यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥२, १५॥
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक १५
प्रश्नकर्ता: श्रीभगवद्गीता में श्रेष्ठ बुद्धि वाले मनुष्य के लिए सुख-दुःख और इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने की बात कही गई है। और मेरी ख़ुद की भी महत्वाकाँक्षा है कि मैं श्रेष्ठ बुद्धि और श्रेष्ठ इंसान बन पाऊँ। अपनी कमियों के बारे में मुझे जानकारी भी है और उन्हें किस तरह सुधारना है, इसके बारे में भी जानकारी है, पर कई बार विचलित हो जाता हूँ; जैसे ‘अ’ बिंदु से ‘ब’ बिंदु पर जा रहे हैं तो कुछ वापस पीछे आ जाते हैं। इसके लिए हम क्या कर सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: भटकने में बुराई यही है कि भटकने से दुःख मिलता है। नहीं तो कोई क्यों कहता कि मत भटको? कोई क्यों कहता कि स्थित होना चाहिए या बुद्धि का विचलन अच्छा नहीं है? भटकने से कोई नुकसान होगा तभी तो भटकने से मना करा गया है न?
अब बात यह है कि भटकने से नुकसान है तो फ़िर तो निष्कर्ष सबके लिए प्रत्यक्ष और सहज होना चाहिए कि नहीं भटकना है। पर हम भटकते हैं; हम भटकना स्वीकार कर लेते हैं। क्यों और कैसे? भटकने से जो नुकसान है, हम उसे कभी प्रकट नहीं होने देते। सत्य के विरुद्ध विचलन से जो दुःख मिलना चाहिए, हमने उस दुःख से निपटने के प्रबंध कर रखे होते हैं। तो दुःख का आघात हमें पड़ता नहीं, कर्मफल की पूरी चोट हमें पड़ती नहीं।
ऐसा नहीं है कि कर्मफल का सिद्धांत हम तोड़ ले जाते हैं, बस हम कर्मफल कभी स्थगित कर देते हैं, कभी उसका रूप बदल देते हैं, कभी उसको प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष बना देते हैं—चोट को सीने पर हम पड़ने नहीं देते। दुःख दबा जाते हैं, छुपा जाते हैं। नहीं तो दुःख से ज़्यादा अचूक औषधि कोई होती है? तुम ज़रा सा भटको, दुःख मिलेगा, और दुःख ही तुम्हें तुरंत सीधी राह पर ले आ देगा।
पर आदमी ताक़तवर हो गया है, उसने इंतज़ाम बना लिए हैं कि भटका भी रहे और दुःख का अनुभव भी ना हो। इसकी सज़ा यह मिलती है कि भटकाव और बढ़ता जाता है। तुम ज़्यादा भटक ही ना पाओ अगर भटकने के साथ ही तुम्हें भटकने का दंड मिलता चले। हम उस दंड से कन्नी काट जाते हैं।
तब चाहिए ईमानदारी। जो कुछ भी किया, उसको साफ़-साफ़ देखो क्या किया और जो किया उसकी पूरी कीमत चुकाओ। जब दिखाई देगा कि कीमत ऊँची है तो अपने-आप महँगे और व्यर्थ काम करने से बचोगे।
नहीं तो स्थिति बड़ी अजीब हो जाती है। सारे कुकृत्य करके भी हम पाते हैं कि बाल बाँका हो नहीं रहा हमारा, हम मौज में हैं। दुनिया में सम्मान भी बरकरार है, रूपए-पैसे की भी हानि नहीं हो रही, मज़े भी मिल ही रहे हैं। तो आदमी को बड़ा धर्मसंकट खड़ा हो जाता है। वो कहता है, “जब पाप करके भी सुख ही मिल रहा है तो पाप क्यों ना करें? जब भटकने की कोई सज़ा ही नहीं मिल रही तो क्यों ना भटकें?” और ऐसा नहीं है कि सज़ा मिल नहीं रही, सज़ा मिल रही है लेकिन हमने वो सज़ा छुपा दी है। हम बड़े चतुर लोग हैं, सज़ा मिले तो हम उसे नाम मज़ा का दे देते हैं, कि ये तो बढ़िया हुआ।
मैं छोटा था, मेरी कक्षा में एक हुआ करता था, वो मनाता था कि टीचर (शिक्षक) उसे कक्षा से बाहर निकाल दे। उसको बाहर निकाला नहीं कि खुला मैदान उसका। उसने सज़ा को ही मज़ा बना लिया था। ये मज़ा बहुत दूर तक जाएगा नहीं, लेकिन जब तक है, तब तक तो है। ऐसी ही हालत हमारी है।
बहुत कुछ हमें जीवन में सज़ा की तरह ही मिला हुआ है और हम उसका उपयोग मज़े की तरह कर रहे हैं।
अब तो भटकना और आकर्षक हो जाएगा न। शोर मचाओ, कक्षा से निकाल दिए जाओगे, अब मज़े करो।
बहुत बार देखा गया है कि लोग कहते हैं कि ठंड बहुत बढ़ रही है और रोटी-पानी का जुगाड़ भी ख़ास हो नहीं रहा है। तो पाँच-सात बार जो लोग पहले ही जेल जा चुके हैं, कहते हैं कि चलो एक बार फ़िर जेल घूम आते हैं। फ़िर जब ठंड थोड़ी कम हो जाएगी, तब तक सज़ा भी पूरी हो जाएगी, कोई छोटा-मोटा अपराध कर लेते हैं—सज़ा बनी मज़ा।
और इसी तरीके से इसका विपरीत उदाहरण भी देखा गया है। मान लो आश्रम में है कोई, जब तक वह आश्रम में है, तब तक बड़े अनुशासन का पालन करना पड़ेगा। तो वो चाहता है कि उसको सज़ा मिल जाए, उसको निकाल ही दिया जाए बाहर। अब बाहर हो तो अब कुछ भी करो, कौन तुम्हें देखने, टोकने आ रहा है? कौन सा अनुशासन? सज़ा में मज़ा। अब अपने दिल के अरमान पूरे किए जा सकते हैं। जब तक भीतर थे, तब तक तो बड़ा चाक-चौबस्त रहना पड़ता था।
अधिकाँशतः हमें जो चीज़ें सुहाती हैं, वो वास्तव में सज़ाएँ ही हैं जो अस्तित्व ने हमें दी हैं।
और सज़ा अपना असर और अपना रंग तो दिखाएगी ही, पर जब तक नहीं दिखा रही, उस दौरान हम जितनी मटरगश्ती करना चाहें, कर लें। नहीं तो बात तो कितनी सहज है न? भटकाव की सज़ा क्या है? भटकाव, और क्या? भटकाव से वापस कैसे आएँ? विचलित हो गए हैं तो सही चाल पर कैसे लौटें? विचलित हुए हो, दुःख मिलेगा। दुःख मिलेगा तो अपने आप वापस लौटोगे।
पर ये इतना सीधा सूत्र हम पर काम ही नहीं करता। हम कहते हैं, “विचलन बहुत हो गया। कोई उपाय बताइए कि विचलन ख़त्म हो।” उपाय की क्या ज़रूरत है, तुम्हारा दर्द काफ़ी नहीं है क्या? पर हम दर्दप्रूफ हो गए हैं। कोई दर्द हमें उठता नहीं, कोई वियोग हमें सताता नहीं। जीवन कितनी भी बड़ी सज़ा दे दे, हम निर्लज्ज, बेशरम की तरह हँसे जाते हैं।
योग का सबसे बड़ा साधन क्या है? वियोग, माने दुःख। अपने आप योग की तरफ़ भागोगे। पर वियोग में जिसको दुःख ही ना लगे, उसको कैसा योग?
झूठे सुख के जो इंतज़ाम कर लिए हैं, उन्हें ज़रा छोड़ो। ये जो बात-बात में मनोरंजन की तरफ भागते हो, ज़रा मनोरंजन को रोक करके देखो कि मनोरंजन की परतों के नीचे कितना दुःख लहरा रहा है। वास्तव में उतना दुःख ना होता तो बात-बात पर मनोरंजन की आवश्यकता भी ना पड़ती।
टीवी देख रहे हैं, सिनेमा देख रहे हैं, फ़ोन पर बात कर रहे हैं, यूट्यूब पर गाने सुन रहे हैं, व्हाट्सएप चैटिंग कर रहे हैं, यहाँ घूमने जाना है, उससे मिलकर आना है, ये सब जो प्रबंध किए गए हैं सुख के, दिख नहीं रहा कि इन प्रबंधों की आवश्यकता क्यों है? क्योंकि दुःख बहुत सारा है।
दुःख के ऊपर से ये सुख का झूठा, कृत्रिम आवरण हटा दो, वो दुःख ही योग का साधन बन जाएगा। दुःख काफ़ी है, और कोई विधि चाहिए ही नहीं। झूठा सुख हटाओ, सच्ची प्राप्ति हो जाएगी।