हमारे लिए यज्ञ का अर्थ क्या? जीवन में चमत्कार कब होते हैं? || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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हमारे लिए यज्ञ का अर्थ क्या? जीवन में चमत्कार कब होते हैं? || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः। भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।

यज्ञ द्वारा देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग देते रहेंगे। देवताओं द्वारा दिए गए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगे, वह चोर ही है।

यज्ञ से बचे अन्न को खाने वाले पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी अपने शरीर का पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक १२-१३

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमन। कृपया इन श्लोकों का अर्थ समझाने की कृपा करें।

आचार्य प्रशांत: अपनी जीवन ऊर्जा को आहुति बना देना परमलक्ष्य को पाने के यज्ञ में, यही है देवताओं की आराधना। अपनी नियति को पाना ही यज्ञ का कर्म है।

जब कर्म-सन्यास की भी बात आती है गीता में तो कहते हैं कृष्ण कि यज्ञ, दान, तप, इन तीन कर्मों को मत छोड़ देना। बाकी सब कर्मों से तुम सन्यास ले लो तो ले लो, पर यज्ञ आदि को मत छोड़ देना। यज्ञ बहुत आवश्यक है।

यज्ञ का क्या अर्थ है? यज्ञ का अर्थ है वो काम जो तुम्हें देवताओं से जोड़ता है। देवता माने वो जो बिल्कुल ऊँचाई पर बैठा है। देवताओं से जुड़ने का अर्थ हुआ अपनी नियति से जुड़ना, अपनी मुक्ति से, अपने बोध से जुड़ना।

तो जीवन क्या है? गीता की भाषा में जीवन यज्ञ है जिसमें तुम्हें लगातार अपनी पूरी ऊर्जा की, अपने समय की, अपने सब संसाधनों की आहुति देनी है।

वो यज्ञ किसलिए किया जा रहा है? देवताओं तक पहुँचने के लिए, या ऐसे कह दो कि आंतरिक देवत्व तक पहुँचने के लिए जो कर्म करा जा रहा है, उसका नाम है यज्ञ। तुम्हारे भीतर जो देवता बैठा है, तुम वो देवता बन ही जाओ। तुम्हारा छुपा हुआ प्रच्छन्न देवत्व प्रकट, अभिव्यक्त हो जाए तुम्हारे जीवन में, इसी का नाम है यज्ञ।

लेकिन वो यज्ञ सस्ता नहीं होता है। उसमें क्या डालना पड़ता है? सब कुछ जो तुम्हारे पास है, वो सब डाल दो, सब भेंट कर दो यज्ञ को और वो यज्ञ में की गई भेंट किसकी ओर जा रही है? देवताओं की ओर जा रही है।

मेरे पास जो कुछ था, मैंने उस अंतिम लक्ष्य को, नियत लक्ष्य को समर्पित कर दिया, यही यज्ञ है। मेरे पास जो कुछ है, उसे मैं समिधा बनाकर, आहुति बनाकर यज्ञ को दिए दे रहा हूँ और कहते हैं कि यज्ञ की अग्नि को आप जो कुछ भी समर्पित करते हैं, वो सीधे पहुँचता है देवताओं तक। तुम अपना जीवन यज्ञ को समर्पित कर रहे हो ताकि तुम्हारे सब संसाधन तुम्हें उस नियति तक पहुँचा दें, ये यज्ञ कहलाता है।

अब इस प्रक्रिया में, जिसमें तुम तो चलते जा रहे हो बिना अपने शरीर की, बिना अपने भौतिक अस्तित्व की परवाह किये बस एक लक्ष्य की ओर, इस प्रक्रिया में थोड़ा-बहुत कुछ तुम्हें भी मिल जाए तो खा लो। वो कहलाता है जो कुछ यज्ञ में देवताओं को अर्पित करने के बाद बचा, उसको तुम अपने शारीरिक अस्तित्व के लिए ग्रहण कर लेना। वो पाप नहीं होगा।

लेकिन अगर तुमने अपने संसाधनों को अपने शारीरिक पोषण के लिए इस्तेमाल किया (जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं), वो तो पाप को ही खाते हैं। अपनी उर्जा को, अपने धन को, अपने समय को, अपनी बुद्धि को तुमने यज्ञ में लगाने की जगह अपने शरीर में लगा दिया तो तुम अन्न नहीं खा रहे, पाप को ही खा रहे हो।

तुम ऊँचे-से-ऊँचा काम करो, सब कुछ अपना दे डालो और उस प्रक्रिया में तुम्हें थोड़ा बहुत कुछ अपने लिए मिले, मिल जाए, उसको तुम ग्रहण करो, ये हुआ यज्ञ के बाद भोजन करना। मैंने यज्ञ कर दिया, थोड़ा-बहुत जो बचा था मुझे भी मिल गया, अब उसको मैंने अपने लिए प्रयोग कर लिया।

ऐसे जीना होता है। मेरे पास जो कुछ था, मैंने कहाँ डाल दिया? यज्ञ वेदी में अर्पित कर दिया। और जो अब बचा कुछ थोड़ा-बहुत शारीरिक निर्वाह के लिए, उसका उपयोग कर लिया। और अगर ये नहीं किया तो कृष्ण कह रहे हैं कि जो पुरुष देवताओं को दिए बिना ख़ुद भोगता है, वो तो चोर ही है। यही चोरी है – जो चीज़ यज्ञ में जानी चाहिए थी, वो यज्ञ में जाने की जगह तुम्हारे पेट में चली गई, इसी का नाम है चोरी। यह मत कर देना।

ये सब प्रतीक हैं, समझ रहे हो न? यहॉं बात किसी भौतिक अग्नि की या भौतिक यज्ञवेदी कि नहीं हो रही है। यहॉं ये नहीं है कि पाँच-सात ब्राह्मण बैठे हुए हैं और वो वैदिक ऋचाओं के साथ यज्ञ की क्रिया संपन्न कर रहे हैं। ये जीवन भर की बात हो रही है भाई। जब श्री कृष्ण कहते हैं ‘यज्ञ’, तो उनका आशय किसी सीमित गतिविधि से नहीं है। जीवन ही यज्ञ बन जाना चाहिए – ये है कृष्ण का संदेश। जीवन ही यज्ञ बन जाए और उस यज्ञ में तुम्हारा जो कुछ है, वो देवत्व को अर्पित कर दिया जाए।

देवत्व क्या है? तुम्हारी नियति। तुम्हारी ऊँची-से-ऊँची संभावना का नाम ही देवत्व है। तो तुम्हारी सारी ऊर्जा तुम्हें ऊँचाई पर ले जाने के काम आए, इसको कहते हैं यज्ञ। तुम्हारी सारी ऊर्जा इस काम आए कि तुम्हारी चेतना को देवताओं की ऊँचाई दे सके, ये यज्ञ है।

और तुम उल्टी ज़िंदगी बिता सकते हो जिसमें तुम अपने जीवन ऊर्जा का, अपने समय का, अपने संसाधनों का इस्तेमाल कर सकते हो अपने-आपको शारीरिक आदि सुख देने के लिए, उसको फिर श्री कृष्ण कह रहे हैं कि ये चोर की निशानी है, यही पाप है।

प्र२: कोई धार्मिक स्थल, या मंदिर या सिद्ध जगह होती है, वहॉं पर लोग कहते हैं, ऐसी धारणा होती है, कि जाने से कुछ ठीक हो जाता है। तो क्या ये सही है?

आचार्य: वो आप पर निर्भर करता है। आप किस इरादे से गए हैं। अगर आपको वाक़ई पता है कि आपके जीवन में क्या ग़लत है और आप वाक़ई सुधार की आकांक्षा से गति कर रहे हैं तो आपके कर्मों का आपको फिर समुचित फल मिलेगा।

लेकिन अगर आप यूँ ही पहुँच गए हैं पर्यटक की तरह, बिना ये जाने ही कि कहॉं आए हैं, क्यों आए हैं, क्या गलत है और सुधारना क्या है, तो जैसे पर्यटकों को कहीं जा करके थोड़ा-सा नयनसुख मिल जाता है, वैसे ही आप भी मंदिरों में जाएँगे, मूर्ति इत्यादि को देखेंगे और थोड़ा-सा नयनसुख ले करके वापस आ जाएँगे।

प्र२: ऐसी जगहों पर जाकर स्वास्थ्य से संबंधित चमत्कार जैसी चीज़ें भी हो जाती हैं।

आचार्य: चमत्कार बिल्कुल हो सकता है। पर जो चमत्कार की तैयारी कर चुके हों, जो उस जगह पर पहुँच चुके हों कि अब चमत्कार घटित हो सकता है, उनके साथ चमत्कार हो सकता है। सबके साथ थोड़े ही होता है। इसलिए चमत्कार की घटनाएँ इतनी विरल होती हैं।

यह है (अपने हाथ में मेज़ पर रखी तौलिया उठाते हुए), यहॉं रखा हो बिल्कुल ऐसे इस मेज़ पर, ठीक है। अब ये बिल्कुल हो सकता है कि मैं जोर से फूँक मारूँ और ये नीचे गिर जाए, चमत्कार हो गया न? फूँक मारी और तौलिया उड़ गया। लेकिन ये तब हो पाया न, जब ये पहले यहॉं मेज़ के किनारे आ करके तैयार बैठा हुआ था चमत्कार के लिए। और इसके मेज़ के किनारे आने तक यहॉं तक कोई चमत्कार नहीं है। यहॉं तक आने में मेहनत है, साधना है, श्रम है।

जो लोग मेहनत, साधना और श्रम करके उस बिंदु पर पहुँच चुके होते हैं कि अब थोड़ी-सी दैवीय अनुकंपा बहुत बड़ा बदलाव ला दे उनमें, उनके साथ चमत्कार हो जाते हैं। सबके साथ थोड़े ही होते हैं। तो चमत्कार में भी वाक़ई कोई चमत्कार नहीं है, कोई अनहोनी नहीं है, कोई आकस्मिकता नहीं है, अनायास ही नहीं घट जाते चमत्कार। चमत्कार भी मेहनत का नतीजा होते हैं।

अब जैसे पानी की एक बूँद है, उसको आप सौ डिग्री तक उबालें और सौ डिग्री वो जैसे ही पहुँची...चमत्कार! अरे! ब्रह्मलीन हो गई, अदृश्य, गायब। कहॉं गई? अरे भैया, बड़ी मेहनत लगी थी, गर्म किया गया था। बारह डिग्री पर थी, उसे उर्जा दे-देकर दे-देकर उसका तापमान बढ़ाया गया था, और जब तापमान बढ़ाया जा रहा था तब तो किसी को समझ में नहीं आया क्योंकि तापमान बढ़ रहा होता है तब बूंद के रूप-रंग पर कोई असर तो पड़ता नहीं। पानी बारह डिग्री पर हो कि निन्यानवे डिग्री पर हो, दिखता तो एक ही जैसा है।

तो तब किसी को पता ही नहीं चला कि अंदर-अंदर कितनी मेहनत की जा रही है उसमें। बारह से बढ़ाकर उसको ले आ दिया गया सौ पर। और जब सौ पर ला दिया गया तो वो सहसा गायब हो गया। तो लोग बोले, हा चमत्कार! हा चमत्कार! अरे, क्या चमत्कार? मेहनत करनी पड़ती है। बहुत मेहनत चाहिए चमत्कारों के लिए।

प्र२: लोग ये भी कहते हैं कि वैज्ञानिक रूप से ये सब गलत हैं। ये मिस्कनसेप्शन (भ्रांत धारणा) है।

आचार्य: मिस्कनसेप्शन हो सकता है अगर जो हो रहा है, उसको आप कुछ और समझ लें। साइंस (विज्ञान) तो कॉन्सेप्ट्स (अवधारणाओं) पर ही चलती है। सहीं कॉन्सेप्ट है तो ठीक है, गलत कॉन्सेप्ट्स भी हो सकते हैं।

प्र२: हमारे साथ एक-दो बार ऐसा हुआ कि हमारे पास नकारने का कोई कारण नहीं है, इसीलिए मुझे लगता है कि कभी हो भी जाता है।

आचार्य: चमत्कार हुआ था?

प्र२: ऐसा ही हुआ था कुछ।

आचार्य: जिनके साथ चमत्कार हो जाता है न, उनका आयाम बदल जाता है, फिर वो मुँह लटकाए नहीं घूमते। अगर चमत्कार के बाद भी ज़िंदगी उजाड़ ही है तो किस हैसियत का था वो चमत्कार? फिर तो हम कह रहे हैं कि हमारी ज़िंदगी जैसी चल रही है तो चल रही है। ऊपर वाला भी हार गया हमसे, उसने भी चमत्कार कर डाला पर फिर भी हम वैसे ही हैं, जैसे थे।

हमारे साथ एक-दो बार नहीं, आपका दावा है कि कई बार चमत्कार हुए हैं, लेकिन चमत्कारों की क्या हैसियत कि हमें हिला दे! हम अभी भी उजड़े चमन हैं। चमत्कारों का भी अपमान कर डाला।

जीवन के मूल मुद्दों पर आइए न। क्या करेंगे आप चमत्कारों का? बारह डिग्री पर अगर बूँद है, तो कोई चमत्कार उसे भाप नहीं बना सकता।

आप सही हैं या नहीं हैं, इसका निर्धारण आपकी मनोस्थिति करती है। अगर आप आनंदित हैं, मुक्त हैं और उल्लासित हैं तो आप सही हैं। और ज़िंदगी में अगर बोझ है, और दुश्वारियाँ हैं और ग्रंथियाँ हैं, तो आप जो कुछ भी बोल लीजिए, जितने चमत्कार बता दीजिए, जो भी तर्क दे दीजिए, आप ग़लत हैं।

सही और ग़लत कोई सैद्धांतिक बातें नहीं होती। सही और ग़लत का एक ही पैमाना होता है – ज़िंदगी कैसी जा रही है। ज़िंदगी अगर अच्छी जा रही है तो तुमने जो कुछ भी किया है, वो सही ही होगा और ज़िंदगी अगर बोझिल है, थकी हुई है, बेचैन है, तो हुए होंगे लाख चमत्कार, वो सब किसी काम के नहीं। ज़िंदगी कैसी है? उसी से पता चल जाएगा कि जो आप कह रहे हैं या सोच रहे हैं, वो सही है या ग़लत है।

हम कैसे लोग होते हैं? जैसे किसी को आँख से दिखाई न देता हो, दिन भर थका-थका रहता हो, सुबह पेट न खुलता हो, जब खुलता हो तो रुकता न हो, और फिर वो कहे कि लोगों का मानना है कि मैं बड़ा तगड़ा और सेहतमंद हूँ।

भाई, आपको ख़ुद नहीं पता, आपके जीवन का अनुभव क्या कहता है? आपकी आंतरिक मनोस्थिति कैसी रहती है, ये आपको नहीं पता क्या? आप लोगों की बात क्या करते हैं, अपनी ज़िंदगी को देखिए न।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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