हमले से पहले बचने की तैयारी कर लो || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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हमले से पहले बचने की तैयारी कर लो || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, अभी तक उपनिषद पढ़ते समय जो मैंने सीखा है वो ये है कि जैसे सुख है या दुःख है, अगर आपका अटेंशन (ध्यान) वहाँ जाता है तो आप उसका थोड़ा अन्वेषण करें, देखें कि ये कहाँ से आ रहा है? केंद्र क्या है उसका? तो करती हूं, थोड़े स्थूल कारण होते हैं फिर सूक्ष्म में जाती हूँ, अन्ततः ये होता है कि अहम के केंद्र से आ रहा है और इट्स नॉट गुड ।(ये अच्छा नहीं है)

लेकिन जो छोटी-छोटी चीजें होती हैं, जो बहुत ज़्यादा होती हैं, पूरे दिनभर में चलती रहती हैं, उनके प्रति जो मेरी प्रतिक्रिया होती है, जब उसपर ध्यान जाता है तो देखती हूँ सारे के सारे अहम से ही आ रहे हैं, चाहे सुख दें या दुःख दें। तो वो जो साइक्लिक नेचर है (चक्रीय प्रकृति), वो भी दिखता है। औऱ एक युक्ति भी आपने बताई है कि महत्व नहीं देना है, कि ये तो चलता ही रहता है, तो उसका भी प्रयास करती हूँ। पर महत्व कैसे नहीं देना है, ये समझ नहीं आता है?

आचार्य प्रशांत: दुःख प्रकट हुआ, सुख प्रकट हुआ, उससे पहले आप क्या कर रहे थे? मैंने नहीं कहा कि दुःख आया, सुख आया क्योंकि दुःख और सुख अगर पहले से ही मौजूद न हो तो अचानक आ नहीं सकते। दुःख और सुख के कारण हम में पहले से मौजूद होते हैं फिर दुःख-सुख प्रकट होते हैं। दोपहर तीन बजे आपको दुःख या सुख प्रकट हुआ, दोपहर तीन बजे, आपके जीवन में दोपहर तीन बजे। आप सुबहा से लेकर दोपहर तीन बजे तक क्या कर रहे थे? दुःख-सुख थे तो सुबहा से तीन बजे तक भी, बस छुपे हुए थे। छुपे हुए थे तभी तीन बजे फिर बाहरी घटनाओं का संयोग पाकर के वो प्रकट हो गए। ठीक है न! पर थे तो वो सुबहा से तीन बजे तक भी।

मैं जानना चाहता हूँ सुबहा से तीन बजे तक आप क्या कर रहे थे? क्योंकि आपका प्रश्न ये है, कि दुःख-सुख प्रकट हो जाएं फिर क्या करें, उन्हें महत्व कैसे न दें? वग़ैरहा। तो उनके प्रकट होने के बाद क्या करना है, वो इससे स्पष्ट होगा कि उनके प्रकट होने से पहले आप क्या कर रहे थे। तो सुबहा से तीन बजे तक आप क्या कर रहे थे? आप ये नहीं कह सकती कि मैं कुछ नहीं कर रही थी। क्योंकि अगर आप कुछ नहीं कर रही थी तो आप बस दुःख या सुख के प्रकट होने की प्रतीक्षा कर रहीं थी।

वो थे तो पहले से ही, जब वो पहले से ही हैं तो ये भी निश्चित है कि वो प्रकट भी होंगे, तीन बजे नहीं तो पांच बजे, आठ बजे, दो-दिन बाद, दो हफ्ते बाद प्रकट तो होंगे। तो क्या हम बस प्रतीक्षा कर रहे थे कि वो जो साँप बिल में घुसा हुआ है; वो प्रकट कब होगा? हम क्या कर रहे थे?

चलिए! हमें क्या करना चाहिए? अगर हमें पता है कि दुःख-सुख का बीज हमारे भीतर है अभी। ठीक है न! और उस बीज के कारण दुःख-सुख कभी भी प्रकट हो सकते हैं, तो हमे क्या करना चाहिए? अभी वो प्रकट नहीं हुए, तो अनुभव नहीं हो रहे हैं लेकिन हम जानते हैं वो भीतर छुपकर बैठे हैं; कभी भी प्रकट हो सकते हैं तो हमें करना क्या चाहिए?

प्र: पानी नहीं देना है।

आचार्य: पानी नहीं देना, वो ठीक है और क्या करना चाहिए? क्योंकि पानी देना कोई आवश्यक नहीं है कि आप सचेतन रूप से करें; परिस्थितियाँ बाहरी ऐसी हो सकती हैं कि पानी दे जाएंगी। आपके आंगन में एक वृष बीज पड़ा हुआ है, आप पानी नहीं देंगे अच्छी बात है पर बारिश हो गई तो?

प्र: निकाल देंगे।

आचार्य: पनप तो वो जाएगा न, आपके पानी दिए बिना भी। उसके पनपने के लिए ज़रूरी थोड़े ही है, कि आप ही ने सक्रिय रूप से पानी दिया हो तभी उसमे अंकुर फूटेंगे, बारिश हो गई तो? आपने पानी नहीं दिया लेकिन फिर भी उसमें से अंकुर फूट आएगा न, तो दुःख प्रकट हो जाएगा। अभी वो वहाँ पड़ा हुआ है, बीज मौजूद हैं और आपके ही आंगन में मौजूद है, तो आप को क्या करना है? अभी उसमें कुछ फूटा नहीं है अंकुर, क्या करना है आपको?

उसे निकाल फेंकना है। ठीक है न! तो उचित ये है कि बारह बजे से तीन बजे तक, आप लगी रहें, लगी रहें, उसको निकाल फेंकने में। ठीक है! तीन बजे बारिश हो गई माने वो स्थितियां आ गई जिसमें बीज में से कुछ प्रकट हो सकता है, तो अब क्या करेंगी? यही आपका प्रश्न था, कि जब वो प्रकट ही होने लगे तो क्या करें? अब बताइए आप क्या करेंगी?

प्र: तब निकाल नहीं सकते।

आचार्य: जो सुबहा से कर रही थी वही करती रहेंगी; ये उत्तर है। जो सुबहा से कर रहे थे वही करते रहना है। लेकिन ये उत्तर मेरा वैध तभी है जब आप सुबहा से सही काम कर रही हों। और सही काम एक ही है कि जो छुपा हुआ बीज है, उसको निकाल फेंको, दुःख के प्रकट होने का इंतजार मत करो।

जानते हैं दुःख के प्रकट होने के इंतजार को हम क्या नाम देते हैं? सुख। मैं अभी इंतजार बोल रहा हूँ, आप उसे आशंका बोल सकते हैं या अनुपस्थिति बोल सकते हैं। तो दुःख की अनुपस्थिति का उत्सव मनाने कि कोई ज़रूरत नहीं है। दुःख की अनुपस्थिति बस इतना ही बताती है कि वो आने वाला है। अगर वो नहीं आया है तो उस अंतराल में, उस दरमियान में क्या करना है? तेज़ी से उसके छुपे हुए बीज को खोद निकालते रहना है। है न! नहीं तो आप यूँही प्रसन्न होकर, मस्त होकर बैठ गए कि अभी तो दुःख लग ही नहीं रहा, तो तीन बजे झटका लग जाएगा। सुबहा दस बजे, दोपहर बारहा बजे, एक बजे आप बिल्कुल प्रसन्न बैठे थे कि अभी क्या नहीं है? दुःख नहीं है। और तीन बजे झटका लग जाएगा एकदम, वो प्रकट हो जाएगा। तो सुबहा नौ बजे, दोपहर बारहा बजे, दोपहर दो बजे आपका एक ही काम है; छुपे हुए बीजों को खोद निकालते रहिए। फिर तीन बजे हुई बारिश, अब वो वक़्त आ गया है जब दुःख प्रकट हो सकता है। तो प्रश्न ये था कि अब करें क्या? अब तो उसके प्रकट होने का समय आ गया है, वो प्रकट हो रहा है तो क्या करें? जो कर रही थी सुबहा से वही करती रहिए, हट मत जाइयेगा। तो दुःख आ गया, सुख आ गया पर हमें पता है हमें क्या करना है, हम वही करते रहेंगे, हम हटेंगे नहीं न उससे। हम नहीं हटेंगें।

भई! एक घर है, जिसमें मिट्टी का तेल ही फैला हुआ है खूब, अंदर, इधर-उधर, सामान पर, दीवारों पर, दरवाजों पर। ठीक है न! और उस घर में आपका कुछ कीमती सामान रखा हुआ है। समान है उसमें कीमती लेकिन घर बन गया है बिल्कुल बारूद का गोदाम, अतिज्वलनशील, आप ये देख रहे हो। आप लगातार क्या करते रहोगे अब? फटाफट-फटाफट सामान बाहर निकालते रहोगे, या आप ये कहोगे कि अभी आग थोड़े ही लगी है। ऐसा कहोगे क्या? कि आग अभी थोड़े ही लगी है, ये तो नहीं कहोगे न! आप सामान निकालते रहोगे। पर सामान निकालना मानलीजिए थोड़ी टेढ़ी खीर है, सामान ज़्यादा है, या दरवाज़ा तंग है, या कोई और बात, या नहीं निकल रहा आसानी से। तो आप सामान निकालने की कोशिश कर रहे थे, इसी दरमियाँ आपने देखा कि घर के एक हिस्से में अब आग लगनी शुरू हो चुकी है। वो जो छुपा हुआ था अब प्रकट होने लगा है। क्या छुपा हुआ था? आग, जो छुपी हुई थी अब प्रकट होनी शुरू हो रही है तो अब आप क्या करेंगी? यही आप का सवाल था, अब मैं क्या करूँ? अब तो अनुभव होने लग गया दुःख का, अब मैं क्या करूँ, वो आग दिखाई देने लग गई, अब मैं क्या करूँ? वही जो सुबहा से कर रही थी उसको दूनी तेजी से करिए। सुबह से तो सिर्फ़ खतरा था आग लगने का, अब तो आग लग गई।

लेकिन फिर कह रहा हूँ कि जब मैं कहता हूँ, सुबहा से जो कर रही थी, उसको दूनी तेज़ी से करिए तो मैं ये मानकर चल रहा हूँ कि सुबहा से आप सामान हटाने का ही सही काम कर रही थी। यथार्थ ये हो, कि सुबहा से आप सामने कहीं ढाबे पर, चाय पी रही हों, बन-मक्खन खा रही हों कि मेरा घर तो अभी बिल्कुल सुरक्षित है; वहाँ-कहाँ आग लगी है? और मैं बोल दूँ कि सुबहा से जो कर रही थी वही करती रहिए और आप उसका ये अर्थ निकालें कि मतलब बन-मक्खन ही खाते रहना है; तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। नहीं! सबसे पहले सुबहा से सही काम में ही तल्लीन रहिए। और एक ही सही काम है, ये जानना कि हमारे घर अति ज्वलनशील हैं। उस ज्वलनशील घर का ही नाम जीवन है। और उस जीवन के भीतर से ही जो मूल्यवान चीज़ है, उसको निकाल लेना है; इससे पहले कि सब जल-भस्म हो जाए, यही जीवन का उद्देश्य है।

आग तो लगने ही वाली है, आग लगने ही जा रही है, कागज़ की दीवारे हैं और वो सब भीगी हुई हैं केरोसीन (मिट्टी का तेल) में, तो कौन बचा लेगा उसको जलने से? वही हमारी जिंदगी है, वही हमारा शरीर है, कैसे बचा लोगे उसको जलने से? इससे पहले कि कोई आकर के तीली दिखा जाए, चिंगारी फेंक जाए; जो कुछ मूल्यवान है उसको बटोर लो। और जब दिखाई दे कि अब तीली लग ही गई, जलना शुरू ही हो गया तो बटोरने की अपनी गति को दूना कर दो। समझे! ये करना है।

जब दुःख-सुख आ जाए तो ये करना है कि दुःख-सुख को हटाने का काम पर्याप्त गति से हुआ नहीं था, तभी तो दुःख-सुख अनुभव हो रहे हैं न! तो चलो! तब गति पर्याप्त नहीं थी कोई बात नहीं, अब हम अपनी गति को दूना कर देंगे। तो जब आप अपनी गति को दूना करने में व्यस्त हो जाएंगी तो दुःख-सुख को अनुभव करने का आपके पास समय-अवकाश रहेगा नहीं। क्यों नहीं रहेगा क्योंकि आप तो अब दूने तरीके से व्यस्त हो गई हैं, क्या करने में? बीज को खोद कर जल्दी से निकालने में। बारिश पड़ने लग गई, जल्दी से बीज को खोदकर बाहर निकालो; तो अब आप और व्यस्त हो गई हैं। जब आप और व्यस्त हो गई हैं तो दुःख या सुख के अनुभव के लिए आपके पास जगह नहीं बचेगी। अनुभव भी आपको तब परेशान करता है जब अनुभव के लिए आपके पास स्थान हो। नहीं तो वो अनुभव आपको होगा ही नहीं। वो अनुभव फिर बस एक बाहरी घटना बनकर रह जाएगा, आपको भीतर कुछ नहीं होगा। भीतर कुछ हुआ नहीं, तो अनुभव कैसा? ये यहाँ तक स्पष्ट हुई बात?

प्र: जी, बस एक चीज़ और जब आप बोल रहे हैं कि बीज को निकालना है, मतलब अटेंशन (ध्यान) को और पैना करना है, केंद्र की जांच करते रहनी है और जो गलत केंद्र है उसको महत्व नहीं देना है।

आचार्य: उसको उसी समय पर खोज निकालिए जब वो निष्क्रिय है। जब वो सोया पड़ा है तभी उसको खोज निकालिए, उसको बाहर निकालिए, खत्म कर दीजिए। क्योंकि जहां वो सक्रिय हुआ, वहां वो आपको बड़ा दुःख देगा। बुद्धिमानी किसमें है? जो खतरनाक चीज़ है उसको तभी निष्क्रिय कर दो न, न्यूट्रलाइस (बेअसर) कर दो, जब अभी उसने अपना दंश आपको दिखाया नहीं है। या प्रतीक्षा करोगे, कब वो बिल्कुल फंफना के खड़ी हो जाए और डसने लग जाए। लेकिन हम फिर उम्मीद से मार खा जाते हैं न, हमको लगता है कि वो चीज़ कहाँ हमको कोई दुःख देगी, बिल्कुल हानिप्रद नहीं है। अरे! बेचारा साँप सोया पड़ा है, डसता थोड़े-ही है, संपू है।

ऐसी चीज़ की उम्मीद मत रखिए जो प्रकृति विरुद्ध है। जिस चीज़ की जो प्रकृति है वो उसे करना ही है; आपके उम्मीद भर रख लेने से प्रकृति नहीं बदल जाती। इस मामले में थोड़ा निर्मम रहिए। जो नियम हैं अस्तित्व के सबके लिए एक समान चलने हैं, हम में से कोई भी अपवाद नहीं हो सकता। मोह का परिणाम दुःख है और ये नियम है अस्तित्व का; और प्रकृति में मोह होता ही होता है। हो सकता है आपके रिश्तों में मोह हो पर अभी तक दुःख का अनुभव न हुआ हो। हो सकता है कि मोह के रिश्ते में भी अभी तक सुख ही मिल रहा हो, तो ये मत सोचिएगा! हम बच गए, हम अपवाद हैं। दुःख आएगा ये पत्थर की लकीर है क्योंकि मोह का मतलब ही दुःख है; और जितना गहरा मोह, उतना ही दर्दनाक अनुभव होने वाला है।

उल्टी आशा मत बांधिए!

तो मोह जब सुख भी दे रहा हो, उस वक़्त भी विषबीज समझकर ही उखाड़ते रहिए, निकालते रहिए, इंतजार मत करिए कि जब आग लगेगी तब पानी डालूंगी; क्योंकि जब आग लग जाती है उस वक़्त पानी डालना बहुत सफल होता नहीं है। स्वार्थ है, लालच है, इनका अंजाम किसी के लिए अच्छा नहीं होता। हाँ, अभी अंजाम सामने आया नहीं है तो हमें ऐसा लगता है कि काम चल तो रहा है, हो सकता है औरों को स्वार्थ या लालच के कारण दुःख मिलता हो, मुझे तो नहीं मिल रहा न। मैं अपवाद हूँ, मैं एक्सेप्शन हूँ। कोई अपवाद नहीं होता। आपको अगर अभी दुःख नहीं मिला है, तो भाग्य सराहिए! और जो आपको समय मिला हुआ है उसका पूरा उपयोग करिए, कि दुःख एकदम भनभना के प्रकट हो जाए उससे पहले ही जहाँ कहीं भी मेरा स्वार्थ है, या लालच है, या कुछ और है, मोह है, बेहोशी है, मैं उसको पहले ही समाप्त कर दूँ।

प्र: आचार्य जी, ये जो अन्वेषण होता है और जो हम पहुँचते हैं, कि अहम के कारण है, वो एक रॉन्ग (गलत) केंद्र है; तो ये थोड़ा बुकिश (किताबी) लगता है। सुना, पढा, इतनी बार सुन रहे हैं तो ऑटोमेटिकली (खुद-ब-खुद) आ गए उसपर, पर ऐसे अंदर से निकलकर नहीं आता है, तो यहाँ पर क्या गड़बड़ हो रही है?

आचार्य: बुक (किताब) के पास तब जाना पड़ता है, जब अपना अनुभव एकदम साफ़ न हो। आपके सामने कोई चीज़ आई उसके फलस्वरूप आपके भीतर से आपके शरीर में, मन में, प्रतिक्रिया उठी, वो प्रतिक्रिया क्या है; ये जानने के लिए आपको किसी किताब की ज़रूरत ही नहीं है। बल्कि बहुत देर हो जाएगी अगर आप किताब के पास जाऐंगे तो। एक मिनट, दो मिनट तो लगेगा न कम-से-कम किताब को पढ़कर याद करने में कि ये चीज़ क्या है।

आपके सामने कुछ आता है जिससे आप डर जाते हैं, आप नहीं जानते क्या कि ये डर है? या आपको कोई फॉर्मूला (सूत्र) चाहिए, या कोई फ्रेमवर्क (ढांचा), ये तय करने के लिए कि आपको अभी-अभी जो भाव अनुभव हुआ, वो क्या था? हमें नहीं पता होता? कि हम डर गए, तो बस यही है, यही तो होता है जानना। कुछ सामने आया जिसके कारण भीतर से ईर्ष्या उठ आई, कोई सामने आया जो एकदम आकर्षित कर गया, ललचा गया। तो ये तो तत्काल अनुभव ही बता देता है न कि ये भी क्या हुआ है। नहीं बता देता? बस!

प्र: बता देता है, आचार्य जी। लेकिन ये तो जो साधक नहीं है, उसको भी पता लगता है कि उसको डर लग गया या ईर्ष्या हुई।

आचार्य: नहीं, जो साधक नहीं है वो डर को कुछ और बोल सकता है या वो इतना अचेतन हो सकता है कि उसे अपने डर का पता भी न लगे; क्योंकि वो लगातार डरा हुआ है। देखिए!

"कोई भी अनुभव तब पता चलता है जब वो चेतना के धरातल पर, एक अपवाद की तरह खड़ा हो; अन्यथा अनुभव नहीं पता चलेगा।"

ये पंखे यहाँ चल रहे हैं चारों, चल रहे हैं न! आपको इनकी आवाज़ अभी नहीं सुनाई दे रही होगी। अभी इन्हें बंद कर दिया जाए तो आपको पता चलेगा कि ये आवाज़ कर रहे थे। आप अगर किसी चीज़ के अभ्यस्त हो जाएं तो उसका अनुभव होना आपको बंद हो जाता है। तो ऐसा नहीं है कि हर आम आदमी जान ही जाता है कि उसे डर लग रहा है। अगर वो लगातार डर में जी रहा है तो उसे डर का पता लगेगा ही नहीं। उसे लगेगा कि उसकी स्थिति बिल्कुल सामान्य है; ठीक वैसे, जैसे अभी आपको इन पंखों की आवाजों का कोई पता नहीं लग रहा लेकिन ये आवाज़ बहुत कर रहे हैं। इन्हें आप बंद करके देखो! आपको पता चलेगा कितनी आवाज़ कर रहे थे। बंद करिएगा! (पंखे बंद कर दिए गए)

एक मिनट पहले किसी को भी लग रहा था कि पंखे शोर कर रहे हैं? हम ऐसे ही जीते हैं। शोर बहुत है जीवन में, पर जब कोई कहता है आपके जीवन में डर है, लालच है तो हमें अचंभा होता है। हम कहते हैं कि ये आदमी पागल है क्या? हमसे बोल रहा है कि हममें लालच है, हममें लालच कहाँ है? साहब! आपमें सिर्फ लालच नहीं है; आपमें इतना ज़्यादा लालच है कि आप लालच में ही जीने के अभ्यस्त हो गए हैं। आप लगातार लालच में हैं इसलिए आपको पता ही नहीं चल रहा कि आप लालच में हैं। और फ़िर आप कहते हो, पर लालच है कहाँ? मुझमें डर कहाँ है? कहाँ है डर, डर कहाँ है?

समझ रहे हो बात को! और सुनिए! खतरनाक बात! ये पंखे जिस गति पर चल रहे थे, इनको धीरे-धीरे बढ़ाया जाता, इनकी गति को, अगर मानलीजिए ये एक नंबर पर चल रहे हों और धीरे-धीरे बढ़ाया जाता और बढ़ाते-बढ़ाते एक से चार पर कर दिया जाता; आपको पता भी नहीं चलता कि आवाज़ बढ़ गई है।

आदमी के साथ ये सबसे खतरनाक बात है, ये हमें एक ताकत दे दी गई है, अनुकूलन की; और ये हमारी सबसे खतरनाक ताकत है। अनुकूलन का मतलब समझते हो? जो चल रहा है हम उसी से सुव्यवस्थित हो जाते हैं, हम एड्जस्ट (समायोजित) कर लेते हैं, हम कंडिशन्ड (आदि) हो जाते हैं। कंडीशनिंग (अनुकूलन) का मतलब यही होता है कि जैसी कंडीशन्स (परिस्थितियाँ) हैं बाहर, हम उसी के अनुसार कंडिशन्ड हो जाते हैं। जो स्थिति बाहर चल रही है हम वैसे ही अभ्यस्त हो जाते हैं, अपने आप को ढाल लेते हैं उसी में।

तो इनका शोर भी धीरे-धीरे बढ़ाया जाता, बढ़ाया जाता, पंखों को चार नंबर तक पहुंचा देते, आपको नहीं पता चलता कि शोर बढ़ गया है क्योंकि धीरे-धीरे बढ़ा। वो तो फिर जब संयोग होता है, कह लीजिए कृपा होती है, कुछ अनुग्रह और झटके से बंद हो जाते हैं पंखे; तो फिर हम चौंकते हैं। कि अरे! इतना शोर था मेरी ज़िंदगी में और मुझे पता भी नहीं था; तब हमें अचानक से पता चलता है। लेकिन जब पंखा बंद होता है तो गर्मी लगने लगे जाती है। कोई वज़ह थी न कि शोर था, उससे सहूलियत मिल रही थी, क्या? पसीना नहीं आ रहा था, आराम था, चला लेते हैं। चला लो भई!

अहम तक पहुंचना कुछ भी नहीं होता। अहम तक नहीं पहुंचा जाता। अहम तो एक टेंडेंसी भर है। टेंडेंसी को हाथ में पकड़ सकता है कोई? टेंडेंसी समझ रहे हो वृत्ति। उस तक नहीं पहुंचा जा सकता; उसके क्रियाकलापों को पकड़ा भर जा सकता है। गिरने की वृत्ति है तो उस वृत्ति के कारण क्या करते हैं ज़नाब? बार-बार फिसलन भरी जगहों पर जाते हैं खुद ही। तो बस ये देख लो, फिसलन भरी जगहों पर जा रहे हैं।

अब ये मत पूछ लेना कि इसमें अहम कहाँ पर है? फिसलन भरी जगह पर जानबूझ कर जाना ही अहम है, उस वृति का ही नाम अहम है। नहीं तो अहम कैसे पकड़ोगे? अहम कोई चीज़ थोड़े ही है। अहम के कर्मो का क्रियाकलापों का दर्शन करे बिना, अहम को नहीं पकड़ा जा सकता। और अहम के कर्मो के अलावा अहम का कोई वजूद है नहीं। और अहम ऐसा नहीं है कि वो कर्म करे बिना थोड़ी देर भी रह सके, वो लगातार कुछ-न-कुछ करता ही रहता है। इसीलिए हम कहते हैं कि खुद को जानना हो तो अपने कर्मो को देखो। और तुम्हारे कर्मो के अलावा तुम्हारी हस्ती का कोई परिचय नहीं है। आपका क्या नाम है? जो आप करते हैं वो आपका नाम है। करने में सोचना भी आ गया, करने में भावना भी आ गई, वो सब भी कर्मो में ही आ गया।

प्र: आपका मतलब है कि मन को ऊपर उठाना है यानि वो फ़िसलन भरी जगहों पर नहीं जाना है।

आचार्य: हाँ, जब फ़िसलन भरी जगहों पर जा रहा है, उस वक़्त देख ही लिया साफ़, उसी वक़्त, कि ये क्या हरकत चल रही है, वही पुरानी हरकत। तो जो आवेग होता है न, जो आपको फ़िसलन की जगह पर ले जा रहा होता है; वो आवेग मंद पड़ जाता है।

आप मिठाई की दुकान की ओर जा रही हैं और एकदम ऐसी वहां से खुशबू आ रही है, और ऐसी तरह-तरह की वहां मिठाइयाँ दिख रही हैं कि कदम बढ़ नहीं रहे सिर्फ़, तेजी से बढ़ रहे हैं और इस वक़्त बिल्कुल मन पर स्वाद छा गया है और उम्मीद छा गई है कि ये वाली ले लूँगी। योजना बनानी भी शुरू कर दी कि अच्छा वो कलाकंद है, गुलाब जामुन है, थोड़ा-सा इसबार वो वाली भी ले लेते हैं, उसको भी ज़रा चखकर देखते हैं। ये सब चल रहा है और भीतर एक बिल्कुल ताकत आ गई है, जो बढ़ाए लिए जा रही है। तभी कोई आकर आपसे बोलता है ये दुकान, ये वही नहीं है क्या जिससे पिछली बार खाया था तो मरी मक्खी निगल ली थी, उसके बाद दो-दिन दस्त लगे थे। और जैसे ही किसी ने आपको याद दिलाया, क्या हुआ? जो गति थी, जो उत्साह था पैरों में आगे बढ़ने का; वो उत्साह शिथिल पड़ जाएगा।

ये बड़ा अच्छा तरीका होता है क्योंकि हम कोई भी ऐसा काम वास्तव में करने जा नहीं रहे होते जो नया है। जो नया करने लग जाए उसे फिर किसी सीख की ज़रूरत बचती भी नहीं न। ये हमारी व्यथा है कि हम जो करते हैं, वो पुराने जैसा ही होता है; और इसी में हमारे लिए कुछ आशा भी है कि हम जो करते हैं, वो पुराने जैसा ही होता है। समझिएगा!

आप जो भी कुछ कर रहे हो वो आपने पहले भी सैकड़ों बार किया है; यही तो तकलीफ़ की बात है। पर इसका फायदा कैसे उठा सकते हैं? चूंकि पहले सैंकड़ों बार किया है, तो याद भर कर लीजिए। ठीक वैसे ही नहीं किया होगा पहले, किसी अलग रूप में करा होगा, किसी अलग तरीके से करा होगा पर करा वही काम है। अब जब वही काम दोहराने जा रहे हो तो याद कर लीजिए कि जब पिछली बार करा था तो क्या अंजाम हुआ था। तो ये जो दोहराई जा रही मूर्खताएँ होती हैं, इनसे थोड़ी राहत मिलेगी फिर। गलतियों में क्या बुराई थी अगर हम गलतियाँ एक ही बार करते। एक बार करते, दो बार और फिर दोहराते-तिहराते नहीं। एक कर ली गल्ती, इंसान हैं गलतियाँ होती हैं, आगे नहीं करेंगे। हमारी व्यथा विडंबना यही है कि ले-देकर के वही पाँच-सात तरीके की गलतियाँ हैं, जिनको हम पाँच-सात हजार बार कर चुके हैं; और तब भी बाज़ नहीं आ रहे। एकदम बासी गलतियाँ होती हैं। है न! तो उन्हें पकड़ लीजिए, बोलिये यही तो करा है, छह सौ सत्तर बार पहले यही काम करा है; और अभी फिर उछल रहे हैं कि अभी फिर करना है। क्या तरीका है ये?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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