हवन, भजन, कर्मकांड - कुछ महत्व रखते हैं? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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हवन, भजन, कर्मकांड - कुछ महत्व रखते हैं? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

कार्यकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। आचार्य जी, ये जो प्रश्न है वो चालीस वर्षीय महिला हैं, उन्होंने भेजा है नॉएडा से। बोल रही हैं कि धार्मिक कर्मकांड का अगर धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है तो ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी क्यों मनाए जाते हैं?

आचार्य प्रशांत: इस प्रश्न में एक मान्यता है, एज़म्पशन (मान्यता) है, क्या? कि हमारे कामों के पीछे कोई कारण होता है। होता कहाँ है?

प्रश्नकर्ता पूछ रही हैं कि अगर कर्मकांड व्यर्थ हैं तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी क्यों माने जाते हैं? उनका कहना ये है कि किसी चीज़ के पीछे कोई कारण होता है तभी तो चलता है न। क्या वाकई ऐसा है? अपने जीवन को ही देख लीजिए न। आपने जो कुछ करा है, जिया है, जो निर्णय लिए हैं उनके पीछे रहा है कोई ठोस कारण? कभी भावना का उबाल आ गया, कभी डर आ गया, कभी अज्ञान आ गया। कभी बस इतनी-सी बात आ गई किसी ने कहा कुछ कर लो, कर दिया। कारण कहाँ है?

कारण का तो अर्थ होता है सच्चा कारण। किसी भी सही कार्य का कारण सिर्फ़ सच्चाई हो सकती है, बोध हो सकता है। आपके कितने कामों का कारण बोध होता है? बताइएगा। हमारे कामों में कोई कारण होता नहीं, कारण होता भी है तो होता है अंधकार, अज्ञान। आपके कितने कामों के पीछे जो कारण है वो बोध है, बताइए। बोध माने समझदारी, अंडरस्टैंडिंग (समझ)।

आप जो कुछ करते हैं सुबह से शाम तक उसके पीछे कारण बोध होता है? किराने की दुकान पर आज लड़े थे सुबह-सुबह, उसके पीछे बोध था कारण? क्या कारण था? ‘ऐसे ही! कुछ नहीं था तो लड़ पड़े।’ पड़ोसी का कुत्ता बाहर मिल गया घूमता हुआ, उसको पत्थर मार दिया, कारण बताओ। ‘ऐसे ही! हमें तो सभी से जलन है। कोई कारण चाहिए पत्थर मारने को?’ टीवी के सामने बैठे हैं, चैनल बदलते जा रहे हैं, बदलते जा रहे हैं, बदलते जा रहे हैं, कारण बताओ। कारण बताओ। ‘हैं तो बदलते जा रहे हैं, कारण थोड़े-ही चाहिए। अंगूठा चाहिए।’

वो अभी बोल रहे थे कि रात में दस बजे सोने जाते हैं और तीन बजे तक जगे रहते हैं और स्क्रॉल (स्क्रीन पर ऊपर से नीचे करना) करते जा रहे हैं इंस्टाग्राम, फेसबुक। कारण बताओ कारण, कारण बताओ। पांच घंटे तक करा है, कारण बताओ। कारण कहाँ है? कोई कारण नहीं है, अंगूठा है बस, कट-कट-कट-कट चल रहा है, चल रहा है, चल रहा है। और सो भी जाओगे, जल्दी, कारण बताओ। कारण नींद भी नहीं है, कारण है कि डिस्चार्ज हो गया, सो गए। ऐसे तो हमारी ज़िंदगी चलती है। जब तक चार्ज है, ‘मैं नाचूँगी, मैं नाचूँगी’। और सो भी कब गए? ‘अब तो डिस्चार्ज ही हो गया, रखो रे! सो जाओ।’

फिर सुबह उठ भी गए, कारण बताओ। बोध है कारण उठने का? नहीं। नाकारा, निकम्मा पड़े रहते हैं, बड़े भाई ने आकर के दो लगाए, उठ गए। ये बोध है? ‘नहीं। बो बो आवाज़ ज़रूर आई थी, बोध कुछ नहीं है।’ कारण कहाँ है हमारे कोई भी किसी भी कर्म में? जब कारण नहीं है तो आपको क्यों लग रहा है कि रीति-रिवाज़ों के पीछे भी कोई कारण होगा?

हमारे किसी काम में कोई कारण नहीं है। हम बस यूँ ही हैं। एक तिनका हवा में उड़ा जा रहा है इधर से उधर, कारण बताओ क्यों पहुँचा वो आपके घर? कारण बताओ। कोई कारण नहीं है। वो तिनका है, उसके पास कोई बोध नहीं कोई विवेक नहीं, उसके पास कोई स्वेच्छा ही नहीं। वो हवाओं का गुलाम है, बस यही कारण है। हवाएँ जिधर को ले गईं, उड़ गया, एक दिन आपके घर में आकर पड़ गया। जब तक उसे उठाने जाओगे, हो सकता है हवाएँ उसे कहीं और ले जाएँ। कारण क्या है? कुछ नहीं।

और अगर बहुत उसकी तुम जाँच पड़ताल करोगे तो कारण यही सब निकलेंगे जिन्हें षड् रिपु बोलते हैं — मद, मात्सर्य, मोह, भय, काम, क्रोध — यही कारण हैं। बोध, समझदारी हमारी ज़िंदगी के कौन-से काम का कारण रहे हैं, मुझे बता तो दीजिए। तो फिर आपको क्यों लग रहा है कि परंपराओं के पीछे कुछ होगा? और अगर आपको मुझसे पूछना पड़ रहा है कि परंपराओं के पीछे कुछ तो होगा न तो ये कितनी ख़ौफ़नाक बात है! माने आप बिना जाने पालन कर रही हैं परंपराओं का कि उनके पीछे क्या है? मान लीजिए कुछ है भी, कुछ है भी आपको नहीं पता तो आपने क्यों पालन किया?

एक बार को मान लिया कि कुछ है पर जो है अगर वो आपके लिए नहीं है, आपको पता ही नहीं है तो आप क्यों पालन करे जा रही हैं? पालन करना भी है तो पहले जानने की कोशिश तो करो कि उसके पीछे क्या है। हो सकता है कि कुछ परंपराओं का जब आप सही अर्थ जानें तो पाएँ कि वो पालन करने योग्य हैं निश्चित रूप से तो फिर आप उनका पालन बहुत सही ढ़ंग से करेंगे, हृदय के साथ करेंगे, ईमानदारी के साथ, गहराई के साथ करेंगे, ऐसे ही थोड़ी कि बस वही कुँए में सरसों डाल आए।

आ रही है बात समझ में?

आगे क्या कह रही हैं?

कार्यकर्ता: दूसरी दुविधा इन्होंने भेजी है कि आप कहते हैं शांति सर्वप्रथम है पर कुछ कर्मकांड मन को शांति भी देते हैं जैसे कि भजन करना या दीया जलाना, हवन करना तो क्या ये सिर्फ़ काल्पनिक है या फिर हम कह सकते हैं कि ये मन को अवलोकन करने में एक सहज माहौल देते हैं?

आचार्य: आप यहाँ हवन करना शुरू कर दीजिए और अगर यहाँ कुछ ईसाई लोग बैठे हों, उनको शांति तो नहीं मिलेगी, खाँसी ज़रूर मिलेगी। वो शुरू में उत्सुकता के नाते बैठे रहेंगे, ‘व्हाटस द हिंदूज़ डू?’ (हिंदू लोग क्या करते हैं?) देखें तो ये करते क्या हैं और थोड़ी ही देर में जब धुआँ भर जाएगा तो बहुत ज़ोर से भागेंगे। शांति मिल भी रही है तो किसको मिल रही है? जो पहले ही ये तय कर चुका है कि ये करूँगा और खुदको बताउंगा कि शांति मिल गई।अगर उसमें शांति होती तो सबको मिलती न?

सबको नहीं मिलती, सिर्फ़ जो उस प्रथा को मानते हैं उनको मिलती है। तो जब तुम्हारे मानने से ही शांति मिलनी है तो कुछ भी मान लो शांत हो जाओ। अपने आपको पहले ही मान लो, ‘मैं शांत ही हूँ’। कुछ करने की ज़रूरत ही क्या है फिर? जब अपनी मान्यता, अपनी कल्पना से ही शांति मिलनी है तो यही कल्पना कर लो कि मैं शांत हूँ; बिना कुछ करे ही कल्पना कर लो, ये झूठी शांति है न? कल्पित शांति है।

भजनों की जहाँ तक बात है, देखिए, दो बातें होती हैं भजन में — एक शब्द, दूसरा संगीत। संगीत बहुत ख़तरनाक चीज़ है। संगीत बरसाती नदी की धार की तरह है, वो आपको बहा ले जाता है, आपको पता भी नहीं होता ये क्या है। आपको जो गाने बहुत पसंद हों, आप थिरक ही जाते हों जिनको सुनकर, उनके बोल अपने सामने लिख लीजिएगा, लिरिक्स। आप कहेंगे, इनमें तो कुछ भी नहीं है। और बल्कि अगर लिख लें अपने सामने तो कई बार घिन्न आ जाएगी कि ये गाना बोल क्या रहा है।

संगीत बहुत घातक होता है क्योंकि वो आपको सुला सकता है, आपकी चेतना को दबा देता है। इसीलिए संगीत का बहुत विवेकपूर्ण प्रयोग होना चाहिए। आप जो कुछ भी गा रहे हैं आपको उसके बोल पता ही नहीं, अर्थ पता ही नहीं लेकिन संगीत इतना मधुर है कि आप उसमें बहे जा रहे हैं, झूमे जा रहे हैं। ये बहुत घातक बात है।

समझ रहे हैं?

संगीत वो ज़रिया बन जाता है जिसके माध्यम से आपके भीतर बहुत सारा ज़हर प्रवेश कराया जाता है। मैं नहीं कह रहा हूँ भजनों के बोलों में ज़हर है लेकिन अगर आप कुछ समझे बिना उसको बोले जा रहे हैं तो ये बात ज़हरीली है। भजन का बोल हो सकता है बहुत सात्विक हो, सुंदर हो, शुद्ध हो लेकिन आपने उसको समझा क्या?

अच्छा मैं पूछ रहा हूँ आपसे, वही भजन अगर आपके सामने बिना संगीत के आए तो आपको कितना लुभाएगा और आपको कितनी शांति देगा, बताइए। वही भजन आपके सामने आ गया बिना संगीत के, अब मिल रही है शांति? अगर अब शांति नहीं मिल रही है तो फिर शांति किससे मिल रही थी — भजन से या संगीत से?

यही वजह है कि आप पाते हैं कि बहुत सारे जो निचले दर्जे के आजकल भजन प्रचलित हो रहे हैं वो फ़िल्मी गीतों की तर्ज़ पर होते हैं। फ़िल्मी गीतों का संगीत उठाया जाता है और उस पर किसी भी तरह के व्यर्थ भजन के बोल चढ़ा दिए जाते हैं, वो हिट हो जाता है। क्योंकि मतलब आपको कभी बोलों से था ही नहीं, मतलब आपको किससे था? संगीत से। तो अब आपको जब संगीत से ही मतलब है तो भजन को क्यों बीच में ला रहे हैं, फ़िल्मी संगीत लगाइए और ख़ूब नाचिए, शांत हो जाएँगी आप।

फ़िल्मी संगीत है उस पर भजन के बोलों का नक़ाब चढ़ा दिया गया है। असली मज़ा किससे आ रहा है? संगीत से। भजन के बोल बस इसलिए रख दिए गए हैं ताकि ख़ुद को ये धोखा दे सको कि हम तो धार्मिक हैं। देखो, हम तो माता का भजन गा रहे हैं। मतलब भजन के बोल से है ही नहीं, मतलब संगीत से है। तो ईमानदारी की बात ये है कि सीधे-सीधे संगीत सुनो और अगर वो फ़िल्मी संगीत है तो फ़िल्मी संगीत पर फ़िल्मी बोल ही हों। पता तो आपको चले कि आपको असली शांति मिल कहाँ से रही है।

कितनी अजीब बात है न! एक हो सकता है एकदम जो आजकल ये नशे वाले, ड्रग्स वाले ये पंजाबी गाने चलते हैं कि बताइए, आपको तो पता ही है। कौन से?

चार बोतल वोडका।

अब नुन्नू ‘चार बोतल वोडका’ वाला वहाँ गाना सुन रहा था और नाच रहा था तो माताजी गईं, उसको कान पर एक रसीद किया, ‘क्या सुन रहा है? क्या सुन रहा है?’ और फिर उसी ‘चार बोतल वोडका’ की तर्ज़ पर माता का भजन चल रहा है माताजी के कमरे में और वो कह रही हैं, ‘हे...माँ-माँ-माँ।’ उसी ‘चार बोतल वोडका’ की धुन पर ख़ुद माताजी शांत हुई जा रही हैं, बस बोल बदल दिए गए हैं ताकि माताजी ये कह सके कि मैं तो धार्मिक हूँ। नुन्नू ज़्यादा ईमानदार है!

आप देखिएगा, कैसे-कैसे फ़िल्मी गीतों पर भजन चल रहे हैं, देखिएगा। एक गाना है न कि ‘बन जा तू मेरी रानी, तुझे महल दिला दूँगा’, उस पर चल रहा था ‘आ जा तू मेरी माता, तुझे…’।

ये गीत पहले देखिए कितना ज़हरीला है। एक स्त्री को खरीदा जा रहा है यहाँ पर — ‘बन जा तू मेरी रानी’ तुझे महल दिला दूँगा’। ये सीधे-सीधे वैश्यावृत्ति को प्रोत्साहन है न! सीधे-सीधे है। और इसकी धुन उठाई गई है और उस पर भजन के बोल चढ़ा दिए गए हैं। जेल नहीं होनी चाहिए इस हरक़त पर? जेल होनी चाहिए कि नहीं? पर जेल होने की जगह अब ये तथाकथित भजन बन गया है और ये जगरातों में चलेगा और महिलाएँ नाचेंगी ख़ूब; माता का जगराता है। और ये वाला ज़्यादा अच्छा लगता है, क्यों? क्योंकि ये धुन पहले से ही सुनी हुई है, इस धुन में पहले का ही नशा है।

कोई भी जागृत समाज इस हरक़त को बर्दाश्त करेगा क्या कि आप फ़िल्मी गीतों कि तर्ज़ पर भजन चलाओ? बोलिए। और यहाँ तो धड़ल्ले से चल रहा है, खुलेआम।

मुझे लगता है कोई भी हिट गीत या आइटम नंबर ऐसा नहीं होता जिस पर तुरंत भजन ना बना दिया जाए। हिट होता ही है आइटम नंबर और चूँकि वो हिट हो गया तुरंत उस पर भजन बनाया जाता है। भजन हम भी गाते हैं पर गायन शुरू होने से पहले घंटे भर तक समझते हैं कि बोला क्या गया है। बोध पहले आता है, गायन बाद में आएगा न। या बस सीधे लाउडस्पीकर चलाना है, लेट्स हिट द डांस फ्लोर? (डांस फ्लोर पर चलें?)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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