हमारे निर्णय मुर्दा प्रतिक्रियाएँ || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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हमारे निर्णय मुर्दा प्रतिक्रियाएँ || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

श्रोता: जल्द निर्णय कर तो लेते हैं। जो भी करना है उसमें तुरंत कूद तो जाते हैं पर फिर बाद में झंझट खड़े होते हैं।

वक्ता: वीरेश, यह पंखे चल रहे हैं, यह लाइट जल रही है, हमने बटन दबाया। इस लाइट को बंद होने में कितना समय लगा?

श्रोता: न बराबर समय।

वक्ता: हमने दोबारा बटन दबा दिया, अब उसको दोबारा जलने में कितना समय लगा?

श्रोता: न बराबर समय।

वक्ता: मैं क्यों न कहूं कि यह जो लाइट है, इसकी बहुत अद्भुत रूप से तेज़ निर्णय करने की क्षमता है? तुरंत जलती है, तुरंत बुझती है। कितनी खूबी के साथ यह अपने निर्णय कर लेती है। बटन दबा नहीं कि बंद, बटन दबा नहीं कि जलने की प्रक्रिया चालू। यही हाल इस पंखे का है। यह रुमाल है, इसको हाथ में ले रखा है और छोड़ दूँ। मैंने छोड़ दिया, तो क्या यह हवा में अटका रहा कि गिरुं या ना गिरुं, निर्णय करता रहा? मेरा इसको छोड़ना और गिरने की प्रक्रिया का शुरू होना, इसमें कितनी देरी थी? मेरे छोड़ने के कितनी देर बाद इसका गिरना शुरू हो जाता है? तुरंत! छोड़ा नहीं कि गिरना शुरू। अब करने को यह दावा किया जा सकता है कि इस रुमाल में गज़ब की निर्णय क्षमता है। बिल्कुल जानता है कि क्या करना है। तुरंत काम करना शुरू कर देता है। यह रुमाल, पंखा, लाइट; सिर्फ इसलिए कि कुछ तुरंत हो रहा है, यह मत समझ लेना कि उसमें निर्णय जैसा कुछ है। क्या यह लाइट निर्णय करती है जलने या बुझने का? क्या यह रुमाल निर्णय करता है गिरने का? सोडियम पर जाकर पानी की छीटें डाल दो। कितनी देर में धुआं उठता है? तुरंत! अमोनिआ को मिला दो क्लोरीन से, कितनी देर में कोहरा बन जएगा? तुरंत। क्या अमोनिआ और क्लोरीन, क्या सोडियम और पानी, निर्णय करते हैं कि कुछ करना है? कोई निर्णय शामिल नहीं है। फिर भी काम तुरंत हो रहा है।

हमारे जीवन में जो भी त्वरा है, वह ऐसी ही है जिसमें कोई निर्णय शामिल नहीं है, सिर्फ हमारी कंडीशनिंग शामिल है। वह एक तरीके का रिएक्शन है। ठीक वैसा ही जैसा सोडियम और पानी के बीच में होता है। उस रिएक्शन में कोई सोच नहीं है, कोई विचार नहीं है और कोई विवेक नहीं है। सोडियम की संरचना कुछ ऐसी है कि जैसे ही उस पर पानी पड़ेगा, उसे रियेक्ट करना ही करना है। ठीक वैसे ही हमारी संरचना कुछ ऐसी है कि हमारे कानों में एक शब्द पड़ेगा औ हमें रियेक्ट करना ही करना है। जैसे कुछ बटन हैं जिनको दबाने से यह पंखे और यह लाइट काम करना शुरू कर देते हैं या काम करना बंद कर देते हैं। ठीक वैसे ही हमारे कुछ मानसिक बटन हैं। हम सब अच्छे से जानते हैं, कुछ शब्द हैं, हमसे अगर कह दिए जाएं तो हम उत्तेजित जो जाएंगे। कुछ दूसरे शब्द हैं, कुछ दूसरे व्यक्ति हैं, जो हमसे वह शब्द कह दें, हम शांत होने लगते हैं। कुछ परिस्थितियां होती हैं जिनमें हमारा निराश हो जाना और खुश हो जाना करीब-करीब पक्का है। बिल्कुल पता है कि अगर रिजल्ट लगा हुआ है दीवार पर और उसमें एक हद से नीचे आपके अंक हैं, तो आप पर क्या बीतेगा। बिल्कुल पहले से निर्धारित है। पहले से ही कहा जा सकता है कि सौ में से सतरह नंबर आयें हैं, तो आपका चेहरा कैसा हो जाना है। बिल्कुल पता है! और पहले से यह भी पता है कि सौ में से सत्तर आयें तो क्या हो जाना है।

इसमें निर्णय है कहाँ? यह तो वैसे ही हो रहा है जैसे कोई मशीन काम करती है। मशीन का पहले से ही पता है कि यह बटन दबा तो यह काम काम करेगी, हमारा पहले से पता है कि किसी ने आकर यह गाली दी, तो हाथ चलना पक्का है। जैसे पंखे का चलना पक्का है, वैसे ही हमारे हाथ-पाँव का चलना पक्का है। बिल्कुल अच्छे से पता है कि फलाना व्यक्ति आकर फलाने शब्द बोल दे तो हम बिलकुल गदगद हो जाएंगे। और यही कारण है कि हमारा शोषण भी हो पाता है। पूरी दुनिया को पता है इसे काबू में कैसे करना है, फलानी स्थिति में इसको डाल दो, काबू में आ जाएगा। इस व्यक्ति को इसके पास भेज दो, काबू में आ जाएगा।

अब इसको पहले से पता है कि इससे वह काम करवाना है, तो उस व्यक्ति को भेजो, उसके प्रभाव में काम कर देगा। दूसरों को भी पता है कि किस व्यक्ति के पास क्षमता है तुम्हारा मानसिक बटन दबाने की। यह आएगा, तुमसे कुछ बातें कहेगा, कुछ ना भी कहे तो उसकी शक्ल ही काफी है तुमसे कुछ काम करा देने के लिए।

यह पूरा मटेरियल जैसा जीवन है। चुम्बक आती है, लोहा तुरंत उसकी तरफ आकर्षित हो जाता है। क्या चुम्बक ने निर्णय लिया था लोहे को खींचने का? क्या लोहे की ये जो कीलें हैं, इन्होंने निर्णय लिया था कि जब मैग्नेट पास आएगा तो हम आकर्षित हो जाएंगे? किसी ने कोई निर्णय नहीं लिया, फिर भी घटना घट रही है। जीवन हमारा ऐसा ही है। निर्णय कोई है ही नहीं। बस एक निर्जीव तरीके से घटनाएं घट रही हैं। उसमें कहीं कोई समझ नहीं है।

निर्णय तो वह करे जो बातों को समझता हो। और तब उसे निर्णय करने में कोई विशेष कष्ट होता नहीं है। जिसको समझ है, उसके निर्णय तुरंत हो जाते हैं। निर्णय हमारे भी तुरंत हो जाते हैं, बस गहरी नासमझी में।

तीन तल होते हैं, सबसे नीचे वाला जो तल होता है वह वही है-सोडियम और पानी। वहाँ कोई निर्णय नहीं करना होता। पानी पड़ा नहीं सोडियम पर कि रिएक्शन हुआ। कोई निर्णय करना ही नहीं है। उस से ऊपर वाला तल होता है, उलझन का। यहाँ पर निर्णय करना पड़ता है। यहाँ पर तुम्हारे सामने बहुत सारे विकल्प आ जाते हैं। चार-पांच रास्ते हैं, किस रास्ते पर जाऊं। और उस से भी ऊँचा तल होता है, समझ का। वहाँ पर भी कोई निर्णय नहीं करना पड़ता। वहाँ तुम सोचोगे नहीं कि यह कंपनी हैं इसमें अप्लाई करूँ या नहीं। तुम्हें पता है कि तुम्हें ज़िन्दगी कहाँ बितानी है। तुम्हें सोचना नहीं पड़ेगा। कोई उलझन, दुविधा जैसी चीज़ नहीं रहेगी।

तो जब तुम कहते हो कि बहुत जल्दी निर्णय कर लेता हूँ, फिर बाद में पछताता हूँ, तो मैं तुम पर छोड़ता हूँ कि देख लो कि तुम पहले तल पर हो या तीसरे पर। पहले पर भी निर्णय नहीं करने पड़ते और तीसरे पर भी नहीं करने पड़ते। पर पहले पर नहीं करने पड़ते क्योंकि पहले पर तुम निर्जीव हो, और तीसरे पर इसलिए नहीं करने पड़ते क्योंकि तीसरे में तुम बहुत समझदार हो। जो बहुत समझदार आदमी होता है, जो चीज़ों को साफ़-साफ़ देख लेता है, निर्णय उसे भी नहीं करने पड़ते क्योंकि वह इतना साफ़-साफ़ समझ रहा है कि निर्णय क्या करने, बात स्पष्ट है!

अभी तो मैं यही कहूंगा कि तुम दूसरे तल पर आ जाओ। दूसरे तल पर उलझनें बहुत होती हैं, दूसरे तल पर आदमी को सोचना बहुत पड़ता है। अभी तो ऐसे ही हो जाओ कि खूब सोचो। अपनी सोच को जागृत करो। चीज़ों को ऐसे ही स्वीकार ही मत कर लो। थोड़ा उन्हें ध्यान से देखो। उन पर विचार करना सीखो। और ये देखो कि मैं किन बातों में जल्दी से कुछ भी करना शुरू कर देता हूँ। जहाँ ही तुम बहुत जल्दी से कुछ भी करना शुरू कर रहे हो, वहाँ ही यह सम्भावना है कि विचार का आभाव है। पता ही नहीं है तुम्हें कि तुम क्या कर रहे हो। और अगर सोचोगे, तो यह जल्दबाज़ी मिट जाएगी। थोड़ा उलझन में पड़ोगे, थोड़ी दिक्कतें आएँगी, थोड़े तनाव आयेंगे, पर वह तनाव अच्छे हैं! अंधे की तरह जीवन जीने से, बिल्कुल एक पदार्थ की तरह जीवन जीने से अच्छा है कि तुम उलझन में पड़ जाओ और तनाव महसूस करो। सोडियम कोई तनाव महसूस नहीं करता। लोहा और मैग्नेट कोई तनाव महसूस नहीं करते। तुम्हारे लिए अच्छा है कि तुम थोड़ा सा तनाव महसूस करो। यह तनाव बहुत दिन तक रहेगा नहीं। अगर इस तनाव से पूरी तरह गुज़रोगे तो यह तनाव भी पूरी तरीके से मिट जाएगा। पर अभी ज़रूरी है कि सोच का तनाव अनुभव करो, सोच में घुसो, विचार करना सीखो। जिन बातों को यूँ ही उड़ा देते हो, उनको देखो। उनको जानने की कोशिश करो कि यह मामला क्या है।

आदमी के पास सोच की शक्ति है और वह बड़ी महत्वपूर्ण शक्ति है, बहुत महत्वपूर्ण! हम में से ज़्यादातर उसका इस्तमाल ही नहीं करते। सोचते ही नहीं हैं। मैं बिल्कुल नहीं कह रहा हूँ कि दिन रात सोचते रहना अच्छी बात है। पर जो व्यक्ति सोचता ही ना हो, बस जल्दी से कर डालता हो, उसको तो मैं बिलकुल यही कहूंगा कि ‘रुक, तू पहले सोचना सीख। तू पहले विचार की ताकत को जगा’। और बड़ी महत्वपूर्ण है यह ताकत। यह इंसान को इंसान बनाती है। तो ठहरना सीखो! कोई बात सामने आती है तो एक बार अपने से पूछना सीखो कि मैं इसपर ऐसे क्यों कर जाता हूँ? जब भी ऐसी स्थिति आती है तो मेरा यही हाल क्यों होता है? छोटी-छोटी बात पर मुझे तनाव क्यों छा जाता है? मैं फर्स्ट इयर में था तो इस बात को ले कर तनाव में था, दूसरे साल में आया तो और नए तनाव आ गए, तीसरा आया तो और तीसरे तरह के तनाव, अब इस साल में आया हूँ तो और नए झंझट। मतलब समय बीत रहा है, स्थितियां बदल रही हैं, तनाव नहीं बदल रहा है। तनाव की वजह बदल सकती है, कारण बदल रहे हैं, पर तनाव नहीं बदल रहा। उलझनों के कारण बदल रहे हैं, उलझनें नहीं बदल रहीं।

तो यह अपने आप से पूछो। इस पर सोचना सीखो। विचार करो। पूछो अपने आप से कि आज से चार साल पहले भी मेरे लिए शांत बैठना असम्भव हो जाता था और आज भी वैसा ही हो जाता है, तो बात क्या है?

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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