बंदि खलासी भाणै होइ ॥ होरु आखि न सकै कोइ ॥ – नानक
वक्ता: उसकी अपनी कोई इच्छा होती नहीं। परमात्मा की अपनी कोई इच्छा नहीं है। इच्छा का अर्थ ही होता है- ‘अपूर्णता’। इच्छा का अर्थ ही होता है- ‘लक्ष्य’ और ‘खालीपन’। परमात्मा कोई इच्छा कर सकता ही नहीं। जो पूर्ण है वो अब आगे क्या इच्छा करेगा?
तो हम यह फिर क्या बोलते रहते हैं बार-बार, ‘जैसी प्रभु की इच्छा’, ‘जैसी ईश्वर की इच्छा’? उसकी कोई इच्छा नहीं है। उसने तो मैदान आपके लिए खुला छोड़ दिया है। जो चाहो करो, जैसे चाहे जियो, तुम्हारी इच्छा ही उसकी इच्छा है। ऐसा हो नहीं सकता कि तुम जो मांगो उसके अतिरिक्त तुम्हें कुछ मिल जाए। कोई भी अगर यह कहता है, ‘मेरा जीवन बड़ी विशादपूर्ण स्थिति में है’, कोई भी अगर यह कहता है, ‘मैं दुखी हूँ, मेरे साथ बस वही सब कुछ हो रहा है जो मैं कभी चाहता न था, और जो मैं चाहता हूँ वो मुझे कभी मिलता नहीं’, तो वो आदमी होश में नहीं है, वो ध्यान को जानता नहीं है। ठीक से देख नहीं पा रहा है।
प्रतिक्षण आपके साथ बिल्कुल वही हो रहा है जो गहरे में आपकी इच्छा है। पर याद रखियेगा, गहरे में आपकी इच्छा है। आपका विचार है, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ। आप अपने विचार से कहीं ज़्यादा गहरे हैं। तमाम वृत्तियाँ हैं आपकी, अनंत समय के संस्कार हम सब अपने भीतर लेकर बैठे हुए हैं, उन्ही संस्कारो की पुकार होती है। वही संस्कार अपनी अभिव्यक्ति का और अपने लय हो जाने का रास्ता ढूढ़ते हैं। उन्हीं अभिव्यक्तियों का और उन्हीं विसर्जनों का नाम है हमारा जीवन। और कुछ नहीं है हमारा जीवन।
हमारे ही मन की इच्छा की अभिव्यक्ति का नाम है, ‘हमारा जीवन’।
इसीलिए हिन्दुओं में एक बात बड़ी प्रचलित रही कि आपकी जो वासनाएँ होती हैं, उनका पुनर्जन्म होता है। इस बात को गलत तरीके से लिया गया है। इस बात का वास्तविक अर्थ समझिये। जीवन और कुछ है ही नहीं, वासनाओं का नाम ही जीवन है। आप जो कर रहे हैं, जैसा चल रहे हैं, जो खा रहे हैं, जो पी रहे हैं, जैसे उठ रहे हैं, जैसे बैठ रहे हैं, सोच रहे हैं, जो भोग रहे हैं, जो पकड़ रहे हैं, जो त्याग रहे हैं, यह सब आपको क्या लगता है? क्या यह सब कहीं लिखा हुआ है? क्या यह सब कोई और संचालित कर रहा है? क्या यह सब किसी और की इच्छा है? नहीं, किसी और की इच्छा नहीं है। समस्त अस्तित्व आपके ही भीतर बैठा हुआ है। वही संचालित कर रहा है, स्वयं आपकी इच्छा है।
आपका जो छोटा-सा शरीर है, यह समस्त इतिहास है, ‘अंड में ब्रह्मांड है’। सब कुछ सिकुड़ कर आपके रूप में खड़ा हो गया है, प्रस्तुत है। आदमी ने जितनी लड़ाइयाँ लड़ी हैं, वो आपके भीतर मौजूद हैं, वही आपकी हिंसा है। कोई हारा था, वो भी जीतना चाहता था, वही आपकी जीतने की वृत्ति का कारण है। एक फूल अभी कुम्हलाना नहीं चाहता था, वो मर गया। एक गाय अभी एक और बच्चे को जन्म देना चाहती थी। वो सब कहीं चले नहीं गए हैं, वो हमारे भीतर ही मौजूद हैं, और हमारे माध्यम से अभिव्यक्ति पा रहे हैं।
तो पहली बात, कोई यह दावा न करे कि ‘जो कुछ भी हो रहा है, वो मेरी इच्छा के विपरीत हो रहा है।’ ध्यान से उसे देखना उसमें तुम्हारी इच्छा सम्मिलित है। मात्र तुम्हारी ही इच्छा सम्मिलित है। दूसरी बात, जो तुम्हारी इच्छा है, वो तुम्हारी इच्छा नहीं है, वो पूरे, समूचे अस्तित्व की इच्छा है। तुम पूरे अस्तित्व के प्रतिनिधि हो। तुम अपने आप में अलग नहीं हो। तुम अपने आप कोई लहर भी नहीं हो, तुम समूंचा समुद्र हो।
जिसने इस बात को जान लिया कि जो भी घटना घट रही है, कुछ है मेरे भीतर जो उसको घटाना चाहता है, वो फिर मालिक हो जाता है, क्योंकि वो अब अपने से बाहर किसी कारण की तलाश नहीं करता। जो यह जान ही गया कि सारे कारण मेरे ही भीतर बैठे हैं, कि मैं ही हूँ कारण, वो दुनिया को बदलने की इच्छा छोड़ देता है। वो अपने दुख के लिए किसी और का गला पकड़ने की कोशिश अब नहीं करता।
देखिये दुखी हम सभी हैं। हममें से ऐसा कोई नहीं है जिसे कष्ट न हो। लेकिन हममें से कोई ही ऐसा होगा जो यह स्वीकार करता हो कि ‘अपने कष्ट का कारण मैं ही हूँ।’ और मैं आपको आश्वासन के साथ कह रहा हूँ कि आज तक कोई ऐसा नहीं हुआ जो स्वयं अपने दुख का कारण न हो। दुखी सभी हैं, लेकिन यह कोई नहीं देख पाता कि दुःख आपकी अपनी ही इच्छा है। और जिसने यह देख लिया कि मेरा दुःख मैंने ही खड़ा किया है, वो दुःख के पार निकल जाता है।
परमात्मा कोई छोटी-मोटी हरकतों में टाँग अड़ाने वाला तानाशाह नहीं है। वो माइक्रो मैनेजमेंट (सूक्ष्म प्रबंधन) करने वाला प्रबंधक नहीं है। तुम परमात्मा को धन्यवाद दे रहे हो कि वो फैसला कर रहा है कि तुम किस रंग का कपड़ा पहनोगे, कि तुम कीचड़ में फिसलोगे या नहीं। क्या वो फैसला कर रहा है? वो बेपरवाह है। नानक कहते हैं, ‘वो बेपरवाह है।’ वो यह छोटे-मोटे कचरों में फँसता ही नहीं है। ‘कौन मरा, कौन जिया, कौन गिरा, कौन उठा, कौन भूखा है, किसको पैसे मिले, किसको नहीं मिले’, वो इन सभी मसलों में नहीं फंसता। और याद रखना वो जहाँ है और वो जो है, उसके समक्ष हर मसला छोटा ही मसला है। तो वो किसी मसले की फ़िक्र नहीं करता। उससे प्रार्थना करना बेकार है। वो तो बेफ़िक्र है, बेपरवाह है।
तुम यह सोचो ही मत कि तुम उससे बोलोगे कि सौ रुपये तनख्वाह बढ़वा दे, और वो बढ़वा देगा। उसे कुछ नहीं पड़ी है। उसने ऊँची से ऊँची मुक्ति तुम्हें पहले ही दे दी है। अब तुम क्या प्रार्थना कर रहे हो? अब तुम उस मुक्ति का उपयोग करो, यही वास्तविक प्रार्थना है।
वास्तविक प्रार्थना है अपनी मुक्ति के उच्चतम शिखर तक पहुँचना।
मैंने पहले भी यह कहा था, इसको समझो। प्रार्थना कर-कर के तुम कुछ यह भाव पैदा करते हो कि जैसे देने वाले ने कोई कमी रखी हो देने में। जो पूर्ण दाता है, तुम उस पर कंजूसी का इल्ज़ाम लगा रहे हो क्या? क्या तुम यह कहना चाहते हो कि तूने थोड़ा दे दिया है, और थोड़ा बचा कर रख लिया है, और हम मांगेगे तब देगा? न, उसने पूरा ही दे दिया है। तुम उस पूरे दिए हुए को जगाओ।
वो तुम्हारे ही भीतर बैठा है। बोध की ऊँची से ऊँची संभावना तुम्हारे ही भीतर है, तुम उसे जगाओ। दीन बन कर मत खड़े हो जाओ कि ‘जैसी परमात्मा की इच्छा’। नहीं, परमात्मा की कोई इच्छा नहीं है। यकीन मानो, परमात्मा बिल्कुल इच्छाहीन है। इच्छाएँ हमारी- तुम्हारी हैं। इनको ध्यान से देखो, इनके होने के मूल में अपने आप को जानो। फ़िर देखो मजा आता है या नहीं। शिकायतें कम हो जायेंगी, शक्ति का अनुभव होने लगेगा, जगे से रहोगे।
शिकायतें क्यों काम हो जाएँगी? ‘मैंने ही तो किया है, तो शिकायत क्या करूँ?’ शक्ति का अनुभव क्यों होगा? ‘अगर मैंने बिगाड़ा था, तो मैं बना भी सकता हूँ।’ अब यह मात्र कोरा वचन नहीं हो सकता कि मैंने बिगाड़ा था तो मैं बना भी सकता हूँ। इसके लिए बड़ा गहरा अहसास होना चाहिये कि ‘हाँ, बिगाड़ा था, अपने ही किये बिगाड़ा था। और जिन रास्तों पर चल कर बिगाड़ा था उन्हीं रास्तों पर चल कर तो बना नहीं पाऊँगा। कोई नया ही रास्ता, बल्कि कोई नया आयाम ही तलाशना पड़ेगा बनाने के लिए। जिस रास्ते पर चला था, उनके विपरीत चल कर नहीं बनाया जा सकता। दायें चल रहा था, अब बायें चल कर नहीं बना पाऊँगा। कुछ और ही करना पड़ेगा।’ यही शक्ति है।
‘कोई बाहरी ताकत नहीं है, जो है सो मैं हूँ। सब कुछ मेरे ही भीतर समाया हुआ है।’
श्रोता १: सर, लेकिन यह तो फिर कर्ताभाव को और ज़्यादा सघन करेगा कि ‘जो हूँ मैं ही हूँ। मैं ही करूँगा, मैंने बिगाड़ा है।’
वक्ता: अभी हमने बात की थी ‘उसके’ करने पर। ‘जो है मैं हूँ’, अगर यह कहते ही जा रहे हो, तो कर्ता को कुछ करने के लिए कार्य कहाँ मिलेगा? अगर ‘सब कुछ मैं हूँ’, तो अनन्तः कुछ मिल ही नहीं रहा अपने से बाहर जहाँ मैं कोई कार्य कर सकूँ, जहाँ कर्म घट सके, तो फिर कर्ता का क्या होगा? कर्ता को कुछ करने के लिए अपने से बाहर कुछ चाहिए न? कर्ता को कुछ करने के लिए ज़मीन चाहिए, कोई दूसरा चाहिए। अगर ‘सब कुछ मैं हूँ’, तो तुम इस बेचारे कर्ता का करोगे क्या? कहाँ जायेगा यह कर्ता? कहाँ छुपेगा? ख़त्म हो जायेगा।
श्रोता १: सर, मैं यह कह रहा हूँ कि कुछ भी करे, हमें कोई फर्क तो पड़ना है नहीं।
वक्ता: अभी यहाँ बैठे हो, इसकी बात करो। तुम यहाँ बैठे-बैठे फिक्स्ड डिपाजिट(सावधि जमा खाता) खोलते हो, पंद्रह साल बाद का। ‘हम कुछ भी करें, हमें फ़र्क पड़ना ही नहीं है।’ अभी यहाँ बैठे हो न, उसकी बात करो, ध्यान में जाओ। अभी भविष्य का सवाल मत पूछो बार-बार। इस समय पर यह प्रश्न फ़िज़ूल है कि- हम क्या करें? जानो कि करने वाला कौन है, यह प्रश्न अपने आप हल हो जायेगा कि ‘क्या करें?’ जब तुम कहते हो कि ‘हम क्या करें?’ इसका मतलब तो यह भी है कि ‘ये न करें, वो न करें’। तो क्या तुम जानते हो कि क्या कर रहे हो? बात सीधी है, कोई थोड़ा भी ध्यान देगा तो समझ जायेगा। ‘हम क्या करें?’ में किसको बचाया जा रहा है?
श्रोतागण: अहंकार को।
वक्ता: इतना दिखाई नहीं देता। तुमने ‘हम क्या करें?’ में क्या प्रमुख बना दिया है? प्रमुख क्या बना दिया है, ‘करें’। तुम्हारा सवाल यह है, ‘क्या करें?’ और जब ‘करें’ को प्रमुख बना दिया है, तो तुमने किसको छुपा दिया है? किसको छुपा दिया है?
श्रोतागण: ‘हम’ को।
वक्ता: ‘हम’ को, ‘मैं’ को। बीमारी कहाँ है?
श्रोता २: ‘मैं’ में।
वक्ता: इतनी लालसा है उस ‘मैं’ को बचाए रखने की, कि तुम इधर-उधर के सौ सवाल पूछते हो। एक पोस्टर बनाया गया था, जिसमें लिखा था, ‘नकली बीमारी का इलाज असली बीमारी को बचाने की साज़िश है। यह बिल्कुल वही सवाल था कि ‘हम क्या करें?’ इसमें ‘करें’ बता दीजिये, ‘हम’ के बारे में कुछ मत बोलिये।
– ‘बोध-सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।