प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, आज अवधूत गीता के बारे में पढ़ा तो पता चला कि उसमें तो गुण और निर्गुण दोनों से परे की बात की गयी है। पर जहाँ मैं हूँ, द्वैत में ही हूँ। तो मुझे अवधूत गीता कैसे मदद कर सकती है? मैं क्या सीख सकती हूँ, अवधूत गीता से?
आचार्य प्रशांत: बस यही कि द्वैत मैं फँसे रहना ज़रूरी नहीं है। द्वैत से आगे द्वैत से बढ़कर भी कुछ है या हो सकता है। क्या है द्वैत से आगे या क्या है गुणों से आगे इसकी बहुत परवाह मत करिए। मत पूछिए कि अद्वैत क्या होता है? अद्वैत में कैसे पहुँच जाऍं? गुणों से निर्गुण में कैसे जाऍं और फिर निर्गुण से भी आगे कैसे बढ़ें? ये सब प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण नहीं हैं।
आपसे जब भी बात की जाती है पार की, बियॉन्ड की वो इसलिए नहीं की जाती है कि आप पार या बियॉन्ड में पहुँच ही जाऍं। अपना जो गुणात्मक खेल है, जीवन है, इसको लॉंघ करके। लाँघना बहुत बाद की बात है। कौन जाने लाँघने जैसा कुछ होता भी है कि नहीं होता है।
हमारे लिए तो इतना ही काफ़ी है कि एक ख़याल भी आ जाए कि जिन चीज़ों में हम फँसे हुए हैं, जो चीज़ें हमें इतनी ज़्यादा ज़रूरी लगती हैं। जो बातें हमारी ज़िन्दगी ही बन गयी हैं, वो आख़िरी नहीं हैं, वो उच्चतम नहीं हैं, उनसे आगे भी कुछ है या हो सकता है, ‘क्या है उनसे आगे?’ हटाओ न ये बात! ये धारणा टूटी कि हम जो कुछ कर रहे हैं वही आख़िरी है, शीर्ष है, इतना ही कम है क्या? बोलिए?
आप फँस गये हों; मान लीजिए, इसी जगह पर जहाँ आप हैं। ठीक है? तो इतना ही काफ़ी है न कि आपको कोई आकर फुसफुसा दे कि खिड़की भी है, दरवाज़े भी हैं, पीछे अभी ट्रेन जा रही है, इतना हौसला काफ़ी होगा न? आयाम ही बदल गया। या आप पूछोगे कि वो ट्रेन जाती कहाँ को है या पूछोगे कि इस दरवाज़े से बाहर निकल जाऍंगे, तो बाहर का नक्शा क्या है?
वो सब सवाल बहुत बाद के हैं। आप कौन हो? क्या आप वो हो जो ट्रेन में बैठे हुए हो, जिसको ट्रेन सहजता से उपलब्ध है, नहीं। आप तो वो हो न जो यहाँ पर फँसे हुए हो। जो फँसा हुआ है, उसको इतना ही जानना पर्याप्त है कि फँसे रहना आवश्यक नहीं।
दरवाज़े के बाहर क्या है, वो बाद में देख लेंगे। ट्रेन में तुम्हें आरक्षित सीट मिलेगी या नहीं मिलेगी, बाद का सवाल है। ट्रेनें किन-किन दिशाओं में जाती हैं, उनमें कैसे-कैसे डब्बे होते हैं, देखा जाएगा। अभी के लिए क्या पर्याप्त है? कि फँसे रहना जरूरी नहीं है, भाई! कि दरवाज़े के बाहर भी दुनिया है। वो दुनिया कैसी है, क्या है, उसके नियम-क़ायदे क्या हैं, उसमें कहाँ हरियाली कहाँ बंजर है, उसमें क्या ऊँच है, क्या नीच है, ये बाद में देख लेंगे।
ये सवाल अभी तो प्रासंगिक ही नहीं है। उसमें डीज़ल इंजन लगा था या इलेक्ट्रिक इंजन क्या करोगे जानकर? अभी तो इतना काफ़ी है न कि ट्रेन एक उम्मीद है, एक किरण है। इन अन्धेरों से आज़ादी मिल सकती है। वो जानना कोई छोटी बात नहीं है।
वो जानना इसलिए छोटी बात नहीं क्योंकि हम सब इस गहरे भरोसे में रहते हैं कि हमारी दुनिया ही, दुनिया है। कि हमारे मन में जो चल रहा है, वही आख़िरी है, वही सच्चा है। कि हमें जो पता है, वही बात पूरी है। हमारा मन ही, हमारा जीवन है, हमारा जीवन ही हमारी क़ैद है।
तो इसलिए शास्त्र; चाहे अवधूत गीता हो, चाहे उपनिषद् हों, भगवद्गीता हो, ऋषियों की, सन्तों की बात हो। ये सब आपसे बार-बार किसी पार की बात करते हैं। कभी उसको भगवान कह देते हैं, कभी मुक्ति कह देते हैं, सत्य कह देते हैं। बहुत तरह के नाम देते हैं।
वो जिसकी बात की जा रही है, उसकी बात इसलिए नहीं की जाती कि आप उसकी एक कल्पना बना लें इसी क़ैद के भीतर बैठे-बैठे। हम यही करते हैं। आपके हाथ में अवधूत गीता आयी, आपसे निर्गुण की बात करी गयी, फिर आप से निर्गुणातीत की भी बात हो गयी उसमें। वो बात इसलिए की गयी थी कि आप प्रोत्साहित होकर अपने दरवाज़े तोड़ डालें, अपनी दीवारें ढहा दें। लेकिन हमने क्या करतूत कर डाली? हमने इन्हीं दीवारों के मध्य बैठकर के कल्पना कर डाली।
‘अच्छा, एक भगवान जी होते हैं, उनकी छवि बना लो। त्रिगुणातीत कुछ होता होगा, उसके बारे में कोई क़िस्सा बना लो। सबकुछ कर लो, सबकुछ किया जा सकता है, बस एक काम है जो नहीं करना है, क्या? यहाँ से बाहर नहीं जाना है, यहाँ बैठे-बैठे सारी सूचनाऍं हमको दे दो, हम सारे ग्रन्थ पढ़ लेंगे।’
छ: प्रकार के भगवान जी होते हैं। अट्ठारह प्रकार के अवतार होते हैं। चार युग होते हैं। किस युग में कौनसे अवतार आये थे, अगला कौनसा आने वाला है मुक्ति के सात तरह के रास्ते बताए गये हैं। बारह प्रकार की मुक्तियाँ होती हैं। सब ज्ञान ले लेंगे। मुक्ति के बारे में ज्ञान हम भरपूर ले लेंगे, कहाँ बैठे-बैठे? जेल के अन्दर।
ये गड़बड़ हो जाती है। शास्त्रकारों ने तो सोचा भी नहीं होगा कि हम इतने कुशल खिलाड़ी हैं कि उनकी बातों का भी कुछ दुरुपयोग सा कर डालेंगे। आप समझ रहे हो?
अरे, निर्गुण की ही कल्पना नहीं की जा सकती निर्गुणातीत की क्या कल्पना करोगे? तुरीय ही मन के बाहर है, तुम तुरीयातीत की क्या बात करोगे?
लेकिन निर्गुण की बात की जाती है, बार-बार की जाती है, बार-बार की जाती है, क्यों की जाती है? मैं शास्त्रों में कह रहा हूँ, क्यों बार-बार निर्गुण की बात की जाती है? ताकि आप गुणों के क़ैदखाने से बाहर झाॅंकने का हौसला बढ़ा पाओ। इसलिए निर्गुण की बात की जाती है।
ऐसा नहीं है कि आप बाहर झाॅंकोगे इस खिड़की से तो वहाँ निर्गुण खड़ा होगा। आपको मिल गया निर्गुण और वो आवाज़ मार रहा है, ‘निर्गुणिया-निर्गुणिया।’ कईयों को ऐसे मिल भी जाता है, वो बोलते हैं, हमें मिला है, हमें अनुभव हुआ है हम मिस्टिकल (रहस्यमय) प्राणी हैं, हमने बाहर झाँका था बाहर और दिखायी दिया था, निर्गुणिया।
कुछ नहीं है निर्गुण, निर्गुण की तो परिभाषा ही यही है, जो गुणों की पकड़ में नहीं आने वाला। गुण हमारे मन की सामग्री हैं। मन को जो कभी अनुभव ही नहीं हो सकता, उसको निर्गुण कहते हैं, जो प्रकृति से बाहर का है, सो निर्गुण। सारे गुण किसमें पाये जाते हैं? प्रकृति में। तो निर्गुण कहाँ से आपको दिख जाएगा, कहीं भी आप झाॅंकते रहो इधर-उधर, ऊपर-नीचे, कुछ भी करो।
निर्गुण एक तरीक़ा है, एक विधि है, एक उपाय भर है। आपको गुणों की जकड़ से छुड़ाने का, समझ में आ रही है बात? इसलिए बार-बार मैं बोलता हूँ कि सच के बारे में इतनी पूछ्ताछ मत किया करो। सारी पूछ्ताछ होनी चाहिए झूठ के बारे में। सच तो वास्तव में कुछ होता ही नहीं।
सच को लेकर के तो सरकार ही बोल गये हैं न? जिसके बारे में न सोच सकते हो, न समझ सकते हो, न छू सकते हो, न जान सकते हो, न कल्पना कर सकते हो, न बातचीत कर सकते हो, दीवार पर उसका चेहरा नहीं उकेर सकते, कागज़ पर उसका नाम नहीं लिख सकते।
उसका नाम सत्य है। तो सत्य तो कुछ होता नहीं तो फिर सत्य की इतनी बात की क्यों हो जाती है? ताकि झूठ से राहत मिल सके। और झूठ से राहत ऐसे ही नहीं मिल जाएगी कि सच का नाम जप लिया। वो बस एक उपाय है आपका उत्साहवर्धन करने का। आपमें थोड़ा विश्वास, श्रद्धा नहीं तो कम-से-कम विश्वास भरने का कि आवश्यक नहीं है, इस छोटे से जीवन को क़ैद में बर्बाद कर देना। आ रही है बात समझ में?
आपमें से कुछ लोग अभिभावक हैं, है न? आपके बच्चे हैं। बच्चा स्कूल नहीं जा रहा होता है, घर में ही पड़ा होता है, उसको घर में ही मामला जम गया है, बिलकुल। तो बोलते नहीं हो आज स्कूल जाओ। वहाँ एक ख़ास लॉलीपॉप मिलेगी या कुछ मिलेगा। बच्चा चला जाता है लॉलीपॉप नहीं मिलती। क्योंकि लॉलीपॉप कभी थी ही नहीं। लेकिन फिर भी लॉलीपॉप अपना काम कर गयी। भगवान या सत्य, वो लॉलीपॉप है जो है तो नहीं, पर बहुत उपयोगी है।
इसीलिए किसी पश्चिमी दार्शनिक ने कहा था कि अगर ईश्वर की सत्ता नहीं है तो मनुष्य को उसको आविष्कृत करना चाहिए। याद है न? इफ़ गॉड डज़ नॉट एग्ज़िस्ट, मैन मस्ट इन्वेंट हिम ( यदि भगवान मौजूद नहीं है तो मनुष्य को उसका आविष्कार करना चाहिए)।
क्योंकि उस लॉलीपॉप के बिना तुम घर से निकलोगे नहीं बाहर। भगवान के बिना तुम पृथ्वी से कभी उठोगे नहीं, पृथ्वी से मतलब समझ रहे हो न? क्या है पृथ्वी मतलब? यही जो ज़मीनी हरक़तें हैं हमारी, यही जो हमारा मिट्टी में कीचड़ में लोटना-लिपटना है।
हम इसी में पड़े रहेंगे अगर हमसे कोई आसमान की बात नहीं करेगा। आसमान में कुछ रखा नहीं है, पर ज़मीन से उठना ज़रूरी है। क्यों उठना ज़रूरी है? क्योंकि हम दुख पा रहे है। कीचड़ में लोटकर किसे सुख मिलेगा? क़ैद में जन्ज़ीरें बाॅंधे-बाॅंधे कौन आनन्दित रहेगा? इसलिए बात की जाती है, बाहर की, पार की, बियॉन्ड की। समझ में आ रही है बात?
तो उलझ मत जाइएगा, अभी आज आपको कुछ पढ़ने के लिए दिया गया है, कल भी दिया जाएगा, परसों भी दिया जाएगा। पढ़ने को भी कहा जाएगा, लिखने को भी कहा जाएगा। वो इसलिए नहीं है कि आपका ज्ञानवर्धन हो जाए कि आप यहाँ से जाऍं और कहें कि हम होशियार तो पहले ही थे, अब और होशियार होकर के आये हैं, हमने साहब! अवधूत गीता भी अब पढ़ ली है।
नहीं। हमें नहीं पता की होशियारी बढ़नी ज़रूरी है या नहीं। पर हम ये जानते हैं कि बन्धन कटने ज़रूरी हैं। गणित में ख़ासतौर पर कैलकुलस में; जिन्होंने कैलकुलस पढ़ा हैं वो तुरन्त समझेंगे। कई बार सवाल को हल करने के लिए ज़रूरी होता था कि एक हाइपोथेटिकल वेरिएबल (परिकल्पित चर) लाया जाए।
आपको इंटिग्रेशन (समाकलन) का कोई सवाल आ गया, ठीक है? अब वो पूरा (x) की टर्म्स (शर्तों) में है। पर उसको हल करने के लिए फिर हम कहते थे, Let y=x3/sinx और फिर वो जो पूरा एक्स्प्रेशन (व्यंजक) होता था। उसको हम वाई(y) के टर्म्स में कर देते थे। ठीक है न?
वो जब हमें दिया गया सवाल के तौर पर तो वो (x) की टर्म्स में था हम (y) को ले आते थे बीच में और हमने कुछ डिफ़ाइन (परिभाषित) किया। Let y=x3/sinx और अब वो हमने एक्स्प्रेशन (y) के टर्म्स में लिख दिया और वो हल हो जाता था।
ईश्वर वो (y) है, जिसकी कोई पृथक सत्ता नहीं है लेकिन उपयोगी बहुत है। वो सारी समस्याऍं हल कर देगा। आप ही ने उसको परिभाषित किया। आप ही ने कहा न Let y=x3/sinx आपने ही उसको डिफ़ाइन किया, लेकिन फिर वो जो काम करता है, वो बड़ा ज़बरदस्त है। समझ में आ रही है बात?
और उत्तर जो आता है वो (y) की टर्म्स में नहीं आता, कोई ज़रूरत ही नहीं है। (y) को तो हम बीच में लाये थे, (x) से सम्बन्धित किसी समस्या को सुलझाने के लिए। आख़िर में जब आप इंटिग्रेट (एकीकृत) कर लेते हो तो जो उत्तर होता है उसमें (y) कहीं होता नहीं।
(x) ही (x) है क्योंकि समस्या कहाँ थी? वो (x) से सम्बन्धित थी। तो समाधान होकर भी जब निकलेगा तो (x) ही उसमें होगा। बीच में लेकिन (y) आया उसने अपना काम किया सफलतापूर्वक और वो फिर विदा हो गया। ऐसे ही सत्य है, ऐसे ही ईश्वर है और ऐसे ही शास्त्र हैं। वो आते हैं, अपना काम करते हैं और चले जाते हैं, आपको समाधान के साथ छोड़कर के। आप बचते हैं और आपके समाधान बचते हैं।
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