हनुमान चालीसा का वास्तविक अर्थ || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2023)

Acharya Prashant

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हनुमान चालीसा का वास्तविक अर्थ || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते, सर। मैं शायद उत्तर भारत के जो करोड़ों लोग हैं, उनमें से ही एक हूँ जिन्हें बचपन से ही हनुमान चालीसा सुन-सुन कर याद हो जाती है या याद करा दी जाती है। पर मैंने देखा कि हाल ही तक ही मुझे हनुमान चालीसा की जो चौपाइयाँ हैं, उनका सरल हिंदी अर्थ था, वह भी नहीं पता था। पर मैंने जब जानना चाहा, पढ़ा, थोड़ा-बहुत समझ आया। पर मैं आज चाहता हूँ कि आप उसका वेदान्तिक अर्थ समझाए। तो मैंने कुछ उसमें से चौपाइयाँ देखी, वो मुझे लगा कि आपसे आज वो पूछनी चाहिए। यदि आप उस पर बात कर सकें तो…?

आचार्य प्रशांत: कुछ ही चौपाइयां लीजिएगा, चालीस चौपाइयाँ हम नहीं ले पाएँगे। मैं देख रहा हूँ पूरी चालीसा आपने यहाँ मेरे समक्ष रख दी हैं। तो जो उसमें से विशेष लग रही हों, या अति महत्वपूर्ण लग रही हों आप उनको ही लें। क्योंकि हनुमान चालीसा में तो दोहे हैं दो-तीन और चालीस चौपाइयाँ हैं। सब ले पाना तो…। पर बताइए शुरू करिए।

प्र: जो पहली चौपाई है, मैं उससे शुरुआत करना चाहूँगा।

'जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।'

आचार्य: देखिए! हनुमान जी के सगुण चरित्र ने मुझे बचपन से ही बड़ा आकर्षित करा। और हिन्दू घर में था, वहाँ तमाम देवी-देवताओं से परिचय हो ही जाता है। पर सबसे ज़्यादा मुझे खास लगे हनुमान जी ही। उनके प्रति एक प्रेम रहा और हनुमान चालीसा का पाठ भी मैं नियमित रूप से किया करता था। कई सालों तक करा जब छोटा था, फिर छूट गया। तो तब जब पढ़ता था तो अर्थ नहीं स्पष्ट था कि जय हनुमान ज्ञान गुण सागर माने क्या?

फिर वेदांत जीवन में आया और वह सब संत आए जिन्होंने राम के गुण गाए हैं, निर्गुण के गुण गाए हैं। तो राम से फिर एक अलग अर्थ में परिचय हुआ। आप अगर समझना चाहते हो कि हनुमान चालीसा में क्या कहा जा रहा है, तो उससे पहले आपको समझना पड़ेगा कि हनुमान के आराध्य श्री राम कौन हैं। और वह अगर स्पष्ट नहीं होगा तो…। हनुमान चालीसा का बहुत पाठ किया जाता है, मैंने भी करा है बचपन में। हम पाठ तो करेंगे, पर उसके मर्म से वंचित रह जाएँगे।

तो राम कौन हैं? तो तुलसीदास जी से आती है हनुमान चालीसा, और संत तुलसीदास से ही पूछ लेते हैं कि कौन हैं श्रीराम? तो उत्तर क्या मिलता है, एकदम साफ़-स्पष्ट उत्तर, जिसके बाद कोई गुंजाइश नहीं रह जानी चाहिए भ्रम की।

'राम ब्रह्म परमारथ रूपा।' राम कौन है? राम ब्रह्म हैं। अब ब्रह्म को लेकर भी लोग बहुत तरह की बातें कर लेते हैं कि सगुण ब्रह्म को ईश्वर कहते हैं, इस तरह की बातें कर लेते हैं। तुलसीदास वहाँ भी सशंय की फिर कोई संभावना नहीं छोड़ते। कहते हैं, ‘अविगत अलख अनादि अनूपा।’ लो एक नहीं चार तरीकों से बताएँ देते हैं और आगे अभी और बता देंगे। अविगत माने जैसा पहले कोई हुआ नहीं, जो कभी बीत नहीं जाता, जिसका न कोई गत है न कोई अगत है। माने जो काल की धारा से परे है- अविगत। काल की धारा से परे। माने मनुष्य तो नहीं हो सकते न, कोई मनुष्य होता है क्या काल की धारा से परे? कोई भी भौतिक विषय होता है क्या काल की धारा से परे? अविगत हो सकता है कोई भी भौतिक विषय? पूरी प्रकृति, पुरे ब्रह्माण्ड में कोई भी, कुछ भी अविगत हो सकता है क्या? तो रामचरितमानस के रचयिता ही स्वयं बताएँ दे रहे हैं कि वह किसकी बात कर रहे हैं।

देखिए! बच्चों को और अल्पज्ञों को धर्म की धारा में प्रवेश मात्र दिलाने के लिए कई बार थोड़ा सगुण रूप से चर्चा करनी पड़ती है। मैं जब छोटा था और हनुमान चालीसा से मेरा परिचय हुआ था, तब मुझे कोई अविगत, अगोचर, निर्गुण-निराकार, ऐसी बातें करता तो निसंदेह मेरी समझ में नहीं आती। तो इसलिए संतो ने यह विधि करी कि आरंभ तो करा दो, और आरंभ कराने के लिए सगुण मार्ग ठीक है। क्योंकि हम होते ही ऐसे हैं न। हमारी इंद्रियाँ क्या देखती हैं? गुण ही तो देखती हैं, इंद्रियाँ तो प्रकृति को देखती हैं और प्रकृति त्रिगुणात्मक है। तो इंद्रियाँ तो गुण ही देख सकती हैं।

तो किसी का अगर धर्म में प्रवेश कराना है, तो उससे सगुण चर्चा करो। उसको ऐसे बताओ जैसे राम कोई देहधारी थे। ठीक है? उससे लाभ होता है, उससे मुझे भी लाभ हुआ। लेकिन जो समझ सकते हैं, उनके लिए संतों ने साफ़ बता दिया है कि हम वही बात कह रहे हैं, जो ऋषियों ने कही थी। ऋषि निर्गुण ब्रह्म के खोजी और उपासक रहे हैं और संतों ने भी स्पष्ट कर दिया है कि हाँ।

'राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अविगत अलख अनादि अनूपा।। सकल विकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।।4।।'

अलख माने जिसको लक्ष्य नहीं किया जा सकता है। माने मन जिसका विचार ही नहीं कर सकता। लखना-लक्ष्य करना। तुम उनके बारे में कुछ सोच ही नहीं सकते, तुम कह ही नहीं सकते। कल्पना वगैरहा के घोड़े बहुत दौड़ाने की ज़रूरत नहीं है। आपकी कल्पना के घोड़े जितने दूर तक जाएँगे, राम उससे कुछ अलग हैं। मत कहिए कि उनका मुखमण्डल ऐसा है, उनका तेज ऐसा है, उनके वस्त्र ऐसे हैं, उनके केश ऐसे हैं, उनके अस्त्र ऐसे हैं, उनकी मुस्कान ऐसी है, उनके नयन ऐसे हैं। कुछ मत कहिए। अलख है वो, अलख के विषय में आपने इतने बातें कह कैसे दी? अलख के विषय में इतना कुछ कहना तो धृष्ठता हो जाती है। पर फिर भी संतो ने स्वयं ही कहा है, पूरी रामचरितमानस और क्या है! अलख का तो चरित्र भी नहीं हो सकता; पर राम का तो चरित्र तुलसीदास ने खूब बखाना है!

वह किन के लिए होता है? उनके लिए होता है जो अभी बहुत आरंभिक अवस्था में हैं। मैंने कहा, ‘बालकों के लिए और अल्पज्ञों के लिए।’ वह सब बातें उनके लिए होती हैं, वरना तो संत तुलसीदास ही बता रहे हैं, अनादि- जिनकी शुरुआत नहीं हो सकती। कोई व्यक्ति ऐसा है, जिसकी शुरुवात न हो सकती हो? हर व्यक्ति की कभी न कभी शुरुआत तो होती है न, जिसको आप बोलते होते हो देह ने जन्म ले लिया। जिसको आप कहते हो न देह ने जन्म ले लिया। हर व्यक्ति की तो शुरुवात होती है। राम को कह रहे हो अनादि हैं, उन्होंने कभी नहीं जन्म लिया।

अनूपा- जिनको कोई उपमा नहीं दी जा सकती। शब्द जिनको किसी उपाधि से विभूषित नहीं कर सकते। माने शब्द जिनको पकड़ ही नहीं सकते, उसे कहते है अनूप। मन जिसका खाका नहीं खींच सकता, उसको कहते हैं अनूप।

'अविगत अलख अनादि अनूपा।' वो हैं राम। जब हम राम को समझ पाएँगे, तो हनुमान को समझ पाना हमारे लिए थोड़ा आसान हो जाएगा।

'सकल विकार रहित गतभेदा।' विकार माने गुण-दोष। विकारों से रहित माने उससे रहित जहाँ विकार होते हैं। गुण-दोष सारे कहाँ पाए जाते हैं? प्रकृति में। तो सब गुण-दोषों से, विकारों से परे है जो। अब प्रकृति से परे क्या होता है? अष्टावक्र गीता में हमारे साथ कोई है यहाँ से? अभी हमने बात करी थी न ‘प्रकृति पर:।’ पिछले श्लोकों में भी बात करी है न? तो प्रकृति से परे जो है उसको क्या कहते हैं अष्टावक्र? वही तो आत्मा है न, वही ब्रह्म है, वही सत्य है। वही बात संत यहाँ अपने तरीके से कह रहे हैं, 'सकल विकार रहित गत भेदा।' भेद माने अन्तर, माने विविधताएँ, वो भी कहाँ पाई जाती हैं सारी? प्रकृति में पाई जाती हैं। गतभेदा माने भेदों से आगे, भेदों से अतीत। जहाँ सब भेद पाए जाते हैं, उस क्षेत्र से कहीं अलग। तो फिर वही बात कर रहे कि 'प्रकृति पर:।' प्रकृति से अलग हैं जो, और प्रकृति माने सब कुछ। तन-मन, कल्पना, विचार, भाव, आप जो कुछ भी ला सकते हो, उससे अलग हैं राम।

समझ में आ रही है बात?

और ये बात कौन कह रहे हैं? ये बात वो कह रहे हैं जो रामचरितमानस और हनुमान चालीसा के रचयिता हैं, स्वयं वो कह रहे हैं। लेकिन हम ध्यान नहीं देते। यह अयोध्या कांड की चौपाई है।

'कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।' लीजिए! वेदांत पर ला दिया। 'कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।' नेति माने? नेति से कुछ याद आया? हाँ, तो राम वही हैं उपनिषद जिनकी ब्रह्मरूप में बात करते हैं, और कुछ नहीं है राम। और एक चीज़ देखिएगा, यहाँ पर वेद का सम्बन्ध सीधे ही किससे जोड़ा गया है? नेति से। और नेति-नेति कहाँ पाई जाती है? वेदांत में। तो माने जब वेद कहा जाए, तो अर्थ हमेशा वेदांत लिया जाना चाहिए। क्योंकि वेदांत क्या है? वेदों का रस, वेदों का मर्म, वेदों का अमृत, उसको वेदांत बोलते हैं। श्रुति भी जब कहती है कि कोई बात तभी मान्य है जब वेद प्रमाण हो, उसके पक्ष में। तो वेद प्रमाण से क्या आशय होता है? वेदांत प्रमाण, और क्या! और यह बात सबको पता है, संतो को तो एकदम ही ज़ाहिर है, पर फिर भी हम भूल जाते हैं।

स्पष्ट हो रहा है?

'कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।' वेदों ने उनका निरूपण करा है, किस मार्ग से? नेति-नेति के मार्ग से, माने तुम जो कुछ भी सोच सकते हो, वो नहीं हैं राम। ऐसा कहा है वेदों ने। 'कहि नित नेति निरूपण वेदा।' वेदों ने राम का निरूपण करा है नेति के मार्ग से, वही राम है; उनके अलावा और कुछ नहीं है राम। जो तुम्हारे मन में आ जाएँ वो राम नहीं, जो तुम्हारी वाणी से मुखरित होने लगे वो राम नहीं। तुम जिनकी कल्पना कर लो, तुम जिनका चरित्र वर्णित कर डालो वो राम नहीं, तुलसीदास कह रहे हैं। हनुमान चालीसा का सीधा संबंध श्रीराम से है। अगर राम वो नहीं हैं, जो हम उनको मानते रहे हैं; तो क्या हनुमान जी भी वह हो सकते हैं, जो हम उन को मानते रहे हैं? तो आपने प्रश्न करा है हनुमान चालीसा के बारे में, लेकिन शुरुआत हमे करनी पड़ेगी श्रीराम से भाई!

‘कौन समझेगा हनुमान को, जो समझा नहीं श्री राम को।’

फिर चाहे जितना बोलते रहो, ‘जय बजरंगबली' और ये सब, इससे क्या होता है? समझे तो हो नहीं कुछ भी। ठीक है? और बात को आपको स्पष्ट करना हो, क्योंकि यहाँ तो बस सीधे बता दिया राम कौन हैं। यह तुलसीदास के वचन थे। कबीर साहब ने इसको और बारीकी से स्पष्ट करा है। बोले, देखो! राम तो एक ही हैं, पर लोगों के लिए चार हैं। जो असली वाले हैं, वो चौथे हैं। पर तीन और हैं, जो लोगों में प्रचलित हैं। तो मैं चारों ही बता देता हूँ और यह भी बता देता हूँ कि चौथे को ही असली जानना। बाकी तीनों में उलझ मत जाना।

अब चार राम होते हैं। चार राम कौन से होते हैं? एक राम दशरथ का बेटा। यह सबसे आरंभिक राम हैं, और हमारी गड़बड़ ये हुई कि हम आरंभ से आगे नहीं जा पाए।

बोले, एक राम दशरथ का बेटा। अब ये जो चार राम यहाँ बताने वाले हैं, उनमें भी देखिएगा कि कैसे एक क्रम है! वो इसलिए क्योंकि संतो ने देख लिया था कि हम आत्मा शब्द को भी एकदम अपने कब्जे में कर लेते हैं। हम आत्मा शब्द पर भी चढ़ बैठते हैं। अहंकार क्या बोल देता है? ‘मैं ही आत्मा हूँ।’ तो इसलिए फिर आत्मा के आगे है सत्य, यह तक बोलना पड़ जाता है कभी-कभी। ठीक वैसे जैसे बोलना पड़ जाता है कि एक होता है प्रेम और एक होता है परम प्रेम। अब प्रेम ही पर्याप्त होना चाहिए, परम प्रेम क्यों बोला? क्योंकि प्रेम शब्द पर कब्जा कर लिया अहंकार ने। तो असली प्रेम को फिर इंगित करने के लिए कहना पड़ता है, परम प्रेम।

वैसे ही हम कह देते हैं आत्मा-परमात्मा! आत्मा पर्याप्त होनी चाहिए, परमात्मा क्यों बोल दिया? क्योंकि आत्मा शब्द पर कौन काबिज हो जाता है? अहंकार। तो फिर कहना पड़ता परमात्मा। नहीं तो आत्मा परमात्मा तो एक ही शब्द है, पर्याप्त होना चाहिए था आत्मा कहना ही। पर परमात्मा शब्द की आवश्यकता पड़ी, क्योंकि आत्मा शब्द तो चला गया। कौन ले गया उसको? प्रेम शब्द को भी कौन ले गया? अहंकार। आत्मा को भी कौन ले गया? अहंकार। तुरीय को भी कौन ले गया? अहंकार। तो इसलिए तुरीय को कहना पड़ जाता है तुर्यातीत। और आत्मा को जब अहंकार ले गया, तो गौतम बुद्ध को कहना पड़ा अनात्मा। लेकिन यहॉं पर हमारे लिए जो उपयोगी बात है, वो ये कि जो पहले तीन राम हैं, संतों ने खुद ही कहा है कि भाई वहाँ रुक मत जाना; वहाँ नहीं रुकना होता। तुम्हारी यात्रा असली राम तक होनी चाहिए, असली राम हैं चौथे कि पाँचवें। वहाँ तक जाओ, उससे पहले मत रुक जाना।

तो राम कौन हैं, ये समझिए अच्छे से? तुलसी के राम समझ पाए आप कौन हैं?

'राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अविगत अलख अनादि अनुपा।।' ये तुलसी के राम हैं।

आ रही है बात समझ में?

'सकल विकार रहित गतभेदा कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।।'

ये तुलसी के राम हैं। अगर राम ब्रह्म हैं, अगर राम आत्मा हैं, तो अब मुझे बताइए हनुमान कौन हुए? अगर राम आत्मा हैं, तो हनुमान कौन हुए? बहुत बढ़िया, बोलो!

श्रोता: सत्यमुखी चेतना।

आचार्य: ठीक। राम अगर सत्य हैं, राम अगर आत्मा हैं, तो हनुमान - जोकि हमेशा राम के सामने विनीत रहते हैं, झुके रहते हैं - हनुमान कौन हुए? ऐसी चेतना जो हमेशा सिर्फ़ और सिर्फ़ सत्य की ओर देख रही है, उसको कहते हैं हनुमान।

इस बात में बड़ा गहरा अर्थ है, बड़ा सुंदर अर्थ है कि हनुमान जी को दिखाया गया है देह से वानर। बताइए इससे क्या इंगित होता है? कि देह से तो हम सभी वानर हैं, हैं कि नहीं? लेकिन चेतना ऐसी होनी चाहिए कि शरीर है वानर का, लेकिन चेतना कह रही है मुझे वानर नहीं रहना। देह से तो हम सब बंदर ही बंदर हैं, और क्या हैं? देह तो पशु की है न, मनुष्य की देह भी पशु की ही है। देह भले ही पशु की हो लेकिन चेतना ऐसी हो जो कहे मुझे पशु नहीं रहना, मुझे राम से प्रेम है।

तो हनुमान जी प्रतीक हुए उस चेतना के, जो पशु के देह में कैद रहकर भी विद्रोही हैं। जिसने पशु की देह को, माने प्रकृति को एक तरह से जीत लिया है, और कह रही है, देह होगी जैसी, जन्म मिला होगा किसी भी रूप में, लेकिन निष्ठा तो मेरी मात्र श्रीराम में।

समझ में आ रही है बात? नहीं समझ में आ रही?

अब आते हैं उन विशिष्ट चौपाइयों पर जिनका आपने चयन करा है।

प्र: सर, सबसे पहले जो पहली चौपाई है, उसी से शुरुआत करना चाहूँगा।

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।

आचार्य: तो तीन लोकों की बात अभी भी हमने करी थी। कौन से तीन लोक? 'जय कपीश तिहुं लोक उजागर', तीनो लोकों को उजागर कर रखा है आपके ज्ञान ने। पहला, पहला शब्द कौन सा आ रहा है उनके लिए? ज्ञानी।

असल में रामचरितमानस से बहुत पहले आती है वाल्मीकि रामायण, जानते ही हैं आप। और उसमें वाल्मीकि ऋषि कहते हैं कि, ‘हनुमान वो हैं, जो सब वेदों के ज्ञाता हैं।’ तो हनुमान जी का आरंभिक निरूपण ही हुआ है ज्ञानी के रूप में। कौन है हनुमान? जानी, ज्ञानी।

ठीक है?

तो जय कपीस तिहुं लोक उजागर। कपीश माने वानरों में सर्वश्रेष्ठ। वानरों में सर्वश्रेष्ठ कौन होगा? ऐसे ही नहीं कि जो सबसे बलि होगा, वो नहीं। जिसकी चेतना राम मुखी होगी वह सर्वश्रेष्ठ हो जाएगा, और तीनों लोक उसने उजागर कर दिए।

चेतना के जो तीन लोक होते हैं, तीनों में होता है अंधेरा। क्यों? क्योंकि तीनों में ही केंद्र पर होती है अहंता। चेतना के तीन लोक कौन से होते हैं? जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति। जागृति है, यहाँ तो बड़ी रोशनी है, फिर आप क्यों बोल रहे हैं कि अंधेरा है अँधेरा है? अरे! देखिए ऐसा थोड़ी है कि अभी यहाँ पर बत्ती गुल है; इतनी रोशनी है, तो अंधेरा क्यों है? अँधेरा इसलिए है क्योंकि मुझे लग रहा है कि मैं उस रोशनी का अनुभोक्ता हूँ।

प्रकाश है, प्रकाश में ये विषय है और मैं इस विषय का दृष्टा हूँ। बस यही तो अंधकार है, अहम का होना ही अंधकार है। और तीनों अवस्थाएँ चेतना की, वास्तव में किसकी अवस्थाएँ होती हैं? अहम की ही होती हैं। तो इसीलिए आप चाहे जगे हुए हों, चाहे आप सपने देख रहे हों, चाहे आप बिना सपने की गाढ़ी नींद ले रहे हों; है तो वो सबकुछ अहंकार के लिए ही न?

कौन सो रहा है? मैं सो रहा हूँ, गाढ़ी नींद में सो रहा हूँ, एकदम कोई सपना-वपना नहीं, लेकिन मेरा नाम लिया जाता है, मैं क्या करता हूँ? मैं जग जाता हूँ। माने अभी भी मेरा तादात्म्य किससे है? मेरे नाम से। मैं वो हूँ, जिसका वो नाम है। तो लो फिर यही तो है अंधेरा। सपने भी ले रहा हूँ, तो उसमें मुझे अपने लिए ही तो खौफ़ लग रहा है। कई बार पसीने छूट जाते हैं, सपनों में आदमी अचकचा कर जगता है। यही तो लगता है कि मेरे लिए कुछ अनिष्ट हो रहा था, या मेरे प्रियजनों के लिए कुछ बुरा होने जा रहा था, तो आदमी..। तो बुरा भी मैं स्वयं के प्रति होने से घबराता हूँ! अहम तो क़ायम ही है न? और जब जगा हुआ हो, तब तो कहना ही क्या! अभी तो सबकुछ ही मैं हूँ और यह जगत है। मैं हूँ और जगत है। तो अहम का होना ही अंधकार है।

तो तीनो लोक में उजाला फिर कैसे छाता है? तीनों लोकों को उजागर कौन कर पाता है? ज्ञान। ज्ञान बता देता है अहम को कि, तुम पगले हो! तुम इतने पगले हो कि, हो नहीं; लेकिन अपनेआप को हुआ मानते हो। ये है ज्ञान का प्रकाश। इसको कहते हैं अहम का उजागर हो जाना।

अहम क्या है? अहम छाया की तरह है, अहम अंधेरे की तरह है। अंधेरे को उजागर कर दोगे तो क्या होगा? तो अहम के साथ यही है। उसको उजागर कर दो तो मिट जाता है। और अहम विलोप को ही क्या बोलते हैं? मुक्ति। अहम के विलोप को ही आत्मा भी बोलते हैं।

स्पष्ट हो पा रही है यह बात?

तो हनुमान वो हैं जिनकी चेतना ज्ञान के माध्यम से अपने अहम को विलोपित कर चुकी है। यह पहली चौपाई का अर्थ हुआ। हनुमान वह हैं जिनकी चेतना ज्ञान के माध्यम से अपने अहंकार को विश्राम दे चुकी है, मुक्ति दे चुकी है।

स्पष्ट हो गई बात?

'ज्ञान गुण सागर।' ज्ञान गुण सागर से क्या अर्थ है? इसका यह अर्थ नहीं है कि आपमें बहुत सारे गुण मौजूद हैं। देखिए! गुण तो जब भी मौजूद होंगे, सीमित ही होंगे क्योंकि व्यक्ति सीमित होता है। प्रकृति में सबकुछ सीमित ही सीमित होता है। और सागर शब्द का उपयोग किया जाता है असीम के द्योतक के रूप में। जब आपको असीम की ओर इशारा करना होता है, तो आप कहते हो सागर। जब आपको सिमित की ओर इशारा करना होता है, तो आप कहते हो, कभी नदी, कभी लहर, कभी बूंद।

साहित्य में ऐसा ही चलता है, सीमित बताना है तो कहोगे लहर है, असीमित बताना है तो बोलोगे सागर। सीमित बताना है तो कहोगे बूंद है और असीमित बताना है तो सागर है। सीमित बताना है तो नदी बोल दोगे और असीमित बताना हो तो सागर, ऐसे चलता है। तो यहाँ सागर बोला गया है, समझिए कि सागर क्यों कहा गया है! गुणों का सागर कोई नहीं हो सकता। गुण जैसे ही असीमित होते हैं, आप गुणातीत हो जाते हो। माने ज्ञान के कारण हनुमान गुणातीत हो गए हैं। ज्ञान का काम ही यही है, आपको गुणों, गुण माने प्रकृति, आपको प्रकृति के पार ले जाना।

तो कौन है हनुमान जी? ज्ञानपुंज। और ज्ञान ही है जो उनको राम मुखी बना रहा है। क्या बना रहा है? राम मुखी। राम मुखी माने क्या? जो लगातार किसकी ओर नियत करें हैं, किसकी ओर गति करें हैं? जिनके देखने की दिशा निरंतर क्या है? मैं किसको देख रहा हूँ? मैं राम को देख रहा हूँ, वो हनुमान है। तो ये है पहली चौपाई।

प्र: आगे सातवीं चौपाई मैं बोलना चाहूँगा-

'विद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर।।'

आचार्य: ये पहली ही चौपाई से आप इसको जोड़कर समझ लीजिए, बहुत आसान है। कोई इसमें कोई जटिलता नहीं है। 'विद्यावान गुनी अति चतुर।' विद्या क्या होती है? फिर से आपको वेदांत की ओर जाना पड़ेगा।

देखिए! वेदांत नहीं पढ़ा है, और आप रामचरितमानस पढ़ें, चाहे तुलसीदास का कुछ भी और कृतित्व, काव्य, साहित्य पढ़ें, आपको नहीं समझ में आएगा। नहीं समझ में आएगा।

अभी आरम्भ में ही हमने बात करी, ये जो उन्होंने बातें यहाँ बोली थी, 'राम ब्रह्म परमारथ रूपा।' इसका मतलब समझ जाएँगे अगर आप वेदांत नहीं जानते तो? यही बात तो मैं इतने सालों से समझाने की कोशिश कर रहा हूँ, आप समझते नहीं हो! आपको रामचरितमानस नहीं समझ में आएगी। आप अपनेआप को राम भक्त, हनुमान भक्त बोलते रह जाओगे। न आप राम को जानोगे, न हनुमान को जानोगे, अगर आप वेदांत को नहीं जानते। राम की तो यहाँ पर, कोई परिभाषा हो नहीं सकती राम की। पर फिर भी मैं कहूँगा कि, राम को परिभाषित ही इस तरह से करा है, 'राम ब्रह्म परमारथ रूपा, स्वयं तुलसीदास ने। आप कैसे जानोगे तुलसीदास की रामचरितमानस को, अगर आप ब्रह्म को नहीं जानते?

बात सीधी है कि नहीं, तार्किक है कि नहीं है?

लेकिन लोग मानस का पाठ करते रहते हैं, सुंदरकांड का चल रहा है! पूछो, उपनिषद पढ़े हैं? उपनिषद पढ़े नहीं। उपनिषद नहीं पढ़े जब, तो तुम्हें कैसे सुंदरकांड समझ में आएगा? कहां से तुम जान जाओगे अयोध्या कांड में क्या है? कुछ भी, क्या तुम्हें समझ में आएगा? बस यूँ ही अर्थ का अनर्थ करते रहोगे, जो भारत में खूब करा है। बात कुछ कही गई है, उसका अर्थ कुछ और निकाल लिया है।

'अविगत अलख अनादि अनूपा।' इनमे से कोई भी ऐसा शब्द है जिसका आप अर्थ समझ सकते हो, अगर आपने उपनिषद नहीं पढ़े तो? मैं चुनौती देकर पूछ रहा हूँ, आप बता पाओगे? और जिनको लगता है बता पाएँगे, उनके लिए तो अंत में संत स्वयं अड़चन खड़ी कर गए हैं। वो बोल गए हैं, ‘कहीं नित नेति निरूपहिं वेदा।’ बोल गए, ‘राम वो हैं जिनका निरूपण करा है नेति नेति के माध्यम से वेदों ने।

लो! अब हमें वेद तो पता ही नहीं, तो राम कैसे पता चलेंगे? जब वेदांत नहीं पढ़ा, नेति-नेति की प्रक्रिया से परिचित ही नहीं हो, तो राम को कैसे जानोगे? कहते हैं, नहीं, राम को तो नहीं जानते। तो फिर ये क्या तुम कर रहे हो राम के नाम पर? जब तुम राम को जानते ही नहीं, तो यह राम के नाम पर तुमने क्या तमाशा लगा रखा है? क्यों अपनेआप को झूठे ही राम भक्त बोलते हो, जब तुम राम को जानते ही नहीं?

गतभेदा होने का मतलब समझते हो क्या होता है? जो कहीं भेद अब देख ही नहीं पाता, वो जिधर देखता है, उसको एक ही चीज दिखाई देती है। तुमको भेद ही भेद दिखाई देते हैं दुनिया में। ये अलग है वो अलग है, वो पराया वो अपना, ऐसा-वैसा; ये काला वो सफेद। ऐसे ही होता है न आम आदमी? ये मेरा, ये मेरा नहीं। ये दोस्त ये दुश्मन, ऐसे ही तो होते हैं, हमें भेद ही भेद दिखाई देते हैं।

कह रहे हैं, ‘राम वो हैं जो सकल विकार रहित गतभेदा हैं।’ तुम्हें कहाँ से राम समझ में आएँगे? वेदांत पढ़ना नहीं है! किस्से-कहानियों में बहुत रुचि है। जाकर कथाओं में बैठ जाते हो। वहाँ क्या समझ में आ रहा है तुमको?

और बड़ी भयानक बात ये है कि जो कथाएँ सुना रहे हैं, बात पूरी कर दीजिए आप ही- वेदांत का उनको भी कुछ नहीं पता, कभी पढ़ा ही नहीं है! रसीली कथाएँ बस सुना रहे हैं। रसधार बह रही है बिल्कुल! मिठारास, मिठारास बहा ही जा रहा है! बहुत मजा आता है न मीठा रस? भारत में ऐसे ही थोड़ी ही इतनी डायबेटीस है!

'विद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर।।'

विद्या माने क्या? अच्छा, विद्या से ही तो हमने शुरुआत करी थी, कि कैसे समझाऊँ विद्या माने क्या, अगर वेदांत नहीं पड़ा। अगर विद्या का जो लोक प्रचलित अर्थ है, वही लोगे तो विद्या का मतलब तो वही है जो विद्यालय में मिलती है। और विद्यालय में क्या विद्या मिलती है? क से कबूतर, ख से खजूर। तो जो हमारी लोक भाषा है, उसके अनुसार तो यही विद्या है। क्यों भाई! क से कबूतर, ख से खजूर। नहीं तो हम उस जगह को विद्यालय कैसे बोलते, जहाँ हम अपने बच्चों को भेजते हैं? अगर वो विद्यालय है, तो विद्या यही होनी चाहिए। होनी चाहिए न? दो एकम दो, दो दूनी चार, दो तिया छह; यही विद्या है!

यह नहीं विद्या होती। विद्या क्या है? विद्या को कहिए कि एक टेक्निकल शब्द है। विद्या कोई साधारण शब्द नहीं है कि जिसका अर्थ आप एक साधारण शब्दकोश से उठा सकें। यह जो हमारे शब्दकोश होते हैं, इनमें आपको विद्या शब्द का विकृत अर्थ ही मिलेगा।

विद्या माने क्या होता है? आत्मज्ञान को विद्या कहते है। अविद्या माने क्या होता है? संसार की सब चीजों के ज्ञान को अविद्या कहते है। ठीक? दुनिया को जान रहे हो, इसको क्या बोलते हैं? अविद्या। तो ये जो हमारे स्कूल-कॉलेज हैं; ये बात भी कई बार बोली है, ये वास्तव में अविद्यालय हैं। क्योंकि यहाँ दुनियादारी का ज्ञान दिया जाता है। यह विद्यालय उस दिन बनेंगे, जिस दिन इनमें आत्मज्ञान भी दिया जाएगा। पर आत्मज्ञान जैसा कोई विषय हमारे पाठ्यक्रम में कहीं होता नहीं है, या होता है? तो यह अविद्यालय हैं, यह विद्यालय नहीं है किसी भी तरीके से।

'विद्यावान गुनी अति चतुर। राम काज करने को आतुर।।' जब विद्या आ जाती है, व्यक्ति स्वयं को जान जाता है, तो फिर बस वो एक ही काम कर सकता है; जो श्री कृष्ण भगवद्गीता में बताते हैं- ‘निष्कामकर्म।’ उसी को यहाँ कहा गया है, ‘राम काज।’ जिसको श्री कृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं 'निष्कामकर्म', उसी को तुलसीदास के यहाँ कहते हैं ‘राम काज’।

अब समझ में आया कि विद्यावान होने के कारण हनुमान क्यों श्री राम का युद्ध लड़ रहे थे? यही करोगे आप भी। जिस दिन विद्या आ जाएगी न, आपके पास करने को कुछ और नहीं होगा। ‘युध्यस्व।’ वही बात जो गीता में कही गई है युध्यस्व, देखिए! कैसे सीधे आ करके हनुमान जी पर लागू हो रही है। और कुछ उनके पास बचा ही नहीं करने को, क्योंकि अब विद्या आ गई है। अब विद्या आ गई तो क्या करें, अपने लिए तो कुछ है ही नहीं करने को।

पूरी रामायण में आप कहीं भी हनुमान जी को अपने लिए कुछ करता पाते हो क्या? एक भी मुझे दृष्टान्त बता दो कि हनुमान जी अपने लिए, व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कुछ कर रहे हैं, बताओ कुछ है ऐसा? भूल से भी कर दिया उन्होंने, कि लंका गए थे, वहाँ देखा कि अच्छा! मामला बढ़िया है, तो कहा चलो कुछ अपने लिए भी रख लेते हैं! सोना-चांदी लटक रहा है चारों तरफ! कुछ करा उन्होंने? अपने लिए कुछ नहीं कर रहे न। फिर व्यक्ति जो करता है, बस राम के लिए करता है। उसी को क्या बोलते हैं? निष्कामकर्म। वही यहाँ पर 'राम काज करिबे को आतुर।' और कोई आतुरता बचती ही नहीं।

और यही जो विद्या है, ये सब गुणों और सारी चतुराई की चालक बन जाती है। तो इसीलिए जब शुरुआत भी हुई थी तो क्या बोला था? ज्ञान सबसे पहले आएगा न। 'जय हनुमान ज्ञान गुन सागर', सबसे पहले क्या? ज्ञान। यहाँ भी सबसे पहले क्या? विद्या। ज्ञान सबसे पहले, विद्या सबसे पहले। ज्ञान के अलावा मनुष्य का नहीं कोई सहारा होता है। लेकिन ये जितने लोग आज नाम ले रहे हैं, कभी राम कभी हनुमान, इन्हें ज्ञान रंच मात्र भी नहीं है, बस नारे लगवालो और झूठ बुलवालो, और रस की धार बहवालो, इतना होता है।

विद्या जब होती है, तो वह सब गुणों की क्या बन जाती है? नेत्री बन जाती है, संचालिका बन जाती है। होना भी यही चाहिए न। यह सब गुण फिर आपके लिए क्या बन जाते हैं? कितनी बार बोला है! क्या बन जाते हैं? जब यहाँ पर राम होते हैं, तो ये जो देह है, ये आपके लिए क्या रह जाती है भई? बहुत बढ़िया! ये बन जाती है एक साधन, संसाधन। तो सब गुण, गुण माने देह, प्रकृति, ये सब एक तल की बात है न?

जो लोग साथ जुड़े हुए हैं कुछ समय से, वो समझ रहे होंगे; बाकियों को तकलीफ आ रही होगी। कितने लोग हैं जो मेरी भाषा से बिल्कुल ही परिचित नहीं हैं? जिन्हें लग रहा है कि बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, तो अभी इसके बाद पूछ लीजिएगा कहाँ पर अटक रहे हैं। प्रकृति, गुण, देह, पदार्थ, ये सब क्या हैं? ये एक हैं, इनको एक-दूसरे से समानार्थी मानिए। तो जब राम यहाँ होते हैं तो ये जितने गुण होते हैं, ये सब किसकी सेवा में लग जाते हैं? व्यक्ति कहता है, ये देह मिली है एक संसाधन के रूप में, इसका तो इस्तेमाल करना है; इसे खुश नहीं करना, इसको मौज नहीं दिलानी, इससे काम निकलवाना है। और काम निकलवाने के लिए भी समय तुम्हें कितना मिला है? जैसे देह है सिमित। पांच ही उंगली है न? दो ही आंखे न? बुद्धि भी सिमित है, स्मृति भी सिमित है, उसी तरीके से अवधि भी सीमित है। सबकुछ सीमित मिला है, अगर उतनी देर में निकाल लो तो निकाल लो, नहीं तो जय राम जी की!

समझ में आ रही है बात?

'तो विद्यावान गुनी अति चतुर।' चतुराई तो सब में होती है। चतुराई का क्या अर्थ होता है? अहम द्वारा अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए उपाय करना ही कहलाता है चतुराई। सब में होती है। पर वह चतुराई तुम अर्पित करो। चतुराई दिखाओ, खूब दिखाओ लेकिन वह चतुराई तुम किसके लिए दिखाओगे, यही प्रश्न वेदांत बार-बार पूछता है। वेदांत नहीं कहता कि बिल्कुल भोंदू बन जाओ; चतुराई है तो दिखाओ! वेदांत नहीं कहता की देह का ख्याल मत करो, वेदांत नहीं कहता की बुद्धि न लगाओ, युक्ति उपाय न लगाओ। कहता है सब लगाओ जान भी लगानी है, ताकत भी लगानी है, चतुराई भी लगानी है, ज्ञान भी लगाना है, बुद्धि लगानी है, स्मृति लगानी है, जितने तरीके के अनुभवों से कुछ जाना है, सीखा है, उस सबका इस्तेमाल करना है। प्रश्न बस एक है- किसके लिए? किसके लिए?

जरूरत पड़ेगी बंदूक उठाएँगे, लेकिन पूरा-पूरा ध्यान रहेगा कि किसके लिए। माने अपने लिए। वो सबकुछ करेंगे, जो कोई दूसरा करता दिखाई देता है। बस, रामकाज, रामकाज। सबकुछ करेंगे, बोलो दुनिया क्या करती दिखाई देती है? नहीं, काम क्या-क्या करती दिखाई देती है दुनिया? जोर से बोलिए, हम भी कमाएँगे ताकत, हम भी कमाएँगे। और ज्ञान इकट्ठा करती है दुनिया, हम भी ज्ञान चाहते हैं। हमें भी सब कुछ पता होना चाहिए। प्रतिष्ठा और खर्चा, वो पैसे में आ गया। और? युद्ध। दुनिया भी लड़ती है, हम भी लड़ेंगे हैं। और? आदर्श। हम जिसको आदर्श बनाएँगे, असल में आदर्श बनाने के लिए छवि चाहिए होती है कि ऐसा आदर्श। पर ठीक है, कह लीजिए कि हम भी बनाएँगे आदर्श। ठीक और? हाँ, ठीक है। दुनिया संगठन बनाती है, हम भी संगठित हो जाएँगे। और? पर हम भी पूजते हैं, तुम भी पूजते हो किसी को, तुम्हारे लिए भी कोई सन्माननीय है; हमारे लिए भी कोई सन्माननीय है। लेकिन अंतर बस रहेगा एक, क्या? अपने लिए नहीं कर रहे भाई!

सबकुछ वही कर रहे हैं जो तुम करते हो, अपने लिए नहीं। और यह कह करके हम किसी पर कोई एहसान नहीं कर रहे।

वास्तव में हमारा परमार्थ ही इसी में है। हमारा ही परम स्वार्थ इसमें है कि अपने लिए न करें। अपने लिए करेंगे तो हमारा नुक़्सान हो जाएगा, इसलिए अपने लिए नहीं कर रहे। कोई ऊँचा दिखने की बात नहीं है, कोई अपनी उज्जवल छवि प्रक्षेपित करने की बात नहीं है। निरे स्वार्थ की बात है। अपने लिए कुछ करूँगा तो मामला खराब हो जाएगा, इसलिए अपने लिए करना ठीक है नहीं।

समझ में आ रही है बात?

बाहरी ज्ञान राम को अर्पित, आत्मज्ञान राम को अर्पित। यहाँ तो बस विद्यावान लिखा है, इसमें आप अविद्यावान भी जोड़ दीजिए। ठीक? भाई शस्त्र संचालन भी जानते थे, कई तरह की चीजें उनको पता थी ,दुनियादारी में भी कुशल थे। तो अविद्यावान भी थे हनुमान, सिर्फ़ विद्यावानी नहीं थे। विद्या भी है, अविद्या भी है; गुण भी हैं, चतुराई भी है; बल भी है, कौशल भी है। 'रामकाज करिबे को आतुर।'

हे अर्जुन! स्वधर्म की राह में मरना भी बेहतर है। अब स्वधर्म का मतलब समझ गए क्या है? क्या है? राम काज, वही स्वधर्म कहलाता है। प्रकृतिगत धर्म का पालन करने की अपेक्षा स्वधर्म में मरना भी बेहतर है। जिसको श्री कृष्ण कहते परधर्म। 'पर' शब्द अष्टावक्र किसके लिए प्रयोग करते हैं? अभी तो बात करी थी! प्रकृति के लिए, जो पराया है उसको ही कहते हैं। तो पर धर्म क्या हुआ? उसको मैं कहता हूं प्रकृति धर्म। माने जो कुछ प्राकृतिक रूप से आपका करने का जी करता है, वो करने से, कहीं बेहतर है कि राम काज करो, भले ही मर जाओ। प्रकृति धर्म का पालन करने में सुख मिलता हो और स्वधर्म का पालन करने में मृत्यु मिलती हो, तो भी स्वधर्म को चुनो। लेकिन प्रकृति धर्म आकर्षित बहुत करता है। प्रकृति धर्म क्या होता है? जो कुछ शरीर आप से करवाए और बोले कि यही तो धर्म है तुम्हारा, यही करो। शरीर क्या-क्या करवाता है आपसे?

श्रोतागण: सेक्स, नींद, आराम।

आचार्य: तो ये सबकुछ जो आपसे शरीर, शरीर में मन विचार सब आ गया। ये सब जो आपसे करवाते रहते हैं, और कहते हैं, ‘यही करना तो धर्म है।’ घर में भी सुना होगा न, यही सब तो करना धर्म होता है। तो शरीर जिस राह आपको भेजता है, उस राह जाने से कहीं बेहतर है मर जाना अर्जुन। 'राम काज करिबे को आतुर।'

मैं बड़ी व्यग्रता से ये उम्मीद कर रहा हूँ कि आप ये नहीं सोच रहे होंगे, कि हनुमान वानरों के कोई नेता थे, जो अयोध्या से निष्कासित किसी युवराज का साथ दे रहे थे। ऐसे तो नहीं सोच रहे हैं न? पर हमें तो ऐसे ही बताया गया है, सब ऐसे ही सोचते हैं। हनुमान कौन हैं? हमें जो बताया गया, वो क्या बताया गया है? कि दक्षिण में वानरों जैसा कोई दल या कोई प्रजाति रहती थी - जो टीवी में आती थी रामायण उसमें तो हनुमान जी को क्या दिखा दिया था? कि मुँह भी उनका कैसा है? वानर जैसा है। यही तो दिखाया था। कृपा करके यह सब मत सोच लीजिएगा। वह उतने ही वानर हैं, जितना कि हमारा शरीर वानर है। डार्विन ने तो बहुत बाद में बताया, कि हम कहाँ से आए हैं?

श्रोतागण: जंगल से।

आचार्य: कहाँ से आए हैं? जंगल से आए हैं और जंगल में भी यही चिंपांजी-गोरिल्ला यही सब। ऋषियों को यह बात बहुत पहले सूझ गई थी कि प्रकृति के ही पुत्र हो तुम। एक कोशिका से ही विकसित हुए हो, ये बात वेदांत बहुत पहले बोल चुका है। हाँ, उतने विस्तार के साथ, उतनी सफाई के साथ नहीं बोली है, जितना डार्विन बोले हैं। पर ये बात जो भी व्यक्ति जीवन पर ध्यान देगा, उसको दिखेगी। कैसे दिखेगी? इसलिए नहीं कि वो अंतर्यामी है या त्रिकालदर्शी है, तो उसने आँखें बंद की और अतीत में जाकर के देख लिया कि मनुष्य का विकास कैसे हुआ है, कालक्रम में!

नहीं नहीं, ऐसे नहीं।

उसने आज के मनुष्य को देखा और जान लिया कि हम बंदर हैं। एक लाख साल पहले का अतीत जानने की ज़रूरत नहीं है, ये समझने के लिए कि हम वानर हैं! जो आज का मनुष्य है, बस उसको ध्यान से देख लो, बिल्कुल दिख जाएगा कि हम वानर हैं।

तो ऋषि वही हैं जिनमें जीवन के निष्पक्ष अवलोकन की एक पैनी दृष्टि से क्षमता होती है; उनको कहते हैं ऋषि। जो बस सामने देखते हैं और उनको वह दिख जाता है, जो आपको नहीं दिखेगा। आप कहेंगे, ‘ये बात इन्हें कैसे दिख गई?’ उन्हें दिख गई। क्यों दिख गई? क्योंकि उनका मन निष्पक्ष है। माने कामना से मुक्त है।

जब मन में अपनी स्वार्थ सिद्धि के विचार नहीं चल रहे होते न, तो ऐसे ही ऐसे देखते-देखते, ऐसी बातें दिखनी लगती हैं जो अन्यथा नहीं दिखती।

हम आज भी वानर है!

तो इस तरह से करके आप जो के सब इतने उज्जवल प्रतीक हैं, इनका अपमान न करें, कि हनुमान एक वानर थे, जो अयोध्या से निष्कासित युवराज अपने भाई और पत्नी समेत वन गमन कर रहे थे; उनका साथ दे रहे थे इत्यादि। ऐसा नहीं। बात कहीं ज़्यादा गहरी है। जो गहरी और असली बात है, समझ पा रहे हैं? आगे बढ़िए अगला क्या है?

प्र: सर, अठारहवीं चौपाई है-

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू, लिल्यो ताहि मधुर फल जानू।।

आचार्य: सूरज को लील लिया बाल हनुमान ने, जो कि सहस्त्रो योजन दूर है। माने बहुत दूर है, बस यह समझ लीजिए। सूरज को लील लिया बाल हनुमान ने क्या सोचकर कि ये तो लाल-लाल पका-पका फल है। ये कैसी बात है? और नादान लोग इस बात को लेकर के तुलसीदास जी का मजाक उड़ाते हैं। और कहते हैं, देखो! हिंदुओं के तो सब ग्रंथ ऐसे ही हैं, कैसी इसमें गप्पबाजी रहती है कि एक बच्चा जाएगा और सूरज को फल समझकर लील लेगा; ऐसे कैसे हो सकता है?

अब इतनी बुद्धि साहब अगर आप में है कि ऐसा नहीं हो सकता! तो इससे कम से कम थोड़ी ज्यादा बुद्धि तो तुलसीदास में भी रही होगी? मतलब इतनी सी ज़्यादा तो रही होगी न आपसे, तुलसीदास में? या कम से कम आपके बराबर तो रही होगी उनमें? तो वो एक बिल्कुल ही अब्सर्ड बात तो नहीं करते? ज़रूर उन्होंने जो बात करी है, उसमें कुछ छिपा हुआ है।तो क्या छुपा हुआ है, वो आप आज तक समझ नहीं पाए!

क्यों नहीं समझ पाए? क्योकि वेदांत पढ़ा ही नहीं कभी। उपनिषदों का उ नहीं पता। फिर कहते हैं कि, ये देखो! अभी भी बहुत चलता है. आप अगर इसी चीज को गूगल सर्च करेंगे न, तो शुरू के ही बीस-पचास जो आपको रिजल्ट आएँगे, उसमें से ही पांच-सात तो बस व्यंग वाले होंगे, मजाक उड़ाने वाले होंगे। कि हिंदू लोग सब अनपढ़ हैं और देखो, कैसी-कैसी बातों पर यकीन करते रहते हैं! और बिलकुल इसी भाषा में वो लिख देते हैं। पहले मुझे क्रोध भी आता था, अब कुछ नहीं, उपेक्षा कर देता हूँ। लिख देते हैं, बन्दर का बच्चा उछला और सूरज को निगल के खा गया। हा हा हा! मजाक उड़ाते हैं। मजाक बाद में उड़ा लेना, पहले समझ तो लो कि बात क्या कही जा रही है। सूर्य क्या है?

श्रोतागण: देवता।

आचार्य: इस प्रकृति की समस्त ऊर्जा का स्रोत। कम से कम इस पृथ्वी की समस्त ऊर्जा का स्रोत। ठीक? तो प्रकृति का सबसे बड़ा प्रतीक है सूर्य। आप जो कुछ भी देख पा रहे हैं, क्योंकि बात हम से करी जा रही है न, और सौरमंडल के लोगों से, और आकाशगंगाओं के लोगों से तो करी नहीं जा रही है? पृथ्वी के लोगों से बात करी जा रही है। और पृथ्वी के निवासी जो कुछ भी देख पा रहे हैं, जिस भी चीज़ का उन्हें अनुभव हो रहा है, या जो कुछ भी चल रहा है, वो किसकी ऊर्जा से चल रहा है? पृथ्वी की समस्त ऊर्जा किसकी ऊर्जा है? ये हवा जो बहती है, ये हवा किसकी उर्जा से बहती है? ये समुद्र में जो लहरें उठती हैं, किसकी उर्जा से उठती हैं? आप चांद भी मत बोलिएगा, चांद के पास भी किसकी ऊर्जा है? सूर्य की। हम सांस भी ले रहे हैं, तो ये ऊर्जा परोक्ष रूप से किसकी है? सब कुछ क्या है?

आप फॉसिल फ्यूल भी बोलते हो, वो फॉसिल भी बना कैसे? उसको किसने फॉसिल बनाया? फॉसिल फ्यूल माने यही है आपका, डीजल-पेट्रोल सब। इसको फॉसिल बनाया किसने? सूर्य ने बनाया। वैज्ञानिक बात कर रहा हूँ मैं, ये नहीं कह रहा हूँ कि सूर्यदेव ने बनाया। सोलर एनर्जी ने बनाया। ठीक है? तो सूरज को निगलने का क्या अर्थ हुआ?

प्रकृति में जो तुमको सबसे बड़ा दिखाई पड़ सकता है, हनुमान जाकर के सीधे उसी को जीत लाए। माने प्रकृति को जीत लेना। इसका मतलब ये नहीं है कि फल समझकर ऐसे खा गए!

समझ में आ रही है बात?

यह पूरी बात तो वेदांत की ही है, बस ऐसी भाषा में कही गई है जो आम लोगों समझ में आ जाए। संस्कृत नहीं जानता था पूरा भारत, बहुत सारी चीज़ें थी। एक तो यह कि संस्कृत जाने की बहुत ज़रूरत नहीं थी आम आदमी को, क्योंकि आम आदमी क्या करता था? खेती करता था। अब खेती के लिए संस्कृत क्या करोगे? और खेती भी ऐसी थी, देखिए! बहुत सारी चीज़ें सिर्फ़ और सिर्फ़ टेक्नोलॉजी की वर्तमान दशा पर निर्भर करती हैं। भारत में जो खेती में तकनीक प्रयुक्त हो रही थी, वो लगभग दो हजार वर्षों तक एकदम नहीं बदली। कोई नया आविष्कार, परिवर्तन, बदलाव कुछ हुआ ही नहीं! तो आप 5वीं शताब्दी के किसान को देखें और 15वीं शताब्दी के किसान को देखें; आपको कोई बहुत अंतर नज़र नहीं आएगा। वही फसलें होंगी, खेती के वही तौर-तरीके होंगे। और जब आपको पता होता है कि कोई बदलाव हो नहीं सकता तो आपमें सीखने की उत्कंठा कम हो जाती है।

तो भारत का जो किसान था, उसके पास एक संचित ज्ञान था, जो उसे अपने पिता से दादा से मिलता था। अब वो उसी संचित ज्ञान में संतुष्ट रहता था। क्या करोगे और ज़्यादा जान करके? और ज़्यादा जान करके भी कुछ बदलना तो है नहीं! बारिश तो तभी होगी जब होनी है, फसलें भी वही उगनी है जो उगनी हैं! और काम चलाऊ ज्ञान तो हमें मिला ही हुआ है। किससे? उतना ज्ञान पर्याप्त हो जा रहा था न। आज भी आप जाएँ तो हो सकता है कि किसान अनपढ़ हो, लेकिन फिर भी उसे बहुत सारी बातों का व्यवहारिक ज्ञान अच्छा होता है। उतने ज्ञान से काम चल जा रहा था।

तो उन लोगों को समझिए, जिनसे तुलसीदास बात कर रहे थे। तुलसीदास कहाँ पर थे? कहाँ पर थे? उत्तर भारत में। जहाँ पर सारा काम ही चल रहा है खेती से। उन लोगों को आप सीधे-सीधे वेदांत के सूत्र बताओगे, उन्हें नहीं समझ में आ रहे थे; ऊपर से जाति प्रथा। एक तो संस्कृत सीखने में भाषा जटिल, ऊपर से पुरोहितो ने अपने स्वार्थ के चलते ऐसा कर दिया था कि देश की अस्सी-नब्बे प्रतिशत आबादी निरक्षर! लेकिन उन तक धर्म को ले जाना भी ज़रूरी है। तो कैसे ले जाएँ उन तक धर्म को? फिर उन तक धर्म को प्रतीकों और कथाओं के माध्यम से ले जाया गया। संतो ने कहा सीधे-सीधे मैं इनको बोलूंगा, ‘अहम ब्रह्मास्मि’, बड़ी दिक्कत हो जानी है! इनकी चेतना इतनी विकसित ही नहीं होने पाई है कि वेदांत के सूक्ष्म सिद्धांतों को पकड़ पाएँ। तो कुछ गाकर समझाएँगे, कुछ मनोरंजन के माध्यम से समझाएँगे, कुछ कथा के माध्यम समझाएँगे।

इसलिए आप देखो न प्रमाण, कि वही तुलसीदास हैं जो कह रहे हैं, ‘राम ब्रह्म परमारथ रूपा।' लेकिन वही बता रहे हैं कि रामचंद्र जी का जन्म कहाँ हुआ था और कैसे हुआ था। वही बता रहे कि नहीं बता रहे हैं? पर ये बात आपको अजीब लगेगी, खुद ही तो बोल रहे हैं, 'राम ब्रह्म परमारथ रूपा'; ब्रह्म का तो जन्म होता ही नहीं कभी, फिर क्यों पूरे बताया कि राजा दशरथ थे, उनकी तीन रानियाँ थी और उनके ऐसे-ऐसे बच्चे हुए, क्यों बता रहे हो फिर ये सब? वो दोनों बातें अलग-अलग लोगों को बताई गई हैं। जो समझ सकते हैं, उनको सीधे ही बता दिया- राम ब्रह्म परमारथ रूपा।

लेकिन 99% लोग समझ नहीं सकते। तो उनको फिर कैसे समझाया? उनको कथा के माध्यम से समझाया, कि राम कथा के माध्यम से समझो तुम। उनको प्रतीकों के माध्यम से समझाया।

अब आम आदमी को आप सीधे बोलोगे कि मन हमेशा आत्ममुखी होना चाहिए। उसको नहीं समझ में आती बात। आप उसको बोलोगे, 'देखो! जो भी करो, जैसे भी करो, बस वो जो एक सत्य है उसकी निष्ठा में करो।’ वह सुन लेगा लेकिन बात बहुत गहरे नहीं जाएगी। क्योंकि हमको, हम जैसे होते हैं न बचपन से ही, हमें कोई उदाहरण चाहिए, हमें कोई चित्र चाहिए। हमें अपने सामने कोई सजीव मूर्ति चाहिए जिसका हम अनुकरण कर सकें, हमें कोई आदर्श चाहिए होता है। तो फिर वैसे मन का, जो सदा सत्यनिष्ठ ही रहता है, एक आदर्श खाका खींचा गया। उस आदर्श ख़ाके को क्या नाम दिया गया? हनुमान।

अब आसानी हो गई। अब हम कह सकते हैं, हाँ! हनुमान जी ने हमेशा राम जी की भक्ति करी, तो मैं भी करुँगा। ठीक। लेकिन अगर आप सिद्धांत के तौर पर बता देते आम आदमी को कि मन और आत्मा दो ही होते हैं, और मन को हमेशा आत्मा के प्रति ही निष्ठा रखनी चाहिए। तो सुन तो लेता, लेकिन व्यवहार में नहीं ला पाता। तो व्यवहार में लाने के लिए फिर एक पूरा तानाबाना बुनना पड़ता है। उसी में फिर यह बात है कि- 'जुग सहस्त्र जोजन पर भानू लीलो ताहि मधुर फल जानू।'

इसका अर्थ समझ पाए?

अब इसी से मिलते-जुलते काम, सूरज सबसे बड़ा है, वैसे ही एक और बहुत बड़ी चीज़ होती है। क्या होती है? सागर। अब सागर सम्बंधित भी कुछ करा था हनुमान जी ने? अब मतलब समझ में आया सागर लांघने का? मजा आ रहा है? भूले बैठे थे कि सागर लाँघ सकते हैं! सागर माने किसका सागर? अरे! वही जिसको ऋषियों ने कहा है- भवसागर। वो भारत और लंका के बीच का ही नहीं सागर था कि आपको रामसेतु खोज रहे हैं! वो कौन से सागर की बात हो रही है? भव माने होना, भव माने अस्तित्व। तो अस्तित्व का सागर लांघ गए, माने प्रकृति का सागर लांघ गए, माने देह का सागर लांघ गए।

समझ में आ रही है बात?

सूरज को निगलना और सागर लांघ जाना, ये दोनों बिल्कुल एक बात है। दोनों में ही प्रकृति का उल्लंघन किया जा रहा है और यही हर जीव का धर्म होता है- लाँघ जाओ प्रकृति को, लाँघ जाओ देह को, लाँघ जाओ जन्म को। जब जन्म को लाँघ जाओगे, तो अमर हो जाओगे; जो होने के लिए पैदा हुए हो। और वो बात भी चालीसा में आती है आगे कि जीवन की जो सीमा है, उसको लांघ गए हैं हनुमान। वो बात भी आती है, अगर आपने चुनी होगी तो पूछेंगे। और बताइए?

प्र: सर, इसी की अगली चौपाई है-

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही, जलधि लांघी गए अचरज नाही।।

आचार्य: उसमे और एक जोड़ दीजिए कि प्रभु की मुद्रिका का जो चमत्कार था यह। मुंह में क्या रखी हुई थी? प्रभु की अंगूठी, और पीछे उनको कुछ याद दिलाया गया था। क्या याद दिलाया था? मन को याद दिलाया जा रहा है कि तुम में प्रकृति को लांघ जाने की क्षमता है। और फिर वो लाँघ जाता है।

'जलधि लांघी गए अचरज नाही।' आपको भी तो यही करना है, जलाधि को ही तो लांघना है आपको भी, सूरज को ही तो निगलना है आपको भीl और हम किस लिए पैदा हुए हैं? दो जो बड़े से बड़े और परस्पर विपरीत प्रतीक हो सकते हैं अग्नि और जल; देखिए! दोनों को ले आए तुलसीदास। बोले, ‘तुम वो हो जो आग को खा जाओगे जल को लाँघ जाओगे। याद करो तुम कौन हो?' यह बात मात्र हनुमान से नहीं कही जा रही है। यह बात एक-एक जीव से कही जा रही है। तुम वो हो जो आग को खा सकते हो और जल को लाँघ सकते हो।

और यही बात आचार्य शंकर बोलते है। वो किस रूप में बोलते हैं? कौन याद दिलाएगा? निर्वाण षटकम्? निर्वाण षटकम् में वो पंचभूत के लिए क्या बोलते हैं? अरे! न अग्नि न वायु: …(हिंट देते हुए) बोलो, बोलो कोई तो बोलो?

श्रोतागण: शिवोहम।

आचार्य: शिवोहम तो ठीक है पर पंच भूतों के बारे में क्या बोलते हैं?

श्रोतागण: न अग्नि न वायु… ।

आचार्य: पांचों भूतों में से तुम कोई भी नहीं हो। वही काम यहाँ तुलसीदास दिखा रहे हैं। कम से कम दो भूतों का उदाहरण तो उन्होंने यहाँ पर पर दे ही दिया। अग्नि और जल का। रही वायु की बात, तो उसको तो वो साधन की तरह इस्तेमाल करते थे। तो वायु भी आ गई। रही पृथ्वी की बात, तो उसको तो ऐसे उठाकर ले जाते थे कि खोज लीजिए, इसमें कहा औषधि है। तो वो भी आ गई। अब क्या बचा? आकाश में तो उड़ते ही थे ऊपर! तो लेओ यही तो अद्वैत वेदांत है।अद्वैत वेदांत और क्या होता है? शिव मात्र हो तुम।

हनुमान चालीसा का आरंभ होता है, जो चौपाई है उससे पहले दोहे आते हैं न। और दोहों में जानते हैं आप जो पहला ही शब्द है, वो क्या है? श्री श्री। 'श्री गुरु चरण सरोज रज।' श्री यहाँ जानते हैं किसका द्योतक है? बहुत बढ़िया शिव, शिव। और जो पंचभूत नहीं है, आचार्य शंकर उसके लिए क्या कहते हैं? शिवोहम। ये तो सारी बातें एक होती जा रही हैं! ये क्या हो गया? ये क्या हो गया? आचार्य शंकर ही तुलसीदास हैं! पर वहाँ तो संस्कृत है, यहाँ तो हिंदी भी नहीं है।

सुनने वाला बदलता है, कहने वाला एक ही रहता है। अर्जुन कोई समय नहीं था, जब तुम नहीं थे या मैं नहीं था। ये गीता मैंने न जाने पहले भी कितनी बार कही है और तुम ही से कही है। सत्य तो एक ही होता है न? जब भी सत्य बोला गया है, वो एक ही बात है जो बोली गई है। बस चूंकि सुनने वाले अलग-अलग होते हैं और अपनी सीमाओं में बंधे होते हैं, इसलिए उनसे अलग-अलग तरीकों से अलग-अलग शब्दों में बोली जाती है।

तुलसीदास जी से छह सौ साल पहले आचार्य शंकर अपनी बात बोल गए थे। और वही बोल गए थे, जो यहाँ आप देख रहे हो। और कुछ ऐसा याद आता है श्रीमद भगवद गीता में, इन्ही पांच भूतों को लेकर के कि अग्नि तुम्हें जला नहीं सकती, जल तुम्हें गिला नहीं कर सकता, वायु सुखा नहीं सकती? ये क्या था? ये क्या था?

श्रोतागण: नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि।

आचार्य: हाँ! तो वही बात वहा भगवद्गीता में भी हो रही है। कुछ गड़बड़ है! ये सारी बातें, कहीं किसी एक व्यक्ति नहीं तो नहीं कहीं! ऐसा तो नहीं जिस एक ने कही हैं, वह व्यक्ति ही न हो! तो ऐसा भी तो नहीं कि कहीं जो व्यक्ति ये सब बातें करने लगे वह व्यक्ति ही न रह जाता हो धीरे-धीरे?

मामला खतरनाक है!

गतभेदा। जब विद्या उठती है तो सबसे पहले जो चीजें अलग-अलग दिख रही थी, वो एक दिखने लगती हैं। अभी आपके सामने जो हो रहा है, यही हो रहा है। आप गतभेद हो रहे हैं। आपको श्रीमद्भगवद्गीता, अष्टावक्रगीता, निर्वाणषटकम् और रामचरितमानस में अब भेद दिखना कम हो रहा है न? आप गतभेद हो रहे हैं। और जो गत भेद है, उसके लिए तुलसीदास क्या नाम दे रहे हैं? राम। तो अभी आप राम के निकट जा रहे हैं धीरे-धीरे। यही है प्रक्रिया राम के निकट जाने की, जो अभी चल रही है। नारे लगाने से निकट नहीं जाओगे, कर्मकांड से भी निकट नहीं जाओगे।

कुछ आ रही है बात समझ में? भेद मिट रहे हैं?

और राम के नाम पर अंधविश्वास करके, इधर-उधर की फिजूल बातें फैला करके, जादू टोना, तिकड़म करके तो एकदम ही दूर चले जाओगे राम से।

प्र: सर, अगली चौपाई शायद इसी से संबंधित है-

'भूत पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे' ।।२४।।

आचार्य: भूत पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे।।

भतीजा है मेरा छोटा। उसने अपने दिमाग में एक चीज बैठाई है। क्या नाम है उसका? पूगनी या ऐसा कुछ बोलता है वो, कि वो रहती है। थोड़ा-सा इससे भिन्न नाम है, अंत में ‘नि’ ही आता है। नहीं, नहीं भूतनी होता तो मैं बोल नहीं देता! (सब हँसते हुए)

तो जैसे सुबह उठेगा, तो बाहर निकलेगा, तो कोई उससे पूछेगा कल रात में आई थी पूगनी? तो फिर वो अपनी बुद्धि अनुसार बोलेगा, 'नहीं कल रात तो नहीं आई।' तो उसको लग रहा होता है कि अभी पूगनी आई है। तो मैं अगर कभी हूँ, तो मैं उसको बैठा लूंगा गोद में। कहेगा, 'पूगनी आई है, पूगनी आई है!' उठा लूंगा, इधर-उधर की बात करूँगा और कहूँगा, 'है पूगनी अब?' बोलेगा नहीं पूगनी नहीं है।

तो क्या हुआ पूगनी का? आई तो थी, तुम कह रहे थे। बोला, 'आई थी, चली गई।' आई थी, चली गई। तो पूगनी तो है ही है। किसके देखे है? किसके लिए है? उसके लिए है। लेकिन उसको ही जब अपने ताऊजी का मिल जाता है सहारा, तो उसको लगता है अब नहीं है।

हम कह रहे हैं कि तुलसीदास सीधे-सीधे वेदांत से उठ रहे हैं, ठीक है न? और वेदांत में दो ही चीजें होती है- एक सत्य और एक मिथ्या। वहां कभी भी बताया जाए कि एक चीज़ दूसरी चीज़ के विरोध में है, तो दो चीजें बताई गई? तो वेदांत में तो दो ही होते हैं। एक सत्य और एक असत्य। एक वह जो है और एक वो जो मिथ्या है। और जब कहा जा रहा है, 'भूत पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे।' ठीक है? तो इसमें दो चीजों का परस्पर विरोध बताया जा रहा है। है न? एक तरफ है भूत-पिशाच और एक तरफ राम का नाम, या हनुमान का नाम। एक के होते ही दूसरा गायब हो जाता है! और हम कह रहे हैं, वेदांत में दो ही चीजें होती हैं- सत्य और मिथ्या। जिसके होते ही, दूसरा गायब हो जाए वह हमेशा क्या होता है? सत्य।

तो जो नाम हैं यहाँ पर, चाहे वह आप हनुमान का नाम कहें या राम का नाम कहें, जो नाम है वो ही क्या है? और जो दूसरी चीज़ हुई, वो क्या हुई? तो क्या मिथ्या हुआ यहाँ पर? मिथ्या का अर्थ ही क्या है? जो होता ही नहीं, पर तुम को लगता है कि है। क्यों? क्योंकि तुम बालक बुद्धि हो। जिस दिन थोड़े बड़े हो जाओगे, तुम्हें लगना भी बंद हो जाएगा।

तो छोटू को लगता है कि पूगनी है, क्योंकि अभी वो? बच्चा है। तो जिनको लगे की भूत प्रेत होते हैं, अभी वो बालक बुद्धि है। अभी उनकी चेतना विकसित नहीं हो पा रही है। और जब आप बालक बुद्धि होते हो, तो आपको यह सब चीजें लगती हैं, कि हैं। छोटे बच्चे को कुछ भी समझाया जा सकता है। समझा सकते हो कि नहीं?

बच्चा छोटा हो, उसे कुछ भी समझा सकते हो। हाँ, वो देखो, वहाँ पर न अंधेरे में… कुछ भी, चुड़ैल तो पारम्परिक हो गया। नकुकु रहता है! वो मान भी लेगा कि रहता है। वहाँ किसी को अगर चालाकी करनी है, तो बैठा दो और आवाज कर दे दो-चार; तब तो पक्का ही हो गया कि नकुकू रहता है। और बच्चे को ये जताने से कि नकुकु रहता है, कोई लाभ होता है तब तो बच्चों को ज़रूर ही जताओगे न? हाँ।

तो अगर आपको भूत-पिशाच बता करके आपकी जेब ढीली कराई जा सकती हो, या आपमें प्रसिद्धि पाई जा सकती हो, तो आपमें मैं भूत-प्रेत की बातें क्यों न प्रचलित करुँ?

भाई! बच्चे से काम निकलवाना होता है, तो आप बच्चे को डराते हो। यहाँ से चालीस-चालीस कोस दूर जब बच्चा सोता नहीं है, तो मां कहती है, ‘सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा।’ मां तक को बच्चे को डराना पड़ता है। क्योंकि काम निकलवाना है न! कू कू करे जा रहा है, माँ को भी नहीं सोने दे रहा। तो बच्चा होने का यह नुक़्सान होता है, आपको कुछ भी झूठ-मूठ बोलकर आपको डराया जा सकता है और आपसे काम निकलवाया जा सकता है।

आपको डराने के लिए अगर ज़रूरी है कि आपमें भूत-प्रेत के भाव को बैठाया जाए। तो आपमें वो भाव कोई न कोई ज़रूर बैठा देगा। क्योंकि जैसे ही आप डर गए, वैसे ही आप नियंत्रण में आ गए न। 'दूध पी लो, नहीं तो पुलिस आकर ले जाएगी!' यहाँ माँए बैठी होंगी, उन्होंने ज़रूर बोला होगा बच्चों से कभी न कभी अपने। 'खाना खा रहे हो, नहीं तो बाबा उठा ले जाएगा!' बोला है कि नहीं बोला है?

बच्चे से काम कराने के लिए उसमें भूत-प्रेत, बाबा, गब्बर, ये सब वहम बैठाने पढ़ते हैं न? वैसे ही ये जो उम्र से तो बड़े हो जाते हैं, तीस-तीस चालीस-चालीस साल के हो जाते हैं; पर दिमाग से अभी बालक ही हैं, बच्चे ही हैं पांच-सात साल के। इनके दिमाग में सौ तरह के वहम डाले जाते हैं, ताकि इनसे फिर काम कराया जा सके, या इनसे पैसे उगाहे जा सकें, या इनके बीच छाया जा सके बलि बन करके। या इनका नेता बना जा सके, कुछ भी!

लेकिन ये जितने वहम होते हैं, इनको कौन हटा देता है? इनको ज्ञान हटा देता है। वही कहा गया है। 'भूत-पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे।' भूत-पिशाच माने झठ-मुठ के वहम जो हम में बैठाए जाते हैं। और महावीर का नाम माने ज्ञान का प्रकाश। हनुमान किसके सूचक हैं, किसके प्रतीक हैं? ज्ञान के। यही हम इतनी देर से बात कर रहे हैं न? हनुमान माने ज्ञान। तो जब ज्ञान आता है, तो भूत-प्रेत भाग जाता है। ये है इस चौपाई का अर्थ।

जब ज्ञान आता है तो भूत-प्रेत का वहम भाग जाता है। इसको लेकर के यह न साबित कर दीजिएगा कि भूत-प्रेत होते हैं! उल्टी गंगा मत बहा दीजिएगा! यह चौपाई तो बल्कि यही बताने के लिए कि भूत-प्रेत नहीं होते और जैसे ही तुम में ज्ञान आता है, तुम्हें ये बात समझ में आ जाती है कि भूत-प्रेत क्या होगा! तुम ही नहीं हो, तुम्हें भूत-प्रेत कहाँ से सताएँगे? पागल! ये ऐसी सी बात है कि पिशाच आकर मेरा तीसरा हाथ खा गया! अरे! जब था ही नहीं, तो खा कैसे गया?

तुम बोल रहे हो… अब वेदांत पढ़ा नहीं तो इसलिए ये बातें फिर समझ में नहीं आती। तुम बोल रहे हो कि तुम्हें खतरा है भूत-प्रेत से, और वेदांत बोलता है कि, 'तुम हो ही नहीं!' तो तुम्हें खतरा कहाँ से हो गया? ये ऐसी सी बात है कि भिखारी रो रहा है, क्या? कह रहा है, ‘रिसेशन आ रहा है, मेरा क्या होगा?’ तेरे पास है क्या, जो कोई भूत-प्रेत ले जाएगा?

समझ में आ रही है बात?

तो कभी भी मत स्वीकार कर लीजिएगा, कोई इस तरीके का एकदम घटिया कुतर्क दे कि, ‘देखो! हनुमान चालीसा में तो लिखा है, भूत-पिशाच निकट नहीं आवे। माने भूत-पिशाच होता है! भाई! वो यही बताने के लिए लिखा है कि भूत-पिशाच नहीं होते हैं।

इसी तरीके से लोग श्रीमद्भगवद्गीता के पहले अध्याय का उदाहरण देकर बोलते हैं कि देखो, ‘श्राद्ध भी होता है, वर्णसंकर भी होते हैं, माने कि दूसरे वर्णों में शादियां नहीं की जानी चाहिए, यह सब भी शास्त्रों में लिखा है। कि श्राद्ध करो, दूसरे वर्णो में शादियाँ मत करो। और जब पति नहीं रहता तो महिलाएं पथभ्रष्ट होकर अपवित्र हो जाती हैं, ये सब भी देखो शास्त्रों में लिखा हुआ है! और पितरों की आत्माएँ भटकती हैं, और अगर ठीक से उनको नहीं आपने रखा तो वह नरक में जाकर सड़ती हैं। माने स्वर्ग-नर्क होते हैं, और आत्माएँ भटकती हैं, ये भी गीता में लिखा है!

अरे पगले! ये सब बातें कौन बोल रहा है, कृष्ण की अर्जुन? ये सब बातें अर्जुन बोल रहा है और इन्ही बातों का तो कृष्ण आगे खंडन कर रहे हैं। लेकिन लोग कहेंगे कि यह बात गीता में लिखा है। अरे! गीता में तो दो है न? कृष्णा और अर्जुन? ये बातें कृष्ण थोड़ी ही बोल रहे हैं। ये सब बातें तो अर्जुन बोल रहे थे और अर्जुन की एक-एक बात को कृष्ण काट देते हैं।

कृष्ण अर्जुन की हर उस बात को… देखिए, आप आज इन बातों को बोलते हो न कि स्त्रियों को नीचा समझा जाता है या स्त्रियों को लेकर के पुरुषों की दृष्टि ठीक नहीं रहती है, उनको सम्मान नहीं देते, बराबर नहीं मानते वगैरा। वह बात भी गीता में है, लेकिन वो कर कौन रहा है? अर्जुन। आज भी जाति-प्रथा को लेकर के बड़ा असंतोष रहता है और एक बड़ी समस्या बनी हुई है आज भी! और वह चीज़ भी है गीता में; किसके मुख से आ रही है? अर्जुन के। कर्मकांड आज भी एक बड़ी समस्या है, है न? कि ये करो वो करो, ऐसे हो जाएगा अगर तुम फलानि जगह पानी चढ़ा दोगे, फलानि जगह ये कर दोगे, फैलाने मंदिर में कुछ कर दोगे, तो तुम्हारे पितरों की आत्माएँ शांत हो जाएँगी, वो सब आज भी चल रहा है अंधविश्वास। वही अंधविश्वास आप गीता में भी पाते हैं, किसके मुँह से?

श्रोतागण: अर्जुन।

आचार्य: तो देखिए! फिर यहाँ पर कृष्ण कौन हैं? कृष्ण हैं अंधविश्वास का उन्मूलन करने वाला ज्ञान। सारा अंधविश्वास लेकर के कौन बैठे हैं? अर्जुन। और कृष्ण क्या कर रहे है? कृष्ण अंधविश्वास काट रहे हैं, तोड़ रहे हैं। सारी प्रथाएँ-परंपराएँ, सारी मान्यताएँ लेकर के कौन बैठे हैं? अर्जुन। और कृष्ण क्या कर रहे हैं? एक-एक परंपरा को काट रहे हैं।

बोध का, बुद्धों का, कृष्णो का हर युग में यही काम रहा है। वो आकर के आपको बताते हैं कि आपकी मान्यताएँ, ये आपके अंधविश्वास या आपकी प्रथाएँ परंपराएँ, ये जिसको आपअपनी संस्कृति मानते हो; ये सब व्यर्थ की बात है। यही कृष्णों का हमेशा का काम है। वही कोशिश यहाँ हनुमान चालीसा में भी की जा रही है। ज़रूर उस समय भी, जब तुलसीदास ने ये लिखा है; बहुत समय पहले की बात नहीं है ये, कुछ ही शताब्दियाँ बीती हैं। उस समय भी खूब भूत-प्रेत का रहा होगा? रहा होगा कि नहीं रहा होगा?

और भारत पर जबसे पश्चिमी दिशा से आक्रमण होने शुरू हुए, उसके बाद से भारत में शिक्षा पूरी तरह से ध्वस्त हुई थी। आठवीं नौवीं शताब्दी में पहला आक्रमण हुआ था भारत पर। उससे पहले ये सब आते थे, शक, हूण वगैरह। पर उनका काम यह नहीं था कि आकर के यहाँ की सारी व्यवस्था ही तोड़-फोड़ दें। सिंध पर हुआ था पहला आक्रमण और उसके बाद से अगले 1000 साल तक; 9वीं शताब्दी से लेकर के 18वीं 19वीं शताब्दी तक भारत में एक भी विश्वविद्यालय नहीं बना। उसके बाद जानते हो किसने बनवाया? अंग्रेजों ने।

सिंध के राजा थे दाहिर, और उनको हराया था कासिम ने, मोहम्मद बिन कासिम। और उसके बाद से भारत में अगले 1000 साल तक एक भी विश्वविद्यालय नहीं बना। बल्कि जो थे, वहाँ भी तोड़फोड़ हो गई। इसका मतलब ये नहीं था कि किसी को शिक्षा मिली नहीं। लोकल स्तर पर गुरुकुल वगैरह चलते रहे। तो थोड़ी-बहुत शिक्षा मिलती रही बहुत कम लोगों को। लेकिन शिक्षा का भी और साक्षरता का भी, इन दोनों का ही स्तर गिरता रहा लगातार। फिर उसका फिर नतीजा ये हुआ कि मुगलों के बाद फ्रेंच और पुर्तगाली और अंग्रेज चढ़ बैठे। लेकिन आप कल्पना करिए, 1000 साल कितना होता है?

और 9वीं शताब्दी से 18 वीं शताब्दी तक 19वीं तक एक भी विश्वविद्यालय भारत में नहीं बना। तो इसमें फिर अचरज की बात क्या है कि ठीक इसी काल में, इसी के मध्यकाल में आते है तुलसीदास। और तब भूत-प्रेत बिल्कुल सांस्कृतिक अनुमति पा चुके थे। जहाँ शिक्षा नहीं होगी वहाँ भूत-प्रेत ही तो होंगे। नौवीं शताब्दी ले लो या उन्नीसवीं ले लो, उसके ठीक बीचों-बीच कौन खड़े हैं? तुलसीदास खड़े हुए हैं। तो वहाँ भूत-प्रेत तो होंगे ही होंगे न? लेकिन तुलसीदास तो जान रहे हैं, 'राम ब्रह्म परमारथ रूपा।' उन्हें पता है यह भूत-प्रेत क्या है! बचकानी बातें मूर्खता की, बालक बुद्धि की बातें, अंधविश्वास। तो उन्हें भूत-प्रेत के मुद्दे को संबोधित भी करना है, तो उन्होंने इस तरह संबोधित किया है। कि हनुमान माने ज्ञान पा लो, भूत-प्रेत नहीं पता चलेंगे। जब ज्ञान नहीं होगा, तो तुम्हारे लिए निश्चित हो जाएगा कि तुम पर भूत-प्रेत, पिशाच, डायन, ज़िन, चुड़ैल जो कुछ भी होता है; ये सब चल रहा है। अज्ञानी की निशानी ही है वहम और अंधविश्वास।

स्पष्ट हो रहा है कुछ?

प्र: सर, इसके आगे 28वीं चौपाई है-

'और मनोरथ जो कोई लावे, सोई अमित जीवन फल पावे ।।२८।।

आचार्य: मित माने क्या होता है? मित माने? वेदांत के प्रकाश में शब्द कैसे पढ़े जाते हैं, यह सिखा रहा हूँ। मित माने क्या होता है? छोटा। मित माने छोटा। और अमित माने जो छोटा नहीं। हमने कहा था - जब गतभेदा पर बात हो रही थी - हमने कहा था प्रकृति में भेद ही भेद होते हैं। प्रकृति का लक्षण ही होता है- सीमाएँ; तभी तो भेद होंगे न। सीमा नहीं होगी तो भेद कैसे होगा? कैसे भेद करते हो कि टेबल समाप्त हो गया? यह सीमा आ गई न, सीमा आ गई तो माने समाप्ति आ गई। भेद के लिए क्या चाहिए? कैसे पता चलता है वहाँ पर कि दो रंग है, पीला और लाल? एक बीच में सीमा रेखा है। और जहाँ पर सीमा है वहाँ पर क्या आ गया? छोटापन। क्योंकि सीमा इसके पसार को रोक देती है। रोक दिया न सीमा ने? न तो जो पीलापन है, वो बहुत बढ़ पाया, न तो लालपन बहुत बढ़ पाया! दोनों को ही सीमा ने क्या कर दिया? मित कर दिया। मित कर दिया माने छोटा कर दिया। सीमा हर चीज़ को क्या कर देती है? तो माने मित शब्द किसका प्रतीक हो गया? छोटेपन का माने, भेद का माने, माने माने? प्रकृति का।

तो मित जीवन क्या हुआ? प्राकृतिक जीवन, ये जो 60, 70, 80 साल का मिलता है, यह कौन सा जीवन हुआ? मित जीवन। यानी प्राकृतिक जीवन। तो अमित जीवन क्या हुआ? आत्मा में स्थापित हो जाना। वेदांत में ऐसे पढ़ते है।

अमित जीवन, तो यहाँ पर लिखा हुआ है, 'और मनोरथ जो कोई लावे, सोई अमित जीवन फल पावे।' फल ये मिलेगा कि अमर हो जाओगे, अमित हो जाएगा जीवन। माने प्रकृति से परे चले जाएगा जीवन तुम्हारा। और किसमें मनोरथ लगाना है? मनोरथ किसमें लगाना है? हनुमान में। हनुमान माने? ज्ञान। ज्ञान में मन लगाओगे तो प्रकृति से परे चले जाओगे। और प्रकृति का अर्थ होता है मितता, माने मृत्यु; तो अमर हो जाओगे। ये अर्थ हुआ इस चौपाई का।

समझ में आ रही है बात?

यहाँ मनोरथ से आशय कामना नहीं है; और यहाँ पर फल से आशय सकाम फल नहीं है। यहाँ कौन से फल की बात हो रही है? अमृत फल! सब भयों से मुक्त हो जाओगे। वही जो भूत-प्रेत वाली चीज़ है, सब मुक्त हो जाओगे एकदम। मृत्यु का भय भी नहीं सताएगा, जब ज्ञान हो जाएगा। और ज्ञान माने क्या होता है, श्री कृष्ण बता चुके हैं साफ़-साफ़, ज्ञान माने क्या होता है? आत्मज्ञान। जिसको आत्मज्ञान हो गया, उसने मरने वाले को ही मिथ्या जान लिया; अब मरेगा कैसे?

मरता कौन है? (शरीर की तरफ इशारा करते हुए) आप कहते हो ये (शरीर) मर गया। काहे? कि अब हरकत नहीं कर रहा। और मरने से डरता कौन है? मन। तन को आप कहते हो मर गया क्योंकि सांस-वास नहीं चल रही है, और ठंडा पड़ गया; तन को कहते हो मर गया। और मरने से लगातार डरता कौन है? मन। तन और मन। और आत्मज्ञान का अर्थ होता है कि इन तन और मन दोनों को जान लेना, कि यह किस क्षेत्र के हैं? प्रकृति के। और मैं तो ये हूँ ही नहीं, तो मरोगे कैसे? मरोगे कैसे?

बाइकें बहुत सारी एक तरह की होती हैं कई बार, होती हैं न? आपने कहीं जाकर के अपनी बाइक लगा दी है। ठीक? और वहाँ तीस-चालीस बाइकें लगी हुई हैं, जिसमें से दस आप ही की तरह की है; कई बार ऐसा हो जाता हैं। कई बार ऐसा हो जाता है। हो जाता है न? कि चालीस बाइकें खड़ी हैं, जिसमें से दस लगभग वैसी हैं जैसी मेरी हैं। आप दूर से देखते हैं, आपको लगता है आपकी बाइक कोई निकालकर लिए चला जा रहा है। आपकी क्या हालत होती है? क्या हालत होती है? और आप दूर हैं; पर इतनी दूर नहीं है कि दिखे न और इतनी पास भी नहीं है कि उसको पकड़ लें! कुछ दूर हैं, पर दिख रहा आपकी बाइक कोई लेकर भाग गया। हालत क्या होती है? जल्दी बोलो? क्या हालत? बाइक वाले कितने बैठे हैं, जी कभी बाइक वाले थे, अब कार वाले हैं, ऐसे कितने लोग बैठे हैं यहाँ? चलो! बाकी सब हवाई जहाज पर ही थे शुरू से? अब कोई आपकी बाइक को लेकर चला रहा है, कैसा लग रहा है? एकदम एक पल मौत का। उस एक पल में तो धड़कन रुक ही गई कि गई, ले गया। और फिर थोड़ा चिल्लाए और दौड़ के पास आए तो क्या देखा? अरे! मेरी ही नहीं।

बस यही ज्ञान होता है। वो जो जा रहा है, वो जा तो रहा है; मैं नहीं कह रहा है कि मौत नहीं हो रही। जो जा रहा है, वो जा तो रहा है पर जो जा रहा है, वो मेरा नहीं है; तो मैं कहाँ मरा? ये है अमित जीवन फल। कुछ जा रहा है, पर जो जा रहा है उसको जाना था, क्योंकि पराया था, प्रकृतिक था, पराया था। जो पराया था, उसको जाना था न। वो तो जाएगा ही भाई! उसका, जिसका है वो ले गया। भैंसेवाले का माल था, वो उगाह ले गया; मेरा तो कभी था ही नहीं। और जो मेरा है? वो नहीं ले सकता कोई। ये समझ गए तुलसीदास, फिर बोलते हैं- 'तुलसी भरोसे राम के…' काहे, कि ले ही नहीं जा सकते।

अपनी बाइक हम तकिए के नीचे दबाएँ, तकिए के नीचे से कोई ले जा सकता है। तो हम यहाँ छाती के अंदर दबाए हैं, ले जाओ कैसे ले जाओगे? 'तुलसी भरोसे राम के निर्भय होकर सोए। अनहोनी होनी नहीं होनी हो सो होय।।” ये बात आप नहीं समझ पाओगे अगर वेदांत नहीं पढ़ा है तो। और वेदांत जब जान लेते हो, तो फिर संतों की रसधार आपको उपलब्ध होती है। नहीं तो संतों की वाणी भी आपके लिए ऐसे ही रहेगी कि जैसे किसी साधारण कवि की रचना।

अब समझ में आ रही है बात?

'अनहोनी होनी नहीं', क्या अनहोनी होगी? जो मेरी चीज़ है वो कहाँ है? यहाँ बैठी है। (ह्रदय की तरफ इशारा करते हुए) कैसे चोरी होगी? और बाकी चीज़ें चोरी हो सकती हैं? बोलो? मेरे हैं ही नहीं, मेरे हैं ही नहीं।

इसलिए फिर आप सुनते हो कि संतों का चरित्र कई बार बड़ा विचित्र होता है। कहते हैं, ‘कर क्या रहे हैं ये?’ सुना है कुत्ता रोटी लेकर भाग गया, उसके पीछे-पीछे जा रहे हैं, घी लेकर। कह रहे हैं, भाई! ये भी तो लेता जा। ‘रोटी रूखी तो न खाओ, थोड़ा घी भी लेते जाओ।’ कहते हैं, कर क्या रहे हैं ये? बोले रोटी…, पूरा करो? मेरी थी कब? ले जा। संयोग की बात है मेरे हाथ में थी, संयोग की बात होती मेरे पेट में चली जाती। एक और संयोग उठा कुत्ता ले गया। ये भी मेरा कौन सा है? ले! घी भी लेता जा।

वैसे ही जापान में होता है। वहाँ पर ज़ेन की बड़ी मजेदार परंपरा है। तो वो लेटा हुआ है मस्त मौला फकीर। नाम अब मुझे याद नहीं। हो सकता है यह नाम हो।(एक श्रोता नाम बताते है) तो लेटा हुआ है अब फकीर, तो फकीरों जैसी उसकी झोपड़ी। वहाँ ऊपर टूटा भी हुआ है मामला। छप्पर गिरा हुआ है, या छत में छेद है जो भी बात होगी। तो लेटा हुआ है, पूर्णिमा है वो अपना मस्त देख रहा है चांद को, बड़ा मजा आ रहा है उसको। और बस टकटकी बांधे चांद को ही देख रहा है, हिल नहीं रहा है। चोर घुस आता है। चोर भी चोर जैसा, फकीर के घर में चोरी करने घुसा है! तो वहाँ उसको जो भी मिलता है, दो-चार बर्तन मिले, एकाध कपड़ा मिला, जो भी उधर रहा होगा, अपना उठा लिया। और फकीर को सब पता चल रहा है, क्या चल रहा है बगल में। वो अपना ऐसे ही लेटा हुआ देख रहा है, और जब वो निकल जाता है, तो पीछे से बोलता है काश! मैं इसको चांद भी दे पाता।

मतलब समझ रहे हो?

बात कितनी सूक्ष्म है? जो असली है वो तो तू ले ही नहीं जा पा रहा पगले! ये वही प्रकृति और आत्मा की बात है। जो असली है, तू उसको कहाँ ले जा पा रहा है? इसका मतलब ये नहीं है कि चांद असली है! मन चाँद को जिस प्रेम से देख रहा है, उसमें कुछ बात आत्मा जैसी है; वो असली चीज़ है। और वो तो तू ले ही नहीं जा पा रहा चोरी करके। जो तू ले जा पा रहा है बर्तन, भाड़ा, कपड़े फटे हुए, मेरी टूटी चप्पलें, इनमें क्या रखा है, ले जा ये सबकुछ। काश! मैं तुझे चाँद भी दे पाता। ले जा, जो ले जा रहा है।

'अमित जीवन।' जीवन इसलिए है ताकि अमित जीवन पाओ तुम। पाओगे, नहीं पाओगे ये फिर आपकी इच्छा और चुनाव पर है। पर संतों ने तो प्रेरित यही करा है कि साहब! प्राकृतिक जीवन से कुछ नहीं होता; अमित जीवन पाना होता है। उसी को फिर जो पाले दूसरा जीवन कहते हैं, ‘द्विज’, ‘ट्वाइस बॉर्न।’ पहला लेकर पैदा हुआ था और दूसरा पा लिया। इसका मतलब ये नहीं है कि उसके पास अब दो जिंदगियाँ हो गई। इसका मतलब ये है कि उसने महामृत्यु को चुन लिया। यही जिसको दूसरा जन्म कहते हैं- अमित जीवन।

इसी को दूसरी जगह पर महामृत्यु भी बोला गया है। लो, अब गोरखनाथ भी आ गए- 'मरो हे जोगी मरो।' ये तो सबकुछ एक होता जा रहा है, पूरा ही गतभेदा होता जा रहा है। सारे भेद मिटते जा रहे हैं। और इतना ही नहीं अभी ये भी हो सकता है कि मैं दूसरे पंथों, संप्रदायों, धर्मों से भी, उनके शास्त्रों से भी बातें उठाऊं; तो पता चले वहाँ भी यही बातें बोली गई हैं लगभग। एकदम ही गतभेदा हो जाएगा फिर तो। कोई भेद नहीं। सुनने वाले के कान में फर्क है, क्या करें? और चूंकि कान अलग-अलग होते हैं, इसीलिए बात को अलग-अलग तरीकों से बोला जाता है। कुछ जम रही है बात? और?

प्र: सर इस के बाद 33वीं चौपाई है-

'तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै ।।३३।।'

आचार्य: जो तुम्हें भजने लगता है, जो तुम्हें निरंतर याद रखने लगता है, वह राम को पा लेता है। जिसको यह बात बैठ जाती है कि मुझे हनुमान सा ही होना है, वो अब राम से दूर नहीं रह गया।

'तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै।'

ये जितने दुख होते हैं, ये होते ही इसीलिए हैं क्योंकि हमारी लगातार मृत्यु होती रहती है। ये मृत्यु ही दुख है। और कोई मृत्यु पूरी नहीं होती, हम बचे रह जाते हैं इसलिए दोबारा खड़े हो जाते हैं। मृत्यु का क्या अर्थ है? जो आप बने बैठे हो, वो मिट गया। अहम जो बना बैठा है, वो चीज़ मिट गई, यही मृत्यु है। अहम जो बना बैठा था, वो चीज़ तो मिट गई; लेकिन कुछ और बनने की अहम् की आस, उसकी वृत्ति नहीं मिटी। तो फिर वो तत्काल कुछ और बन बैठता है।

उदाहरण के लिए, आप किसी से प्रेम पूर्वक कुछ मांगने जाते हो। आपको कोई चीज़ चाहिए, आपको कामना है। अहम को हमेशा कामना ही रहती है। उसे कामना है। जो चीज़ आप चाह रहे हो किसी और के पास है; तो आरम्भ में आप जाकर के प्रेम से वो चीज़ मांग रहे हो। तो अभी अहम क्या बना हुआ है? प्रेमी। अहम क्या बना हुआ है? बहुत उसने मधुर स्वर में कहा, ‘कृपा करके मुझे फलानी वस्तु दे दीजिए। आप इतने अच्छे हैं और मैं आपसे बहुत प्यार करता हूँ।’ कामना के लिए गया था उसके पास। कुल उद्देश्य क्या है? उस चीज़ को पा लूँ। और पाना भी क्यों चाहता है? उसको लगता है उस चीज़ को पा लूँगा तो संतुष्टि मिल जाएगी। जो पुरानी आदिम बेचैनी है, वो दूर हो जाएगी।

तो अभी वो क्या बना बैठा है? प्रेमी और प्रेम से बात बनी नहीं। जिससे मांगा उसने मना कर दिया। तो अहम बोला, ‘सीधी उंगली से निकलता नहीं घी! तब गुर्राह के बोल रहा है, ‘दे! अभी दे।’ प्रेमी को क्या हुआ, कहाँ गया प्रेमी? मर गया। लेकिन क्या अहम मर गया? प्रेमी मर गया, अहम नहीं मरा। अहम तत्काल कुछ और बन गया। अहम का पुनर्जन्म हो गया। अहम क्या बन गया? अहम क्रोधी बन गया। यह है जन्म-जन्मांतर की यात्रा। इसे पुनर्जन्म कहते हैं।

पुनर्जन्म के मूल में कामना है और कामना के मूल में अज्ञान है। माने पुनर्जन्म के ही मूल में अज्ञान बैठा हुआ है। अज्ञान होता है अपने विषय में। अज्ञान माने आत्मअज्ञान, और कोई नहीं अज्ञान। अपने ही विषय में अज्ञान। हम स्वयं को नहीं जानते तो हम अपनेआप को अधूरा मानते हैं। अधूरा मानते हैं, तो पूरा करने के लिए क्या करते हैं? कामना। और क्या करोगे? और उपाय क्या है? मैं अधूरा हूँ और अधूरे होकर के मुझे कैसा हो रहा है? कंपे जा रहे हैं, बेचैनी है, झुंझलाहट है, खुजली है, क्रोध है, उद्विग्नता है; तो कामना करता है।

कामना पूरी करने के लिए अहंकार एक नामरूप रचता है। अभी क्या नामरूप रचा था सबसे पहले? प्रेमी। सोचता है कि प्रेमी बनूँगा तो कामना पूरी हो जाएगी। और प्रेमी बनकर के कामना पूरी? नहीं होती। कुछ भी बनकर कामना पूरी होगी नहीं। तो तत्काल प्रेमी को क्या करना पड़ता है? मारना पड़ता है और फिर पुनर्जन्म करना पड़ता है, किसके रूप में? किसी और रूप में। अब क्या क्रोधी बनकर भी कामना पूरी होगी? वहाँ भी नहीं होती। फिर कुछ और बनेगा, फिर कुछ और बनेगा; तो ये भवचक्र है, ये चलता रहता है, चलता रहता है, इसी को फिर हम कह देते हैं चौरासी लाख योनियाँ या चौरासी योनियाँ, जैसे भी आप उसको पढ़ना चाहें।

मनुष्य एक जन्म से दूसरा जन्म लेता रहता है, लेकिन फंसा रहता है कामना और अज्ञान में ही इसीलिए कभी मुक्ति नहीं पाता। तो इसी कारण मुक्ति का मार्ग बताया गया है निष्काम हो जाना। न रहेगी कामना, न बनना पड़ेगा कुछ भी। प्रेमि काहे को बनना पड़ा था? कामना के कारण। जब कामना ही नहीं रहेगी, तो प्रेमी होने का स्वांग नहीं करना पड़ेगा। प्रेमी होने का नकाब नहीं पहनना पड़ेगा, न मरना पड़ेगा। तो बार-बार की मौत क्यों आती है? कामना के कारण बार-बार मरना पड़ता है, कामना तब भी पूरी नहीं होती।

अब समझ में आ रहा है, यहाँ क्या कह रहे हैं?

अरे! ये तो सीधी-साधी चौपाई थी, इतना लंबा-चौड़ा अर्थ है? हाँ जी। अर्थ लम्बा-चौड़ा नहीं है, समझाने के लिए इतना बोल दिया; नहीं तो अर्थ बहुत सीधा है। एक बार आत्मज्ञान हो गया, जैसे हनुमान जी आत्मज्ञान के प्रतीक हैं; एक बार आपको भी आत्मज्ञान हो गया, तो ये जो जन्म-जन्मांतर का आपने चक्र चला रखा है अपना; ये बने हो, फिर वो बने हो। कामना कहाँ पूरी होती है? आप पहले पत्नी बनती हो, कामना पूरी हो जाएगी, हुई? नहीं होती तो फिर कहती हो, ‘चलो अब मां बन जाते हैं, कामना पूरी हो जाएगी। हुई? फिर कहती हो अब सास बन जाते हैं, कामना पूरी हो जाएगी; यही तो है पुनर्जन्म, कुछ भी बनो कामना नहीं पूरी होती। अंत में लाश बन जाते हो, ठठरी; तब भी कामना पूरी नहीं होती। मर भी गए देह से तो भी कामना पूरी नहीं होती।

हम रोज ही कुछ न कुछ नया बन रहे होते हैं। ज्ञानियों ने कहा है, ‘तुम रोज कुछ नए नहीं बन रहे, तुम प्रतिपल बदल रहे हो; बस इसी आस में कि कभी तुक्का लग जाएगा।’ तुक्का समझ रहे हो? कि मैं ये बदलकर, ये हो जाऊँ; क्या पता यहाँ जैकपॉट लग जाए? जैकपॉट माने मुक्ति। ये बदलकर ये बनूँ, क्या पता मुक्ति मिल जाए? हर जीव को आस मात्र मुक्ति की ही है; लेकिन वो ये जानता नहीं, तो वो सोचता है कि उसे आस कामना पूर्ति की है। तुम्हें कामना पूर्ति नहीं चाहिए, भले ही ऊपर-ऊपर से सबको कामना पूर्ति की तलब है। सबको चाहिए क्या? मुक्ति। सबको चाहिए मुक्ति, वो मिलती नहीं। इसलिए हम भेस बदलते रहते हैं, द्वार-द्वार खटखटाते रहते हैं कि कोई द्वार तो खुलेगा। बहुत द्वार खुलते हैं! लेकिन फिर भी… ।

समझ में आ रही है बात?

तो 'तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै।'

कामना रही ही नहीं क्योंकि जान लिया कि हम वो हैं नहीं; जिसे कामना की ज़रूरत है। तो अब जनम-जनम वाला हमारा खेल समाप्त हुआ। हनुमान हो जाना या राम को जान लेना, दोनों का एक ही अर्थ है। क्या ? आत्मज्ञानी हो जाना। और आत्मज्ञान का अर्थ है, जान लेना मैं अधूरा हूँ ही नहीं; मैं व्यर्थ ही अपनेआप को अधूरा माने बैठा हूँ। तो फिर इन कामनाओं के चक्कर में मुझे मिलना क्या है? फालतू थक रहा हूँ, दर-दर की ठोकर खा रहा हूँ। जो चीज़ चाहिए नहीं, उसके लिए परेशान हो रहा हूँ। 'जनम जनम के दुख बिसरावै।'

गया दुख, गया दुख, मिट गया दुख। दुख चला गया, क्या मिल गया? सुख? क्या मिल गया? किसी ने बोला, हाँ, सुख ही तो मिला होगा। दुख चला गया तो क्या मिला? मुक्ति। वेदांत में दुख के जाने का मतलब सुख का आना नहीं होता। दुख के जाने का मतलब होता है, दुख और सुख दोनों का चला जाना; दोनों से मुक्त हो गए। जनम जनम के दुख बिसरावै।अब कुछ नहीं दुख है। स्पष्ट हो रहा है? आगे?

प्र: सर, एक आखिरी चौपाई है अड़तीसवीं।

'जो सत बार पाठ कर कोई, छूटहि बंदि महा सुख होई' ।।३८।।

आचार्य: वही तो अभी बात कर रहे थे न! बंदि माने बंधन। और यहाँ पर जो सत बार कहा गया है, तो सौ माने क्या? सौ माने सौ, 99 नहीं 101 नहीं। सौ यहाँ पर किसका प्रतीक हुआ? अनंत का। जैसे ज़ेन में कहते हैं, ‘लोटस विथ हंड्रेड पेटल्स।’ वो हंड्रेड से क्या अर्थ होता है वहाँ? इनफिनिट , इनफिनिट। जैसे किसी को बोलते है न, ‘यार तू सौ बहाने करता है!’ सौ से क्या अर्थ होता है कि बस सौ ही करे हैं? अनठानवे नहीं करे, एक सौ दो नहीं करे? सौ से आशय क्या होता है? बहुत, अनगिनत।

तो जो कोई इस बात को अनगिनत बार, माने निरंतर याद रख लेता है, उसके सब बंधन कट जाते हैं; और उन बंधनों के कटने को ही सुख नहीं, महासुख बोला है। बंधनों का कटना ही महासुख है। वेदांत में उसके लिए क्या नाम होता है? आनंद। ये जितनी बात अभी हुई है, इसको जो निरंतर याद रखेगा, सब बंधनों से मुक्त हो जाएगा; और बंधनों से मुक्त होना ही महासुख माने आनंद है। बस यह है।

हनुमान चालीसा आपके आंतरिक अज्ञान को काटने के लिए है, आपको बंधनो से मुक्त करने के लिए है। बस यूँ ही उसका रोज-रोज पाठ करते रहोगे - और मैं जानता हूँ बहुत लोगों को जो बीसों साल से पाठ कर रहे होंगे, पर उसका वह मर्म समझते ही नहीं - तो बंधन नहीं कटेगा। इसलिए नहीं कटेगा क्योंकि हनुमान जी स्वयं ज्ञान के प्रतीक हैं। जो ज्ञान के प्रतीक हैं, आप उनकी चालीसा पढ़ोगे बिना ज्ञान के, तो उनको अच्छा लगेगा? जो स्वयं ज्ञान के प्रतीक हैं, आप उन्हीं का वृत्त पढ़ रहे हो पर बिना ज्ञान के, बिना समझे, बिना वेदांत के हनुमान चालीसा पढ़ रहे हो; हनुमान जी को भी कुछ यह बात जचेगी नहीं। वो भी यही चाहते हैं कि ज्ञान की आँखों से उनको देखो। फिर क्या मिलता है? छोटा-मोटा सुख नहीं?

श्रोतागण: महासुख।

आचार्य: हाँ, और उसी का नाम है महासुख, माने आनंद।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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