हर छवि में छवि तुम्हारी || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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हर छवि में छवि तुम्हारी || आचार्य प्रशांत (2013)

वक्ता: वह छविहीन है, इसका यह अर्थ मत समझ लेना कि उसकी कोई छवि नहीं बनाई जा सकती। इसका अर्थ बस इतना सा ही लेना कि उसकी कोई विशेष छवि नहीं हो सकती। गड़बड़ मत कर देना। ऐसा नहीं है कि उसकी कोई छवि नहीं हो सकती, उसकी कोई विशेष छवि नहीं हो सकती। हर छवि उसी की छवि है, इसीलिए किसी एक छवि में बाँधना उचित नहीं। छवियों को काटती रहोगी तो ये बड़ी हिंसक प्रक्रिया हो जायेगी। हाँ, इसके अन्त में है, इसके अन्त में शून्य है पर उतनी देर तक भी हिंसा क्यों बर्दाश्त की जाए। ज़रुरत ही नहीं काटने की। ये रही ना, ये छवि ही है-आग।

वह, वह तत्व है जो प्रत्येक तत्व में मौजूद है। आग में मौजूद है, लकड़ी में मौजूद है, पानी में मौजूद है, रेत में मौजूद है, सपने में भी मौजूद है। मैं कह रहा हूँ कि इस रास्ते को देखो, ये प्रेम का रास्ता है। ये कहता है कि, ‘जित देखूँ तित तू’। जहाँ देखूँ वहीँ तू है और जहाँ देखा जा रहा है वो निश्चित रूप से आकाश है। काटते रहोगे, तो कितना काटोगे? इसमें काटने वाला तो बच जाएगा ना, उसकी छवि तो बच जाएगी, वो तो बचा ही रहेगा ना?जिस तलवार से काटा, वो बची रहेगी कि नहीं बची रहेगी? कितनी छवियाँ काटोगे? इससे अच्छा तो ये है कि काटो ही नहीं। जो है, उसी में तो वही है, काटने की क्या ज़रुरत है। ये रही आग, ये रहा ब्रह्म, करो प्रणाम।

अगर जानवरों की तस्वीर आ रही है आँख के सामने, तो क्यों काटना है? वहीं झुक जाओ, वहीं नमन कर लो, वही है। मैंने ही कहा था उसको काल और आकाश में बाँधा नहीं जा सकता। मैं यह भी कह रहा हूँ कि काल और आकाश के अलावा उसको ढूँढोगे कहाँ? मन जो ढूँढने निकला है, वो काल और आकाश के अलावा और ढूँढा ही कहाँ जा सकता है? वहीं ढूँढो, मिलेगा, वहीं मिलेगा। और वहीं पर है, तो ढूँढने की ज़रुरत ही नहीं है। ढूँढने की ज़रुरत तो तब पड़ती है ना जब चीज़ अपनी जगह पर ना हो।

जो सर्वत्र है, उसको ढूँढना क्या है? और फिर देखो ज़िन्दगी जीने का ये नया तरीका। गुस्से में कौन है? वो है। कीचड में कौन है? वो है। अज्ञान में कौन है? वही है। कामना में कौन है? वही है। ईर्ष्या में भी कौन है? वो सब जिस से भागते फिरते हो, उस सब का इंजन कौन है? हर इच्छा को ताकत देने वाला कौन है? वही है। कह तो रहे हो, कि मन बन्दर है और उसने भी शराब पी ली है, इस बन्दर को ऊर्जा कहाँ से मिल रही है? तो बस ठीक है, जब उसी का बन्दर है, तो जी ठीक है। उसकी मर्ज़ी के बिना आ गया क्या मन रूपी बन्दर? उसने मना किया और मन अपने आप खड़ा हो गया है। क्या कहानी कुछ ऐसी है, कि वो चाहता नहीं है और मन अपने आप खड़ा हो गया? मन किसका प्रेषित है? तो धन्यवाद है उसको। आपने दिया है, धन्यवाद।

बीमारी में कौन है? वही है। उलझनों में कौन है? वही है। तो क्यों किसी को दोष देना? ज़िन्दगी ख़राब है, मन ख़राब है, मन वश में नहीं रहता। काहे को आये वश में। दोस्ती कर लो न, छवि से दोस्ती कर लो। छवियों को काटो मत, छवियों से यारी कर लो। तुम आओ, हम तुममें उसी को देख लेंगे। आओ, जितनों को आना है, हमें तो सभी में वही दिखाई देगा। समय को काटना क्या, समय से यारी करो। अच्छा समय क्या है? वही है। बुरा समय, भी वही है। समय से यारी कर लो। ज़रा सामने तो आओ छलिये, छुप-छुप छलने में क्या राज़ है? और सामने तो तुम आ ही रहे हो। समय के रूप में सामने आ रहे हो, वस्तुओं के रूप में सामने आ रहे हो। जब सामने आ ही रहे हो, तो ठीक है, कर ली दोस्ती। अब तुम मुझे बेवक़ूफ नहीं बना पाओगे।

एक सूफी संत लेटा हुआ था अपने घर में, चोर आया चोरी करने। घर में अँधेरे था, चोर घुसा, चढ़ने लगा तो उसके चोट लग गयी। आवाज़ आयी ज़ोर से। किसी चीज़ से उसका पैर टकराया होगा। ज़ोर से आवाज़ आयी, चोर गिर होगा। संत जग गया, और देखा कि चोर के चोट लग गयी है और चोर भागने लगा कि ये संत जग गया है। अब चोर भाग रहा है और पीछे से ये संत भाग रहा है। सूफ़ी संत चिल्ला रहा है कि, ‘तुम मुझे यूँ बेवक़ूफ़ नहीं बना पाओगे, तुम मुझे ऐसे बेवक़ूफ़ नहीं बना पाओगे, रुको’। और चोर और ज़ोर से भाग रहा है कि, ‘लगता है शकल भी देख ली है, लगता है पहचान गया है, आज फँसूँगा’। ये कह रहा है, ‘थम जा, ऐसे बेवक़ूफ़ नहीं बना पायेगा’। चोर के पाँव में चोट लगी है, कितनी दूर भागेगा। इसने दौड़ा कर चोर को पकड़ लिया और यही चिल्लाने लगा कि, ‘तुम मुझे यूँ बेवक़ूफ़ ना बना पाओगे’। चोर को पकड़ लिया और चोर के पाँव पकड़ लिये। बोलता है, ‘कितने भी रूप धरो, पहचान गया हूँ, तुम वही हो। तुम मुझे यूँ बेवक़ूफ़ ना बना पाओगे’। लगा चोर के पाँव दबाने। ‘तुम मुझे यूँ बेवक़ूफ़ नहीं बना पाओगे’।

बस यही मंत्र है, याद कर लो। ‘तुम मुझे यूँ बेवक़ूफ़ नहीं बना पाओगे’। सामने से आ रहा है कुत्ता, उसकी आँखों में झाँको और बोलो उससे, क्या? ‘तुम मुझे यूँ बेवक़ूफ़ ना बना पाओगे, दिख रहा है मुझे, बन के तो कुत्ता आये हो, पर क्या हो, पता है मुझे। कुत्ता बनो, चाहे खरगोश बनो, तुम कौन हो, मुझे पता है’। और मैं आप को बिलकुल वादा करके बता रहा हूँ, ये करके देखना और ना तुम्हें कुछ दिख जाए कुत्ते की आँखों में। हिल जाओगे, मज़ा आ जाएगा बिल्कुल, कुत्ता ‘हाँ’ कर देगा कि, ‘ठीक, समझ गए तुम। चलो, समझ गए ना, कोई बात नहीं। फिलहाल तो मुझे कुत्ता ही रहने दो। जब कुत्ता बन के आया हूँ, तो कुत्ता ही रहने दो, समझ गए तुम, कोई बात नहीं, दूसरों को मत बताना। अभी रोलप्लेइंग चल रही है, कुत्ते की’।

बड़ी परफेक्ट रोलप्लेइंग करता है वो, जब कुत्ता बनता है, तो कोई बता नहीं सकता कि कुत्ता नहीं है कुछ और है। जब आग बनता है तो कह नहीं सकते कि आग नहीं है। तो वो कौन है? वो अल्टीमेट एक्टर है। सारे ऑस्कर फीके हैं उसके सामने। ये तो छोटे-मोटे एक्टर हैं, ये जो घूमते रहते हैं। वो अल्टीमेट अभिनेता है इसीलिए छलिया कहते हैं उसको, बहुरूपिया, जो बहुत रूप धारण कर लेता है। छलिया, जो छलता रहता है। तुम्हें समझ में नहीं आता कि कौन है, छल लिए जाते हो। इसको ऐसे भी इस्तेमाल करो, बड़ा मज़ा आएगा। कोई आये, कुछ करे, उसको देखते रहो और फिर बोलो ‘तुम मुझे यूँ बेवक़ूफ़ नहीं बना पाओगे। मुझे सब पता है’।

श्रोता: इस काम में आनन्द बहुत है, पर बीच में विज्ञान पड़ जाता है। ये पदार्थ है, ये कण है और उलझन होने लगती है।

वक्ता: तुम विज्ञान को भी वही बोलो न, ‘तुम मुझे यूँ बेवक़ूफ़ नहीं बना पाओगे, मैं सब समझ रहा हूँ’।

श्रोता १: वो भी पूछेगा, ‘बनाने की ज़रुरत है क्या’?

श्रोता २: सर एक भजन है, नामदेव का। सुनाना चाहूँगा।

(सभी श्रोतागण साथ में गाते हैं )

नामदेव ने बनाई, रोटी कुत्ते ने उठाई,

पीछे घी का कटोरा लिए जा रहे।

प्रभु घी तो लेते जाओ, रोटी रूखी ना तुम खाओ,

प्रभु आये हैं कुत्ते के लिबास में,

मेरी बिगड़ी बनाई दीनानाथ ने।

दृष्टि मीरा की निराली, पी ली जहर की प्याली

आये प्रभु हैं विष के लिबास में,

मेरी बिगड़ी बनाई दीनानाथ ने।

-‘संवाद ‘ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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