हमारे भीतर देव कौन और दानव कौन? क्रोध का आध्यात्मिक अर्थ क्या? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

Acharya Prashant

18 min
375 reads
हमारे भीतर देव कौन और दानव कौन? क्रोध का आध्यात्मिक अर्थ क्या? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

आचार्य प्रशांत: द्वितीय अध्याय में जो युद्ध है, वो लम्बा चला, सौ सालों तक चला। उसमें देवताओं का नेतृत्व इंद्र के पास था और दानवों की ओर से महिषासुर था। सब देवता हारे और महिषासुर ही इंद्र बन बैठा। इंद्र माने राजा, जो जगत में अधिकार रखेगा, जो जगत की व्यवस्था चलाएगा, महिषासुर ही बन बैठा। और जो बाकी सब भी देवता थे, उनके भी अधिकार महिषासुर ने छीन लिए। चंद्र हैं, वरुण हैं, अग्नि हैं, मारुत हैं, इनके सबके जो अधिकार हैं, सब महिषासुर ने ले लिये, वही सम्राट हो गया।

तो कथा कहती है कि हारे हुए देवताओं ने ब्रह्मा जी को अपने आगे किया और जा करके पहुँचे विष्णु और शिव के पास और अपनी वहाँ पर विनती की, याचिका की। तो उनकी विनती सुनकर, सारा वृतांत सुनकर, विष्णु ने और शिव ने बड़ा क्रोध किया। और विष्णु के क्रोध से ही एक तेज़ उत्पन्न हुआ बड़ा भारी जिसने एक नारी रूप ले लिया।

उसके बाद सब देवताओं ने अपनी-अपनी शक्तियाँ उस रूप को प्रदान करीं। उस नारी के शरीर के जो अलग-अलग अंग थे, वो भी सब देवताओं द्वारा आए और तत्पश्चात सब देवताओं से ही उसको शस्त्र, अलंकार और आभूषण आदि भी मिले। तो एक तेजोमय स्वरुप, एक महानारी का, महादेवी का, इस तरीके से निर्मित हुआ या प्रकट हुआ। और देवी जो प्रकट हुईं, वो अपने प्राकट्य के क्षण से ही कुपित हैं। उन्होंने प्रकट होते ही एक बड़ा भीषण अट्टहास किया जिससे आकाश काँप उठा, समुद्रों में हलचल मच गई, पृथ्वी डोल गई, ऐसा वर्णन है।

अब दो बातें यहाँ पर आती हैं: पहला कि देवी का प्रादुर्भाव कैसे है और दूसरी चीज़ जिस पर हमें चर्चा करनी चाहिए, वो है क्रोध। क्रोध से ही देवी का निर्माण हुआ है और देवी आरम्भ से ही कुपित हैं।

तो जितने भी देवता हैं, वो वास्तव में प्रतिनिधि हैं आपकी आतंरिक शक्तियों के। स्थूल जगत में कोई देवता नहीं होते; देवता तो सब आपके भीतर ही हैं। धरालोक में नहीं हैं वो, देवलोक में भी नहीं हैं वो, और आप देवलोक अगर कहना भी चाहें तो ये कहिए कि देवलोक वास्तव में मानसलोक है। आपके भीतर ही है देवलोक। देवलोक भी, दैत्यलोक भी, पाताललोक भी, जितने भी लोक हो सकते हैं, वो सब आपके लोक हैं।

तो आपकी ही शक्तियाँ हैं, पर वो शक्तियाँ हारती हैं जब वो बिखरी हुई रहती हैं। वो बिखरी हुई क्यों रहती हैं? क्योंकि वो सब अपनी स्वतंत्र सत्ता चाहती हैं। इसी को अहंकार कहते हैं, इसी को अस्मिता कहते हैं। और फिर क्योंकि वो अपनी स्वतंत्र सत्ता चाहती हैं इसीलिए हारती हैं।

दैवीय हैं शक्तियाँ, अच्छाई की ताकतें हैं, लेकिन उनमें अभिमान है कि हमें तो अपना एक पृथक अस्तित्व बचाकर रखना है, तो फिर हार होती है।

लेकिन जब सामने फिर कोई भीषण आपदा आ ही जाती है तो उस आपदा के घात तले अभिमान को टूटना पड़ता है, अहंकार को झुकना पड़ता है। और फिर वो शक्तियाँ अपना पृथक अस्तित्व, अपनी अस्मिता छोड़ करके एक हो जाती हैं। जब एक हो जाती हैं तो उससे फिर देवी उत्पन्न होती हैं।

ये पार्थक्य की माँग क्या है? वो माँग ऐसी है, जैसे समझ लो कि सत्य सेनापति हो। एक सेना है जिसमें सत्य अगुआ है, मुखिया है, सेनापति, और सैनिक हैं बहुत सारे। सब सैनिकों द्वारा आदर और प्रेम है अपने सेनापति को, लेकिन हर सैनिक अपनी एक स्वतंत्र सत्ता भी बनाए रख रहा है। वो हटने को, मिट जाने को तैयार नहीं है। वो कह रहा है, “मैं अच्छा काम कर रहा हूँ, मैं सत्य का नेतृत्व स्वीकार करता हूँ, लेकिन मेरा अपना एक वजूद, एक हस्ती ज़रूर रहेगी।”

क्या होगा ऐसी सेना में? ऐसी सेना में ये होगा कि शक्तियाँ कभी एक हो करके सत्य हेतु पूरे तरीके से कार्यान्वित नहीं हो पाएँगी। ऊपरी तौर पर ये दिखाई देगा कि सब शक्तियाँ सत्य को समर्पित हैं, लेकिन व्यवहारिक तौर पर ये हो रहा होगा कि वो शक्तियाँ सत्य को जितनी समर्पित हैं लगभग उतनी ही स्वयं को भी समर्पित हैं। वो अपना अस्तित्व बचाने के लिए भी बड़ी सतर्क हैं, और जब अपना अस्तित्व बचाते हो तो उसमें भी बड़ी ऊर्जा लगती है।

सैनिक अगर अपनी ऊर्जा युद्ध की जगह अपने किसी व्यक्तिगत लक्ष्य की ओर लगा रहा है तो अब युद्ध में क्या होगा? युद्ध जो लक्ष्य है, वो सत्य ने दिया है सेना को, कि तुम लड़ो। सैनिक यदि पूरी तरीके से समर्पित हो सेनापति को और सेनापति द्वारा प्रदत्त लक्ष्य को, तो वो अपनी शत-प्रतिशत ऊर्जा किसमें लगा देगा? सिर्फ़ लक्ष्य में।

लेकिन अगर सैनिक के पास एक छुपा हुआ व्यक्तिगत लक्ष्य और भी है तो क्या वो अपनी पूरी ऊर्जा युद्ध में लगा सकता है? वो छुपा हुआ लक्ष्य क्या होता है? कि अपनी जो व्यक्तिगत सत्ता है, उसको भी मिटने नहीं देना है। तो कुछ ऊर्जा फिर उसमें (युद्ध में) लग जाती है, और बहुत ऊर्जा लग जाती है उसमें (व्यक्तिगत लक्ष्य में)। और जब ऊर्जा उसमें (व्यक्तिगत लक्ष्य में) लग जाती है तो आप युद्ध हारते हो। देवता इसीलिए युद्ध हारते थे क्योंकि उन्हें देवता बने रह करके युद्ध जीतना था।

हम जीवन में किसी भी बड़े लक्ष्य को पा इसीलिए तो नहीं पाते न क्योंकि लक्ष्य को पाने के लिए ऊर्जा का एकाग्र होना बहुत ज़रूरी है। किस तरफ़ को एकाग्र होना? लक्ष्य की दिशा में, कि आपके पास जो भी है वो लक्ष्य की दिशा में समर्पित हो जाए, उधर को ही बहे।

लेकिन हमारे पास ये जो हमारा रेत का महल होता है, जिसको हम अपना व्यक्तित्व बोलते हैं, इसको ले करके बड़ी आशंका, बड़ा डर और बड़ा आग्रह रहता है। हमें इसको बचाना होता है। अब इसको बचाना है तो क्या होगा? कितनी ऊर्जा लगेगी इसको बचाने में? कितनी लगेगी? बहुत, बहुत सारी ऊर्जा लगेगी। तो वो जो तुमने लक्ष्य बनाया था, उसको कैसे जीतोगे तुम?

ऐसे समझ लो कि तुम्हारे हाथ में तलवार है और सामने एक बड़ा बलवान विरोधी खड़ा है दैत्य जैसा। बड़ा चुनौतीपूर्ण लक्ष्य है सामने। और तुम्हारे पीछे तुम्हारा जो है रेत का पुतला है, जिसको तुम अपना नाम देते हो। तुम्हारे आगे कौन है? तुम्हारा लक्ष्य, और बहुत तुमने एक ऊँचा लक्ष्य बनाया है, घनघोर चुनौती है। और तुम्हारे पीछे तुमने रख रखा है एक रेत का पुतला, जिसको तुमने अपना नाम दे दिया है, और तुम कह रहे हो, “नहीं, सामने वाली लड़ाई तो मुझे लड़नी ही है, लेकिन मेरी शर्त ये है कि पीछे मेरा जो व्यक्तित्व है, मेरा रेत का पुतला, कमज़ोर, टूटने को तैयार लेकिन जिससे आसक्ति बहुत है मेरी, वो ढहना नहीं चाहिए।” तो अब कल्पना करो तुम लड़ाई कैसे करोगे!

कैसी होगी तुम्हारी लड़ाई? तुम काम कर रहे हो, कर रहे हो। क्या काम कर रहे हो तुम? चुनौती पूर्ण काम है, संघर्ष का काम है। तो तुम काम कर रहे हो और अचानक तुम्हें याद आया कि अभी-अभी मैंने जो करा, उससे कहीं मेरे रेत के पुतले में दरार तो नहीं आ गई? उसमें तो दरार आती है, बार-बार आएँगी, वो चीज़ ही रेत की है। और तुमने अपना ध्यान अपने शत्रु से हटा करके अपने पुतले को बचाने में और बनाने में लगा दिया।

युद्ध में तुमको चाहिए अपने चारो ओर वैसा सब कुछ जो टूटे नहीं। ढाल कैसी होती है? जो टूटे नहीं। हथियार कैसे होते हैं? जो टूटे नहीं। और हम जीवन के युद्ध में उतरते हैं लेकर अपना अहंकार जो बार-बार टूटेगा-ही-टूटेगा। उसी को मैं क्या बोल रहा हूँ? तुम्हारा अपना रेत का पुतला। अहंकार को तुम अपना ‘रेत शरीर’ बोल सकते हो।

दुश्मन तुम्हारा सामने खड़ा हुआ है, उसके पास ज़बरदस्त हथियार हैं, और तुम क्या बचाने का आग्रह ले करके खड़े हो? अपना रेत का पुतला। और दुश्मन ठठाकर हँसता है, तुम अपने रेत के पुतले को ऐसे अपनी दोनों बाँहों से, माने अपनी सारी ऊर्जा से, घेरकर खड़े हो कि इसकी कोई क्षति न हो जाए। क्षति तो होगी। जब क्षति होगी, तुम उसको फिर बनाने में लगे हो और पीछे से दुश्मन तुमको धुन रहा है।

ये तो छोड़ो कि तुम्हारी शत-प्रतिशत ऊर्जा लक्ष्य की ओर नहीं जा रही, तुम्हारी तो निन्यानवे प्रतिशत ऊर्जा बस अपने रेत के पुतले को बचाने में जा रही है। तुम ज़िन्दगी की कौन सी लड़ाई लड़ोगे? जीतना तो बहुत दूर की बात है, तुम लड़ भी नहीं पाओगे। तुम सारे समय बस अपनी कमज़ोरियों को बचाते रह जाओगे।

हमारे भीतर फिर इसीलिए फिर देव-दानव युद्ध नहीं होते, क्योंकि दानव को तो वास्तव में कुछ करने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती। वो तो जीता ही हुआ है। दानवों से भी तो तुम तब उलझोगे न जब तुम्हारे पास कुछ ऊर्जा हो दानव से उलझने की। तुम्हारी सारी ऊर्जा जाती कहाँ है? “अरे! उसने मुझको ऐसा बोल दिया, अरे! मेरे अहंकार पर यहाँ चोट लग गई।” और पूरा दिन बीत गया यही सोचने में, यही करने में। अब पूरे दिन में तुम कोई ढंग का काम कर कहाँ पाए? यही चल रहा था पूरे दिन और ऐसे करते-करते तुम्हें नहीं पता चलेगा; ज़िन्दगी बहुत छोटी है, सारे वर्ष बीत गए।

आप जो अपनी इंडिविजुआलिटी, अपनी वैयक्तिकता को बचाना चाहते हो, वही आपका सबसे बड़ा अभिशाप बन जाती है।

अब देवी कैसे प्रकट हुईं, कब प्रकट हुईं?

जब एक आपदा के घात तले देवों को विवश हो करके अपनी वैयक्तिकता को हटाना पड़ा, चाँद और सूरज को एक हो जाना पड़ा। चाँद ने कहा कि दैत्यों को हराना ज़्यादा ज़रूरी है, मैं चाँद बना रहूँ, यह ज़्यादा ज़रूरी नहीं है। तो चाँद ने अपना सर्वस्व देवी को दे दिया, कहा, “ठीक है चाँद मिट गया। मिट जाए, लेकिन दैत्यों का हारना ज़्यादा ज़रूरी है।” तो चन्द्रमा की शक्ति देवी में आ गई, सूर्य की शक्ति देवी में आ गई।

इसी तरह से अन्य सभी देवताओं ने अपनी विशिष्ट शक्तियाँ जो उनको एक विशिष्ट व्यक्तित्व भी प्रदान करती थीं, वो सब देवी को दे दीं। एक तरह से कहो तो देवता मिट गए, देवताओं का जो वैशिष्ट्य था, वो मिट गया। अब जा करके एक घनीभूत, एकीकृत, शक्ति का प्रादुर्भाव होगा जिसमे विभाजन के लिए, खंड के लिए कोई जगह नहीं।

आपको भी अगर अपने भीतर के दानव को परास्त करना है तो आपको यही करना होगा। अपना सब कुछ युद्ध को दीजिए, स्वयं को बचाने को मत दीजिए। अपना सब कुछ युद्ध को दीजिए, उस रेत के पुतले को बचाने को मत दीजिए। उस रेत के पुतले को तो युद्ध शुरू होने से पहले ही तोड़ दीजिए।

क्या याद आ रहा है? संत कबीर की कोई बात याद आ रही है यहाँ पर? क्या?

वो कहते हैं कि जो सच्चा सूरमा होता है, वो युद्ध में जाने से पहले ही अपना सिर काटकर रख देता है, फिर युद्ध में जाता है। देवता यही गलती कर रहे थे: वो युद्ध में सिर लिये-लिये चले जा रहे थे। युद्ध में सिर लिये-लिये जाओगे तो सिर ही है जो है तुम्हारा—सिर माने अहंकार, वही तुम्हारा रेत का पुतला है—वही तुम्हारी कमज़ोरी है, तुम्हारा दुश्मन उस पर आक्रमण करेगा। तुम्हारी सारी ऊर्जा बस अपने झूठ को पुतले को बचाने में चली जाएगी, तुम कोई युद्ध नहीं लड़ पाओगे। जीवन से ही परास्त हो जाओगे। खुद को बचा लोगे जीवन को गँवा दोगे। यदि खुद को बचाया जा सकता हो इस तरह तो वो तुम्हारी बुद्धि पर है।

जीवन को जीतना हो तो खुद को हार लो। युद्ध में हार से बचना हो तो स्वयं को बचाने की कोशिश त्याग दो। जो स्वयं को बचा ले जाएगा, वो हार को नहीं बचा पाएगा। दोनों में से एक ही चीज़ बचा सकते हो: या तो तुम बचोगे या हार बचेगी।

अगर तुम पा रहे हो कि जीवन ऐसा जिया है तुमने कि तुम बचे ही जा रहे हो, तो ये फिर पक्का है कि युद्ध नहीं बच रहा है। सारे युद्ध तुम हार रहे हो। बस इतनी तुम्हारी कुल उपलब्धि है कि सब युद्ध हारते गए लेकिन स्वयं को, अपने इस झूठे रेत के पुतले को लगातार बचाते गए। ये कौन सा तुमने तीर चला लिया भाई?

और ये गलती पूरी तरह से मानवीय है, सभी करते आए हैं, यहाँ हम देख रहे हैं कि देवता भी यही कर रहे थे। पर देवताओं के साथ एक बात हमेशा रहती है कि वो कितना भी भटक जाएँ, मदोन्मत हो जाएँ, बहक जाएँ, लेकिन जब चोट पड़ती है, हार मिलती है, वो कम-से-कम तब सुधर जातें हैं। दानव तब भी नहीं सुधरते। देवता और दानव में यही अंतर है। ये नहीं कि गलतियाँ नहीं करते देवता, ये कि गलतियाँ करने के बाद, चोट खाने के बाद कम-से-कम सुधर जाते हैं देवता।

दानव तुम्हारा वो हिस्सा है जो बार-बार चोट खाता है, बार-बार धूल चाटता है, लेकिन फिर भी निर्लज्ज, हठी की तरह खड़ा हो जाता है अपनी पुरानी ही गलतियाँ और कर्म दोहराने के लिए। उसको दानव कहते हैं। वो राक्षस है तुम्हारे भीतर का।

तो हमने कहा कि तुम्हारी जो इंडिविजुआलिटी है, जिसको तुम अपना व्यक्तित्व कह सकते हो, पर्सनल सेल्फ़ , तुम्हारी वैयक्तिकता, उसका त्याग किए बिना तुम न भीतर, न बाहर कोई वास्तविक युद्ध जीत सकते हो, क्योंकि तुम्हारी सबसे बड़ी कमज़ोरी तुम खुद हो।

स्वयं को बचाना एक असंभव उपक्रम है और हम उसी में लगे रहते हैं। खुद को तो नहीं बचा पाओगे, हाँ, खुद को बचाने के प्रयास में जो वास्तव में बचाया जा सकता था, उससे भी हाथ धो बैठोगे।

कैसा लगेगा ये जान करके कि रेत के पुतले को बचाने के लिए तुम युद्ध हार गए हो? और युद्ध हारने के बाद जब तुम उस पुतले की ओर देखते हो तो वो पुतला भी ढहा हुआ है। क्या बचा लिया? उस पुतले की तो प्रकृति है ढह जाना, उसको तुम कितना भी बचाते रहो, वो ढह जाएगा। हाँ, उसको बचाने के विफल प्रयास में, असम्भव प्रयास में तुमने वो भी गँवा दिया जिसको गँवाना आवश्यक नहीं था। जहाँ तुम्हारी संभावना थी जीत की, तुम उस संभावना से भी हाथ धो बैठे।

पुतले को तो बचा पाने की कोई संभावना बिल्कुल भी नहीं है। वहाँ शून्य संभावना है। मिथ्या है वो, माया है, वो नहीं बचने का। सत्य को पाना कितना भी कठिन हो पर वहाँ पर सफलता की संभावना तो है। पुतले को बचाने के उपक्रम में तो संभावना ही नहीं है जीत की। तो क्यों ऐसे झंझट में पड़ना?

तो इस तरह से फिर देवी अपना प्राकट्य पाती हैं। देखो, तुम्हारे भीतर जो कुछ भी है, वो रहेगा क्योंकि वो प्राकृतिक है। व्यक्ति ही प्राकृतिक है। तो प्रश्न ये नहीं होना चाहिए अध्यात्म में कि तुम्हारे पास जो कुछ है उसको मिटा कैसे दें। और हमारे पास क्या होता है जन्म से ही? हमारी वृत्तियाँ होती हैं: काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, भय इत्यादि, यही सब होता है। तो ये प्रश्न नहीं होना चाहिए कि इसको मिटा कैसे दें? प्रश्न ये होना चाहिए कि इसको हम किसी उदात्त लक्ष्य को समर्पित कैसे कर दें? ये प्रश्न होना चाहिए।

देवताओं में और दैत्यों में यही अंतर है न? शक्ति देवताओं के पास भी है, दैत्यों के पास भी है। गुण देवताओं के पास भी है, दैत्यों के पास भी है, पर दैत्य उन गुणों को समर्पित करने को तैयार नहीं हैं। किनको समर्पित? सत्य को, ऊँचाई को।

तो इसलिए तुम पाओगे कि श्री दुर्गा सप्तशती में भी और तमाम अन्य पौराणिक कथाओं में भी क्रोध का भरपूर स्थान है। और क्रोध दोनों तरह का: अभी कथा आगे बढ़ेगी तो तुम देखोगे कि देवी भी क्रोध से भरी हुई हैं, उनकी आँखें अंगारे जैसी लाल हैं और दानव भी क्रोध में भरे हुए हैं। महिषासुर भैंसे का रूप ले करके फुँकार रहा है, अपने खुरों के आघात से धरती कंपाए दे रहा है, एकदम वो भी क्रोधोन्मत्त है।

क्रोध, क्रोध में अंतर है। एक क्रोध वो है जो तुम करते हो सत्य की रक्षा के लिए और एक क्रोध है जो तुम करते हो सत्य पर आघात के लिए।

अध्याय आरम्भ होता है और आरम्भ में ही शिव और विष्णु दोनों कुपित हैं। तो क्रोध अच्छा है या बुरा, ये प्रश्न ही बहुत काम का नहीं है क्योंकि क्रोध तो रहेगा। प्रश्न ये है कि तुम्हारा क्रोध किसको समर्पित है? ये प्रश्न व्यावहारिक है, विचारणीय है। तुम्हारा क्रोध किसके लिए है?

ममत्व तुममें रहेगा, प्रश्न ये है कि तुम्हारा ममत्व किसके लिए है? राग-द्वेष भी रहेंगे, भय भी रहेगा, लोभ भी रहेगा, किसका लोभ कर रहे हो? मुक्ति का लोभ कर रहे हो या बंधनो का? और मुक्ति का तरीका ही यही है, तुम्हारे पास जो कुछ भी है, उसको बाँध दो मुक्ति से क्योंकि और कोई विकल्प है कहाँ तुम्हारे पास? तुम तो जो हो, वो हो ही। तुम अपना शरीर परिवर्तित नहीं कर सकते।

तो अपनी वृत्तियों की हत्या नहीं करनी है, उनको सत्य का अनुगामी बना देना है। तुम जो भी कुछ कर सकते हो, उसी दृष्टि से करो।

चिड़िया उड़कर जा सकती है तो उड़ कर जाए। उसे अपने पंख नहीं काट देने हैं, उसे अपने पंखों का प्रयोग करना है सत्य की दिशा के लिए। कछुआ धीरे-धीरे चलकर, रेंगकर जाएगा, वो धीरे-धीरे जाए। विकल्प क्या है उसके पास? उड़ नहीं सकता, दौड़ नहीं सकता तो क्या करेगा? वो धीरे-धीरे जाएगा। बस दिशा ठीक होनी चाहिए। एक ही दिशा में जाओ, जो दिशा है तुम्हारी। शेर के पास ताकत है तो वो अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए जाए, कि रास्ते में जो भी कोई जीव मुझे रोकेगा, मैं उसको मिटा दूँगा, मेरे पास शक्ति है।

देवी का जो सिंह है दूसरे चरित्र में, वो लगातार कुपित है। बार-बार उसका वर्णन ही ऐसे आता है कि वो अपना सिर हिला रहा है, अपने गर्दन के बाल हिला रहा है और दैत्यों के चिथड़े करता जा रहा है, धज्जियाँ उड़ाता जा रहा है।

हमारे भीतर भी सिंह जैसा ही पशु है, हमें उसका कोप चाहिए, पर हमें उसका कोप वैसे ही चाहिए जैसे देवी के सिंह का था। देवी के अभियान में सम्मिलित होने हेतु कुपित है वो। वो कह रहा है कि देवी जो लड़ाई लड़ रही हैं वो मैं देवी के साथ लड़ूँगा और देवी जिस पर रुष्ट हैं, मैं भी उसी पर कुपित हूँ। तो कोप है हममें, सबमें होता है। उस कोप को मारने की ज़रुरत नहीं है, उस कोप को सही दिशा देने की ज़रुरत है।

कोप की दिशा यह नहीं होनी चाहिए कि वो तुम्हारे अहंकार की रक्षा करे। निन्यानवे प्रतिशत कोप जो हम करते हैं, वो व्यर्थ है, वो नहीं किया जाना चाहिए। क्यों? क्योंकि हमें क्रोध उठता ही तब है जब हमारे रेत के पुतले में कोई टूट-फूट होती है, तो हमें बड़ी तकलीफ़ होती है और एकदम हम क्रोधित हो जाते हैं, है न ? निन्यानवे प्रतिशत हमारा क्रोध व्यर्थ है, शायद निन्यानवे दशमलव नौ नौ प्रतिशत क्रोध हमारा व्यर्थ है।

तो इस अर्थ में ये कहा जा सकता है कि क्रोध मत करो। कौन सा क्रोध मत करो? जो तुम्हारे अहंकार की रक्षा के लिए उठता है, वो क्रोध मत करो। क्रोध करना निश्चित रूप से बुरा है, क्यों? क्योंकि अधिकांशतः हमारा क्रोध एक व्यर्थ प्रयोजन के लिए होता है। पर एक दूसरा क्रोध भी हो सकता है और उसका हमको धर्म ग्रंथों में बार-बार दर्शन होता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
Categories