प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आप अक्सर कहते हैं कि अहम् हर एक चीज़ को भोगना चाहता है, आज की ही खबर है कि दुबई — जो कि भोग की नगरी कहलाती है — वहाँ पर एक साल की बारिश एक ही दिन में हो गयी है, जो कि बहुत अजीब है। क्योंकि वहाँ पर अक्सर सर्दियों में बारिश हुआ करती थी, पर अब की बार गर्मियों में हो रही है। तो हम देख रहे हैं कि हवाई जहाज़, पानी का जहाज़ बन गया है, बाज़ार, जलक्षेत्र बन गये हैं, और तेज़ी से भागने वाली नगरी रुक सी गयी है।
अहम् बाहर छलाॅंग मारता है, तो प्रकृति उसे रोक देती है। तो आचार्य जी, क्या हम प्रकृति के इस दंड से सुधरेंगे?
आचार्य प्रशांत: एक तरह से ये प्रकृति का दंड भी नहीं है। प्रकृति, सच पूछो तो बड़ी निरपेक्ष होती है। वो इतनी बड़ी है, इतनी स्वायत्त है, इतनी स्वतन्त्र है कि उसको अहम् जैसी छोटी चीज़ को — जो उसी का अपना एक नन्हा सा मुन्ना है — उसको दंड देने की ज़रूरत भी नहीं है। होता बस ये है कि अहम् अपनी कामना के अनुसार प्रकृति से छेड़छाड़ करता है, और प्रकृति को अपनी कामना के अनुसार एक रूप देना चाहता है। प्रकृति ने कोई ठेका नहीं ले रखा है कामना पूरी करने का, वो तो वही करती है जो उसके नियमों के अन्तर्गत होना है।
और उसके नियम अगर कहते हैं कि तुम उससे छेडछाड़ करोगे, तो ऐसी प्रतिक्रिया होगी तो वो प्रतिक्रिया हो जाती है। और प्रकृति इतनी बड़ी है कि प्रकृति की छोटी सी प्रतिक्रिया भी नुन्नू अहंकार के झेले झिलनी नहीं है। आप अगर प्रकृति लोगे, पूरा ब्रह्मांड प्रकृति के आधीन है। ज़ीरो केल्विन समझते हो? ज़ीरो से दो-सौ-तिहत्तर डिग्री नीचे, लगभग उतना तापमान भी प्रकृति में देखा जाता है, आउटर स्पेस (वाह्य अन्तरिक्ष) में। और दस हज़ार डिग्री, लाखों डिग्री, वो सब तापमान भी देखा जाता है सुपरनोवाज़ (अधिनवतार) में। तो प्रकृति में तो ये सबकुछ है। प्रकृति, लेकिन अगर जो पूरी रेन्ज़ (परिसर) है उसमें तापमान की, उसको मनुष्य के लिए शून्य दशमलव शून्य शून्य शून्य शून्य शून्य एक प्रतिशत भी बदल दे, तो हम सब या तो जम जाऍंगे या भाप हो जाऍंगे। प्रकृति माइनस दो-सौ-तिहत्तर से करोड़ों डिग्री तापमान तक जाती है। ठीक है?
सूरज की सतह पर कितना तापमान होगा, सोचो, और उसमें एक बहुत छोटी सी रेन्ज़ है जिसमें हम झुन्नू लोग अपना कूद-फाँद मचाते हैं। हम कौनसी रेन्ज़ में जी सकते हैं? मान लो शून्य से बीस-तीस डिग्री नीचे से लेकर शून्य से साठ डिग्री ऊपर। कुल मिलाकर सौ डिग्री की भी रेन्ज़ नहीं है जिसमें हम बच सकते हों। और वो भी तब, जब हमारे पास हीटिंग (तापमान नियन्त्रण सुविधा) है, और कपड़े हैं, और तमाम तरीके के औजार हैं और व्यवस्थाएँ। अगर ये सब कपड़े-वपड़े न हों, तो हम अधिक-से-अधिक पाँच डिग्री से लेकर पचीस या पैंतीस डिग्री तक में बच पायें। रेन्ज़ और छोटी हो जाएगी। तो प्रकृति को क्या करना है? जो पूरी रेन्ज़ है उसकी अपनी, उसको ज़रा सा ऐसे (इशारा करते हुए) आगे-पीछे कर देगी, हमारे लिए, हम कहीं के नहीं रहेंगे।
तो ये भी सोचना कि मनुष्य ने प्रकृति के साथ बुरा करा, तो अब प्रकृति दंड दे रही है, ये भी अपनेआप को बहुत बड़ा मानने वाली बात है। प्रकृति इतनी बड़ी है कि उसे हमें दंड देने की भी ज़रूरत नहीं है। हम उसके सामने ऐसे हैं कि जैसे हम बैठे हैं और कोई (मच्छर) ऐसे आया, (हाथ लग गया) मच्छर मार दिया। ये दंड थोड़े ही दिया। आप बैठे थे, बात कर रहे थे, यहाँ (हाथ पर) खुजली हुई, पता नहीं था क्यों खुजली हुई, तो आपने ऐसे (दूसरे हाथ से सहलाते हुए) कर दिया, वो मच्छर मर गया, आपको पता भी नहीं। हुआ है कभी? कि आप उठो और पाओ कि ऐसे मच्छर मरा हुआ है बाँह पर, क्योंकि जब आपका खून पी रहा था तभी आपने करवट ले ली, वो मर गया। हम प्रकृति के सामने ऐसे हैं। मच्छर बहुत बड़ा होता है, इंसान के सामने। हम प्रकृति के सामने धूल के एक कण का शतांश भी नहीं हैं। वो करवट क्या लेगी, वो इतनी सी गति कर दे, इंसान क्या चीज़ है उसके सामने।
बात समझ में आ रही है?
फिर इंसान भूल क्या करता है? इंसान ये बात समझता नहीं है कि तुम्हारा काम प्रकृति को भोगना नहीं है, भोगा किसी छोटी चीज़ को जाता है। आप कुछ खाते हो, जो चीज़ आप खाते हो, वो आपके मुँह के आकार से छोटी होती है, तभी खाते हो। प्रकृति बहुत बड़ी है, उसको भोगा नहीं जा सकता। मूर्खता है। लेकिन फिर भी हम उसे भोगना चाहते हैं। क्यों भोगना चाहते हैं? क्योंकि हम स्वयं को नहीं जानते। हमें पता ही नहीं हैं दो बातें। पहला, तुम जो चाह रहे हो, वो प्रकृति को भोगकर मिलेगा नहीं, और दूसरी बात, जिसको तुम भोगने जा रहे हो, वो बड़ी माँ है तुम्हारी। तुम कोशिश भी कर लो, तो तुम उसको भोग सकते नहीं। अरे, तुम क्या कर लोगे? तुम अधिक-से-अधिक ये पृथ्वी ग्रह बर्बाद कर दोगे, इससे तुम्हारी ही प्रजाति मिट जाएगी। पूरे ब्रह्मांड को देख लो, तो उसमें पृथ्वी ग्रह की हैसियत क्या है?
समूचे ब्रह्मांड के सामने पृथ्वी ग्रह कितना है, बताऊँ? शुरू करो, गंगोत्री से ही शुरू कर दो, और सीधे बंगाल की खाड़ी तक चले जाओ। ठीक है? और गंगा में जितनी बूँदें हों उनमें से एक बूँद के बराबर है ब्रह्मांड में पृथ्वी की हस्ती। समझ में आ रही है बात?
भारत का पूरा पश्चिमी तट ले लो। गुजरात से शुरू करो, केरल तक चले जाओ। उसमें बीच-बीच में रेतीली बीचें (समुन्द्र तट) आती हैं? रेत वाले तट, बीच, आती हैं? कितने उस पर धूल के कण होंगे? कितने होंगे? या थार का रेगिस्तान ले लो, उसमें कितने रेत के कण होंगे? तो पृथ्वी की हैसियत ब्रह्मांड में पूरे थार के रेगिस्तान में जितनी बालू है, रेत, उसके एक कण से भी कम है। तुम प्रकृति को क्या नुकसान पहुँचा लोगे?
एक बार मैंने कहा था, लोगों ने कहा था, ‘द अर्थ इज़ हीटिंग अप, द अर्थ इज़ सिक’ (पृथ्वी गर्म हो रही है, पृथ्वी अस्वस्थ है)। लोग बोलते हैं न, ‘ग्लोबल वार्मिंग इज़ द फ़ीवर ऑफ़ द प्लेनेट’ (भूमण्डलीय तापवृद्धि पृथ्वी का ज्वर है)। मैंने कहा था, *‘द अर्थ इज़ नॉट सिक, द अर्थ इज़ एड्ज़स्टिंग इट्सेल्फ़ टू एलिमिनेट मैन।’ (पृथ्वी अस्वस्थ नहीं है, पृथ्वी बस मनुष्य को हटाने हेतु स्वयं को सन्तुलित कर रही है)। अर्थ का कुछ नहीं जाता, तुम्हारा सबकुछ जाता है। ‘इसमें तेरा घाटा, मम्मी का कुछ नहीं जाता।’ तू अभी दो सेकेंड पहले पैदा हुआ है। एवोल्युशनरी टाइम स्केल (क्रमिक विकास काल के पैमाने) में तू दो सेकेंड पहले — उस दिन मैं आइआइटी में भी यही बोल रहा था न — इवोल्यूशन (क्रमिक विकास) की दृष्टि से तू दो सेकेंड पहले पैदा हुआ है, और मम्मी अरबों साल पुरानी हैं, और तेरे जैसे वो एक सेकेंड में लाख पैदा करती हैं। उनका क्या जाएगा, तू मिट जाएगा।
ये भी कहना, ‘लेट्स सेव द प्लनेट, लेट्स सेव द प्लनेट!’ (आइए, ग्रह को बचाऍं), अहंकार की बात है। हम इतने बड़े हैं कि हम (पृथ्वी को बचाऍंगे)? वो तुम्हारे आने से पहले भी थी और वो तुम्हारे जाने के बाद भी है। बेटा, तू अपनी बचा?
और मनुष्य है जो इन छोटी टेम्प्रेचर रेन्जज़ (तापमान परिसर) में सर्वाइव (जीवित रहना) कर सकता है। प्रकृति बढ़े हुए तापमानों पर भी जो प्राणी मौज में बचे रह जाएँ, ऐसों को विकसित कर देगी। हाँ, ऐसों को विकसित करने में हो सकता है दस-लाख वर्ष लगें। प्रकृति के लिए दस-लाख वर्ष क्या हैं? समय तो उसकी जेब में है। प्रकृति को कोई प्रतीक्षा करनी पड़ती है? जैसे तुम प्रकृति के बच्चे हो, झुन्नू, वैसे ही समय भी क्या है? प्रकृति का बच्चा। किसी चीज़ में दस-करोड़ साल लग रहे हैं, तो प्रकृति को कोई आपत्ति नहीं है। उसके लिए दस-करोड़ वर्ष क्या हैं? जैसे पलक झपकी।
समझ में आ रही है बात?
वो इतनी बड़ी है कि वो पलक भी झपके तो हमारे लिए महाप्रलय है। कह तो रही हैं कि दुबई का हाल देख लो। आ रहे हैं, लोगों के फोटो आ रहे हैं, वीडियो आ रहे हैं कि ये दुबई है। वो दुबई ऐसा लग रहा है जैसे हमारे बम्बई में हो जाता है, मानसून में। उससे भी ज़्यादा बदतर। किया क्या है? माँ ने बस साँस ली है, और हमारे लिए चक्रवात आ गया। वो कुछ नहीं है, क्या है? ज़रा सी माँ ने साँस ली है। जिसको आप सूरज बोलते हो, सूर्य देवता बोलकर उपासना करते हो, आपको मालूम है, वो एक — दुनिया के आधे तारे उस सूरज से बड़े हैं। हम चीज़ क्या हैं?
लेकिन जिसको नमन करना चाहिए, जिसके साथ हमारा रिश्ता बस हो सकता है कि उसको देखें, साक्षी होकर के। हम निकल पड़े हैं उसको भोगने के लिए। जैसे कोई देवी खड़ी हों पूर्ण अपने विकसित आकार में, अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित, और कोई मच्छर आकर बोल रहा है, ‘मैं इनको भोगूँगा, क्योंकि मैं बहुत कामुक आदमी हूँ। मैं देवी को भोगूँगा।’ और देवी माने देवी। और मच्छर क्या बोल रहा है? मुझे भोगना है। कुछ नहीं करना, उसको बस ऐसे (एक ओर देखते हुए) देख लेना है। वो देखने ही भर से भस्म हो जाएगा। भस्म माने क्या? जल नहीं जाएगा, दिल का दौरा पड़ जाएगा उसको।
‘सेक्रेड्नेस’ (पवित्रता), ये शब्द हमारे व्याकरण से लुप्त हो गया है। सेक्रेड् (पवित्र) माने वो जो इतना बड़ा है कि उसको छूने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए। उन्होंने भी सेक्रेड् नहीं माना प्रकृति को, जिन्होंने कन्ज़म्प्शन (भोग) करा। और सेक्रेड् तो वो भी नहीं मान रहे हैं, जो एक्टिविज़्म (संरक्षण हेतु सक्रियता) कर रहे हैं। सेक्रेड् माने बहुत बड़ा मानना। अगर आप कह रहे हो, ‘मैं तुझे आकर बचा लूँगा’, तो जिसको बचा रहे हो, उसको बड़ा मान रहे हो क्या? तो एक्टिविज़्म में भी सेक्रेड्नेस कहाँ है?
अगर सेक्रेड्नेस आती है तब, जब कुछ बहुत बड़ा लगता है, तो फिर प्रश्न उठता है, ‘किसके लिए बड़ा?’ मेरे लिए बड़ा न? सेक्रेड्नेस सिर्फ़ तब आती है जब आत्मज्ञान होता है, अपना पता होता है, हम कितने छोटे हैं। हमारी पूरी शिक्षा में कहीं आत्मज्ञान नहीं है। हम नहीं जानते, हम कौन हैं। तो हमें पता ही नहीं, हम छोटे कितने हैं।
तापमान बदल जाता है, तुम्हारा सबकुछ बदल जाता है। मनुष्य क्या है? मनुष्य अपनी एक सोच है, धारणा है, मनुष्य अपना मन है। प्रयोग हो चुके हैं, शोध हैं — और उन शोधों की कोई ज़रूरत भी नहीं, ये बात आपके आम अनुभव की है — अभी इस कमरे में जितना तापमान है, वो बदल जाए, आपका विचार बदल जाएगा, इंसान ही बदल जाएगा। और ये बस खाल की बात है। तापमान, नमी, दबाव — एट्मॉस्फ़िअरिक प्रेशर (वायुमण्डलीय दाब) — ये बदल जाएँ, आप पूरे बदल जाओगे। इंसान ही दूसरा हो जाएगा।
आप पूरी तरह से प्रकृति के उत्पाद हो। अभी इस कमरे में उमस बढ़ जाए, नमी, आर्द्रता, आपके विचार बदल जाएँगे, कि नहीं?
प्रयोग हो चुके हैं, लोगों को अलग-अलग तरीके के माहौल में सुलाया गया, उनको सपने ही अलग-अलग आये। माहौल माने कहीं कोई सो रहा है, वहाँ एक तरह की आवाज़ है, कहीं दूसरे तरह की आवाज़ है। कहीं कोई सो रहा है, वहाँ बिलकुल अँधेरा है। कोई सो रहा है, वहाँ थोड़ी रोशनी बीच-बीच में, रोशनी भी अलग-अलग तरीके की है। तापमान अलग करके देखे गये, उनकी सबकी ब्रेन वेव्स (मस्तिष्क तरंगें) ही अलग-अलग हो गयीं सोते-सोते।
प्रकृति को कुछ करना थोड़े ही है, हमें सज़ा देने के लिए। आप जो कर रहे हो, आप उसके आधीन हो। आप जिससे छेड़छाड़ कर रहे हो, आप उसके आधीन हो। जिसको आप छेड़ रहे हो, वो बदल गया तो आप नहीं बचोगे। नहीं समझे? तुम इस कमरे में बैठे हो, मान लो तुम्हारे पास यहाँ पर कोई व्यवस्था है जो यहाँ तापमान निश्चित करती है, जो यहाँ पर कितना प्रेशर (दाब) होगा, ये निश्चित करती है। ठीक है? यहाँ पर कितनी धूल होगी, हवा में, ये निश्चित करती है। तुमने उससे छेड़छाड़ कर दी, तो तुमने व्यवस्था खराब कर दी या खुद को मार डाला?
तुम उसी की पैदाइश हो। जब एक खास एटमाॅस्फ़ियरिक प्रेशर हुआ, एक खास टेम्परेचर (तापमान) हुआ, तो उससे इंसान खड़ा हुआ। तुम प्रकृति पर कहीं से भेजे नहीं गये हो। लोग इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं, ‘जब मैं इस दुनिया में आया।’ कोई मर जाता है, तो बोलते हैं, ‘अब वो दुनिया छोड़कर चला गया।’ कहाँ? तुम इस दुनिया में कहीं से आये नहीं हो, तुम इसी मिट्टी से उठे हो। और तुम इस मिट्टी से उठे हो क्योंकि यहाँ पर कुछ विशेष परिस्थितियाँ थीं। तुम उन्हीं परिस्थितियों से छेड़छाड़ कर रहे हो, तुम दोबारा मिट्टी हो जाओगे। तुम जिन परिस्थितियों की पैदाइश हो, तुम उन्हीं परिस्थितियों को ऑल्टर (परिवर्तित) कर रहे हो, बदल रहे हो।
कोई वजह है न कि पृथ्वी ग्रह पर जीवन है, मंगल पर नहीं है, क्या वजह है? कन्डीशन्स (परिस्थितियाँ)। कोई ऐसा थोड़े ही है कि कोई परमात्मा बैठा है जिसने कहा, ‘पृथ्वी मेरी पसंदीदा है, पृथ्वी पर ही जीवन होगा।’ ऐसा है क्या? कि किसी दूसरे लोक से कोई दिव्य गुलेल से परमात्मा ने मनुष्य को खींचकर फेंका और कहा कि इसमें जो मेरा सबसे प्रिय ग्रह है, वो पृथ्वी है, पृथ्वी पर ही जाकर लैन्ड (अवतरण) करे ये। ऐसा तो कुछ नहीं है। यहाँ कुछ परिस्थितियाँ हैं जिनसे इंसान निर्मित हुआ। तुम उन परिस्थितियों को बदल रहे हो।
अच्छा, यहाँ धूल-ही-धूल होती, तो इंसान होता? होता? जब इंसान यहाँ हुआ, तो धूल कितनी थी? एक्यूआइ (वायु गुणवत्ता सूचकांक) कितना रहा होगा? कुछ भी नहीं। किसी बहुत शान्त जगह पर चले जाओ, तो वहाँ पर एक्यूआइ एक से भी नीचे होता है। जब एक्यूआइ इतना कम था, तब जाकर के इंसान पृथ्वी पर निर्मित हुआ।
अब अगर एक्यूआइ तुमने पाँच-सौ का कर लिया है, तो वो हवा इंसान को अब जीने देगी क्या? ज़ाहिर सी बात है, नहीं, क्योंकि तुम्हारा सिस्टम ही डिज़ाइन्ड (निर्मित) है एक्यूआइ लेस देन वन (एक से कम वायु गुणवत्ता सूचकांक) के लिए, और उस सिस्टम को तुम एक्यूआइ ग्रेटर देन फ़ाइव-हन्ड्रेड (पाँच–सौ से अधिक वायु गुणवत्ता सूचकांक मान) दे रहे हो, वो सिस्टम तो खत्म होना ही है।
आपको मालूम है ये आँखें, चूँकि इंसान सबसे पहले अफ़्रीका में खड़ा हुआ था, आपकी आँखों को वृक्ष देखने ज़रूरी हैं, क्योंकि आप जंगल से अभी दो दिन पहले निकले हो। अगर इंसान सौ साल पुराना है, तो जंगल से वो बस अभी-अभी निकला है। अगर आप मानो कि इंसान की पृथ्वी पर कुल अवधि सौ वर्ष की है, तो जंगल से बस अभी-अभी निकला है। उससे पहले जंगल में रहता था।
जंगल में रहता था, तो आँखे क्या देखती थीं? आपकी आँखों को हरीतिमा देखना ज़रूरी है, और आपकी आँखें पढ़ने के लिए निर्मित भी नहीं हैं। बात समझ रहे हो? और आपकी आँखें डेढ़-सौ की स्पीड पर कुछ देखने के लिए बनी भी नहीं हैं। आप जो गाड़ी चलाते हो, वो आँखों के साथ अन्याय है, क्योंकि आँखें ऐसी हैं ही नहीं कि वो कुछ समझ पायें कि चल क्या रहा है। आँखें कभी नहीं चलीं। आपकी टाँगें कितना दौड़ सकती हैं? बीस, तीस अधिकतम गति। आँखें उतने में तो पता लगा लेती हैं, क्या चल रहा है, उसके आगे फिर आँखें जवाब देना शुरू कर देती हैं। टीवी देखने के लिए आपकी आँखें बनी ही नहीं हैं।
समझ में आ रही है बात ये?
इसमें से कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिनकी हम कुछ व्यवस्था कर सकते हैं। जैसे चश्मा लगा लिया, क्योंकि आप देखोगे टीवी, मोबाइल, आप किताब पढ़ोगे। तो ठीक है, चलो चश्मा लगा लो। लेकिन तापमान का क्या करोगे? बारिश का क्या करोगे? आप जलचर तो हो नहीं, पानी बढ़ आएगा, क्या करोगे? मनुष्य को तो प्राकृतिक रूप से तैरना भी नहीं आता। प्रकृति में जानवर होते हैं, जो तैरते हैं। वो खुद-ब-खुद तैरते हैं। उनका छोटा सा बच्चा डाल दो, वो तैर जाएगा। और जानवर होते हैं, जो नहीं तैरते हैं। वो पानी के आस-पास भी नहीं होते। ज़्यादातर जानवर जो होते हैं प्रकृति में, जंगल वाले, वो सब तैर जाते हैं। आपको पता है, भैंस तैरती है। आपको पता है, हाथी तैरता है। ये सब मस्त तैरते हैं। सोचो, हाथी तैरता है। पानी बढ़ आएगा, आप तैर लोगे? और वो थोड़ा-बहुत नहीं तैरते कि स्विमिंग पूल है, हाथी तैरकर अमेज़न (नदी) पार कर जाता है।
आप जो कर रहे हो, उससे समुद्रों का जल स्तर बढ़ेगा, ग्लेशियर पिघलेंगे, नदियों में भी बाढ़ आएगी पहले तो। आप क्या करोगे?
एक चीज़ और आखिरी इसमें। दुनिया में जितने जीव हैं, उनमें से मनुष्य प्राकृतिक रूप से सबसे असुरक्षित है, शारीरिक तल पर। हमारी खाल पर तो अब बाल भी नहीं होते। अगर मनुष्य द्वारा निर्मित व्यवस्था टूटती है चरमराकर, तो किसी भी अन्य प्रजाति से ज़्यादा मनुष्य को दुख होना है। बाकियों ने प्रकृति के ही भीतर अपने लिए व्यवस्था बना रखी है। इंसान अकेला है जो प्रकृति निर्मित नहीं, स्वरचित व्यवस्था पर अब आश्रित है।
आप नंगे पाँव चल सकते हो, दुनिया का एक-एक प्राणी नंगे पाँव चलता है। आप नंगे पाँव नहीं चल सकते अब। आप तो अब बिना ब्रश किये न जी पाओ, सिर में दर्द हो जाएगा। दुनिया का कोई प्राणी दाँत नहीं माँजता। आपके लिए प्रतिदिन नहाना ज़रूरी हो गया है, दुनिया में कोई प्राणी नहीं प्रतिदिन नहाता। आपको कहाँ से मिलेगा नहाने को पानी? जब पीने को पानी नहीं है, नहाने को कहाँ से पाओगे?
प्रकृति से दूर होकर हम शारीरिक रूप से सबसे असुरक्षित जीव बन गये हैं, और मानसिक रूप से भी। दुनिया की किसी प्रजाति में अवसाद, डिप्रेशन, मेन्टल् हेल्थ (मानसिक स्वास्थ्य) की उतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी मनुष्य में। आपने देखा है, आपको थोड़ी धूप लग जाए, आपकी खाल जल जाती है। और भैंसें तो दिन भर धूप में रहती हैं, वो तो नहीं जलतीं।
दुनिया के सब प्राणी अभी भी ऐसे हैं कि भूख बर्दाश्त कर लेते हैं। आपके लिए एक दिन का व्रत-उपवास इतनी बड़ी बात हो जाती है कि आप उसको भगवान से जोड़ देते हो। एक दिन नहीं खाया तो अब मुझे भगवत्प्राप्ति हो जाएगी। दुनिया के जितने जीव हैं, सबकी ज़िन्दगी ऐसे ही चलती है कि एक दिन खाया, दो दिन नहीं खाया। उनका चलता रहता है। आप कैसे जिओगे? बताओ।
और थोड़ी ऊँच-नीच हो जाए ज़िन्दगी में, तो हमें डिप्रेशन हो जाता है। बंदर को कभी देखा डिप्रेशन में? प्रलय जैसी स्थिति जब बनेगी, तो बाकी प्राणी किसी तरह अपना गुज़ारा कर लेंगे। आपका क्या होगा? और अगर वो मरेंगे भी, विलुप्त भी होंगे, तो दर्द सहकर मरेंगे, दुख सहकर नहीं। मर जाएँगे, खत्म हो जाएँगे, पर उनको ये नहीं होने वाला — एंग्ज़ाइटी, डिप्रेशन। आपका क्या होगा? न तो हमारा शरीर इस लायक है कि कुछ सह सके, न हमारा मन इस लायक है कि कुछ सह सके। हम पृथ्वी की सबसे कमज़ोर प्रजाति हैं। मोस्ट वल्नरेबल (सर्वाधिक असुरक्षित)।
पृथ्वी की एक चौथाई आबादी ऐसी है जो आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से मनुष्य द्वारा निर्मित दवाओं पर आश्रित है। एक चौथाई ऐसे हैं जो या तो एकदम ही ऐसे हैं कि दवाई न मिली तो उसी दिन मर जाएँगे या ऐसे हैं कि दवाई नहीं मिली तो धीरे-धीरे मर जाएँगे। ये आपकी फ़ेक्ट्रियाँ, अगर ये बाधित होनी शुरू हुई, दवाइयों की फार्मेसीज़ (औषधनिर्माण संयंत्र), आप जी लोगे? दुनिया का कोई प्राणी दवाइयों पर इतना आश्रित नहीं है, जितना मनुष्य। आप क्या करोगे?
कोविड (कोरोना) के दिनों में एक मामला आया था। एक आदमी पागल हो गया अपने बाल नोच-नोचकर, क्योंकि उसने ज़िन्दगी में कभी बाल नहीं बढ़ाये थे, दाढ़ी नहीं रखी थी। उसके बाल बहुत बढ़ गये, उसने नोचने शुरू कर दिये। कितना नोचेगा? वो सचमुच पागल हो गया। छोटी सी बात है पर सोच लो। प्रकृति से दूर जा-जाकर हमने अपनेआप को बहुत कमज़ोर कर लिया है, और अब तुर्रा ये कि हम बिना अपनी कमज़ोरियों को जाने, प्रकृति से और खिलवाड़ कर रहे हैं।
खाना तो हमको ऐसा लगता है जैसे बाज़ार में मिलता है। फसलें वैसे ही उगती रहेंगी, अगर तापमान ऊपर-नीचे हो गया तो? उत्तर भारत में आप फरवरी, मार्च, अप्रैल, मई में बारिश करोगे, तो खाने को क्या पाओगे? पर हमें लगता है, ‘नहीं, ये तो फ़ैक्ट्री प्रोड्यूस्ड (कारखाने में निर्मित) है, आटा।’ किसी बच्चे से पूछो, ‘आटा कहाँ से आता है?’ बोलेगा, ‘फ़ैक्ट्री से आता है।’ उसको पूछो, ‘खेत क्या होता है?’ बोलेगा, ‘जहाँ फ़ार्महाउस होता है।’ फसल उग लेगी, तापमान ऊपर नीचे हो गया?
तापमान ही नहीं होता, ये पहले ग्लोबल वार्मिंग (भूमण्डलीय तापवृद्धि) बोलते थे, अब क्लाइमेट चेन्ज़ (जलवायु परिवर्तन) बोलते हैं, फिर क्लाइमेट क्राइसिस (जलवायु संकट) बोलते हैं। सिर्फ़ वार्मिंग (तापवृद्धि) की बात नहीं है, उसमें प्रेसिपिटेशन (वर्षण) भी है और उसमें तमाम तरह के एक्स्ट्रीम वेदर इवेन्ट्स (चरम मौसमी घटनाएँ) हैं, सिर्फ़ वार्मिंग नहीं है।
रेन्फ़ॉल का पैटर्न (वर्षाचक्र) पूरी तरह से बदल रहा है। तुम क्या खाओगे, ये बता दो? प्रकृति का कुछ नहीं बिगड़ता। वो दूसरी प्रजातियाँ पैदा कर देगी, जो दूसरी चीज़ें खाती हैं। तिलचट्टे हैं, उनको बोलते हैं कि वो पत्थर भी खा लेते हैं। बोलते हैं, कहते हैं, न्यूक्लिअर वॉर (परमाणु युद्ध) भी हो जाए, तो तिलचट्टे नहीं मरेंगे।
हमारे लिए बहुत बड़ी चीज़ है दुबई वगैरह। बड़ी माँ के लिए क्या है? जैसे वो उतनी बड़ी हमने बीच की बात करी गुजरात से लेकर केरल तक, उस पर किसी बहुत छोटे बच्चे ने आकर इतना सा घरौंदा बना दिया है, वो दुबई है। अगर गुजरात से केरल तक की पट्टी को एक साझी लम्बी बीच मानो, तो उस पर दुबई ऐसी है जैसे किसी छोटे से बच्चे ने आकर इतना सा घरौंदा बना दिया हो। माँ की एक लहर आएगी, सब साफ़ कर देगी।
आपके लिए लगता है कि दुबई कि चेन्नई कि बम्बई बहुत बड़ी बात है, या कोई भी तटीय शहर हमारे लिए बहुत बड़ी बात है। प्रकृति के लिए नहीं है, कुछ भी नहीं। पर इंसान अपनी औकात भूल गया है। ये आत्मज्ञान की कमी से होता है।
आत्मज्ञान का मतलब ही है, अपनी औकात परखते रहना।
हम कह रहे हैं, ‘बड़ी माँ का भोग तो हम करते ही रहेंगे। बस भोग करने के हम ज़्यादा चतुर, चालाक तरीके निकाल लेंगे। रिन्यूएबल एनर्ज़ी, क्लीन-ग्रीन एनर्ज़ी (नवीकरणीय ऊर्जा, स्वच्छ-हरित ऊर्जा) और ये सबकुछ।’ इन सबके पीछे धारणा क्या है? ‘भोग कम नहीं करूँगा, हाँ, भोग करने के लिए मैं चालाकीपूर्ण तरीके निकाल लूँगा। भोग कम नहीं करूँगा, मैं अपनी एनर्जी रिक्वैरमेंट (ऊर्जा आवश्यकता) उतनी ही रखूँगा। बस मैं अब एक चालाक तरीका लेकर आ रहा हूँ, जिससे कार्बन एमिशन (कार्बन उत्सर्जन) नहीं होगा।’
कैसे नहीं होगा? किसको मूर्ख बना रहे हो? जिसको आप ग्रीन एनर्ज़ी बोलते हो, उसकी पूरी ओवर द लाइफ़ साइकिल कॉस्ट (जीवन चक्र लागत पर) लेकर के मुझे दिखा दो कि वो कैसे क्लीन है। आप दुबई की बात कर रहे हैं, दुबई में, दुबई माने यूएइ (संयुक्त अरब अमीरात) में और उधर आस-पास के जो सब अरब देश हैं उनमें आप अभी पढ़िएगा, पिछली गर्मियों की खबर है — कुछ गाँव, कुछ शहर ऐसे थे जिनको हमेशा के लिए अबेन्डेन (रिक्त) कर दिया गया है। कुछ ऐसे थे जिनमें थ्री डे वर्क वीक (तीन दिवसीय कार्यसप्ताह) करना पड़ा। अब उनमें तापमान इतना हो गया कि उनमें अब रहा नहीं जा सकता। उनको छोड़ दिया गया। वो पूरे श्मशान हो गये।
ये दुनिया के बहुत सारे शहरों का भविष्य है। पूरा ही छोड़ देना पड़ेगा। कोई बहुत गर्म हो जाएगा, कोई बहुत ठंडा हो जाएगा। कोई बर्फ के नीचे दब जाएगा, कोई पानी के नीचे आ जाएगा। कहीं हर समय तूफ़ान चल रहे होंगे, कहीं इतना सूखा पड़ रहा होगा कि वहाँ पीने का पानी नहीं मिलेगा, तो वहाँ रहेगा कौन? ये दुनिया के अधिकांश शहरों का भविष्य है।
अमीरों को फ़र्क नहीं पड़ता। वो कहते हैं, ‘कोई भी चीज़ कितनी भी कम हो जाए, इतना ही तो होगा न कि उसके दाम बढ़ जाएँगे। पानी बहुत कम हो जाएगा, हम दस-हज़ार रुपये में एक बोतल खरीदकर पी लेंगे। हम अमीर हैं।’
आप कह रहे हो कि जो एयर्पोर्ट था, वो सी-पोर्ट (बन्दरगाह) बन गया। अमीरों को फ़र्क नहीं पड़ता। उनकी बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ हैं, उनकी छत पर हेलीपैड हैं। वो कह रहे हैं, ‘हमें चलना ही कौनसा पब्लिक कन्वेनियेन्स (सार्वजनिक सुविधाओं) से है।’ जिसको हवाई जहाज़ बोलते हो, उनके लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट (सार्वजनिक परिवहन) है। बोलते हैं, ‘हम इस पर कहाँ चलने वाले हैं, हमारे घर की छत पर हेलीपैड है। हम सीधे वहाँ से जाएँगे, वहाँ थोड़े ही पानी भरा है।’ और सही बात है, वहाँ थोड़े ही पानी भरा है।
और जो उनसे भी ज़्यादा अमीर हैं, वो कहते हैं, ‘अरे, तुम छोड़ो हेलीकॉप्टर, मेरे पास रॉकेट है। मैं सीधे मार्स (मंगल ग्रह) में जाकर रहूँगा।’ वो एक मीम (मज़ाकिया वीडियो क्लिप) चलती थी न, ‘अरे, जल्दी-जल्दी करो, अभी मार्स भी तो तबाह करना है।’ आठ-दस बच्चे पैदा करो, दुनिया भर का कन्ज़म्प्शन (भोग) करो, अभी मार्स भी तो तबाह करना है।
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