हमें क्या पता हम क्या चाहते हैं || (2020)

Acharya Prashant

22 min
129 reads
हमें क्या पता हम क्या चाहते हैं || (2020)

प्रश्नकर्ता: हमारे मन का स्तर उठता क्यों नहीं? हम बेहतर होना चाहते हैं, पर चाहते हुए भी बेहतर हो क्यों नहीं पाते?

आचार्य प्रशांत: देखिए जो ये शब्द होता है न 'चाहना', ये थोड़ा भ्रामक शब्द है। हम साफ़-साफ़ जानते नहीं हैं कि हम चाहते क्या हैं। आप पूछेंगे तो ऊपर-ऊपर तो कोई भी नहीं बोलेगा आपसे कि वो बंधन चाहता है, क़ैद चाहता है, दुःख चाहता है, कष्ट चाहता है, कोई नहीं बोलेगा। पर एक वो चीज़ है जिसको हम कहते हैं कि हम चाहते हैं। और दूसरी वो चीज़ है जिसको हम चोरी-छुपे चाहते हैं, बेहोशी में चाहते हैं।

समझिएगा बात को। एक वो चीज़ है जिसको हम होश में चाहते हैं, एक वो चीज़ है जिसको हम अपनी बेहोशी में चाहते हैं। उदाहरण दूँ? आप रात में ग्यारह बजे सोते हैं, सुबह पाँच बजे का अलार्म लगाते हैं। आपने अपने होश में क्या चाहा है? सुबह उठना। सुबह पाँच बजे अलार्म बजता है, आप ही थे न जिसने अलार्म सेट करा था? जब बजता है अलार्म तो आप ही होते हैं जो हाथ मार कर उसे चुप करा देते हैं। आप ही हैं जो अभी सोते रहना चाहते हैं।

ये दोनों चाहतों में इतना अंतर कैसे आ गया? ग्यारह बजे की चाहत कौन सी थी? होश की चाहत। और सुबह पाँच बजे की चाहत कौन सी है? बेहोशी की चाहत। और ये दोनों चाहतें एक साथ चलती हैं। बात बस इतनी सी है कि जब आप होश में कुछ चाह रहे होते हैं तो आपका होश इतना गहरा नहीं होता कि पता चले कि अंदर कोई बेहोश भी बैठा है और उसने कुछ विपरीत चाह रखा है। तो आप पूरे तरीके से निश्चिंत हो जाते हैं, निश्चिंत हो जाते हैं कि, "मैं तो फलानी चीज़ ही चाहता हूँ।" आप ख़ुद को ये भरोसा दिला लेंगे। आप दूसरे को भी आश्वस्त कर देंगे कि, "नहीं साहब, मैंने पूरा इरादा बना लिया है कि सुबह पाँच बजे तो मुझे उठना ही है।"

आपको पता ही नहीं है कि आपके भीतर एक दूसरा मैं भी बैठा हुआ है। एक दूसरा 'मैं'। आप विभाजित हैं, आप कई हैं। आप के भीतर आप ही का एक हमनाम बैठा हुआ है और उसके इरादे आपके इरादों से मेल नहीं खाते। आप चाहोगे सुबह पाँच बजे उठना और वो साज़िश लगा कर के बैठा हुआ है कि, "मुझे तो सोते रहना है।" लेकिन आपका होश इतना गहरा नहीं है कि आप अपनी बेहोशी को पकड़ पाएँ।

ग्यारह बजे आप होश में तो हैं लेकिन आप इतने होश में नहीं हैं कि आपको पता हो कि आप भीतर से बेहोश भी हैं। ग्यारह बजे आप होश में तो हैं, आपका होश इतना ज़रूर है कि आपने अलार्म बाँध दिया है सुबह पाँच बजे के लिए, लेकिन आपका होश इतना भी गहरा नहीं है कि आपको पता हो कि आप ही के भीतर एक बैठा हुआ है जिसने षड्यंत्र कर रखा है ना उठने का। ये आपके होश में अभी नहीं आया।

अब आपका होश जो है वो तो सोने के साथ फुर्र हो गया। अब आप सो गए हो। पाँच बजे क्या आलम है? आप सो रहे हो। लेकिन जो बेहोश था वो जग रहा है। होश सो गया, बेहोशी अभी भी जग रही है। ये हमारी बेहोशी चीज़ ही ऐसी है। होश आता जाता रहता है। बेहोशी कायम रहती है। होश कभी जगता है, कभी सोता है। बेहोशी पलक नहीं झपकाती। वो लगातार जगती रहती है। बेहोशी तब भी जगी हुई है। वो अब आपको उठने नहीं देगी।

हमारी कई चाहते हैं। हम नहीं जानते कि हम क्या-क्या चाहते हैं। हमारी चाहतों के कई तल हैं। ऊपर से हम एक चीज़ चाहते हैं। नीचे से हम दूसरी चीज़ चाहते हैं। उसके नीचे तीसरी चीज़ चाहते हैं। उसके नीचे चौथी चीज़ चाहते हैं। और ये चारों चीज़ें बहुत अलग-अलग होती हैं।

ख़लील जिब्रान की एक कहानी है कि एक माँ थी, एक बेटी थी। मुझे बिलकुल ऐसा नहीं है कि एकदम ठीक से याद है पर जो उसका सार है वो कहे देता हूँ। कुछ थोड़ा बहुत ऊपर नीचे हो तो उसको देख लीजिएगा। एक माँ एक बेटी थी, दोनों सो रहे थे। दोनों को ही नींद में चलने की एक बीमारी थी। तो दोनों ही नींद से उठकर के बाहर बाग में आ जाते हैं। बाहर बाग में आ गए हैं और वहाँ पर माँ कह रही है कि "ये जो बेटी हो गई मेरी, इसी ने मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी। ये कही की नहीं है। इसी को बड़ा करने में, इसी का पालन पोषण करने में उमर बीत गई मेरी।" और बेटी कह रही है कि "ये जो माँ है मेरी मर जाए तो अच्छा है। इसने हज़ार तरह की बंदिशें लगा रखी हैं। जीने नहीं देती है मुझको।" और ऐसा बोलते-बोलते दोनों नींद में टकरा जाती हैं और दोनों की नींद खुल जाती है। जब दोनों की नींद खुल जाती है तो दोनों एक दूसरे से कहती हैं, "अरे माँ! अरे बेटी! यहाँ बाहर ठंड में क्या कर रही हो इतनी रात में तुमको ठंड लग जाएगी। मेरी प्यारी माँ, मेरी प्यारी बेटी, चलो अंदर चलो न तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा, तुम्हारे बिना तो मैं जी ही नहीं सकती।" हमें नहीं मालूम हम क्या चाहते हैं। हमें नहीं मालूम कि हम कब सच बोल रहे हैं, कब झूठ बोल रहे हैं।

ऐसा थोड़े ही होता है कि हम सोच समझ कर ही झूठ बोलते हैं, ऐसा थोड़े ही होता है कि जब आपको लगता है आप झूठ बोल रहे हैं सिर्फ़ आप तभी झूठ बोल रहे हैं। दुःख की और हैरत की बात ये है कि जब हमें लगता है कि हम सच बोल रहे हैं तब हम झूठ से ज़्यादा गहरा झूठ बोल रहे होते हैं। अगर कोई आपके सामने आकर के कहे कि, "मैं क़सम खाता हूँ कि मैं सच बोल रहा हूँ", तो वो अपनी नज़रों में हो सकता है बिलकुल सच बोल रहा हो लेकिन उसको पता भी नहीं है कि वो कितना गहरा झूठ बोल रहा है। ऐसा क्यों? क्योंकि उसे ख़ुद नहीं पता कि उसके भीतर कितना गहरा झूठ बैठा हुआ है।

आपका सच एक चीज़ चाहता है, आपका झूठ दूसरी पाँच चीज़ें चाहता है। हम नहीं जानते कि हम क्या चाहते हैं। तो आपने कहा कि, "आदमी नीचे वाले तल पर क्यों फँस कर रह जाता है, ऊपर वाले तल पर क्यों नहीं पहुँच पाता?" इसलिए नहीं पहुँच पाता क्योंकि उसका होश तो मुक्ति की माँग करता है। यही कहेगा — नहीं, मुझे बंधनों में नहीं रहना है। मुझे ये करना है, मुझे वो करना है। लेकिन फिर आप उसकी हरकतें देखिए, दिनभर वो कैसे जी रहा है ये देखिए, तो फिर आपको पता चलेगा कि उसकी गहरी बेहोशी बंधनों की ही माँग कर रही है। क्योंकि बेहोशी को बने रहने के लिए बंधन चाहिए। मुक्ति में तो बेहोशी मर जाएगी न। बेहोशी और बंधन साथ-साथ चलते हैं, होश और मुक्ति साथ-साथ चलते हैं।

बेहोशी भी एक जीवित इकाई है। जैसे बेहोशी भी एक जीव हो, एक प्राणी हो। वो भी नहीं मरना चाहती जैसे कोई जीव मरना नहीं चाहता। वो भी अपनी सलामती का तमाम तरह का इंतज़ाम करती है। तो आप ऊपर से सोच रहे होते हो कि, "मुझे किसी तरीके से दुःख से राहत मिल जाए, कष्ट से छुटकारा मिल जाए।" भीतर आपकी बेहोशी बैठी है। वो क्या कह रही है? "कष्ट कायम रहे, दुःख बना रहे", क्योंकि कष्ट और दुःख बेहोशी के साथ चलते हैं। कष्ट और दुःख रहेंगे तो बेहोशी भी रहेगी। कष्ट और दुःख बिलकुल मिट गए, बंधन हट गए तो बेहोशी छुपेगी कहाँ? बेहोशी को बने रहना तो यह होता है।

तो आपने जो सवाल पूछा वो तो आपने सवाल का बड़ा साधारणीकरण कर दिया। उसको ओवर सिंपलीफाई कर दिया। आपने पूछा — क्या हम चाहते नहीं हैं मुक्ति? आप एक थोड़े ही हैं। ये जो 'मैं' है ये तो किसी मुक्त पुरुष में एक हो पाता है। वर्ना आम आदमी का जो 'मैं' होता है वो ज़बरदस्त रूप से खंडित होता है।

कई 'मैं' होते हैं। एक 'मैं' क्या बोल रहा है जो सबसे ऊपर बैठा है? जैसे टिप ऑफ द आइसबर्ग , वो क्या बोल रहा है? मुक्ति। और जो बाकी सब कुछ है पानी से नीचे आठ-बटा-नौ भाग, वो क्या बोल रहा है? बंधन चाहिए, बंधन बना कर रखने हैं। खेद की बात ये है कि हमारी ही हस्ती का बस उतना ही हिस्सा बेहोशी से ऊपर है जितना कि किसी आइसबर्ग का पानी से ऊपर होता है, कितना? बस एक-बटा-नौ, हम अपने को एक-बटा-नौ ही जानते हैं। फिर हम हैरान होते हैं, कहते हैं "ये क्या हुआ? मैंने तो चाहा था सुबह उठना मैं उठा क्यों नहीं।" बेटा तुम्हारे जैसे आठ नीचे बेहोश सोए पड़े हैं। तुम एक हो, वो कितने हैं? आठ। अकेले तुम उन आठ से जीत कैसे लोगे? फिर हमको बड़ा ताज़्जुब होता है। बड़े अचरज में ऐसे घूमते हैं कि, "मैं तो अच्छा आदमी हूँ लेकिन मेरे साथ सब बुरा हो जाता है। मैं तो बहुत कोशिश करता हूँ, बड़े संकल्प लेता हूँ। अभी नया साल आ रहा है उसपर भी मैं संकल्प लूँगा कि अभी ऐसा करूँगा, अभी वैसा करूँगा। सब संकल्प टूट जाते हैं।" आप अच्छे आदमी नहीं हो। आप बस नैतिक आदमी हो। अच्छा आदमी वो होता है जिसे होश आ गया है। होश अभी आपको आया नहीं। आप अपने-आपको जाने नहीं।

अपने-आपको जानने का तरीका क्या है? कोई बहुत उसमें गुप्त कोई बात नहीं है, गोपनीय। अपने-आपको जानने का तरीका ये है कि अपनी हरकतों पर नज़र रखो, तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम कौन हो। देखो कि आज पूरा दिन बीता कैसे तुम्हारा। देखो कहाँ-कहाँ मूर्ख बने और कहाँ-कहाँ तुमने किसी को मूर्ख बनाने की चेष्टा की। बिलकुल सब समझ जाओगे। देखो कितनी जगह पर अड़चनों से और पत्थरों से टकराकर गिरे हो। देखो कितनी बार किसी चीज़ को कुछ का कुछ समझ लिया है। देखो कितनी बार अपने वचन पर कायम नहीं रह पाए हो। देखो कितनी बार डर जीत गया है तुमसे। सब समझ जाओगे कि कितने होश में हो और कितने बेहोशी में हो।

प्र२: प्रणाम आचार्य जी, ये जो स्थिति है जिसमें हम बोल रहे हैं कि हम होश में एक-बटा-नौ हैं और बेहोशी में आठ-बटा-नौ हैं - मतलब ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं - तो जो कुछ विरले लोग हैं जैसे गौतम बुद्ध हो गए, महावीर स्वामी हो गए, वो लोग कैसे निकल गए इन सब चीज़ों से?

आचार्य: देखा न कि कितनी बेहोशी है और उसकी वजह से क्या हो रहा है। सब टाइटैनिक डूब रहे हैं, उन्हें अच्छा नहीं लगा ये। वो जो आठ-बटा-नौ है उसी ने तो टाइटैनिक डूबो दिए न। तो हमारी ज़िंदगी के जहाज़ भी रोज़ बर्फ़ से चोट खाते हैं उनमें छेद हो जाता है, डूबते रहते हैं। पर हमें दर्द कम होता है। हममें प्रेम की ज़रा कमी है। तो उन्होंने प्रेम दिखाया क्योंकि उन्हें दर्द हुआ सबसे पहले। बड़े संवेदनशील लोग थे। उन्हें अच्छा नहीं लगा और हमें कुछ बुरा नहीं लगता। हममें और उनमें ये अंतर है।

उन्होंने जैसी ज़िंदगी देखी, दुनिया देखी, उन्हें अच्छी नहीं लगी। और हमारी जैसी ज़िंदगी चल रही है हमें उसमें कुछ बुरा नहीं लगता। बल्कि कोई आए और हमारी ज़िंदगी बदलने लगे तो हमको बहुत बुरा लग जाता है। उन्होनें कहा कि जैसी ज़िंदगी चल रही है, भले ही राजमहल मिला हुआ है, सारी संपत्ति है, पूरे राज्य का अधिकार है, स्वस्थ शरीर है, सुंदर परिवार है, पत्नी मिली हुई है, बच्चा हो गया है, उसके बाद भी स्वीकार नहीं है क्योंकि दिख रहा है कि इसमें झूठ है, बेहोशी है। उनको राज्य मिला हुआ है। उनको संपदा मिली हुई है। उनको सब तरह के सुख और वैभव मिले हुए हैं। उसके बाद भी उनको दर्द पता चल रहा था। और हम ऐसे हैं जिनको ज़िंदगी रोज़ चाँटें लगाती है और हम तब भी कहते हैं "आह हा हा, क्या मस्त ज़िंदगी है, बहुत बढ़िया है।" कैसे हो? "बहुत मस्त हैं।"

तुम जाकर के राजकुमार सिद्धार्थ से पूछते जब वो महल में थे, "कैसे हो सिद्धार्थ?" वो बोलते, "मैं बहुत अच्छा हूँ, मस्त हूँ"? बोलते क्या? उनमें और हममें ये अंतर है। हम बहुत मस्त लोग हैं। वो मस्त नहीं थे।

हम मस्त नहीं हैं। हम लतखोर हैं। क्या हैं? लतखोर समझते हो? जिसे लात खाने की आदत पड़ गई हो। पूरब में चलता है, "मार जाईत है लज्जाइत नहीं।" हमें लाज नहीं आती, उन्हें लाज आती थी। हमें रोज़ ज़िंदगी लातें मारती है पर हमें लाज नहीं आती, उन्हें लाज आती थी। ये अंतर है। उन्होनें कहा, "अब नहीं स्वीकार है।" उन्होंने 'ना' बोला। हमारी 'ना' बोलने में जान जाती है। बिलकुल हम सिहर जाते हैं कि, "हम 'ना' कैसे बोल दें?" ये जो छोटी-मोटी सुख-सुविधाएँ मिली हुई हैं ये सब छिन जाएँगी। वहाँ उनको बड़ी-से-बड़ी सुविधाएँ मिली हुईं थीं, उन्होंने तब भी 'ना' बोल दिया। और हमको ये टुच्ची सुविधाएँ मिली हुईं हैं, और हमसे इन्हीं का लोभ संवरण नहीं होता। ये अंतर है बस। धूमिल के शब्दों में — वो आम को आम और चाकू को चाकू बोलते थे। अंग्रेजी में इसको बोलते हैं — *टू कॉल अ स्पेड अ स्पेड*। हम चाकू को क्या बोलते हैं? "ये चाकू थोड़े ही है ये गुलाब का फूल है।" तो फिर ठीक है, हमारी हस्ती में जगह-जगह चाकू घुसे हुए हैं। और हमको लगता है कि गुलाब के फूल होंगे। लाल-लाल सा आ रहा है उसमें कुछ बाहर, गुलाब की पंखुड़ियाँ होंगी वो।

झूठ समझ में ना आ रहा हो तो एक बात है, समझाया जा सकता है। उनका क्या करें जिन्हें पता है कि वो झूठ में और धोखे में जी रहे हैं? और उसके बाद भी हिम्मत ही नहीं जुटाते झूठ से बाहर आने की, विद्रोह ही नहीं कर सकते।

आपने जिनका नाम लिया वो सर्वप्रथम विद्रोही थे। आप विद्रोह करने की क़ूवत ही ना जुटाएँ तो कोई क्या करे? और ऐसा नहीं है कि आप विद्रोह करने की क़ूवत नहीं जुटा रहे। आपने बस हिसाब किया है। आपने हिसाब क्या किया है? आपने कहा कि, "विद्रोह नहीं कर रहे तो इतने तरीके के फायदे हो रहे हैं। और अगर विद्रोह कर देंगे तो इतने तरीके के नुकसान होंगे। नुकसान कौन झेले! मिल तो रहे हैं न फायदे।" और फायदा क्या मिल रहा है? एक टू बीएचके फ्लैट * । बस इतने के लिए हमने ज़िंदगी बेच रखी है। कुछ सुविधाओं वाला हमें घर मिल जाता है उतने के लिए हम बिलकुल बेच देते हैं पूरे जन्म को। पूरा महल क्या रहा होगा? पचास * बीएचके तो रहा होगा कम-से-कम। बस यही अंतर है उनमें और हममें। वो पचास बीएचके को लात मारने को तैयार थे। हमसे टू बीएचके नहीं छोड़ा जाता।

और ऐसा नहीं है कि टू बीएचके में कोई पाप होता है कि उसको छोड़ दो। वो टू बीएचके अगर आनंद भवन हो तो बिलकुल रहो उसमें। अगर प्रेम निकेतन हो तो बिलकुल रहो उसमें। पर अगर वो जेल है तो? तो भी रहना है? घर में कोई बुराई नहीं है। मैं कौन होता हूँ कहने वाला कि घर से बाहर निकलना ही है, सड़क पर घूमों। पर वो जो दीवारें हैं वो वास्तव में क्या हैं आपके लिए? आप जानना नहीं चाहते क्या? चाहे वो घर हो दफ़्तर हो दुकान हो, जो भी हो। जिस जगह पर आप हो वो जगह है क्या आपके लिए? सिद्धार्थ गौतम ने देखा ये कि मैं जिस जगह पर हूँ वो जगह मेरे लिए कारागार से कम नहीं है। रूपवतियों में रूपवती उनकी पत्नी थी। कहते हैं पिता को पहले ही आशंका थी कि ये भागेगा। "बेटा तुम्हारे लक्षण हमें कुछ ठीक नहीं लगते।" तो उन्होनें पहले ही इंतज़ाम कर दिया पुख्ता। बोला जो सबसे रूपवती हो उससे इसको ब्याह देंगे। ब्याह दिए। जल्दी से बच्चा भी हो गया। वो तब भी निकल लिए, बोले, "कोई बात नहीं।" और हमें क्या मिला हुआ है, हम भली भाँति जानते हैं। हम तब भी नहीं निकल पाते।

अरे मैं कोई निकलने का पक्षधर नहीं हूँ। वैसे ही बहुत गालियाँ आती हैं, "मेरा घर तोड़ रहे हो। ये कर रहे हो, वो कर रहे हो।" बेकार में और ग़लत अर्थ मत कीजिए। मैं जो कह रहा हूँ उसके मर्म को समझिए। मैं नहीं कह रहा हूँ कि रिश्ते-विश्ते तोड़ करके और छोटा बच्चा छोड़कर के भाग जाओ। ये कहना नहीं है प्रयोजन। पर अपनी ज़िंदगी के यथार्थ के कुछ साक्षात्कार स्वीकार करोगे या नहीं करोगे? या झूठ-मूठ ही अपने-आपको दिलासा देते रहोगे कि, "मेरी ज़िंदगी तो बहुत मस्त चल रही है, मैं जैसा हूँ, अच्छा हूँ"? समझ नहीं रहे या सहमत नहीं हैं?

यदि आपकी ज़िंदगी खुशियों से भरी है तो भरी रहने दीजिए, पर आपने जिन दो लोगों की बात की वो अपनी ज़िंदगी में खुशियाँ नहीं देखते थे, उन्होंने दुःख देखा। मैं क्या दुःख का चित्र बना रहा हूँ, आप बताओ न दुःख है या नहीं है? मेरी ज़िंदगी की बात थोड़े ही हो रही है यहाँ पर। हम सब के व्यक्तिगत संसारों की बात हो रही है। आप बताइए न दुःख है या नहीं है? और आपको वाकई लगता है ईमानदारी से कि ग्लूम नहीं है — ग्लूम माने धुंधलका, निराशा — आपको लगता है कि ग्लूम नहीं है, तो ठीक है बहुत अच्छी बात है। बधाई हो। भाई, अध्यात्म का तो अंतिम उद्देश ही है ग्लूम के पार जाना। आनंद में प्रवेश करना। अगर ग्लूम नहीं है तो फिर आनंद होगा। तो बहुत अच्छी ही बात है। लेकिन मैं पूछना चाहूँगा, ग्लूम नहीं है या हिम्मत नहीं है, या ईमानदारी नहीं है? आप जानो आपकी ज़िंदगी है।

प्र३: हिम्मत क्यों नहीं है वैसे?

आचार्य: लालच, लालच सोख लेता है हिम्मत को। कुछ प्राण ही नहीं बचते साहस में। आप कभी देखना, आप किसी से मुकाबला करने को बिलकुल उद्यत हुए जा रहे हो। तभी कोई पीछे से आकर के बोल दे कि "छोड़ दो, मत लड़ो, उधर बगल में जाओ इतने लाख का फ़ायदा हो जाएगा।" अब आपके मुक्के में वो जान नहीं रह जाएगी। अब ये तो छोड़ दो कि आप मुक्का चला पाओगे। आप ठीक से गरिया भी नहीं पाओगे। उधर लालच खड़ा कर दिया गया है न पीछे इसीलिए फ़िर जिनसे विद्रोह कराना होता है, उनके लालच के फ़िर सारे रास्ते बंद कर दिए जाते हैं।

सेनापतियों को जब अपने सैनिकों को बिलकुल ठेल देना होता था मुकाबला करने के लिए तो मालूम है वो क्या कहते थे? कि "अगर पीछे आओगे तो ये तो छोड़ ही दो कि कुछ मिलेगा। ये तलवार मेरी तैयार है, जो भी मैदान छोड़ कर आ रहा है सबसे पहले मैं उसका सिर काटूँगा।" पीछे लालच नहीं बचना चाहिए तब तुम आगे मुकाबला करते हो। हमें पीछे लालच बहुत है तो आगे क्यों हम मुकाबला करें, क्यों हिम्मत दिखाएँ। विकल्प-ही-विकल्प हैं, अल्टरनेटिव्स बहुत ज़्यादा हैं। हज़ार दरवाजें हैं सुविधाओं के जिन्हें हम खटखटा सकते हैं। "अच्छा चलो ठीक है, ऐसे कर लेते हैं, वैसे कर लेते हैं।" महावीर होने के लिए, बुद्ध होने के लिए विकल्पों के सारे द्वार बन्द करने पड़ते हैं। या ये जान लेना पड़ता है कि वो सारे द्वार अँधी दीवारों में खुलते हैं। अब बताओ कैसे आगे बढ़ोगे अगर पीछे आपको सुख के विकल्प नज़र आ रहे हों? और बढ़ोगे भी तो कुछ गर्मी नहीं रहेगी। कुछ जान नहीं रहेगी चढ़ाई में, आपकी चुनौती में। बुद्ध महावीर आदि की जब प्रतिमा देखा करें तो सर्वप्रथम उनकी कल्पना एक विद्रोही के रूप में करें।

हमने अपने साथ एक अन्याय ये किया कि हमने उनकी सारी प्रतिमाएँ एक अक्रिय रूप में बना दीं — अक्रीय, शांत, स्थिर, संतुष्ट। आप बुद्ध या महावीर की प्रतिमा को देखें तो यही शब्द आते हैं न? संतुष्ट हैं, अक्रीय हैं, शांत हैं, स्थिर हैं। नहीं थे भाई वो ऐसे। उनके भीतर एक ज़बरदस्त तूफान उठा था। उनके पाँव के नीचे ज़बरदस्त भूचाल आया था। घोर असंतुष्टि थी उनके भीतर। ज़बरदस्त सक्रियता दिखाई थी। नंगे पाँव पूरा उत्तर भारत उन्होंने नाप डाला था। हम उनको ऐसे दिखाते हैं कि बिलकुल जीवन में उन्हें कुछ करना नहीं है, वो आसन मार कर के और आशीर्वाद देने की मुद्रा में बैठ गए हैं। वो ऐसे थे कहीं? ऐसे नहीं थे वो। वो परम् विद्रोही थे।

मुझे इंतज़ार रहेगा बुद्ध की उस छवि का उस प्रतिमा का जिसमें उनकी आँखों में विद्रोह के, क्रोध के, क्षोभ के लाल डोरे हों रक्तिम, एक तमतमाया हुआ चेहरा बुद्ध का। मैं वो देखना चाहता हूँ क्योंकि बुद्ध ऐसे ही थे। वो तो हमने अपने-आपको सांत्वना देने के लिए, बल्कि धोखा देने के लिए एक बिलकुल जड़ जैसे बुद्ध की एक प्रतिमा बना दी है। उन्हें देख कर ऐसा लगता है कि ये खाने के लिए भी नहीं उठते होंगे, ऐसे ही बैठे रहते होंगे। खाना भी खाते रहे होंगे तो एक हाथ आशीर्वाद ही देता होगा।

एक विद्रोही जवान आदमी का खाका खींच सकते हो? वो हैं बुद्ध और महावीर। और एक अर्थ में महावीर, बुद्ध से भी बड़े विद्रोही हैं। पर ये हमसे होगा ही नहीं। हम कल्पना भी नहीं कर पाएँगे कि बुद्ध का चेहरा तमतमाया हुआ है। या बुद्ध क्षोभ में हैं, रुष्ठ हैं या तनाव में हैं या द्वंद में हैं। ये हमसे कल्पना भी नहीं होगी। हम तो बस उनकी आख़िरी तस्वीर पकड़ कर बैठ गए हैं। कि बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए हैं सारी खोज समाप्त हो गई है, मंज़िल मिल गई है, देवता पुष्प बरसा चुके हैं। उस छवि से हमें क्या मिलना है? वो छवि हमारे किस काम की? हम तो बुद्ध की विकास प्रक्रिया देखना चाहते हैं। हम तो देखना चाहते हैं *द मेकिंग ऑफ द बुद्धा*। और वो हमें दिखाई नहीं जाती बल्कि हम ख़ुद ही उसको देखने से आँखें फेर लेते हैं। क्योंकि अगर वो देख लिया तो हमें भी फिर विद्रोह करना पड़ेगा न। क्योंकि एक बिंदु पर बुद्ध बिलकुल हमारे जैसे थे, क्योंकि एक बिंदु पर तो सिद्धार्थ बिलकुल आपके-हमारे जैसा था। वही सिद्धार्थ उठ कर के बन जाता है शाक्यमुनि बुद्ध। हमारे काम की क्या है? वो यात्रा, वो पुल जो इन दोनों के मध्य है। किन दोनों के मध्य है? सिद्धार्थ जो विद्रोही राजकुमार है और बुद्ध जिनको बारह चौदह साल की खोज के बाद शांति मिली है। हरमन हेस का लघु उपन्यास है सिद्धार्थ, पढ़ें अच्छा लगेगा।

प्र३: क्या राम बुद्ध से अलग थे?

आचार्य: नहीं, राम भी क्यों अलग हैं। देखिए कोई भी अलग नहीं हो सकता। जन्म के समय तो सब एक से होते हैं न। जन्म तो आपका, इनका, मेरा सबका एक सा ही होता है। उसके बाद दिशाएँ, यात्राएँ अलग-अलग होती हैं। तो कोई अलग नहीं है। पर हम पूरी तस्वीर देखना नहीं चाहते। पूरी तस्वीर हमें ये बताएगी कि एक बिंदु पर वो भी हमारे जैसे थे लेकिन देखो फिर वो कितना आगे निकल गए, कितना ऊँचा। और वो चीज़ देख ली तो हमें बड़ा अपमान लगेगा। अपमान भी लगेगा और चुनौती भी लगेगी और फ़िर हमारे सारे बहाने भी चलेंगे नहीं। क्योंकि अभी हम क्या कह देते हैं? "वो तो दिव्य पैदा ही हुए थे और अवतार ही थे, वो तो विशेष पैदा हुए थे।" नहीं, विशेष नहीं पैदा हुए थे। वो भी जैसे आप पैदा हुए हो वो भी पैदा हुए थे। जिन द्वंदों से आप गुज़रते हो, जो तनाव, जो कष्ट आप झेलते हो, उन्हीं से वो भी गुज़रे। जीवन ने जो रुख आपको दिखा रखे हैं, वही चेहरे उन्हें भी दिखाए थे। लेकिन फिर उन्होनें निर्णय दूसरे लिए, आपने निर्णय दूसरे लिए। अंतर निर्णयों का है। अंतर जन्म का नहीं है। जन्मजात रूप से वो श्रेष्ठ नहीं थे। जन्मजात रूप से तो सब पशु ही पैदा होते हैं। उसके आगे की कहानी तो हम तय करते हैं न, हमारे जीवन में हम कैसे निर्णय ले रहे हैं, किधर को मुड़ रहे हैं। ज़िंदगी जब परीक्षा ले रही है तो हमारा प्रतिसाद क्या है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
Categories