प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, शत-शत नमन। आई थिंक माइ क्वेश्चन हैज़ ऑलरेडी बीन आंसर्ड, बट आई वांटेड टु ब्रिंग माइसेल्फ इंफ्रांट ऑफ यू, सो दैट माइंड नोस दैट, 'येस इट इज़ इन फ्रंट ऑफ यू'। (मुझे लगता है कि मेरे प्रश्न का उत्तर पहले ही दिया जा चुका है लेकिन मैं अपने-आप को आपके सामने लाना चाहता था ताकि मन यह जान सके कि ‘हाँ, यह आपके सामने है‘)।
तो अभी मैं कबीरदास जी का कोर्स कर रहा था तो पहले इसमें है एक दोहा कि नाँव जो है ऐसे तैरे पानी में कि गीली ना हो, ऐसा जीवन होना चाहिए इंसान का।
आपने भी बहुत तरीके से समझाया। तो वैसा होता है आजकल कि मतलब आई एम इंवॉल्व्ड इन ऑल डा थिंग्स विच आई डोंट वॉन्ट टू डू। मैं वो सब काम कर रहा हूँ आजकल जो मैं नहीं करना चाहता। पर हाँ, उसमें एक अच्छी चीज़ ये हो रही है कि अपनी वृत्तियों का और ज़्यादा अच्छे तरीके से पता चलता है शायद। आप वही कहते हैं कि काम कोई भी कर लो, तो मुझे यही समझ आ रहा है कि काम कोई भी करो उसमें अपने-आप का पता चलता है कि कितनी बुरी तरह हम उलझे हुए हैं अपनी वृत्ति में।
अभी भी हम अकेले बैठ कर कमरे में जब सुनते हैं तो बहुत अच्छा लगता है कि हाँ सब कुछ हो गया, पर कभी–कभी ऐसा लगता है कि जब मैं उस काम को कर रहा हूँ, जब एक्ट (अभिनय) कर रहा हूँ, मैं एक एक्टिंग कर रहा हूँ, ड्रामा कर रहा हूँ, तो कहीं कभी–कभी वो ड्रामा भूल जाता हूँ मैं।
हालाँकि वो क्षण बहुत छोटे होते हैं, मतलब दोज़ मोमेंट्स आर वेरी-वेरी स्मॉल बट , एकदम से झटका लगता है, समझ आता है कि ‘पिछले आधे घंटे से तुम कहाँ थे?’ मैं अपने-आपसे पूछता हूँ, ‘ वेयर वर यू ड्यूरिंग लास्ट हॉफ एन आवर, वन अवर, फिफ्टीन मिनट्स ?" (कहाँ थे तुम पिछले आधे घंटे, एक घंटे, पंद्रह मिनट?) और लगता है कि येस, देन युअर वर्ड्स कम इन टू द माइन्ड। येस माया इस प्लेइंग दिस रोल। (फिर आपके शब्द दिमाग में आते हैं, कि माया अपना खेल खेल रही है) बस कभी–कभी यही डर लगता है कि माया हावी तो नहीं हो जाएगी ऊपर, मतलब कहीं ऐसा वो अभी जो एक घंटा है या आधा घंटा है, हालाकि कई बार लगता है कि हाँ, वो समय कम है।
अभी जैसे मैं सच में पिछले बीस दिन से जबसे शिविर ख़त्म हुआ, मैं तड़प रहा था कि उपनिषद् सेशन कब होगा कि मैं आपके सामने आऊँ, मैं आपके सामने आऊँ। आज जब अनुपम जी का सुबह मैसेज आया, मैं इतना रिलैक्स्ड (शिथिलीकृत) और इतना खुश हुआ कि थैंक गॉड कि आज सत्र है। मैं आपके सामने आऊँ और थोड़ा-सा मरम्मत का मौका मिलेगा। तो बस यही आपके साथ साझा करना था और बस एक छोटा-सा डर है कहीं कि कभी ऐसा ना हो कि वो माया बहुत ज़्यादा हावी हो जाए।
आचार्य प्रशांत: देखिए, एक चीज़ तो ये है, जो बहुत हमें सुनने में आती है कि जितने भी तुम्हारे रोल्स (भूमिकाएँ) हैं, किरदार हैं, पात्र हैं जिनको निभा रहे हो दुनिया के रंगमंच पर, उनको बस किरदार समझो और तुम अपने सारे किरदारों से थोड़ा अलहदा, थोड़ा अलग खड़े रहो।
है न? ये बात खूब सुनने में आती है न? तो शेक्सपियर का भी, ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एँड द मैन एँड विमेन आर मीअरली कैरेक्टर्स (सारी दुनिया एक मंच है और सभी पुरुष और महिलाएँ केवल पात्र हैं)। तो उससे मिलती-जुलती बात है और अध्यात्म में भी इस तरह का बड़ा प्रचलन है कि आप जो कुछ भी कर रहे हैं वो सब बस कपड़े हैं जो आपने पहन रखे हैं, मुखौटे हैं जो आपने पहन रखे हैं, चरित्र हैं जो आप अभिनीत कर रहे हैं।
तो याद रखो कि ये बस चरित्र हैं और आप इन्हें अभिनीत करते हो, अभिनय मात्र है। और ये बात सुनने में बड़ी अच्छी लगती है। इससे थोड़ा कुछ अलग करीब दस साल पहले की मेरी एक ट्वीट है, उसमें मैंने कहा था— ' द वर्ल्ड इज़ इंडीड अ स्टेज, बट चूज़ योर रोल्स वाइज़ली (दुनिया वास्तव में एक मंच ही है, लेकिन अपनी भूमिकाओं को बुद्धिमानी से चुनें)। ये बात, मूलभूत रूप से अलग है। एक तरफ़ कहा जाता है कि तुम जो कुछ भी कर रहे हो, उसको अभिनय की तरह करो और मैं कह रहा हूँ, "नहीं, नहीं, नहीं, नहीं। पहले तो सही किरदार चुनो।“ आप कोई भी रैन्डम (बेतरतीब) किरदार नहीं चुन सकते। लेकिन जो हमें पारंपरिक रूप से शिक्षा मिली वो यही है कि ‘देखो, जो तुम चरित्र अभिनीत करते हो, वो तो संयोगों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। तो तुम जो भी कर रहे हो, करो। बस उसके साथ ज़रा साक्षीभाव रखो, उससे तुम ज़रा असंपृक्त रहो, डिटैच्ड। "
मेरी समझ से वो बात गड़बड़ है। निश्चित रूप से हम सब रंगमंच पर हैं, लेकिन इस रंगमंच पर कौन कौनसा चरित्र चुनता है इसी से सब तय हो जाता है। आप इस रंगमंच पर कहें कि ‘मैंने तो कसाई का किरदार चुना है और मैं साक्षीभाव रख करके रोज़ पशुओं को और पक्षियों को काटा करता हूँ।‘ तो माफ़ कीजिएगा, आप बड़े… (पाखंडी हैं)
और ऐसा बहुत लोग करते हैं, कहते हैं न? एक-से-एक वो अपनी करतूतों को और अपनी ग़लत ज़िंदगी को जायज़ ठहराने के लिए कह देते हैं कि "ये तो सब बस किरदार मात्र है। और मैं इस सब को तो बस एक नाटक की तरह करता हूँ, अभिनय की तरह करता हूँ।"
साहब, आपको अभिनय करने के लिए कोई बेहतर किरदार नहीं मिला? ये जो फ़िल्मी अभिनेता-अभिनेत्री होते हैं, ये भी देख-समझ करके किरदार चुनते हैं। वो कहते हैं, "ये तो ग़लत किरदार है, मैं नहीं चुन सकता।" और बहुत सारे ऐसे अभिनेता हुए हैं जिन्होंने ऐसे चरित्रों को ना बोला है जिनको अभिनीत करके एक ग़लत संदेश जाता समाज में। बोले, ‘नहीं, अगर हम ये चरित्र दर्शाते हैं पर्दे पर, तो ठीक नहीं है।‘ वे भी तो कह सकते थे न, कि चरित्र तो सब चरित्र होते हैं, सब झूठे हैं, नाटक ही तो करना है। अच्छे का नाटक करो तो अच्छे का नाटक, बुरे का नाटक करो तो बुरे का नाटक। ठाकुर बनो तो ठाकुर, गब्बर बनो तो गब्बर। कह सकते थे न? नहीं, वो ऐसे नहीं बोलते।
वैसे ही अभी एक जानी-मानी, उम्रदराज़ अभिनेत्री हैं, उन्होंने कहा कि, ‘मेरे पास जब भी कोई महिला चरित्र आता है तो मैं सबसे पहले ये देखती हूँ कि कहीं उसको अपने ही शोषण में सम्मिलित तो नहीं दिखाया जा रहा है। मुझे ऐसे महिला चरित्र निभाने ही नहीं हैं जो दबे-कुचले-तिरस्कृत-शोषित हों। अगर वो त्रस्त और शोषित हैं भी तो मैं ये चाहती हूँ कि कम-से-कम अंत के एक सीन में उसको विद्रोह करते दिखाया जाए। तब तो मैं उस फ़िल्म को साइन करूँगी, नहीं तो मैं साइन नहीं करूँगी।‘ ऐसे थोड़े ही है कि कोई भी किरदार निभाने लग गए।
आपने कहा है कि कई बार आप किरदार में खो जाते हैं। मैं तो चाहता हूँ अपने किरदारों में पूरी तरह खो जाएँ, लेकिन उसके लिए किरदार सही होना चाहिए। मैं इस वक़्त बिलकुल भी आत्मा इत्यादि कुछ भी नहीं हूँ। मैं अभी बस आपका शुभेक्षु हूँ, सलाहकार हूँ। मैं अपने किरदार में पूरी तरह खो गया हूँ; क्योंकि पहले मैंने ये ध्यान रखा, ये चिंता रखी कि मैं चरित्र सही चुनूँ अपने लिए। ये कौनसी बात है कि कोई भी फालतू चरित्र चुन लिया और फिर कह रहे हैं कि "हम तो अपने चरित्र से अलग खड़े हैं। तो चुना काहे को अगर अलग खड़े होना है तो? फिर, ‘नहीं-नहीं हमने ये भी, नहीं अब हम पति बन गए और अब हम अलग खड़े हैं। अब हम पिता बन गए, हम अलग खड़े हैं। अब हम व्यापारी बन गए, लेकिन हम व्यापार से अलग खड़े हैं।‘
अरे! जिस चीज़ से अलग खड़ा होना पड़े, ऐसी चीज़ चुन क्यों रहे हो सर्वप्रथम?
ये ऐसी-सी बात है कि मैंने अपने लिए पैंट खरीदी और अब मैं पैंट से अलग खड़ा हूँ। अरे! ऐसी पैंट खरीदने का क्या फ़ायदा जिससे अलग खड़ा होना पड़े? तुम अलग खड़े हो, पैंट दो मीटर दूर खड़ी है। नंगे घूम रहे हो दुनिया में।
तो फिर कह रहे हैं, 'हम साक्षी हैं। हम अपनी पैंट के भी साक्षी हैं, अपनी नग्नता के भी साक्षी है।‘ ये कहाँ की होशियारी है?
जब दुनिया में चयन करने का अधिकार है, तो ऐसे किरदारों का चयन करो न जिनमें जितना डूबो उतना मिटते जाओ, आनंद में लीन होते जाओ। ऐसे किरदार क्यों नहीं चुनते? ऐसे किरदार, मैं फिर पूछ रहा हूँ, चुन ही क्यों रहे हो, जिनसे अलग खड़े होने की नौबत आ जाए? और फिर अपने-आप को हम सांत्वना देने के लिए कहते हैं, ‘मैं तो साक्षी हूँ, मैं तो साक्षी हूँ।‘
ये ऐसी-सी बात है जैसे मधुमक्खी का छत्ता – हिम्मत नहीं हो रही है उसको छूने की। दूर खड़े हैं और क्या कह रहे हैं? ‘मैं तो साक्षी हूँ, मैं तो साक्षी हूँ।‘ ये साक्षित्व नहीं है, ये डर है। तुम्हारी हिम्मत नहीं है उसको छूने की। छुओगे तो ऐसे ततैया काटेगी, पता चलेगा।
काम वो चुनिए, जीवन वो चुनिए, जिसमें आप डूब सकें। उस डूबने को ही साक्षित्व कहते हैं। कोई हम यूँही ऊल-जूलूल या घिनौना चयन कर लें और फिर उसको छूते लाज आती हो और उसको छूने भर से कष्ट होता हो, इसलिए दूर खड़े रहना पड़ता हो, इसको साक्षित्व नहीं कहते।
यहाँ संस्था में हम कहते हैं, सही काम चुनो, डूब कर करो – ये साक्षित्व है। सही जीवन चुनो और फिर उसमें बिलकुल मस्त हो जाओ, खो जाओ, बेहोश हो जाओ। यही साक्षित्व है।
लेकिन आमतौर पर साक्षित्व का उपयोग वैसे ही किया जाता है। ‘मेरा बॉस जब मुझे डाँट लगाता है तो मैं साक्षी हो जाता हूँ। कहता हूँ, मुझे थोड़े ही डाँट लग रही है, मैं तो डाँट का साक्षी भर हूँ, मैं तो दूर खड़ा हूँ। डाँट तो किसी और को लग रही है।‘
ये क्या है? भगोड़ापन और बेईमानी है न? नहीं है? ‘ये मेरे साथ थोड़े ही रहा है, किसी और के साथ हो रहा है।‘ ये तो, ये तो एक बहुत साधारण डिफ़ेन्स मेकेनिजम (रक्षात्मक प्रतिक्रिया) होता है। इस बारे में कोई भी आपको बता देगा, मनोवैज्ञानिक। ईगो (अहंकार) के डिफ़ेन्स मेकनिजम होते हैं, जिसमें से एक ये भी होता है। जब आपके साथ कुछ बहुत ग़लत हो रहा है, तो आप अपने-आप को समझाने लग जाते हैं कि ‘यह मेरे साथ हो ही नहीं रहा है’। और फिर बहाना हम दे देते हैं कि ये तो विट्नेस्सिंग है, ये तो साक्षित्व है।
ऐसे नहीं करना। जो हो रहा है, हमारे साथ हो रहा है। हम पूरे तरीके से इस खेल में मौजूद हैं। हम नाटक ऐसे कर रहे हैं जैसे ज़िंदगी हो। तब समझ में आता है कि ज़िंदगी नाटक ही तो है। साक्षी हो गए न? ज़िंदगी नाटक ही तो है।
ज़िंदगी को नाटक जान पाएँ, इससे पहले नाटक को ज़िंदगी की तरह खेलना होगा।
नाटक से दूर-दर रह करके कैसे आप जानेंगे ज़िंदगी नाटक है? और आप नाटक में गहराई से नहीं उतर पाएँगे अगर वो किरदार ही ठीक नहीं है तो। रंगमंच पर किरदार कई बार आपके हाथ में नहीं होता, निर्देशक के हाथ में होता है। पटकथा जिसने लिखी है, उसके हाथ में होता है। आपके जीवन में आपका किरदार आपके हाथ में है। यहाँ हम शिकायत नहीं कर सकते, हमें चुनाव का हक है। सही किरदार चुनें, और कौनसा किरदार कितना सही है, उसका प्रमाण यही है – किस किरदार में आप लीन हो सकते हैं? बिलकुल डूब सकते हैं, खो सकते हैं, सुध-बुध ना रहे, चौबीस घंटे उसमें डूबे रहें, उससे बाहर निकलने का मन ना करे। समझ लीजिए वो किरदार उपयुक्त है आपके लिए।
प्र: आचार्य जी, इसमें ये बात बहुत अच्छे से समझ आयी पर जैसे आपने मुझे पिछली बार समझाया था कि जब मैंने अपना प्रश्न रखा था आपके सामने कि जैसे पत्नी के साथ जो मुद्दा था, उस समय, आपने कहा था कि अपने कॉमन डिज़ायर्स (समान इच्छाएँ) फ़ाइंड (खोज) करो और, यू हैव टु यूज़ ऑल योर टैक्ट एँड इंटेलिजेंस टू (आपको अपनी सारी चतुराई और अपनी सारी बुद्धि का उपयोग करना होगा), क्योंकि मुक्ति जो है वो व्यक्तिगत नहीं होती। मतलब मैं अकेला, वही चूहे वाली बात कि एक चूहा, चूहे दानी में है या हम जेल में खड़े हैं तो हम वो जेल तोड़ कर सभी बाहर आएँगे, हम अकेले नहीं बाहर आ सकते। बाहर आने की कोशिश भी करेंगे तो दूसरे पर धक्के होंगे। तो अब जब वो वाली बात आती है, उस तरह की बात आती है, तो कुछ ऐसी चीज़ें हैं कि जब मैं दूसरे व्यक्ति को भी अपने साथ लाना चाहता हूँ और उस व्यक्ति को जब मैं इस जगह पर लाना चाहता हूँ तो मैं स्पष्ट बात करूँगा तो वो नहीं आएँगे। तो...?
आचार्य: नहीं, एक पति की तरह नहीं ला पाएँगे। अब आप का समय आ गया है एक नया किरदार चुनने का। एक ऐसा किरदार जो दिखता तो पति जैसा है पर वो पति नहीं है। वो पति गुरु है।
प्र: आपने मना किया था...
आचार्य: छुप कर! कहतें है न, छुप-छुप कर, चोरी से। करना ही पड़ेगा, कोई तरीका नहीं है।
प्र: बस यही एग्ज़ैक्ट्ली (बिलकुल)। इसी नाटक में कई बार...
आचार्य: ये किरदार है जिसमें आप डूब सकते हैं, इसका चयन करिए। तो अब एक नया चरित्र मंच पर उतरता है, ठीक है? जो सबको लग रहा है पति जैसा पर वो भीतर-ही-भीतर कुछ और है। वही पति नहीं है। पति वाला जो पात्र था, वो हट गया। ये कोई और आया है। ये अगर है भी वही पात्र, तो डबल रोल है वो।
ये कोई और है। इसे ये अपने लिए एक नयी पटकथा लिखनी होगी और यह काम अब मज़ेदार है, इसमें डूबा जा सकता है। होता है हमारी हिंदी मसाला फ़िल्मों में ऐसे, जो किसी को कुछ लगता है वो होता है कोई और, ठीक है? और एकदम अंत में आकर राज़ खुलता है, ये कौन था। जब राज़ खुलता तो पहले तो पीटे जाते हैं, लेकिन फिर अंत सुखद होता है। तो पीटे तो जाएँगे, लेकिन काम कर जाएँगे अपना।
प्र: बस इसमें ये ध्यान कि मैं दोबारा से पति ना बन जाऊँ...
आचार्य: नहीं-नहीं, देखिए, ये बात सीधी है। जो ये नया किरदार है, अगर पति वाले किरदार से ज़्यादा रस भरा होगा, तो आप पुराने वाले की ओर जाएँगे नहीं वापस। बात तो रस की है न? और इसका चयन आप अगर करेंगे तो मैं समझता हूँ ये उपयुक्त चयन है। इसी चयन के लिए मैंने दस वर्ष पहले आग्रह करा था—' चूज़ योर रोल्स वाइज़ली। ' आप इसका चयन करिए और डट कर करिए। सही काम पकड़ो, डूब कर करो, तो अभी आपको एक सही काम मिल गया है। और ये काम आपको कोई डिग्री नहीं सिखा सकती, कोई यूनिवर्सिटी नहीं सिखा सकती। ये तो ख़ुद ही आपको कर-करके सीखना है कि किस तरह से करा जाए।
महीने में अधिक-से-अधिक आप मुझसे दो-तीन बार बात कर सकते हैं, लेकिन करना तो आपको स्वयं ही पड़ेगा। ये काम तो सार्वजनिक होते हुए भी नितांत व्यक्तिगत है। तो करिए, जब लगे कि नहीं करना है तो मेरे सामने आ जाइएगा, मैं फिर से...
मंच पर एक किरदार मेरा भी है न? मैंने भी कुछ चुना है?
प्र: बहुत बहुत धन्यवाद आचार्य जी। शत-शत नमन!
प्र२: आचार्य जी, आफ्टर फ्यू मिनट्स, टुमॉरो, २१ इस माइ बर्थडे। गिव मी सम गाइडेंस टु फॉलो ऑन एँड सम ब्लेसिंग्स। (कुछ मिनटों के बाद, कल मेरा जन्मदिन है। मुझे अनुसरण करने के लिए कुछ मार्गदर्शन और कुछ आशीर्वाद दें)
आचार्य: यू आर नॉट २१। डेट्स माइ गगाइडेंस। (आप २१ वर्ष के नहीं हैं, यही मेरा मार्गदर्शन है)
प्र २: नो, नो, २१ मार्च। (नही-नही, २१ मार्च)
आचार्य: २१ मार्च और २४ मार्च, वाटेवर। दैट्स नायदर योर बर्थडे, नॉर वर यू एवर बॉर्न। डेट्स माई एडवाइस ऑन योर सो-कॉल्ड बर्थडे। डू नॉट टेक योरसेल्फ ऐज़ एवर बॉर्न। इट्स स्ट्रेंज, वेरी स्ट्रेंज, एक्स्ट्रीमली स्ट्रेन्ज। बट जस्ट लीव इट। इट विल बी एन एँटीडोट टु ऑल द थिंग्स दैट यू विल हियर ऑन योर बर्थडे। बाइ इट्सेल्फ इट डज़ नॉट मीन मच। इट एक्चुअली मींस नथ्थिंग। वेन आई से यू अर नॉट समबडी हूँ हैस टेकन बर्थ, बट इट इस लाइक एन एँटी-वेनम ऐंड यू विल बी सर्व्ड अलॉट ऑफ डिलिशियस वेनम ऑन योर बर्थडेस। सो, आई एम गिविंग यू एन एँटीवेनम इन ऐडवान्स। और इफ़ यू वॉन्ट स्ट्रॉन्गर डोज़ ऑफ ऐन्टी-वेनम देन वी हैव देवा। यू नो हू देवा इज़? यू डोंट नो देवा? प्लीज़ लेट्स शो देवा टू एव्रीबडी। एँड यू नो वॉट देवा सेस वेन ही फ़ाइंड्स सम अनफारचुनेट सोल सेलिब्रेटस हिस बर्थडे? अनफोर्टनेट, बिकॉज़ ही हेज़ बीन स्पॉटेड बाई देवा। अदर्वाइज़ ही वाज़ क्वाइट फॉर्चुनेट। इफ़ यू वॉन्ट टू सेलिब्रेट योर बर्थडेस एँड रीमेन...
(२१ मार्च या २४ मार्च, जो भी हो। वह ना तो आपका जन्मदिन है और ना ही आप कभी पैदा हुए थे। आपके तथाकथित जन्मदिन पर यही मेरी सलाह है। अपने-आप को कभी जन्मा ना मानें। यह अजीब है, बहुत अजीब है, बेहद अजीब है। लेकिन बस इसे जियो। यह उन सभी चीज़ों के लिए एक मारक होगा जो आप अपने जन्मदिन पर सुनेंगे। अपने-आप में इसका ज़्यादा मतलब नहीं है। इसका वास्तव में कोई मतलब नहीं है। जब मैं कहता हूँ कि आप कोई ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जिसने जन्म लिया है, लेकिन यह एक प्रतिविष के समान है और आपके जन्मदिन पर आपको बहुत स्वादिष्ट विष परोसा जाएगा। इसलिए मैं तुम्हें पहले से विष-रोधी दवा दे रहा हूँ। या यदि आप विषरोधी की अधिक मात्रा चाहते हैं, तो हमारे पास देवा हैं। आप जानते हैं कि देवा कौन हैं? नहीं जानते? कृपया सभी को देवा दिखाएँ। और आप जानते हैं कि देवा क्या कहते हैं जब उन्हें कोई दुर्भाग्यपूर्ण मानुष जन्मदिन मनाते हुए दिखाई देती है? – दुर्भाग्यपूर्ण, क्योंकि उसे देवा ने देख लिया है, अन्यथा वह काफ़ी भाग्यशाली था। यदि आप अपना जन्मदिन मनाना चाहते हैं...)
प्र२: देवा इज़ रैबिट (देवा एक खरगोश हैं)।
(सब हँसते हैं)
आचार्य: यस देवा इज़ अ सिंगिंग रैबिट एँड नाउ देवा विल सिंग समथिंग फॉर यु ऑन यौर बर्थडे। (हाँ, देवा एक गाने वाले खरगोश हैं और वह आपके जन्मदिन पर आपके लिए कुछ गाएँगे)
(देवा गाना गाते हैं - 'जनम लिया तो मरेगा।') "इफ यू एवर बिलिव, दैट यू आर बोर्न, देन यू विल हैव टु डाइ। एँड डेथ इज़ द फन्डामेंटल कर्स ऑफ़ लाइफ, राइट? (यदि आप मानते हैं कि आप पैदा हुए हैं, तो आपको मरना होगा। और मृत्यु जीवन का मूल श्राप है, है न?) 'जनम लिया तो मरेगा।'
सो, नेवर टेक बर्थ। रिमेन अनबॉर्न। दैट मींस नथिंग, बट स्टिल रिमेम्बर इट, ऑल राइट? यू आर, बेम्यूज़्ड, शैल-शॉक्ड! (इसलिए कभी जन्म मत लेना। अजन्मा रहना। इसका मतलब कुछ भी नहीं है लेकिन फिर भी इसे याद रखें, ठीक है? आप तो हतप्रभ हैं, स्तब्ध हैं।)
प्र२: लेकिन आचार्यजी, आपको सब मतलब सब प्रॉब्लम्स (समस्या) पूछते हैं, मैं थोड़ी सी खुशखबरी बता दूँ। आपने एक वीडियो में बताया था कि "आपने कभी हिंदी क्लासिक्स देखी है? कभी सत्यजीत रे देखा है? कभी गुरुदत्त शर्मा की पिक्चरें देखी हैं? कभी गुरुदत्त शर्मा के पास गए हो? कभी सत्यजीत राय देखा है?"
आपने ऐसा एक वीडियो में बोला था। तो मैंने देखी, फिर कविताएँ लिखना शुरू करा। मतलब बहुत सारी खुशखबरी हैं और पूरी एक डायरी भर चुकी है। पिछले साल २०२१ से शुरू करा था, ११ महीने हो गए। जो-जो आचार्य प्रशांत ऐप पर आते हैं न रोज़, वो सब लिख करके। और वैसे मैं साइंस स्टूडेंट (विज्ञान की छात्रा) हूँ, मुझे साइंटिस्ट (वैज्ञानिक) बनना है। आचार्य जी, अब क्या ही छुपाना। मैंने शुरुआत में ही डोमेस्टिक वायलेंस (घरेलू हिंसा) वाला प्रश्न पूछा था। वो वास्तव में मेरी लाइफ़ थी। मतलब मैं उसमें से ख़ुद ही निकल कर आयी हूँ। पर मेरी माँ अभी भी वहीं फँसी पड़ी हैं क्योंकि उनका मोह है, वो जाता ही नहीं। वो बेटे के लिए है। मतलब वो निकल गईं थी वहाँ से, पर ख़ुद से चली गईं दोबारा।
आचार्य: बड़ी पुरानी बिमारी है, वक़्त लगता है। प्रार्थना ही कर सकते हो। अपनी ज़िंदगी संभाल लो, शायद वो एक उदाहरण बन पाए। हो सकता है तुम्हारी माताजी के लिए भी तुम्हारी ही ज़िंदगी उदाहरण बन जाए।
प्र२: आचार्य जी, अब मैं आती रहूँगी आपसे मिलने के लिए, क्योंकि अब तो मैं निकल गयी हूँ न वहाँ से बाहर। अब तो आ सकती हूँ।
आचार्य: आते रहो। स्वागत है, स्वागत है! आओ!
प्र२: अब दिल्ली एनसीआर में है न आपका शिविर, मैंने उसके लिए रजिस्टर (पंजीकरण) कर दिया है।
आचार्य: आओ, स्वागत है। किससे संपर्क में हो संस्था में? अनुपम ये संस्था में किससे संपर्क में हैं?
अनुपम: जी, आचार्य जी। मेरे संपर्क में हैं।
आचार्य: अच्छा, देख लेना। जो भी है, कर लेना। आईए, स्वागत है!
YouTube Link: https://youtu.be/mDPCk4zrdAQ?si=XVELWmEqu-YkTBop