हमारी रसीली ज़िंदगी || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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हमारी रसीली ज़िंदगी || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: गुरू जी, अपनी बातों से सबके जीवन का रस क्यों ख़त्म कर रहे हो? कुछ तो एक्साइटिंग (रोमांचक) रहने दो। सब ज्ञानी हो जाएँगे तो दुनिया बड़ी अजीब हो जाएगी।

आचार्य प्रशांत: अरे, डरे हुए बेईमान आदमी! मक्कारी इतनी बढ़ गयी कि अभी तक ख़ुद से ही झूठ बोलते थे अब खुलेआम मुझसे भी बोलोगे? ये ग़लती कर बैठे न? जब तक ख़ुद से ही झूठ बोल रहे थे चल जाता, कोई तुमको पकड़ने नहीं आता, तुम्हारी अंदरूनी, व्यक्तिगत बात होती। ये क्या कर दिया, खुलेआम मुझसे झूठ बोल दिया?

डर का आलम ये है कि जैसे किसी बहुत बड़े दबंग के यहाँ तुम जाओ खाना खाने और वो तुम्हीं से पूरा घर पहले साफ़ कराये, चौका साफ़ कराये, तुम्हीं से बर्तन मँजवाये, फिर तुम्हीं से खाना बनवाये, फिर वो जो खाना बना है वो सब लोगों में बँटवा दे और फिर जो बचा-खुचा जूठन है उसमें पानी मिलाकर के और गरम करके तुमको बैठा दे कि लो खाओ। पर वो जो तुम्हारे सामने खड़ा है वो आदमी बड़ा दबंग है। तो फिर जब वो तुमसे पूछने आये कि हाँ भाई! मज़ा आ रहा है न? आज खूब मज़े किये और खाना रसीला है न? तो तुम बोलो, ‘अरे! जी, जी, जी, मज़ा ही आ गया। अरे! जी कितना रसीला भोजन है आ-हा-हा बिलकुल-बिलकुल आनन्द आ रहा है,आनन्द, आनन्द।’

ऐसी तुम्हारी हालत है। इतना डरे हुए हो कि अपनी दुर्गति को बता रहे हो कि ज़िन्दगी रसीली है। हिम्मत ही नहीं है तुम्हारी बोल पाने की कि ज़िन्दगी कड़वी है, कसैली है। क्योंकि अगर इतना बोल दोगे तो दुनिया जान ले लेगी तुम्हारी। ये ज़िन्दगी में तुमने जितनी भर रखी हैं कड़वियाँ और कसैलियाँ, जिनको तुम बोलते हो मेरी रसभरी, ये जान ले लेंगी तुम्हारी, अगर तुमने बोल दिया कि तुम्हारा वास्तविक अनुभव क्या चल रहा है जीवन का।

तो तुमसे जब भी पूछा जाता है, ठीक लग रहा है न सबकुछ? मज़ा आ रहा है न? तुम कहो, ‘अरे, मज़ा आ रहा है! मज़ा-ही-मज़ा आ रहा है, और हमारी तो किस्मत खुल गयी जो हमें इस तरह का जीवन जीने को मौक़ा मिला। अनुग्रहित आपके हम।’

ये सब डर की बात है और डर का अभ्यास बहुत-बहुत दिन तक करो तो डर एक गहरी आदत बन जाता है। फिर तुम्हें पता भी नहीं चलता कि तुम जो कुछ कर रहे हो वो तुम डर में कर रहे हो। आदमी के साथ ये बहुत बड़ी विडम्बना है कि वो डर के साथ भी सहज हो सकता है। झूठी सहजता। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि तुम्हारा आचरण, तुम्हारे विचार, तुम्हारी भावना, तुम्हारा तर्क सबकुछ डर से आ रहा है। तुम्हें लगेगा नहीं ये तो सही ही है।

देखो यहाँ क्या दावा कर रहे हो? कह रहे हो, ‘जीवन का रस क्यों ख़त्म कर रहे हो?’ तुम्हारे जीवन में रस है कहाँ? तुम्हारे जीवन में अगर रस वास्तव में होता तो सच्ची बातों से उसे ख़तरा हो जाता? ये कौनसा झूठा रस है? ये कौनसा रस है जिसको दो-चार सच्ची बातों से ख़तरा पैदा हो जाता है?

हमारे तो मान्य ऋषियों ने कहा था — “रसो वै सः”, सच के लिए कहा था कि सच रस स्वरुप है। सच को ही रस बोला था कि सच ही रस है। और अगर सच नहीं है तुम्हारे जीवन में, तो रस नहीं है तुम्हारे जीवन में। फिर जीवन कैसा है तुम्हारा? जैसे गन्ना हो बिना रस का। कैसा होगा वो गन्ना? वैसा है तुम्हारा जीवन। जैसे आम हो बिना रस का, गुठली भर, वैसा होगा तुम्हारा जीवन। रस नहीं होगा, पदार्थ होगा। छिलका-छिलका होगा, बाहरी चीज़ें सारी होंगी, वो जो अंदरूनी होता है वो जो अन्दर तरलता बैठी होती है, वो नहीं होगी।

तो ऋषियों ने बहुत सोच-समझकर बड़ी सुन्दर उपमा रची थी, “रसो वै सः”, 'वह रस जैसा है, वह रस ही है'। और तुम कह रहे हो, ‘सच से तो मेरे जीवन का रस ख़राब होता है।’ तुम्हारा जीवन बे-रस है, बे-रौनक है, बेढंगा है। और इतना ही नहीं है तुम्हें ऐसे नीरस जीवन की आदत लग गयी है।

अब उस आदत को जब चुनौती मिल जाती है तो तुम डरते हो। और डरकर के तुमने एक ग़लत काम ये कर लिया कि अपना सवाल मुझे भेज दिया। कह रहे हो, ‘कुछ तो एक्साइटिंग रहने दो।’ बिलकुल बहुत कुछ है तुम्हारे जीवन में एक्साइटिंग , उत्तेजक।

तुम्हारे जीवन में उत्तेजना ठीक वैसे ही है जैसे किसी के पीछे कोई पागल, जंगली कुत्ता पड़ा हो, तो उसके जीवन में बड़ा एक्साइटमेंट, बड़ी उत्तेजना रहती है।

रहती है कि नहीं रहती? भाग रहे हैं बिलकुल सरपट दुम दबाकर के, सिर पर पाँव रख के। और किसी ने दूर से पूछा, ‘भैया इतना भाग क्यों रहे हो?’ तो बोल रहे हैं, ’आइ ऍम एक्साइटिड (मैं उत्तेजित हूँ)।’ और तुम्हारे पीछे ये जो पशु लगे हुए हैं, हिंसक, तुम्हारा ख़ून पीने को आतुर।

मैं इनसे तुम्हारा पीछा छुड़ाना चाहता हूँ, तुम मुझपर आरोप लगा रहे हो कि आप मेरी ज़िन्दगी का एक्साइटमेंट क्यों छीन रहे हो। बिलकुल, तनाव एक्साइटमेंट होता है, कि नहीं होता है? तनाव एक प्रकार की उत्तेजना है। भय भी एक प्रकार की उत्तेजना है। इनकी आदत लग गयी है तुमको। नशा भी एक प्रकार की उत्तेजना है। चिन्ता भी उत्तेजना है। इन उत्तेजनाओं की तुम्हें ऐसी आदत लग गयी है कि जब ये उत्तेजनाएँ तुम्हारे जीवन में नहीं रहतीं तो तुम्हें लगता है कि अब जीवन ही नहीं रहा।

जीवन में प्रतिपल अगर कोई चिन्तित हो और ख़ौफ़ में हो, जीवन के प्रतिपल कोई चिन्ता और ख़ौफ़ में है तो धीरे-धीरे वो मान लेता है कि जीवन का मतलब ही क्या है? चिन्ता और ख़ौफ़। अब अगर उसके जीवन से तुम चिन्ता और ख़ौफ़ हटा दो तो उसको लगता है जीवन ही हटा दिया क्योंकि उसने भीतर एक समीकरण बैठा लिया था, एक इक्वेशन तय कर ली थी, क्या? जीवन=ख़ौफ़। उसने भीतर एक समीकरण तैयार कर लिया था, जीवन=ख़ौफ़। अब तुम ख़ौफ़ हटाओ तो उसको क्या लगता है? जीवन ही हटा दिया।

और वही तुम यहाँ कह रहे हो कि अरे! जीवन से रस क्यों हटाए दे रहे हैं, जीवन में कुछ तो एक्साइटिंग रहने दीजिए। बड़ा एक्साइटिंग है तुम्हारा जीवन। ठीक वैसे ही जैसे किसी ने अभी-अभी गाल पर गीला जूता खाया हो तो उसका गाल एक्साइटिड हो जाता है। ऐसे ही है। कितना एक्साइटमेंट है जीवन में! कह रहे हो आज दिन कैसा बीता? आहा! बड़ा एक्साइटिड दिन बीता है। कैसे? क्या एक्साइटमेंट था? बोल रहा है, ‘सुबह गये थे, पड़ोस वाली मीना ने जूता मारा, कान पर बिलकुल, एकदम लाल हो गया कान, एक्साइटिड।’

भई! शरीर का कोई भी हिस्सा लाल ही हो जाता है एक्साइटमेंट में, और सूज और गया। शरीर का अंग लाल-लाल होकर सूज गया, आकार में वृद्धि हो गयी तो बोले, एक्साइटमेंट , एक्साइटमेंट। मज़ा आ गया। मीना ने सुजा दिया बिलकुल लाल-लाल करके। क्या एक्साइटमेंट है। ईश्वर को धन्यवाद दे रहे हैं, ‘प्रभु, आपने ऐसा मुझे उत्तेजना से भरा जीवन दिया है। दिन की शरुआत ही क्या बढ़िया हुई है! कान पर जूता खाया है।’

उसके बाद घर आते हैं, बोलते हैं, ‘नाश्ता-वाश्ता मिलेगा?’ तो नाश्ते में तश्तरी पर भीगा हुआ जूता मिल जाता है। उसको खाते हैं, मुँह से अन्दर लेते हैं। क्या एक्साइटमेंट है! और वो चूँकि जूता बिलकुल सूखे हुए चमड़े का है तो उस पर फिर रस-ही-रस डाल रहे हैं। कह रहे हैं, ‘देखो, ज़िन्दगी कितनी रसभरी है! ओ रसभरी, थोड़ा और रस लाना, वो और रस ले आयी।’ वो रस को भरा जूते में और पी रहे हैं। कह रहे हैं, ‘देखो 'रस-ही-रस है जीवन में, रसीला जीवन' आ-हा-हा।’ रसोड़े में कौन था? ‘मेरा जीवन था। दिन-रात वहाँ पर रस का ही पान कर रहा हूँ मैं।’

उसके बाद गाड़ी लेकर के निकले सड़क पर और ट्रैफ़िक में जूता खाया।उसके बाद दफ़्तर पहुँचे वहाँ बॉस से जूता खाया। एक्साइटमेंट ही एक्साइटमेंट। शरीर का अंग-प्रत्यंग लाल हुआ जा रहा है। जहाँ देखो वहीं लाली है।

"लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल” और लाली देखन मैं चली मैं भी हो गयी लाल।”

आ-हा-हा! दोपहर आते-आते हालत ये है कि जो तुम्हें लाल करना चाहते हैं उन्हें दिक्क़त हो जाती है कि जगह ही नहीं मिल रही है कि कहाँ तुमको लाल किया जाए। नयी-नयी जगह खोजकर के फिर वो तुम पर लाली चिपकाते हैं।

फिर घर आते हो। अभी और लाल होना बाक़ी है तो जांघिया उतारा जाता है तुम्हारा क्योंकि अब वही जगह बची है जहाँ लाली कम है थोड़ी। फिर वहाँ दनादन तुमको लाल किया जाता है। सोते-सोते उत्तेजना बिलकुल पूर्ण हो जाती है। तुम बोलते हो, “पूर्णो अहम्।” अब कुछ भी मेरा नहीं बचा जो उत्तेजना से रहित हो। तो ‘पूरा ही मैं लाल हो गया, आ-हा-हा!’ बहुत बाँके लाल हो तुम।

जो भी तुम्हारा नाम होगा उसके पीछे लाल ज़रूर लगा होगा। उसके बाद तुर्रा ये कि किसी तुम्हारे दोस्त-यार ने धोखे से तुम्हें मेरा कुछ वॉट्सऐप फॉरवर्ड वगैरह भेज दिया, तो उसको देखा तो कह रहे हो, ‘अरे! ये ग़लत आदमी है। ये मुझे दुःख दे रहा है। ये मेरी ज़िन्दगी बे-रौनक कर रहा है। रसहीन कर रहा है। ये मेरी उत्तेजनाएँ छीन रहा है।’

जैसे नशेड़ी होते हैं न उन्हें आदत लग जाती है कि सुबह-सुबह उठते ही अगर सिगरेट नहीं फूँकी तो नींद नहीं खुलती। वैसे ही जिन्हें उत्तेजना की लत लग जाती है उनका होता है सुबह उठते ही अगर होंठ पर जूता नहीं पड़ा तो आँख ही नहीं खुलती। लगता है अभी बिलकुल आँखें नींद से भारी हैं। कोई आये तो, गरियाये तो। सुबह उठते ही या तो फ़ोन देखें तो उसमें किसीने ख़ौफ़ भेज रखा हो, गालियाँ भेज रखी हों, चिन्ताएँ भेज रखी हों तो नींद खुल जाती है। या सुबह उठते ही पता चले कि रात में तुम्हारे ही छोरा-छोरी तुम्हारा ख़ून पीकर भाग गये हैं। तो फिर आँखों से नींद खुलती है कि कुछ हुआ तो, सेंसेशनल, एक्साइटिंग फिर नींद खुलती है।

अध्यात्म तुम्हारी ज़िन्दगी से अशान्ति हटाना चाहता है, चिन्ता, भय हटाना चाहता है। वो तुमको बहुत बुरा लगता है। अब बुरा लगता है तो ठीक है, तुम्हें तुम्हारी एक्साइटिंग ज़िन्दगी मुबारक़ हो। लेकिन इतना रहम कर दो संसार पर कि यही एक्साइटमेंट दूसरों में मत बाँट देना।

ख़ैर ये मैं तुमसे ज़्यादा उम्मीद कर रहा हूँ क्योंकि जो तुम्हारी हालत है उस हालत में तुम झूठ के ही प्रतिनिधि हो, राजदूत हो बिलकुल, द अम्बैसेडर ऑफ़ फ़ॉल्सनेस। तुम चारों तरफ़ झूठ न फैलाओ, ख़ौफ़ न फैलाओ, चिन्ताएँ न फैलाओ ऐसा होगा नहीं।

चलो, फिर तुम अपना काम करो, मैं अपना काम करता हूँ। तुम्हारा काम है झूठ फैलाना, मेरा काम है झूठ से लड़ना। देखते हैं कौन जीतता है।

YouTube Link: https://youtu.be/3g-YMi3dvmg

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