हम लाख छुपाएँ प्यार मगर || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

Acharya Prashant

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हम लाख छुपाएँ प्यार मगर || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

आचार्य प्रशांत: उपनिषदों के जो उच्चत्तम श्लोक हैं वो कहते हैं कि वो अमृत से भी परे है। वो तो भूल में हैं ही जो कहते हैं कि साकार है, वो भी भ्रम में हैं जो कहते हैं निराकार है। वही उपनिषद् फिर ये भी कहते हैं कि द्वैत में जीने वाले तो पगले हैं ही, जो अद्वैत को पड़के हुए हैं वो भी ग़लतफ़हमी में हैं।

दो ही शब्द हैं जीवन में भी याद रखने लायक: भिन्न और परे। और इन दोनों में भी अगर एक को याद रखना हो तो परे। बियॉन्ड (परे) बियॉन्ड एंड बियॉन्ड। इसी परे होने को नेति-नेति भी कहते हैं। 'नहीं, ये भी नहीं इससे परे, नहीं ये भी नहीं इससे भी परे, नहीं ये भी नहीं इससे भी परे।' तुम जो ऊँचे-से-ऊँचा सोच सकते हो उससे भी परे। अरे जो तुम साधारणतया सोचते रहते हो उससे तो परे है ही, जो तुम असाधारण सोच ले जाते हो उससे भी परे है। क्योंकि जो कुछ परे नहीं है, वही तुम्हें फिर सत्य लगने लग जाएगा, उसी से चिपक जाओगे और वहीं पर तुम्हारा कष्ट शुरू हो जाएगा। ये ही याद रखना है बस ज़िन्दगी में, परे।

एक समय पर मैं एकदम जैसे गाया ही करता था, पाँच-सात साल पहले की बात है। ‘गते गते परागते।’ कि सिर्फ गमन ही काफ़ी नहीं है, गमन से आगे का गमन और फिर उससे भी आगे का। तुम जो कुछ भी सोच सकते हो उससे भी आगे का।

तो चेतना की तीन अवस्थाएँ बताएँगे फिर कहेंगे तुरीय , यानी तीन से आगे की। और फिर कहेंगे लो, हमने चौथी बताई, तुरीय, लोगों ने उसके बारे में भी कुछ कहानी कर ली। तो फिर कहते हैं ‘तुरीयातीत, तुरीय से भी आगे।’ अरे तुरीय से आगे कुछ कैसे हो सकता है? पर कहना पड़ता है, तुरीयातीत।

सच का तकाज़ा तो ये है कि सत्य को भी सत्यतीत कहना चाहिए, कि जो सत्य है वो भी सत्य से आगे का है। क्योंकि तुमने सत्य भी कह दिया तो उसको भी हम पकड़ कर बैठ जाएँगे, उसकी कोई छवि बना लेंगे, कुछ उसके बारे में किस्से कहानी कल्पना कर लेंगे, तो परे।

जो कुछ भी लगा कि समझ में आ गया है, यही कहो कि 'नहीं, सच्चाई इससे परे ही होगी। ये जो कुछ मुझे समझ आया है ये तो ठीक हो ही नहीं सकता, क्यों? क्योंकि मुझे समझ में आ गया भाई। अगर ये चीज़ सही होती तो मुझे समझ में कैसे आ जाती?' (अपने हाथ को बताते हुए; अर्थात शरीर) ये मैं हूँ, कोई भी ढंग की चीज़ मुझे समझ आ सकती है? तो अगर मुझे समझ आ गयी है तो वो चीज़ ही गड़बड़ होगी।

तो जो कुछ भी समझ में आया है, उसके बारे में विनम्रता रखकर कहिए ये सच्चाई तो हो नहीं सकती। ये सच्चाई नहीं हो सकती क्योंकि ये चीज़ समझ आ गई है। समझ नहीं, 'मुझे' समझ आ गई है। अह्म की पकड़ में जो आ गया, वो असली कैसे हो सकता है? तो बस बोलिए, परे। बियॉन्ड , बियॉन्ड। इसी बेयॉन्डनेस का नाम स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) है।

ये आपके पास नहीं है तो आप गुड़ की मक्खी हैं। गुड़ की मक्खी के पास परे कुछ नहीं होता। उसके पास क्या होता है? गुड़। उसको तुम बोलो ‘अरे इसके परे भी कुछ है,’ तो कहेगी ‘हट परे, मेरे लिए तो गुड़ है।’

कुछ और ज़िन्दगी में है ही नहीं पाने लायक। एक यही चीज़ होनी चाहिए बस। देख यहाँ रहे हैं, दिख लेकिन फिर भी कुछ और रहा है। एक बहुत अनजानी मंज़िल बसी होनी चाहिए आँखों में, एक मंज़िल जिसकी कोई छवि ही नहीं है, जिसका कुछ पता नहीं। जैसे कबीर साहब कहाँ की बात करते हैं?

प्रश्नकर्ता: अमरपुर।

आचार्य: हाँ, अमरपुर। कि बस में बैठे, उसने पूछा, 'जाना कहाँ है?' तो ऐसी बेखयाली में थे कि मुँह से निकल गया, 'अमरपुर!' फिर याद आया कि ये थोड़े ही परे है तो उसको बता दिया, 'ऋषिकेश जाना है।' पर जा भले ही ऋषिकेश रहे हों, मंज़िल अमरपुर है। कहीं भी जा रहे हैं, मंज़िल?

प्र: अमरपुर।

आचार्य: जहाँ भी जा रहे हैं उससे परे जाना है। जहाँ को जा रहे हैं वहाँ तो यूँ ही चले जा रहे हैं। कोई व्यवहारिक कारण है तो चले गए, लेकिन जाना तो कहीं और ही है। अमरपुर समझते हो न कौनसी जगह है? कौनसी जगह है? मतलब साहब (कबीर साहब) ने क्या बताया है अमरपुर के बारे में?

प्र: जहाँ कोई आवे न जावे।

आचार्य: जहाँ कोई आवे न जावे। वहाँ कोई आता नहीं, वहाँ से कोई जाता नहीं। वहाँ प्रवेश करना संभव नहीं है, वहाँ से बाहर निकलना भी संभव नहीं है। सब वहीं पर हैं जबकि वहाँ आजतक कोई पहुँचा नहीं। और?

प्र२: साँकर गली है।

आचार्य: हाँ, बहुत साँकर गली है। बहुत भीड़ में नहीं घुस सकते। ये नहीं कि पाँच इधर हैं पाँच उधर, आओ साथ में अमरपुर चलें। वहाँ तो एकदम अकेले हो कर जाया जाता है। और?

प्र३: जहाँ मैं नहीं हूँ।

आचार्य: हाँ। जहाँ रास्ता इतना संकुचित है कि मैं अपने साथ ‘मैं’ को भी नहीं ले जा सकता। वो अमरपुर है, परे। तुम्हें जहाँ भी जाना है उससे परे है।

आज बड़ी तरक्की हुई, आज मुझे कप मिला है (चाय का कप उठाते हुए)। कप समझ रहे हो? ख़ुशी है, लेकिन असली चीज़ इससे?

प्र: परे है।

आचार्य: परे है, ये याद रखना होगा। और ये बात असंतोष की नहीं हो सकती क्योंकि असंतोष सिर्फ उसी चीज़ को लेकर हो सकता जिसकी प्राप्ति की सम्भावना हो। छोटा कप मिला है बड़ा कप नहीं मिला, ये तो असंतोष की बात हो सकती है। पर कप मिला और वो नहीं मिला जो कपातीत है, तो ये कोई असंतोष की बात नहीं है। ये फिर सच्चाई की बात है। भई वो ऐसा नहीं कि मिला नहीं, वो मिल सकता ही नहीं।

इस भाव में जीना होगा। जो इस भाव में जीने लग गया, उसको एक ऐसा दर्द मिल जाता है जो ज़िन्दगी के सारे दर्द हर लेता है। आपके जितने भी कष्ट हैं, आपकी जितनी भी तकलीफें हैं, आपको क्या लगता है उनका इलाज ये है कि आपको कुछ सुख वगैरह मिल जाए? नहीं। आपको अपने दर्दों को मिटाने के लिए एक बहुत ख़ास दर्द चाहिए। वो ख़ास दर्द जिसको मिल गया उसकी बाकी सब तकलीफें हट जाती हैं। वो ख़ास दर्द यही है कि जो परे है, वो परे ही रह जाना है। उस तक पहुँचने का कोई उपाय ही नहीं।

पूरे श्लोक में बस यही याद रखना है। बाकी सब आपको भूल सकता है, भूल जाएगा ही, स्मृति हल्की चीज़ होती है। इसी बेयॉन्डनेस की गूँज रह जाए बस। ये नहीं है वो। ये नहीं है, ये भी नहीं है। और फर्क नहीं पड़ता कि क्या है सामने, वो नहीं है ये।

देखो, बहुत दुखी जीवन हो जाएगा अगर इतिहास में जो कुछ रहा है या भविष्य में जो कुछ हो सकता है, उसमें से किसी भी चीज़ को बिलकुल सर में चढ़ा लिया तो। विक्षिप्त हो जाओगे, जैसे दुनिया है। जब एकदम दिल लगा कर भी काम कर रहे हो, तब भी दिल लगा ना रहे।

अभी थोड़ी देर पहले यूट्यूब की बात कर रहे थे तो एक घटना याद आ जाती है। पिछले से पिछले साल जो हमारा चैनल है वो हैक हो गया था। तो मैं सत्र में था। बारह-एक बजे रात में सत्र ख़त्म हुआ। मैं कमरे में गया और लेट गया। एक-दो बजे का समय रहा होगा, और आँख बंद कर ली। फिर ये लोग मेरे पास आते हैं, बोलते हैं 'आचार्य जी, चैनल चला गया।' तो मैं आँख बंद किए लेटा था। इन्होंने बोला तो मैंने आँख खोली, फिर आँख बंद करी और सो गया। फिर अगले दिन सुबह उठा तो पता चला कि रातभर बोधस्थल में गहमा-गहमी बनी रही, होश उड़े रहे बिलकुल, तोते उड़े रहे, पैनिक (घबराहट) रही कि भई संस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण है वो चैनल, वो चला गया। मैं अपना सोया पड़ा था।

सुबह जब उठा तो ये (स्वयंसेवक) आकर बोले 'ये है वो है, ऐसा है वैसा है, और आप सोते रहे। आप उठे नहीं, आपको बताया भी तब भी।' तो मुझे थोड़ा संतोष हुआ, मुझे लगा थोड़ा बहुत तो फिर अध्यात्म मेरा रंग लाया है।

इसी चैनल की छोटी-छोटी चीज़ों के लिए मैं बहुत सतर्क रहता हूँ। अभी यहाँ आपके पास आने से पहले भी ये मुझे दे रहे थे कि वीडियो के शीर्षक दे दीजिए तो मैं शीर्षक दे रहा था और चीज़ें ला रहे थे। ये छोटा लिखा है, ये बड़ा लिखा है। ऐसे कर दो, वैसे दर दो।

दिन ही पूरा इन्हीं सब चीज़ों में बीतता है। चैनल को देखो। किताब आ रही है दो-तीन महीने में पेंगुइन (प्रकाशक) से तो उसको देखो, ये सब ही चलता रहता है। तो ज़िन्दगी पूरी उसी चीज़ को दे रखी है। जान, दिमाग, दिल सब उसी को दे रखा है, लेकिन फिर भी वो चीज़ इतनी कीमती नहीं हो जानी चाहिए कि छिन जाए तो तुम्हारी जान ही निकल जाए। वो छिन भी रही है, तो सो जाओ। ये बात बड़ी विरोधाभासी लगेगी। आप कहेंगे जब उसको इतनी कीमत दे रखी है कि दिनभर उसी में लगे रहते हो, तो फिर जब वो छिने तब तो कुछ टूट जाना चाहिए भीतर। जान ही निकल जानी चाहिए।

इसी महीन चीज़ को साधना है कि जो कुछ जीवन में करने लायक है उसको जान लगा कर करना भी है, और फिर भी ये याद रखना है कि ना दुनिया आखिरी चीज़ है और ना दुनिया में किया जा रहा कोई काम आखिरी है। तो यहाँ अपना जो भी धर्म है, कर्त्तव्य है उसको जान लगाकर निभाएँगे, लेकिन यहाँ सफलता मिले, असफलता मिले, उससे टूट नहीं जाएँगे।

सफलता कोई बहुत बड़ी चीज़ नहीं हो जानी है और असफलता से टूट नहीं जाना है। भीतर हमको पता है कि सच्चाई इस दुनिया की ऊँची-से-ऊँची चीज़ से भी परे है। यहाँ किसको बचे रहना है?

दुनिया में भौतिक रूप में न राम बचे रहें न कृष्ण, तो ये यूट्यूब चैनल कहाँ से बचा रह जाएगा? सबको जाना है तो एक दिन इसको भी जाना है। लेकिन ये कहने का ये नहीं मतलब है कि लापरवाह हो जाएँगे या उदासीन हो जाएँगे। जो अपना काम है करेंगे तो उसको पूरी जान लगाकर के। पूरी जान लगाकर करेंगे लेकिन उसके बाद ठीक हुआ, नहीं हुआ, जीते, हारे, सफल, असफल हुए, अरे तुम सोओ किन चक्करों में फँस रहे हो। चक्करों में गहराई से फँसना है और फँस कर भी फँसना नहीं है। ये किसी कलाकार का ही काम हो सकता है। वही कला सीखनी है। उसी का नाम अध्यात्म है।

जो घुसा ही नहीं डर के मारे चक्करों में—कायर। और जो चक्करों में घुसा और चक्करों में ही फँस गया, उसकी दर्दनाक मौत। आपको न कायर बनना है और न चक्करों में प्रवेश करके अपनी दुर्गति करानी है, आपको चक्करों में प्रवेश करना है और परे रहना है। मैं किसी चक्कर में फँसा हुआ नहीं हूँ। कालचक्र में रहकर भी कालचक्र से परे रहना है।

तो आज गानों की ही महफ़िल थी, तो पहले वो वाला गाना सुना गया। कौनसा? ‘लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है।’ फिर इधर आ रहे थे तो मैं गाडी में गाए जा रहा हूँ, गाए जा रहा हूँ। सत्र है उपनिषद् पर और गाना क्या गा रहा हूँ? ‘हम लाख छुपाएँ प्यार मगर दुनिया को पता चल जाता है, लेकिन छुप-छुपके मिलने में मिलने का मज़ा तो आता है। ये मीठा-मीठा दर्द मुझे जाने कैसे तड़पाता है, लेकिन छुप-छुपके मिलने में मिलने का मजा तो आता है।'

इसका मेरे लिए मतलब इससे परे है, पता नहीं इस पहाड़ी (स्वयंसेवक) को समझ में आ रहा होगा कि नहीं। क्या समझ में आ रहा था बता, क्या गा रहा था मैं? ये था, अनु थी। ये सोच रहे होंगे ये आचार्य जी, इनको जवानी छा रही है। जा रहे हैं उपनिषद् पर सत्र लेने और घटिया फ़िल्मी गाना गुनगुनाए जा रहे हैं, गाए ही जा रहे हैं, गाए ही जा रहे हैं।

तुम कुछ भी कर रहे हो उससे आगे का कुछ हो जो तुम्हारी करनी के केंद्र में रहे। हर गीत तुम्हें न जाने किसकी याद दिला जाए। न जाने किसकी क्योंकि उसे जाना जा ही नहीं सकता पर फिर भी गीत उसी की याद दिला रहा है। ‘हम लाख छुपाएँ प्यार मगर दुनिया को पता चल जाता है, लेकिन छुप-छुपके मिलने में मिलने का मज़ा तो आता है।’ तुम कहोगे, 'कहाँ उपनिषदों की ऋचाएँ और कहाँ ये घटिया फिल्मी गाने, क्या कर रहे हो?' तुम समझोगे ही नहीं। जो हमें याद आ रहा है वो इस गीत के बोलों से बहुत परे का है।

और ऐसे ही होता है किसी-किसी दिन। कोई भी ऐसे ही साधारण सा गाना होता है वो बिलकुल चढ़ ही जाता है उस दिन ज़बान पर, और लूप में चलता है। चलते ही जाता है, चलते ही जाता है, चलते ही जाता है। और फिर खुसर-फुसर करते हैं। कहते हैं 'ये देखो सठिया गए। रोमांटिक हो रहे हैं।' तुम्हें हमारे रोमांस का पता क्या?

दुनिया से भाग तो सकते नहीं, तो इसी के बीच में उसको (परमात्मा को) याद रख लेना है। तुम इसके बीच में फँसे हो, वो इसके परे है, और विकल्प क्या है? और कब याद करोगे उसको? जिस दिन तक आखिरी साँस नहीं ले ली, आप तो इसके बीच में ही फँसे हैं न, तो उसको याद भी कहाँ करना है?

और यही चीज़ साधनी है। हम यहाँ पर, वो इससे परे ‘ओ मेरे माँझी, अब की बार ले चल पार, मेरे साजन हैं उस पार।’ साजन उस पार हैं, हम यहाँ हैं, ऐसी हमारी गति है, करें क्या? वो परे हैं। वो दूसरे तट पर हैं, हम इधर हैं। मर सकते नहीं, मरने से कुछ होगा नहीं, जीना है ही तो जीने का तरीका सिर्फ यही है।

पचास तरीके लगा करके आपके दिमाग में यही बात डालने की कोशिश की जा रही है कि फँस मत जाओ, असली चीज़ परे है। लेकिन असली चीज़ परे है इसका मतलब ये नहीं है कि यहाँ हाथ-पर-हाथ रख कर बैठ जाना है। यहाँ जान लगा कर काम करना है। क्यों करना है फिर? जब वो परे ही है तो काम क्यों करना है? वो परे इसीलिए है क्योंकि हमने सही काम किया नहीं।

हम जिन दीवारों के पीछे हैं वो उन दीवारों के परे है, तो हमारे लिए एक ही सही काम हो सकता था न? वो दीवारें तोड़ना। हमने तोड़ी नहीं तभी तो वो परे है न। तो जीवनभर काम करूँगा, काम करूँगा, एक ही काम करूँगा। क्या? इन दीवारों को गिराने का। (पिछले प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए) आप कह रही थीं न अह्म वो इसी दीवार का नाम है। उसी के परे वो है। और यही फिर सार्थक कर्म है, एकमात्र सार्थक कर्म। हम इसीलिए पैदा हुए हैं।

आप इसलिए नहीं पैदा हुए हो, सुनने में ये बात चाहे जैसी लगे, कि आप बिज़नेस में बड़ी तरक्की कर लो। ये बात आपसे कोई कहता नहीं होगा तो विचित्र लग रही होगी, लेकिन हम सिर्फ-और-सिर्फ इसलिए पैदा हुए हैं कि ये दीवार गिरा सकें। बाकी आप जो कुछ भी करते हों, आपने कपड़े अच्छे खरीद रखे हैं, आपने घर बना रखा होगा, आपमें से कुछ लोग थोड़े ज़्यादा दौलतमंद होंगे तो उनके पास ये होगा वो होगा, हो सकता है कोई अपना हवाई जहाज़ रख केर घूम रहा हो। खिलौनेबाज़ी के लिए नहीं पैदा हुए हैं हम। ये खिलौनेबाज़ियाँ हैं।

हम इसलिए पैदा हुए हैं कि इस मुट्ठी को लोहा बना लें और हाथ को हथौड़ा, और दीवार गिरानी है। यही सार्थक कर्म है। अपनी ज़िन्दगी की सार्थकता सिर्फ इसी पैमाने पर नापिएगा: ये मुट्ठी हथौड़ा बनी कि नहीं बनी?

(अपनी मुट्ठी को बताते हुए) इसकी शक्ल देख रहे हैं न हथौड़े जैसी होनी चाहिए। ये इसलिए नहीं है कि इसमें क्रीम मलते रहो, इसको फौलाद बनाना है, इससे कुछ गिराना है क्योंकि साजन परे बैठा है।

जिससे मिलने को पैदा हुए हो वो दीवार के उस पार बैठा है, तुम यहाँ बैठ कर कोल्ड क्रीम मल रहे हो मुँह पर। किसके लिए? जिससे मिलना है वो तो उधर है, तुम इतना रंग-रोगन किसके लिए कर रहे हो? नहीं जी, यहीं पर बिलकुल ख़ूबसूरती निखार करके एकदम चाँद बने बैठे हैं चौदहवीं का। उस पार पहुँच जाओ, भले ही लहूलुहान हो कर, भले ही मर कर। जन्म इसलिए हुआ है।

समाज हमको बताता है कि आपका जीवन सफल हो गया अगर आपने एक अच्छा घर बना लिया। और अभी अगर आप तीस साल के ही हैं और आपने अपना घर खरीद लिया है तो आप सफल माने जाते हैं न? आजकल होने भी लग गया है ‘भई देखो, लड़का सिर्फ तीस का है और अपना फ्लैट (मकान) खरीद लिया है।’ ये सफलता है? क्या करेगा उसमें, अपनी कब्र बनाएगा? ‘ऐसा नहीं है, उसमें कमोड जगुआर (ब्रांड) का है।’ अरे प्यूमा हो, पाइथन हो, पैंथर हो, जैगुआर हो, उसमें हगना ही तो है न? इससे तुम्हारे जीवन को बड़ी सार्थकता मिल जाएगी?

मैं नहीं कह रहा हूँ कि उस पर काँटे बिछा दो और आसन रखो। इसमें जीवन की सफलता कहाँ से हो गई कि तुमने तीस साल में ही अपने लिए घर बना लिया? और मैं घर का विरोधी नहीं हूँ बाबा। मैं नहीं कह रहा हूँ कि आप फुटपाथ पर सोएँ, पर मैं इस मान्यता को चुनौती देना चाहता हूँ कि आप अपने-आपको सफल मानना शुरू कर देते हैं घर बना करके। घर बना लीजिए, रहने की चीज़ है। उसमें अपने लिए अच्छा कमरा रख लीजिए, उसमें दराज़ें होनी चाहिए, उसमें किताबें होनी चाहिए, बिलकुल ये सब ज़रूरी बातें हैं। पर घर बनाने से आप सफल थोड़ी हो गए, कि हो गए?

ये ऐसी सी बात है कि जो डगआउट होता है, पवेलियन, वो बहुत ख़ूबसूरत है और उसमें एक टीम बैठी हुई है पंद्रह रन पर ऑलआउट हो कर। लेकिन पवेलियन बहुत ख़ूबसूरत है, 'आहाहा!' और उसमें पाँच-सात चीयर गर्ल्स लगी हुई हैं और वो दनादन-दनादन नाच रहीं हैं। पिच (मैदान) पर क्या कर आए? पंद्रह रन पर ऑलआउट, और पवेलियन, 'क्या बात है! ताज पवेलियन।' ऐसे तो हम हैं।

घर अधिक-से-अधिक आपका बेस कैंप हो सकता है, बेस कैंप समझते हो? जहाँ आप युद्ध में थकने के बाद कुछ देर के लिए, आराम के लिए और उपचार के लिए आते हो। वहाँ इसलिए आते हो कि वहाँ से ठीक-ठाक होकर के बाहर निकलो और फिर घाव खाओ। या घर इसलिए होता है कि घर में आराम कर रहे हैं बल्कि अय्याशी कर रहे हैं? कहेंगे घर किस लिए है? अय्याशी के लिए।

कर्म, वर्क का कॉन्सेप्ट (सिद्धांत) हम समझते ही नहीं हैं। काम किसलिए है ये सोचने की हमको बचपन से मोहलत ही नहीं मिली, हमको बता दिया गया है कि जल्दी से अपनी शिक्षा पूरी कर लो, उसके बाद तुम्हारी नौकरी लग जाए तो तुम पैसे कमा लो, इसीलिए तो ज़िन्दगी है न?

वर्क माने यही तो होता है, *कैरियर*। कैरियर खा गया वर्क को। वर्क बिलकुल अलग चीज़ है और कैरियर तो जोकरई है। तुम जाकर पूछो न ऋषियों से कि 'आपका कैरियर बताइएगा?' पर यहाँ ऐसे-ऐसे कैरियरबाज़ घूम रहे है, वो कहेंगे 'गौतम बुद्ध की लिंक्डइन प्रोफाइल ? कुछ ख़ास करा नहीं इन्होंने क्या?' नहीं कैरियर बताओ न, बुद्ध का कैरियर बताओ? कुछ टैन्जिबल (जिसे इन्द्रियों से अनुभव किया जा सके) होना चाहिए। गौतम बुद्ध को तो विकिपीडिया पेज बनवाने में बड़ी दिक्कत आ जाएगी। कुछ टैन्जिबल तो है ही है। वो कहेंगे उल्लेखनीय नहीं है मामला, काहे? किसी अखबार ने नहीं छापा, और अखबार कैसे छापेगा जब तक कुछ टैन्जिबल तो हो न मतलब?

ये सब जो हमारी मूर्खतापूर्ण अज्ञानता है जीवन के प्रति उसका नतीजा है। हम समझते ही नहीं हैं कि इंसान पैदा क्यों हुआ है, इंसान चीज़ क्या है। वो पैदा किसलिए होता है, जीवन में उसे करना क्या चाहिए, हमें नहीं मालूम।

हमारे लिए जीवन का मतलब ही यही है, 'हाँ भई कैसे? खुशियाँ चल रही हैं न? हाँ खुशहाली है।' क्यों खुशहाली है? दुकान बढ़िया चल रही है। ये खुशहाली है, 'दुकान बढ़िया चल रही है।' ज़िन्दगी में सबसे बड़ी तकलीफ क्या है? 'बजट आया था। तीन प्रतिशत कर बढ़ा दिया।' क्या हो गया इतने प्रसन्न क्यों हो? 'वो इंटरेस्ट रेट (ब्याज दर) दस बेसिस प्वाइंट्स घटा दिया गया है।' ये दस बेसिस प्वाइंट्स पर बिलकुल प्रफुल्लित हो जाते हैं। दस बेसिस प्वाइंट्स समझते हो कितना होता है? कितना? शून्य दशमलव एक प्रतिशत। ये इतने पर पागल हो जाते हैं कि पता नहीं क्या हो गया, 'हाय हाय हाय हाय!' ये कुल इनकी ज़िन्दगी की कमाई है।

अपनी बात कर रहा हूँ, हम सबकी। किसी एक पर आक्षेप नहीं है। ये कुल हमारी ज़िन्दगी का निचोड़ है। क्या किया? यही किया, *दस बेसिस प्वाइंट्स*। शून्य दशमलव एक प्रतिशत बोलते हुए लाज आती है न कि बुरा सा लगेगा, शून्य दशमलव एक प्रतिशत पर इतनी उत्तेजना आ गई? तो बोलते हैं *टैन बेसिस प्वाइंट्स*। किसको बेवकूफ बना रहे हो? शून्य दशमलव एक प्रतिशत क्यों नहीं बोल सकते? क्योंकि दिख जाएगा कि कितनी ओछी बात पर उछल पड़ते हो, तो फिर बोतले हैं ‘*टैन बेसिस प्वाइंट्स*’। प्वाइंट वन थोड़े ही है, टैन है *टैन*।

प्र: आचार्य जी, आपने बताया कि अह्म के आगे दीवारें हैं।

आचार्य: नहीं, दीवारें ही अह्म हैं।

प्र: अच्छा दीवारें ही अह्म हैं तो उसको हमें तोड़ना है। और एक अहंकार होता है जो ईर्ष्या, लोभ और ये सब है। ये हमें पता चल जाता है कि कैसे बिहेव (बर्ताव) करें दूसरों के प्रति।

आचार्य: वो इन्हीं (दीवारों) के भीतर रहने का तरीका है, समझो। बाहर वो खड़ा हुआ है जिसके पास जाना है, हाँ? 'मेरे साजन हैं उस पार।' तुम्हें ईर्ष्या भी हो गई, तुम्हें नफरत भी हो गई तो किससे हुई है? बाहर वाले से जो परे है या किसी ऐसे से जो यहीं है?

प्र: बाहर वाले से जो परे है।

आचार्य: नहीं। बाहर तो है जो परे है, बियॉन्ड है, उसका तो कुछ पता नहीं, अज्ञेय है, उससे कैसे कुछ भी हो सकता है? तो जो कुछ भी आपको हुआ है वो किससे हुआ है?

प्र: यहाँ पर।

आचार्य: यहाँ वाले से, ठीक है? इनसे आपको नफरत हो गई है, ये आपको ठीक नहीं लगते, उससे आपको मुहब्बत हो गई है। नफरत हुई कि मुहब्बत हुई, आपका सारा ध्यान कहाँ सीमित रह गया?

प्र: यहाँ।

आचार्य: यहाँ रह गया। वो?

प्र: परे हैं।

आचार्य: वो भूल गया। यहाँ आप जो कुछ भी करते हो, अच्छा कि बुरा, प्यार या नफरत, ईर्ष्या या मोह। द्वैत का जो भी आप यहाँ खेल खेलते हो वो कुल मिला करके सिर्फ एक ही काम करता कि आपको यहीं पर वो घुमाए रहता है। जब आप यहाँ खेल खेल रहे हो, घूम रहे हो तो आप इसको (दीवार को) हथौड़े से तोड़ोगे कैसे, क्यों तोड़ोगे बोलो न? यहाँ पर तो आपका खेल चल रहा है, आप इसे तोड़ोगे क्यों?

प्र: अभी तो ये खेल ख़त्म हो गया न यहाँ पर?

आचार्य: कहाँ ख़त्म हो गया?

प्र: यहाँ पर ऐसा कुछ है ही नहीं अब।

आचार्य: बिलकुल चल रहा है, कहाँ खत्म हो गया? ख़त्म तो उस दिन होता है न जिस दिन सिर्फ वो ही याद रहता है। जब यहाँ का ही सब याद है तो खेल भी तो यहीं का चल रहा है। यहाँ का जो याद भी रखना है, किस दृष्टि से याद रखना है? इस दृष्टि से याद रखना है कि हथौड़ा यहीं की सामग्री से बनेगा।

तो, 'यहाँ जो मैं जाँच-पड़ताल भी करुँगी, इनसे पूछूँगी, उनसे पूछूँगी, इससे कुछ सीखूँगी, किस उद्देश्य के लिए? कि तुम मुझे सिखाओ हथौड़ा बनाना। ये दीवार यहीं की है, इसको तोड़ने की सामग्री भी यहीं की होगी, बताओ ये तोड़नी कैसे है? इस उद्देश्य के अलावा कोई और मतलब नहीं हो सकता मेरा यहाँ के लोगों से रिश्ता बनाने का। मुझे यहाँ घर थोड़े ही बसाना है, बच्चे थोड़े ही पैदा करने हैं यहाँ पर।'

अरे मैं कहीं फँस गया हूँ, मैं वहाँ बच्चे पैदा, अंडे देने लग जाऊँगा? ये कोई तरीका है। आप किसी फालतू जगह पर जाकर फँस गए, आप वहाँ बच्चे देने लग जाओगे? हम तो लेकिन ऐसे ही हैं। एक फालतू जगह फँसे हुए हो और वहाँ पर ‘आओ घोंसला बनाएँ।’

बड़ी दिक्कत हुई थी अभी बोध स्थल में। चिड़िया एक नन्ही, जाड़ों में उसने, ए.सी. का एक पैनल निकला हुआ था छोटा सा, वो अंदर घुस कर उसने वहाँ घोंसला बना लिया। अब गर्मियाँ आईं, ए.सी. चलाना है, वहाँ अंदर उसने घोंसला बना रखा है। ऐसे ही हम हैं, बिलकुल गलत जगह पर घोंसला बना लेते हैं। फिर वक़्त उसको तोड़ेगा।

बहुत कोशिश की कि उसको जैसा है वैसा ही बाहर निकाल लें। एजेंसी से बुलाया उसके मैकेनिक को भी कि भई इसको तोड़ो मत, निकाल लो किसी तरीके से बाहर। चिड़िया ने तो एक-एक तिनका ले जा कर, छोटी सी जगह थी, अंदर जाकर बना दिया था, पर वो छोटी सी जगह से वो समूचा बाहर आया ही नहीं, वो टूट गया। जानती हो फिर कितना मार्मिक दृश्य था? वो वहाँ से बाहर निकाल लिया, वो छोटा सा पैनल था वो वहाँ से मिसिंग था तो वहाँ पर इन लोगों ने लगा दिया टेप।

घोंसला बाहर निकाल दिया और वहाँ टेप लगा दिया कि दोबारा अंदर न जाए। अब चिड़िया जाकर के उस टेप पर बार-बार चोंच मार रही है। ये इंसान की कहानी है। वक़्त हमारे सारे घोंसले तोड़ देता है क्योंकि हमने घोंसले बनाए ही गलत जगह पर रखे हैं। वो चिड़िया बेचारी हवा में उस पर ऐसे-ऐसे कर रही है 'मेरा घोंसला कहा है! मेरा घोंसला कहाँ है?' उसमें कोई अंडे वगैरह थे नहीं तो उतनी गनीमत थी, लेकिन फिर भी उसने मेहनत से घोंसला तो बनाया ही था। और सोचो उसमें अंडे भी होते फिर?

ये (दुनिया) बसने की जगह नहीं है भई, यहाँ बसने का क्या खेल शुरू कर देते हो? खुद भी शुरू कर देते हो, अपने बच्चों के ऊपर भी चढ़ जाते हो। 'अब तू चौबीस की हो गई है। सेटल हो जा चल जल्दी से, सेटल हो जा।' कहाँ हो जाएँ सेटल बताओ? अभी हो जाते हैं! तुम मुझे दिखाओ यहाँ सेटल होने वाली जगह कौनसी है? कहाँ सेटल हो जाएँ, कैसे हो जाएँ?

मैं छोटा था तो पाँचवी-छठी में भूगोल में पढ़ाते थे। कभी आइसबर्ग (हिमशैल) बता रहे हैं, ग्लेशियर (हिमनद) बता रहे हैं, कभी आर्कटिक का बता रहे हैं। तो उसमें डेसेर्ट्स (रेगिस्तान) का बताते थे। उसी समय पर वो सब कि ये स्टलैगमाइट्स (पत्थर का आरोही विक्षेप) क्या होते हैं, सटेक्टाइट्स (पत्थर का अवरोही विक्षेप) क्या होते हैं बताते थे। भूगोल मुझे बड़ी अच्छी लगती थी। उसमें सैंड ड्यून्स (बालू के टीले) बताते थे, वो सैंड ड्यून्स भी कई-कई प्रकारों के होते थे: क्रिसेंट शेप्ड (वर्धमान के आकार का) होता है, ये होता है वो होता है।

सैंड ड्यून्स की प्रकृति क्या होती है समझते हो? क्या? आज है, और थोड़ी ही देर बार नहीं होगा। एकदम गायब हो जाएगा। बहुत बड़ा होता है, लेकिन वो जितना बड़ा है न, पूरा का पूरा गायब हो जाता है। तुम सैंड ड्यून पर जाकर के घोंसला बना रही हो? कहाँ सैटल हो जाएँ बताओ? यहाँ सिर्फ सैंड ड्यून्स हैं, किस सैंड ड्यून पर जाकर के घर बनाऊँ, बोलो? कि जैसे कोई बोले सागर की किसी लहर पर घर बना लो। किस लहर पर घर बसाऊँ, बताओ?

सागर का इस्तेमाल अगर करना भी है तो तट पर पहुँचने के लिए। तट पर पहुँचने ले लिए भी जानती हो न सागर की ही बॉयंसी (उछाल) का इस्तेमाल करती हो? अगर एकदम पानी न हो सागर में तो तट पर नहीं पहुँच पाओगी, वो किलोमीटरों गहरा है। सागर खाली हो जाए, उसमें पानी न रहे, तो आप कभी तट पर पहुँच पाएँगे? आप चार किलोमीटर नीचे होंगे। ख़त्म, खेल ख़त्म। वही सागर जिसमें आप डूब जाते हो, वही सागर जिस पर कुछ मूर्ख लोग बोलते हैं कि इस पर घर बना लो। उस पर घर नहीं बनाना है, उसी सागर का इस्तेमाल करना है पार पहुँचने के लिए। सागर की ही लहरों पर तैरकर तट पर आना है, लहरों पर घरौंदा नहीं बनाना है। ये हमें समझ में ही नहीं आ रही है बात बिलकुल। और ये बहुत फैसिनेटिंग (मुग्ध करने वाला) काम है। आपको क्या लगता है घोंसला बनाना ही बहुत उत्तेजना भरा और मनोरंजक और एंगेजिंग (व्यस्तता वाला) काम है? नहीं ऐसा नहीं है।

प्र: नहीं, नहीं वो तो मैंने सोचा ही नहीं।

आचार्य: घोंसला इसी तरीके का नहीं होता कि उसमें बच्चे दे दिए। घोंसला माने जहाँ कहीं भी तुम जा करके बस बैठ गए, चिपक गए। वो चाहे कुछ भी चीज़ हो सकती है, वो पैसा हो सकता है, शोहरत हो सकती है, कुछ भी हो सकता है, उसी का नाम घोंसला है। यहाँ ऋषिकेश में राफ्टिंग करी? उसमें भी कुछ मज़ा है कि नहीं है?

प्र: है।

आचार्य: वैसे ही सागर में अगर आप मीलों अंदर हों, और बहुत कम सहारे के साथ, आपको काम दिया गया है कि पहुँचना है तट तक, तो मज़ेदार काम है कि नहीं? यही ज़िन्दगी का मज़ा है, इसी को आनंद बोलते हैं। कि गलत जगह पर हूँ, गलत स्थिति में फँस गया हूँ लेकिन अब चुनौती को स्वीकारूँगा। क्या चुनौती है? यहाँ पर ही जो संसाधन उपलब्ध हैं इनका कुछ ऐसा इस्तेमाल करो कि बाहर निकल जाओ, क्योंकि और कहीं से तो कोई मदद मिल ही नहीं सकती। जो मदद मिलनी है इसी कमरे से मिलनी है। इसी कमरे के अंदर से मदद लो और दीवार ढहा दो और बाहर निकल जाओ। सागर से मदद लो सागर को पार कर जाने के लिए।

समझे, ऐसे जीना है। यही वर्क है। यही आपका असली कैरियर है, यहाँ कैरियर बनाएँ। ये दो-चार प्रमोशन ले लेने से कुछ नहीं हो गया, आप किस भूल में हैं?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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