प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कभी मैं हीनभावना से ग्रस्त होता हूँ और कभी श्रेष्ठता की भावना से, पर सहज नहीं रह पाता। कृपया मार्गदर्शन प्रदान करने की कृपा करें।
आचार्य प्रशांत: बात इसकी नहीं है कि हीनभावना से ग्रस्त हो या बड़प्पन का बहुत अहंकार आ गया है, बात ये है कि अपने बारे में सोचते बहुत हो। सोच के साथ बात ये है कि वो सदा किसी परिपेक्ष में चलती है। तुम किसी चीज़ के बारे में सोच ही नहीं सकते बिना किसी पृष्ठभूमि के। देखो, यहाँ (शिविर कक्ष में) जितनी भी चीज़ों को देख रहे हो, हर एक के पीछे कोई पृष्ठभूमि है न? इस पर्दे की ओर देखिए। क्या संभव है पर्दे की ओर देख पाना बिना इसकी सीमाओं को देखे? पर्दे का अर्थ ही है एक सीमित वस्तु, पर्दे का अर्थ ही है पर्दे की सीमाएँ। और पर्दे की सीमाएँ जहाँ आईं, वहाँ दीवार आ गई। पर्दे को देखा, दीवार की पृष्ठभूमि पर।
मन के जगत में जो भी चीज़ उठेगी, उसके पीछे ज़रूर कुछ होगा। वो दिखाई ही सदा पीछे की वस्तु के संदर्भ में देगी। 'एक' को न तुम देख सकते हो, न सोच सकते हो। जब भी तुम्हें दिखेंगे, 'दो' ही दिखेंगे। इस बात को अच्छे से पकड़ लो। मन में 'एक' नहीं हो सकता, मन की गिनती शुरू 'दो' से होती है। फिर दो के बाद तीन, चार, पांच... अनंत। शून्यता संभव है मन मिट जाए तो, और द्वेत लाज़मी है अगर मन बना हुआ है तो। 'एक' असंभावना है, 'एक' बिलकुल असंभव है।
अब जो व्यक्ति डरा हुआ है, जो व्यक्ति अपने को लेकर शंकित है, वो अपना विचार करेगा। जब वो अपना विचार कर रहा है, तो वो सोच रहा है, "मैं किसी एक का विचार कर रहा हूँ।" उसकी दृष्टि में वो 'एक' वो स्वयं है। वो सोच रहा है, "मैं अपने बारे में सोच रहा हूँ।" पर 'एक' के बारे में तो सोचा जा नहीं सकता। एक के पीछे खड़ा होगा सदैव कोई दूसरा।
तो 'एक' जब भी तुम्हारे सामने आएगा दूसरे के संदर्भ में आएगा माने दूसरे की तुलना में आएगा। अपने बारे में जब भी विचार करोगे तुलनात्मक तौर पर ही करोगे। दूसरे की अनुपस्थिति में तुम्हारी कोई उपस्थिति संभव नहीं है। दूसरे को बनाओगे तुम दीवार, नेपथ्य, पृष्ठभूमि, और उसके आगे तुम खड़े हो जाओगे। दो हो गए, तो तुलना होगी। तुलना जब भी होगी, तो नतीजे में या तो छुटपन आएगा या बड़प्पन आएगा, तो कभी लगेगा छोटे हैं, कभी लगेगा बड़े हैं।
जब तक ये लगता है कि बड़े हैं तो फिर भी काम चल जाता है। आदमी कहता है, "कोई हानि नहीं, हम बहुत बड़े हैं।" पर बीच-बीच में, यदा-कदा, और कई बार हो सकता है लगातार, तुम्हें ये भी पता चले कि जो पीछे है तुम्हारे, उससे छोटे हो तुम—संयोग की बात है—तो फिर बुरा लगेगा।
बुरा इसलिए नहीं लग रहा कि कोई और है जो तुमसे बड़ा है, बुरा इसलिए भी नहीं लग रहा कि तुम छोटे हो, बुरा इसलिए लग रहा है क्योंकि अपने बारे में सोच रहे हो। अपने बारे में बड़े चिंतनशील हो, और अपने बारे में जो चिंतनशील होगा, उसको इन दो में से किसी एक नतीजे पर बार-बार पहुँचना ही पड़ेगा। नतीजे दोनों भ्रामक हैं, नतीजे दोनों हानिप्रद हैं, पर दो में से कोई एक नतीजा तुम्हें मिलता ही रहेगा, तुम उसे ढोते ही रहोगे। कभी लगेगा हम बहुत छोटे हैं, कभी लगेगा हम बहुत बड़े हैं।
कोई कहता है, "मेरा घर बहुत छोटा है।" छोटा कैसे है? कैसे छोटा है? तुलनात्मक रूप से ही छोटा है न? गाड़ी खरीदने जाओ तो वह पूछेंगे "छोटी गाड़ी, बड़ी गाड़ी?" कैसे पता कि जो गाड़ी तुम्हारे सामने हैं वो स्मॉल (छोटी) कार है, कैसे पता?
प्र: बड़ी से तुलना करके।
आचार्य: और उससे बड़ी होती ही न हो, तो क्या वो…?
१९९० में जिनके पास मारुति ८०० होती थी, उन्हें बहुत तकलीफ नहीं होती थी कि उनके पास छोटी गाड़ी है, क्यों नहीं होती थी? क्योंकि बड़ी गाड़ियाँ थी ही कहाँ? हज़ार में कोई एक दिख जाती थी बड़ी।
बात उस मन की है जो सदा अपने-आपको नापता रहता है। और फिर कह रहा हूँ, नापने के तो दो ही परिणाम निकल सकते हैं न? नापा तो क्या पाया? या तो छोटा है या तो पाया कि बड़ा है, हीनभावना-श्रेष्ठभावना, हीनभावना-श्रेष्ठभावना। इतना नापते क्यों हो?
बहुत सारी चीज़ें नापने वाली होती हैं। कुर्ता नापकर खरीदना, जूता नापकर पहनना, दवाई भी नापकर पीना, पर कुछ है तुममें जो नापा नहीं जा सकता। तुममें जो नापा नहीं जा सकता, वही तुम हो। तुम्हारे विषय में जो कुछ भी संख्याओं में अभिव्यक्त हो सकता हो, तराज़ू पर तोला जा सकता हो, किसी भी गणित से जिसका अनुमान लगाया जा सकता हो, फीते से जिसकी नाप हो सकती हो, वो तुम वास्तव में हो नहीं। नापने वाली चीज़ को नापो न, अपने-आपको क्यों नापते हो? और जो नाप-नापकर ये सुख भोगते हैं कि नापते हैं तो बड़ा मज़ा आता है क्योंकि नापने पर पता चलता है कि हम ही सूरमा हैं, उनकी अगर नापने की आदत बनी रही, तो जल्दी ही उन्हें पता चलेगा कि वही फिसड्डी भी हैं।
बात सीधी है; दुनिया में कोई संख्या सबसे बड़ी नहीं। तुम खड़े होओगे किसी भी संख्या पर, उसमें एक और जोड़ दो, वो संख्या छोटी हो गई। और नापोगे जब भी, तो कोई संख्या ही मिलेगी न? कि इतना मेरे पास धन है, इतनी इंच लंबी मेरी गाड़ी है, इतने मंज़िल ऊँचा मेरा मकान है, इतने लोगों तक मेरी पहुँच है, इतने पत्रों में मेरे लेख छपते हैं, इतने मैंने मेडल जीत लिए हैं- कोई संख्या ही मिलेगी न? देख रहे हो? और हर संख्या किसी दूसरी संख्या के सामने छोटी ज़रूर है।
तो जो भी चीज़ नापी जा सकती है, वो तुम्हारे लिए लगातार दुःख और चिंता का कारण रहेगी। जो नापा तुमने, अगर वो दूसरों की तुलना में छोटा ही निकला, तो बड़ा बुरा लगेगा कि हम तो छोटे हैं, और जो नापा तुमने, अगर वो दूसरों की तुलना में बड़ा निकला, तो बड़ी चिंता, आशंका रहेगी कि अपनी सर्वोच्चता को बनाए रखें। ज़रूरी है न? आज बड़े हैं, कल कहीं छोटे न हो जाएँ।
एक दौड़ में सबसे आगे-आगे भागने वाले, जीतने वाले धावक से पूछा गया, "जीतते हुए कैसा लगता है?" बोला, "जीत जाने पर तो बढ़िया—एक बार जीत का फीता छू लिया, फिर तो बहुत बढ़िया—पर जब तक दौड़ रहे हैं तो पूछो मत क्योंकि मैं सबसे आगे-आगे दौड़ता हूँ। पीछे वालों को तो फिर भी पता है कि दौड़ के हालात क्या हैं, मुझे कुछ नहीं पता क्योंकि मुझसे तो सब पीछे ही पीछे हैं। मैं बिलकुल नहीं जानता कि दुनिया का हाल-चाल क्या है। कोई मुझसे हो सकता है ५० फीट भी पीछे हो, और ये भी हो सकता है कि बिलकुल मेरे कंधे पर ही साँस ले रहा हो, इतना निकट आ गया हो। तुम मेरी हालत नहीं समझ सकते जब मैं दौड़ रहा हूँ। सबसे आगे-आगे दौड़ना शायद सबसे पीछे दौड़ने से भी ज़्यादा कष्टप्रद है क्योंकि पीछे जितने हैं सबका निशाना मैं हूँ। मुझसे ज़्यादा कोई नहीं जिसके खिलाफ साज़िशें रची जा रही हों। मेरे पीछे का एक-एक धावक इसी ताक में है कि मुझसे आगे निकल जाए और वो मुझे देख सकते हैं, मैं उन्हें देख नहीं सकता। मेरी तो हालत मत पूछो।"
ये धावक फिर भी किस्मत वाला है क्योंकि इसकी दौड़ खत्म हो जाती है। कहीं पर एक फीता है, उसको छू दिया तो दौड़ खत्म। इंसान की दौड़ तो जीवन भर खत्म नहीं होती न। तो अगर तुम उनमें से हो जो आगे-आगे चलते हैं तो सोच लो कितनी चिंता में जीवन भर रहते हो। इस धावक को तो बस सौ मीटर, नहीं तो चार-सौ मीटर, नहीं तो चार-हज़ार मीटर चिंता में रहना है, तुमको तो अस्सी साल चिंता में जीना है, "पीछे वाले पता नहीं क्या कर रहे हों?"
तुलनात्मक रूप से जब भी अपने-आपको देखोगे, अपने लिए नर्क बना लोगे। अब ये बात हमारे लिए नई है क्योंकि हमने अपने-आपको देखने का और कोई तरीका ही नहीं जाना। हमने जब भी अपने-आपको देखा है, उन्हीं चीज़ों को देखा है जो नापी-तौली जा सकती हैं। कोई आपसे पूछे, "कैसे हो?" तो आपके सारे जवाब उन्हीं चीज़ों के संदर्भ में होते हैं जो संख्यागत हैं।
"ज़िन्दगी कैसी चल रही है, भाई?" "हम्म... रुपए-पैसे की ये हालत है, व्यापार की ये हालत है, स्वास्थ्य की ये हालत है।"
और जिस स्वास्थ्य की आप बात करते हैं, वो तो पूरा ही संख्यागत होता है। पैथोलॉजी (विकृति विज्ञान) की रिपोर्ट (विवरण) देखी है? उसमें एक के बाद एक संख्याएँ ही लिखी होती हैं। अब कोई आपसे कहे कि तुम अपना स्वास्थ्य यानि कि अपना शरीर हटा दो, अपना धन हटा दो, वो सबकुछ हटा दो जो संख्या में नापा जा सकता है, उसके बाद बताओ तुम कौन हो। आप कहेंगे, "अरे हटो! ये कोई बात है?"
तो अगर तुमको अपने-आपको वैसे ही देखना है जैसे कि किराने की दुकान में माल को देखा जाता है—कितने सेर, कितने किलो, कितनी इकाईयाँ, क्या दाम, कितना बड़ा, कितना छोटा—तो फिर जी चुके।
प्र: आचार्य जी, ये तुलना ऑटोमेटिकली (अपने-आप) शुरू हो जाती है। जैसे कि मैं जिम में जाता हूँ, मैं अपना वर्कआउट (व्यायाम) कर रहा हूँ- जैसे मैं सौ किलो का स्क्वेट लगा रहा हूँ, कोई बॉडीबिल्डर डेढ़ सौ का मार रहा है, तो मैं छोटा फील (महसूस) करके साइड में हो गया। और जैसे वकील हूँ, वकालत करता हूँ। अपना केस तैयार करके गया पूरा, सामने से दूसरा आया उसने और अच्छा केस साइट कर दिया। जैसे आपने कहा पैथोलॉजी की रिपोर्ट * । अभी * टेस्ट (परीक्षण) कराया, तो मेरे दो लाख दस हज़ार प्लेटलेट्स थे। एक आया, बोला, "मेरे तीन लाख कुछ हैं।" तो भी मैं छोटा महसूस करने लग गया।
आचार्य: कर लो छोटा महसूस; गलत नहीं है ये, बात बिलकुल ठीक है। तुम्हारे प्लेटलेट्स किसी ऐसे से कम हैं जिसके तीन लाख हैं, और तुम्हारे दो-लाख-दस-हज़ार हैं। अच्छी बात है। भगवान करे डेढ़ लाख से कम न हो। इस शरीर के प्लेटलेट्स किसी और के शरीर के प्लेटलेट्स से कम हैं, इन बाजुओं की ताकत किसी और के बाजुओं की ताकत से कम है। ठीक है बात। पाँच की संख्या सात की संख्या से कम है। ये बात तो बिलकुल ठीक है। पर इन बातों से ये कैसे हो गया कि 'हम' कम हैं? बाजुओं की ताकत कम हो सकती है। कोई सौ किलो के स्क्वेट मार रहा है, कोई डेढ़ सौ किलो के, बिलकुल हो सकता है।
इसमें से बहुत कुछ तो, देखो, जन्म के साथ ही निर्धारित हो जाता है। शरीर का जन्म होता है। अब शरीर कैसा जन्मा है, कैसे उसके जींस (वंशाणु) हैं, उसी से बहुत सारी बातें भी तय हो जाती हैं शरीर के बारे में। तुम साढ़े-पाँच-फीट के हो, कोई छह-फीट का है। साढ़े-पाँच, छह से कम है, पर इससे तुम कैसे कम हो गए, ये बता दो?
प्र: मन तो ऐसा है कि मैं जिस ध्यान केंद्र में जाता हूँ, तो वहाँ मैं सबसे पूछता हूँ। तो लोग कहते हैं कि समाधि में जाओ। मैं सबसे कहता हूँ, "मैं तो जा ही नहीं पा रहा समाधि में, आप चले गए थे?" तो वो कहते हैं, "हाँ, मैं तो चला गया था।" तो भी मैं छोटा महसूस करने लगता हूँ।
आचार्य: तुम वो हो जो किसी समाधि का प्रार्थी हो नहीं सकता क्योंकि वो चिर समाधिस्थ है। अब बताओ तुम किसी से छोटे या बड़े कैसे हो गए? जो कहे कि उसे समाधि लगानी है, वो पगला। और चूँकि वो पगला है इसीलिए उसे समाधि की ज़रूरत भी है, तो उसे निश्चितरूप से समाधि लगानी चाहिए। उसे पूरी कोशिश करनी चाहिए कि उसे समाधि मिले। पर इतना ज़रूरी क्यों है कि तुम पागल रहो? ज़रूरी क्यों है इतना कि किसी भी तरह की समाधि की तुम अभिलाषा या अभ्यास करो? हम वो हैं जिसे कोई समाधि चाहिए नहीं।
जब तक तुम वो हो जिसे समाधि चाहिए, तब तक पूरी कोशिश करो समाधि की, पर मैं तुमसे पूछ रहा हूँ कि वो अपने-आपको माने रहना ज़रूरी क्यों है जिसे समाधि चाहिए? हाँ, बिलकुल ऐसा हो सकता है कि मन किसी का ज़रा जल्दी शांत हो जाता हो, समाधिस्थ हो जाता हो, और मन किसी का बहुत अभ्यास, बहुत साधना माँगता हो समाधिस्थ होने के लिए। मन और मन में अंतर है। आत्मा कब से अंतरों की परवाह करने लगी? क्यों अपने-आपको मन मानते हो? मन तो कुछ भी हो सकता है।
मन मैला मन ऊजरा, मन पानी मन लाय -कबीर साहब
मन तो कैसा भी हो सकता है।
मनके बहुतक रंग हैं, छिन-छिन बदले सोय -कबीर साहब
मन के बहुतक रंग हैं, अच्छी बात। वहाँ अंतर है, वहाँ संख्याएँ हैं। तुमसे ये किसने कह दिया कि तुम इन अंतरों से चिपक कर रह जाओ? तुम देखो कि ये सब अंतर हैं, तुम देखो कि ये सब संख्याएँ हैं, और तुम बेखौफ़ होकर कहो कि "हाँ, मैं साढ़े-पाँच फीट का, वो छह फीट का।" अब तुम्हें न शर्म चाहिए, न पाखंड। और आमतौर पर पाखंड, शर्म से ही उठता है। जैसे ही तुम्हें शर्म आने लगेगी तुम साढ़े-पाँच फीट के हो, तुम कुछ-न-कुछ पाखंड ज़रूर करोगे। तुम जूते ढूँढ लाओगे जिसमें तीन इंच की हील लगी हो। और फिर कोई पूछेगा कि, "कद कितना है तुम्हारा?" तो हो ५'६" के और बताओगे ५'८", क्यों? क्योंकि सबसे पहले तुम शर्मसार थे अपने कद को लेकर के।
जब तुम मस्त हो करके कहते हो कि "हाँ, शरीर साढ़े-पाँच फीट। हम? हमारा कोई कद नहीं।" तो फिर साढ़े-पाँच के आँकड़े से तुम्हें कोई समस्या नहीं रह जाती। फिर साढ़े-पाँच, साढ़े-पाँच ही है; फिर तुमको साढ़े-पाँच को पाँच-आठ नहीं करना, फिर तुम मुँह छुपाए नहीं घूमोगे, फिर तुम कद बढ़ाने की गोलियाँ नहीं खाओगे, फिर बंगाली तांत्रिक के चक्कर नहीं लगाओगे।
प्र: अभी तो भीतर लगता है कुछ कमी है। जैसे मैं जुडिशरी (न्याय पालिका) की तैयारी कर रहा हूँ, तो फिर कोई बाहर से आकर कह देता है, "वो तो तेरी उम्र में जज (न्यायाधीश) लग गया।"
आचार्य: ये सारी बातें बिलकुल सही हैं। हमारा जीवन भी छोटा है, हमारा कद भी छोटा है, हमारी उपलब्धि भी छोटी है।
हम?
हमारी बात मत करो। हम न छोटे हैं न बड़े हैं। हमारी बात करी ही नहीं जा सकती, हम किसी बातचीत का मुद्दा हो ही नहीं सकते हैं।
प्रतियोगिता में बैठे, असफल रहे। कौन असफल रहा? (प्रश्नकर्ता से) क्या नाम है?
प्र: नितिन।
आचार्य: नितिन प्रतियोगिता में बैठा, असफल रहा।
हम?
अजी हटाइए! हमसे प्रतियोगिता करेगा कौन? हमारे अलावा दूसरा है कौन जो हमारा प्रतियोगी बने? हम तो चिरकाल से योगस्थ हैं।
अब बड़ा ईमानदार जीवन जी सकते हो, अब फ़रेब नहीं करना पड़ेगा। न हीन भावना रहेगी, न श्रेष्ठ भावना रहेगी, न लज्जा रहेगी, और न ही पाखंड रहेगा। हारोगे तो भीतर रोष नहीं उठेगा, और जीतोगे तो भीतर गर्व नहीं उठेगा। हाँ, कोई है जो हार गया। हाँ, कोई है जो जीत गया। अब तुमको किसी तरीके की विनम्रता की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
बड़ी झूठी चीज़ है विनम्रता। विनम्रता तो बस ये दिखाती है कि भीतर से गौरव कुलाँचे मार रहा है, और तुम उस पर मर्यादा का नकाब चढ़ा रहे हो। भीतर तो कोई है जो उछल-उछलकर कहना चाहता है कि "हम कुछ हैं!" और तुम शालीन और विनम्र बनकर कह रहे हो, "नहीं साहब, हम तो कुछ नहीं हैं, आपकी पद्धूलि हैं।"
"प्रतियोगिता में असफल रहे?"
"हाँ, असफल रहे।"
ठीक है। ये बात एक तथ्य मात्र है। इस तथ्य का तुमसे कोई लेना-देना नहीं। "क्या ये घटना घटी है?"
"हाँ, घटी है। बिलकुल घटी है।"
"क्या तुम हारे हो?"
"हाँ, बिलकुल।"
नितिन नाम का जो व्यक्ति है वो निश्चित रूप से हारा है, और हम इस बात से इंकार नहीं करते। हम छुपाएँगे नहीं इस बात को। हाँ, बिलकुल। लेकिन हम वो हैं जिसके साथ कोई घटना कभी घट नहीं सकती। न ऊँची न नीची, न अच्छी न बुरी, न हार न जीत।
"क्या घटनाएँ घट रही हैं?"
"हाँ, घट रही हैं।"
"क्या वो मेरे साथ घट रही हैं?"
"नहीं, मेरे साथ नहीं घट रही हैं। नितिन के साथ घट रही हैं। मेरे साथ कभी कुछ होता ही नहीं। मैं सब घटनाओं से सर्वथा अछूता, अस्पर्शित हूँ। मैं न उठता हूँ न गिरता हूँ, न जन्मता हूँ न मरता हूँ, मुझे क्या हानि, क्या लाभ? मेरे कौन आगे कौन पीछे?"
प्र: ये सब किताबी बातें ही लग रही हैं। मेरे एक्सपीरियंस (अनुभव) में ही नहीं है कुछ, तो मैं कैसे कह दूँ कि मेरे को कुछ नहीं होता?
आचार्य: जिसको एक्सपीरियंस हो रहा है उसे होने दो न। तुम वो हो जो किसी चीज़ का अनुभव कर ही नहीं सकता। अनुभव के लिए लालायित रहोगे तो मन बनना पड़ेगा। सारे अनुभव किसको होते हैं? मन को। और देखो तुम शर्त क्या रख रहे हो? तुम कह रहे हो, "मैं आपकी बातों को तब मानूँगा जब मुझे उनका अनुभव हो।" और इसमें गलती भी तुम्हारी नहीं है। बड़े गुरुजन बता गए हैं कि किसी भी बात को सच तभी मानना जब वो तुम्हारे अनुभव में आए, और ये परममूर्खता की बात है। जो कोई तुम्हें बताए कि किसी भी बात को अपने अनुभव की कसौटी पर कसकर सच मानना, वो न खुद कुछ जानता है और दूसरों को भी भ्रमित ही कर रहा है।"
अनुभव सदा सारे किसको होंगे? मन को होंगे।
और मैं तुमसे कह रहा हूँ कि तुम वो हो ही नहीं जिसे अनुभव होते हैं।
तुम कह रहे हो, "नहीं साहब, सत्य का भी अनुभव कराओ!" अनुभव करने के लिए तुम तत्काल क्या बन जाओगे? मन बन जाओगे। अब बन जाओ मन। फिर मन में तो जीत भी है, हार भी है। मन में तो सुख-दुःख, राग-द्वेष सब हैं, फिर रोते रहना।
जो अनुभव को लेकर बड़ा दीवाना है उसको तो फिर अनुभवों के भवसागर से गुज़रना पड़ेगा। वो तो गुज़र ही रहे हो तुम। देख नहीं रहे हो कैसे-कैसे अनुभवों में फँसे हुए हो? तुम्हारे अनुभव ही तो नर्क हैं तुम्हारा। और उस पर तुम्हारी ज़िद्द ये कि हमें सच का भी अनुभव करा दो।
आत्मा अनुभोक्ता होती है क्या? अनुभव की घटना के लिए सदा कितने चाहिए?
प्र: दो।
आचार्य: जो तुम हो कोई अनुभव उसे छू नहीं सकता, और यही तो खासियत है तुम्हारी। अनुभव की माँग मत करो। जब तक अनुभवों का झूला ही झूलते रहोगे तब तक चैन नहीं पाओगे—कभी इधर, कभी उधर। जिसको अनुभव होते हैं उसे होने दो। तुम अनुभवों से ज़रा दूर-दूर रहो।
अनुभव तो प्यास के सूचक हैं, अनुभव तो आंतरिक दरिद्रता के सूचक हैं। तृप्ति का कोई अनुभव नहीं होता, प्यास का ही अनुभव होता है। दो अनुभव होते हैं: प्यास के होने का और प्यास के न होने का। तृप्ति का कोई अनुभव होता है? जब तुम्हें प्यास नहीं लगी हो तब कंठ में कोई अनुभव हो रहा होता है?
तब कोई अनुभव नहीं है।
दुःख तुम तब कहते हो? जब प्यास लगी हुई है। और सुख तुम तब कहते हो? जब लगी हुई प्यास बुझ गई है। पर जब प्यास लगी ही नहीं है तब तुम मुझे बताओ कि सुख है कि दुःख है? बोलो कौन-सा अनुभव है?
प्र: तृप्ति।
आचार्य: जो कि कोई अनुभव नहीं है क्योंकि उसका कोई विचार ही नहीं। अभी पिछले आधे घण्टे में कितने लोगों ने अपने कंठ का विचार किया है? प्यास का विचार किया है? जब प्यास नहीं लगी, तो न विचार है न अनुभव हैं। और अनुभव तो सारे दुःख से ही सम्बंधित हैं। जब प्यास लगी तो दुःख, और जब वो दुःख मिटा तो तुम कह देते हो सुख। तो सुख के आने के लिए पहले क्या आवश्यक था? दुःख।
और करे जा रहे हो अनुभव की माँग। अनुभव की माँग करना ऐसा ही है जैसे अभी मेरे सामने बैठे हो, सहज हो, शांत हो, और तुम्हें प्यास का अनुभव होना शुरू हो जाए। कैसा लगेगा नितिन? अभी आप यहाँ बैठे हैं, अभी अनुभवशून्य हैं, और अभी किसी को दर्द का अनुभव होना शुरू हो जाए, किसी को प्यास का अनुभव होना शुरू हो जाए, कैसा लगेगा बोलो? कई युवा लोग बैठे हैं। घुटने में कोई अनुभव हो रहा है अभी? दाँत में कोई अनुभव हो रहा है? और अनुभव होना शुरू हो जाए घुटने में और दाँत में, फिर क्या होगा?
अनुभव बीमारी है। घुटना बीमार हो तो बहुत अनुभव कराता है। दाँत में कीड़ा लगा हो तो एक-से-एक अनुभव होंगे। दाँत स्वस्थ हो तो कोई अनुभव होता है? अभी कोई अनुभव हो रहा है दाँत का किसी को? तो क्यों इतना अनुभवों के पीछे भागते हो?
प्र: तो साधना-वाधना कुछ नहीं करना? मौज लें?
आचार्य: मौज लेने की भी ज़रूरत नहीं है। तुम मौज में हो।
प्र: मन इतना कंपैरेटिव (तुलनात्मक) है कि वो आपसे भी तुलना करने लगा है कि जो इनको हुआ है वो मुझे क्यों नहीं हो रहा?
आचार्य: करने दो न मन को।
प्र: मतलब जो ज्ञान आपको हुआ वो मुझे क्यों नहीं हुआ? मेरे अंदर से ऐसी बातें क्यों नहीं निकल रही?
आचार्य: ठीक है, नहीं निकल रही। "जितनी बातों की तुलना हो सकती है उन सारी बातों में मैं हीन हूँ। मेरे पास उनके जैसा ज्ञान नहीं है, मेरे पास उनके जैसी दाढ़ी नहीं है", और जितनी बातें तुम गिनती में कर सकते हो—कि ये नहीं है, ये नहीं है, जो-जो कुछ सोच सकते हो—सब सोच लो और कह दो, "हर पैमाने पर मैं ही तुच्छ हूँ।" उसके बाद कहो, "ठीक है। लेना एक न देना दो। ये जो तुच्छ है उससे मेरा क्या लेना देना?"
तुम अपने-आपको वो मान रहे हो जो तुम हो नहीं, और फिर उसका नतीजा भुगत रहे हो।
प्र: आचार्य जी, ये तो हम सभी की मनोस्थिति है। चाहे-अनचाहे में हम हर रोज़ वही कर रहे हैं और फिर हर रोज़ उसको भुगत भी रहे हैं।
आचार्य: तुलना गलत बात नहीं है; अपने-आपको तुलना का विषय समझना गलत बात है। आपकी उम्र ५०, उसकी उम्र थी ३०। किसकी उम्र ज़्यादा?
प्र: ५० की।
आचार्य: ठीक, हो गई तुलना। जिसकी तुलना की जा सकती थी उसकी तुलना हो गई। आपकी तुलना नहीं की जा सकती।
तो जब मैं कहूँ आपकी उम्र इतनी, तो तुरंत कह दीजिए, "अजी हटाइए! आप शरीर की उम्र की बात कर रहे होंगे।" समझाने वालों ने इसीलिए बार-बार बहुत ज़ोर देकर कहा है कि "तुम वो हो जिसको कोई संज्ञा, कोई विशेषण, कोई उपाधि नहीं दी जा सकती। तुम वो हो जिसके साथ कोई गुण नहीं जोड़ा जा सकता। अपने साथ तुमने कोई भी उपाधि जोड़ ली, तुमने अपने-आपको कुछ भी अगर बना लिया तो फँसोगे। छोटे हो गए तो दुःख, बड़े हो गए तो दुःख, कुछ भी हो गए तो दुःख।
उठापटक का खेल ये सब बाहर-बाहर चलता रहे। बाहर तो सदा यही रहेगा कि कोई हारा कोई जीता। बाहर क्या है? प्रकृति का विस्तार है। और उस विस्तार में तो लगातार संघर्ष है। जीव-जीव को खा रहा है। जीव ही जीव का भोजन है। यही है न प्रकृति?
और ये आदमी ने नहीं बनाई है। ये मत कह देना कि आदमी बड़ा कपटी है, कुटिल है। जंगल चले जाओ, वहाँ भी यही है। जो हाल शहर का है वही जंगल का है। मारामारी यहाँ भी है, मारामारी वहाँ भी है। अभी रात है, नौ-दस बज रहे हैं। इस वक्त जंगल में क्या हाल होगा? सोचो। रात के शिकारी निकल पड़े होंगे, चिड़िया सब अपने-अपने घोसलों में डरी सहमी बैठी होंगी, और कई तरीके के साँप होते हैं, वो रात में ही निकलते हैं। कई आखेटक होते हैं हिंसक पशु, वो भी रात में ही निकलते हैं। शिकार माने तुलना। जो बली है वो जीत जाएगा, यही न?
तो बाहर तो लगातार तुलना का ही खेल चल रहा है। संसार में तो सदा यही है; कुछ कम है, कुछ ज़्यादा है। पृथ्वी सेब से कहीं ज़्यादा बड़ी है तो सेब को अपनी ओर खींच लेती है। कोई और पिण्ड होता पृथ्वी से कहीं ज़्यादा बड़ा तो वो पृथ्वी को अपनी ओर खींच लेता। सूरज बहुत बड़ा है, सब ग्रह उसके चक्कर काटते हैं। तुम देख रहे हो न कि दुनिया में जो कुछ भी है वो तुलनात्मक ही है। बात समझ में आ रही है? हर चीज़ किसी दूसरी चीज़ से संबंधित है। हर चीज़ किसी दूसरी चीज़ के संदर्भ में ही है। और अगर तुम बेहोश जी रहे हो तो हो सकता है तुम्हें फिर भी न पता चले कि हर चीज़ किसी दूसरी चीज़ के संदर्भ में है। जितना तुम जागृत होओगे, उतना तुम्हें दिखाई देगा कि यहाँ तो सब कुछ ही रिलेटिव (परस्पर संबंधित) है। कुछ भी एकाकी नहीं।
तुम एकाकी रहो। इसी को कैवल्य कहते हैं। नहीं तो बड़ी बुरी हालत रहेगी। हर आती-जाती लहर, हवा का छोटा-बड़ा धोखा तुमको हिलाता-डुलाता रहेगा। एक खबर आएगी कुछ अच्छा हो गया, तुम फूल जाओगे। थोड़ी देर में दूसरी खबर आएगी कुछ बुरा हो गया, गुब्बारा पिचक जाएगा। ये होता है दिनभर कि नहीं होता है? फोन की स्क्रीन देखते हुए चेहरा कभी सूज जाता है, कभी सूख जाता है। हँसी-ठठ्ठे चल रहे थे, फोन आया, कान में लगाया, और मुँह का भाव कुछ से कुछ हो गया।
क्या हुआ?
कान में एक खबर पड़ गई। ये तो बड़ी लाचारगी की हालत हुई न कि जिसने चाहा उसी ने डिगा दिया। अरे, और तो और जिसने नहीं चाहा उसने भी डिगा दिया। ये तो बुरा लग ही गया कि हम सज-सँवर के निकले थे, और दोस्तों ने तारीफ नहीं करी, ये भी बुरा लग गया कि हम सज-सँवर के निकले थे, और कोई अपरिचित हमें उपेक्षा देकर चला गया। अब वो अपरिचित, वो चाह भी नहीं रहा है तुमको सताना, तुम तब भी चोट खा गए। कितनी खराब हालत है, है न? ये ज़रूरत भी नहीं कि कोई योजना बना करके तुमको परेशान करे। यूँ ही परेशान हो गए।
क्यों? क्योंकि अपने-आपको दूसरों की निगाहों से देख रहे हैं, क्योंकि अपने-आपको देखने की कोशिश कर रहे हैं। ये कोशिश कुछ तो बौद्धिक है, लेकिन इस कोशिश के पीछे ज़्यादा बड़ा हाथ धर्म गुरुओं का है। न जाने कितनी बार तुमसे कहा गया है कि अपने भीतर जाओ, स्वयं को जानो, अंतर्यात्रा करो। तो तुम्हारे भीतर ये भाव बैठ गया है कि निश्चितरूप से हम कोई ऐसी शय हैं जिसे जाना जा सकता है, जिसे पकड़ा जा सकता है। भीतर जाएँगे तो 'मैं' मिल जाएगा, कहीं बैठा होगा। 'मैं' को जानना है, आत्मा का अनुसंधान करना है। इस तरह की बातें तुमने खूब सुनी होंगी। और इन सारी बातों का प्रभाव एक होता है; तुम अपने-आपको विचार की, चिंतन की वस्तु बना लेते हो।
मन को जिसका विचार करना हो करे, बस अपना विचार ना करे। दुनियाभर के तमाम विचारों में 'मैं' न शामिल हो क्योंकि 'मैं' विचारणीय वस्तु नहीं है। सब सोचना, अपने बारे में मत सोचना। लेकिन तुमको तो पढ़ाया ही यही जाता है, कि बेटा अपने बारे में कुछ सोचो न, अब तो चौबीस के हो गए। माँ को बड़ी चिंता है कि बेटा चौबीस का हो गया। बार-बार उसे फोन पर यही बता रही है, "बेटा कुछ अपने बारे में भी सोचो।" खत्म हो गया न बेटा? अब वो बेटा ही रह गया। चौबीस वर्ष का एक शरीर ही रह गया अब वो, और ये करतूत है माँ की—"बेटा अपने बारे में सोचो।"
अपने बारे में कभी मत सोचना। शरीर के बारे में सोच लेना, धन के बारे में सोच लेना, दुनिया के बारे में सोच लेना, मन के बारे में सोच लेना, अपने बारे में मत सोचना। जब अपने बारे में सोचा ही नहीं, तो फिर हीन कौन है? फिर श्रेष्ठ कौन है? अपनी चिंता तुम करो ही मत। तुम वो हो जिसकी चिंता करने की किसी को कोई ज़रूरत नहीं। तुम्हारा न कुछ बिगड़ सकता है, न बन सकता है तुम किसकी परवाह कर रहे हो? बड़े-से-बड़ा नुकसान हो जाए, मन लालायित होता हो ये कहने को कि "लुट गए! बर्बाद हो गए!" तुम कहना, "ठीक है। हमारा कुछ नहीं बिगड़ा। हम वो हैं जिसका न बनता है न बिगड़ता है।"
तब ये बात कहने में बड़ी बचकानी लगेगी। स्वयं को ही लगेगा हम बेवकूफ हैं। अभी-अभी लुटे हैं और कह रहे हैं, "हमारा कुछ नहीं बिगड़ा।" तो चलो खुलेआम मत कहना, चुपचाप अपने-आपसे ही कह लेना, पर कहना ज़रूर, "कुछ नहीं बिगड़ा।" शरीर का रेशा-रेशा चित्कार कर रहा होगा कि "अरे, लुट गए!" तुम तब भी यही कहना, "कुछ नहीं बिगड़ा।" और ठीक इसी तरीके से जब छप्पर फाड़कर कुछ मिल जाए और उत्सव मनाने का, सौभाग्य गाने का बड़ा भाव उठे। तुम कहना, "कुछ नहीं मिल गया। कुछ नहीं मिल गया। क्या मिल गया? सो जाओ।"
जो मैं सिखा रहा हूँ, क्या उससे तुम संसार में पिछड़ जाओगे, हारने ही लग जाओगे? ये मैं नहीं जानता। पर मुझे ये पता है कि अब तुम खुलकर खेल पाओगे। अभी तो तुम्हें हार-जीत से ऐसा भय और ऐसी आसक्ति है कि तुम खेल ही नहीं पाते। और जो खेल ही नहीं रहा, उसकी क्या हार, क्या जीत?
खुलकर खेलो तो सही, फिर हारोगे तो हारोगे, जीतोगे तो जीतोगे। खेलने का मज़ा तो आएगा। अभी तो तुम खेलते कम हो सोचते ज़्यादा हो। चिंतन ही चलता रहता है, "अगर गोल हो गया तो मेरा क्या होगा?" कि दो खिलाड़ी खेल रहे हो टेनिस, और एक कहे "देखो, उसकी जरसी देखो। क्या सफेद है! हमारी पीली, जैसे पीलिया हुआ हो इसे।" तुम खेल रहे हो? क्या कर रहे हो?
खिलाड़ियों से भी पूछो, तो वो कहेंगे कि सर्वश्रेष्ठ वो तब खेले हैं जब हार-जीत ज़हन से उतर गई है। और जो जीत को लेकर के जितना लालायित रहता है, उसका खेल उतना अकड़ जाता है, लोच खत्म हो जाती है।
तो मैं नहीं कह रहा हूँ कि मैं जो सुझा रहा हूँ उससे तुम जीतने लगोगे। मैं तो कह रहा हूँ, "हारने-जीतने की परवाह मत करो।" आत्मा नर्तक है, विजेता नहीं है। और हो सकता है खुलकर खेलने में जैसी जीत हो वैसी बँधे-बँधे खेलकर जीत जाने में भी न हो। मन को, शरीर को आज़ादी दो कि वो खेल सकें। अभी वो आज़ाद नहीं हैं, अभी वो 'मैं' के बोझ तले दबे हुए हैं। शरीर को तुमने शरीर नहीं रहने दिया है, शरीर को तुमने 'मैं' बना दिया है। अब शरीर बेचारा परेशान है।
चेहरा, चेहरा नहीं है; चेहरा, 'मेरा चेहरा' है, और मेरा चेहरा तो खूबसूरत होना चाहिए, तो अब चेहरे पर खड़िया पोत रहे हो। अब खाल परेशान है कि "मेरे साथ किया क्या जा रहा है?"
होंठ, होंठ नहीं हैं; होंठ, 'मेरे होंठ' हैं, तो होठों को लाल करने में लगे हुए हो। अब होंठ परेशान है कि, "ये क्या अत्याचार?"
बाँह, बाँह नहीं है; वो 'मेरी बाँह' है, तो टैटू खुदवा रहे हो। और खाल कह रही है कि "ये हो क्या रहा है? हम इसलिए थोड़े ही हैं कि चित्रकारी की जाए।"
पेट, पेट नहीं है; पेट 'मेरा पेट' है, तो उसमें ठूस रहे हो। अब वो मटका बन चुका है।
शरीर को खुलकर खेलने दो। शरीर अपनी गति स्वयं जानता है। प्रकृति में जो कुछ है वो अपनी गति जानता है न? मछली भी जानती है, और पक्षी भी जानता है। तो पेट भी जानता है, चेहरा भी जानता है, बाजू भी जानते हैं, और यह मस्तिष्क भी जानता है। इनको 'मैं' के बोझ से आज़ाद कर दो, फिर ये खुलकर खेलेंगे। इनसे कह दो, "'मैं' से तुम्हारा कोई ताल्लुक नहीं। 'मैं' का किसी से कोई ताल्लुक नहीं, 'मैं' सर्वथा असम्बद्ध है। 'मैं' के न आगे कोई, न पीछे कोई, न ऊपर कोई न नीचे कोई। 'मैं' के अलावा ही नहीं कोई।"
अब शरीर आज़ाद है। शरीर को जो करना है करे। बुद्धि आज़ाद है, मन आज़ाद है, स्मृति आज़ाद है, अब सब आज़ाद हैं, जैसे कोई पशु पिंजरे से छोड़ दिया गया हो, जैसे कोई वृक्ष जिसको न जाने कितनी मोटी रस्सियों से बांध दिया गया था, उसकी रस्सियाँ खोल दी गई हों। अब वो हवा में नाच रहा है।
जब आत्मा स्थिर हो जाती है, प्रकृति नाचती है। आत्मा स्थिर है ही। तो तुम क्यों वो करना चाहते हो जो हो नहीं सकता? आत्मा 'मैं' है। इस 'मैं' को प्रकृति के साथ जोड़कर नचाओ मत।