्ने खाँ हो। तुम कह रहे हो, ‘मैं तो वो हूँ जिसे दो लाख मिलने चाहिए थे’, उसकी तुलना में कहते हो, ‘अरे! मैं तो पिछलग्गू हूँ, वैसे ही, पिछड़ गई।‘
क्षमा चाहता हूँ! आपको ये बात सुनने में मीठी नहीं लग रही होगी लेकिन आपने प्रश्न पूछा है तो दायित्व है मेरा कि जो मुझे ठीक लगता है, मैं आपसे कहूँ। मेरी बात आपको ठीक नहीं लग रही हो, आप अस्वीकार कर दीजिएगा लेकिन मुझे मेरे धर्म का पालन करने दीजिए।
आगे और आपने अपनी कार्यकारण श्रृंखला को बढ़ा दिया। खुद को कम आँकती हूँ जिसके कारण मन पर नकारात्मकता आ गई है फिर उसके कारण जीवन में लचरपन आ गया है। आप तो होशियारों में होशियार हैं, सब पता है आपको, इसके कारण ये होता है, इसके कारण ये होता है, इसके कारण ये होता है, आप कम कहाँ हैं? आप तो महाज्ञानी हैं। ये जो महाज्ञान है न, यही अज्ञान है और इसी के कारण समस्या है। कह रहे हैं, संकल्प बल की कमी है। संकल्प की कमी इसलिए है क्योंकि सत्य दिख नहीं रहा। संकल्प क्या होता है, गौर से समझिए।
साधारण कल्पना कहलाती है ‘कल्प मात्र’, साधारण कल्पना ‘कल्प मात्र’ है। कल्पित वस्तु हमेशा लक्ष्य होती है। जो चीज़ आपको बिलकुल नहीं चाहिए, आप उसकी कल्पना नहीं करोगे। कल्पना लक्ष्य के साथ चलती है। संकल्प का अर्थ हुआ उसकी कल्पना कर लेना जिसकी कल्पना करी नहीं जा सकती। सब संकल्प इसीलिए सत्य मात्र के प्रति ही हो सकते हैं। आप कहें, ‘मुझे किसी का सर फोड़ना है’, ये संकल्प नहीं कहलाएगा। ये मूढ़ता हो सकती है, ये पूर्वाग्रह हो सकता है, ये हठ हो सकता है लेकिन ये संकल्प नहीं कहा जा सकता।
संकल्प मात्र तब है जब कोई सच की ओर बढ़ना चाहे, उसको संकल्प कहते हैं। तो संकल्प धारण करने के लिए सबसे पहले सच दिखना तो चाहिए न? सच दिखेगा नहीं क्योंकि सच देखने की चीज़ नहीं। तो संकल्प धारण करने के लिए झूठ का दिखना ज़रूरी है तभी कोई संकल्प कर सकता है और इसीलिए हमारे संकल्प पूरे नहीं होते। हममें से ज़्यादातर लोगों की यही कहानी, यही अनुभव है कि संकल्प करते हैं और कायम नहीं रह पाते, है कि नहीं? वो इसीलिए क्योंकि हमारे संकल्प संकल्प होते ही नहीं, कामनाएँ होती हैं। कामना और संकल्प बहुत अलग बात है।
कामना है कुछ पाना है, जो पाना है वो झूठ है पर पाना है। अब झूठ कौन पाना चाहता है? तो इसीलिए आप जो कामना करते हो उस कामना में बहुत दम होता नहीं, दो-चार दिन चलती है फिर फ़ुस।
संकल्प तब है जब सच को पाना है, संकल्प तब है जब अपना झूठ दिखे। चूँकि हमें हमारा झूठ दिख ही नहीं रहा होता इसीलिए हमारे संकल्पों में कोई जान नहीं होती। हमारे संकल्प दीर्घावधि के नहीं होते, दो-चार दिन चलते हैं फिर पटक जाते हैं। आपके भी संकल्प इसीलिए नहीं चलते क्योंकि आपको आपका झूठ नहीं दिख रहा।
अभी तक मैंने जो कुछ बोला है, छोटा सा प्रयास करा है कि आप अपने झूठ से अवगत हो सके। जिसको अपना झूठ दिख गया उसका संकल्प अब सार्थक होकर रहेगा, व्यर्थ जाते जीवन में वो एक चीज़ अमोघ हो जाएगी। आपके संकल्प टूटते हों बार-बार तो यही जान लीजिएगा कि झूठ ही टूटता है, सच अखंड होता है, अटूट। संकल्प बार-बार टूट रहा है माने संकल्प भी झूठ के ही केन्द्र से उठ रहा है। झूठ के केन्द्र से जो संकल्प उठेगा वो टूटेगा और झूठ देखकर झूठ के खिलाफ़ जो संकल्प उठेगा वो पूरा होकर रहेगा। सिर्फ़ वही संकल्प है जो पूरा होगा, किसी भी हाल में पूरा होगा, किसी भी कीमत में पूरा होगा। आप भी अपना झूठ देख लीजिए, आप देखिए कि संकल्प पूरा होता है कि नहीं। वास्तव में जिसको उसका झूठ दिख गया उसे फिर औपचारिक रूप से संकल्प करने की या शपथ लेने की कोई ज़रूरत भी नहीं बचेगी।
अब तो उसकी साँस-साँस संकल्प जैसी ही हो जाएगी। ‘वो जी ही क्यों रहा है?’, ये प्रश्न बार-बार उसके सामने आ जाएगा। जो मैं हूँ उससे हटकर जीने का फ़ायदा?
फिर कह रही हैं, एकाग्रता भी शून्य हो गई है। एकाग्रता भी इसीलिए शून्य हो गई है क्योंकि जिस वस्तु पर आप एकाग्र हो रही हैं वो वस्तु इस लायक ही नहीं कि उस पर आपकी एकाग्रता टिक सके। हम बड़े हीन, बड़े सूक्ष्म लोग हैं भाई, समझिए।
आत्मा सूक्ष्म-अति-सूक्ष्म, नवाबी ठाट हैं उसके! किसी घटिया चीज़ से उसका कोई लेनादेना नहीं होता। अब मनवा हंसा भया, मोती चुन चुन खाए
वो मोती ही माँगता है। आप उसके सामने लाकर मोती की जगह कंकड़-पत्थर, कूड़ा-कचड़ा, ये सब रख दें और फिर कहें, ‘ये एकाग्र नहीं हो रहा है, एकाग्र नहीं हो रहा है’ तो उसमें मन की क्या गलती है? मन वास्तव में बहुत ऊँची चीज़ से नीचे का कुछ स्वीकार नहीं कर सकता। हाँ! उसकी आदत गलत डाल दे, उसको संस्कारों में बान्ध दें तो अलग बात है। फिर तो आप उसको कुछ भी कूड़ा-कचड़ा, टट्टी–पेशाब खिलाए रखिए, वो बेचारा उसको ग्रहण करता रहेगा।
ग्रहण करता रहेगा लेकिन परेशान रहेगा, काँव–काँव करेगा। उसको चाहिए कुछ बहुत उत्कृष्ट, बड़ा विशिष्ट। वो जब सामने आ जाएगा तो आपको कोशिश नहीं करनी पड़ेगी एकाग्र होने की, आप झक मारकर एकाग्र हो जाएँगे, आप विवश होकर एकाग्र हो जाएँगे। हमारा लेकिन चलन दूसरा है। हम घटिया चीज़ों से अपनेआप को घेर कर रखते हैं और फिर अभ्यास करते हैं उन घटिया चीज़ों पर एकाग्र होने का और जब एकाग्र नहीं हो पाते तो हम कहते हैं, हममें अनुशासन की कमी है, लगता है अभ्यास और करना पड़ेगा।
हर बच्चे के साथ यही तो करते हैं हम, उसको पकड़-पकड़ कर ऐसी चीजों पर एकाग्र कर रहे हैं जो किसी मूल्य की नहीं है। बढ़िया होते हैं वो बच्चे जो जल्दी से एकाग्र हो नहीं पाते और सौभाग्यशाली हैं वो वयस्क जिनमें जीवन के प्रति एक असन्तुष्टि रहती है, जो किसी एक मुकाम पर ठहर नहीं पाते। उन्हें पता हैं, उन्हें कुछ और चाहिए, बच्चा हो, बड़ा हो, कुछ और चाहिए। जो चीज़ मुझे दी जा रही है वो मेरी हैसियत की नहीं है, वो मेरे रुआब, मेरे रुतबे की नहीं है। तलवार बहुत बड़ी है, म्यान बहुत छोटी है, समाएगी नहीं। कैसे एकाग्र हो जाऊँ? कैसे घर बसा लूँ? कैसे पड़ाव डाल दूँ?
ये घर मेरा नहीं, ये घर हमारी हैसियत का नहीं। अब लीजिए, शुरुवात हमने यहाँ से करी थी कि छोटा होना ज़रूरी है, अहंकारशून्य होना जरूरी है और बात करते-करते हम यहाँ आ गए जहाँ हम कह रहे हैं कि हम तो बहुत बड़े हैं, छोटी म्यान हमें चलेगी नहीं। यही तो बात है।
यही अध्यात्म का रहस्य है। जो छोटा हो गया वो बड़ा हो जाता है, जो व्यर्थ बड़ा होने की कोशिश करता है वो छोटे-से-छोटा रह जाता है। नदी की छोटी सी धारा भी समुद्र में समाती है तो समुद्र हो जाती है। एक-एक बूँद जैसे पूरे समुद्र को अपने आपमें समाए रखती है।
समुन्दर समाना बुँद में अब किथे रचाई
जो अपनी हस्ती खोने को तैयार है, उसे सबकुछ मिल जाता है। बूँद समुद्र हो जाती है, समुद्र में मिल नहीं जाती, समुद्र को अपने में समा ले जाती है। और जो अपनी हस्ती का बस विस्तार करना चाहता है, बूँद अपना विस्तार करेगी तो कितना विस्तार कर लेगी? अपने ही जैसी पचास-साठ, सौ, दो सौ पाँच लाख बूँदों को इकठ्ठा कर लेगी, सागर के सामने क्या हैसियत?
तो अनन्तता स्वभाव है हमारा पर उस स्वभाव तक जाने के लिए पहले शून्य होना ज़रूरी है, अहंकार-शून्य होगा तो अनन्त आत्मा में प्रवेश कर जाएगा।
शून्य कैसे होगा अहंकार?
अहंकार अपने विषय जितना ही बड़ा होता है। जितने आप उसको विषय परोसती जाएँगी अहंकार उसी हिसाब से चलता, बढ़ता, पलता जाएगा। अहंकार को शून्य करने का तरीका है, सब विषयों की शून्यता माने मूल्यहीनता जान लेना। जिन भी चीज़ों से आप अटकी हुई हैं, जिन भी चीज़ों से आसक्ति है, स्थूल, सूक्ष्म उनका वास्तव में कितना महत्व है ये देख लीजिए। जैसे-जैसे आपके जीवन में चीज़ों की माने विषयों की उपयोगिता और मूल्य कम होंगे वैसे–वैसे अहंकार भी कम हो जाएगा।
उदाहरण के लिए अभी आपके पास एक ये सिद्धान्त या धारणा है कि मैं बहुत कम हूँ या मैं अपनेआप को कम आँकती हूँ या मैं नकारात्मकता में हूँ या मैं लचर हूँ या संकल्प मुझमें कम है, एकाग्रता कम है, इतनी सारी अपने बातें लिख दी हैं। ये जितनी बातें आप अपने बारे में कह रही हैं ये अभी मन के विषय हैं, ये अहंकार के विषय हैं, अहंकार इन पर यकीन करता है।
जिन भी चीज़ों पर आप यकीन करती है, जिन भी चीज़ों के बारे में आप आत्मविश्वास से भरे हुए हैं, जिन भी चीज़ों के बारे में आप बड़े विश्वास से कह देते हैं कि ये चीज़ है, अस्तित्वमान है, ऐसा है। उन सब बातों की निरर्थकता को देखिए। पूछिए, क्या वास्तव में ऐसा है? जैसे-जैसे दिखाई देगा कि आप जिन चीज़ों में यकीन करते है वो चीज़ें झूठी हैं वैसे-वैसे आपको कोई यकीन करने वाले का भी खोकलापन स्पष्ट हो जाएगा।
जो ऐसा पगला है कि व्यर्थ चीज़ों पर आस टिका बैठा था, जो ऐसा पगला है कि झूठी चीज़ों को सच्चा मान बैठा था, उस पगले का क्या मूल्य हो सकता है? तो पगले अहंकार को मूल्यहीन जानने के लिए आपको उन चीज़ों को मूल्यहीन जानना होगा जिनके साथ अहंकार अपना जोड़ा बनाता है। जब तक आप अपने सिद्धान्तों को, लोगों को, चीज़ों को, धन को, कामनाओं को, आशा को, घर-द्वार को, जो भी कुछ है आपके पास जिसके साथ आप अपना जोड़ा बनाते हैं, जिसके साथ आप अपना रिश्ता रखते हैं, जिसके साथ आप ‘मैं’ उच्चारित करते हैं, उसको जब तक आप ठोक-बजा कर परख नहीं लेते, जब तक उसको आप शून्य नहीं जान लेते तब तक आप अहंकार-शून्य नहीं हो सकते।
जो अहंकार-शून्य हो गया उसे अनन्त आत्मा उपलब्ध हो जाती है।