हफ़्ते में 90 घंटे काम?

Acharya Prashant

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हफ़्ते में 90 घंटे काम?
जहां काम का मतलब सिर्फ़ पैसा और कामनाएँ पूरी करना है, वहाँ बिल्कुल ज़रूरी है कि काम के घंटे सीमित रखे जाएँ। अगर मामला loveless है, तो वर्क-लाइफ बैलेंस का कॉन्सेप्ट बिल्कुल एप्लीकेबल है, और दुनिया की ज़्यादातर आबादी अपने काम से नफरत करती है। सवाल यह है कि तुम्हारा काम एक दिली चीज़ क्यों नहीं हो सकता? काम आशिकी होती है। जो आदमी दिल से जिएगा, उसके काम में भी दिल होगा। उसके एक-एक कदम में दिल दिखाई देगा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। अभी हाल ही में भारत में एक डिबेट स्टार्ट हो गई है वर्किंग आवर्स को लेकर के। तो सबसे पहले एक साहब थे उन्होंने कहा कि भारतीयों को एक सप्ताह में कम से कम सत्तर घंटे काम करना चाहिए। फिर अभी कल ही मैं देख रहा था, ‘एक और बड़ी कंपनी है, उसके जो चेयरमैन है, उन्होंने अपनी एक इंटरनल मीटिंग में अपने एक एंप्लई को जवाब देते हुए बोला कि तुम तो सैटरडे (शनिवार) को काम करने पर प्रॉब्लम जता रहे हो। मेरा मन होता तो मैं तुमसे संडे को भी काम करवाता। और लोगों को तो नब्बे-नब्बे घंटे प्रति हफ्ता काम करना चाहिए।

और ये बात कहते हुए उन्होंने चाइना का उदाहरण दिया कि मैंने देखा कि चाइना के लोग जो है वो बहुत मेहनती होते हैं और वो मेरी एक चाइनीस प्रोफेशनल से बात हुई थी तो उसने कहा कि हम अमेरिका को पीछे छोड़ देंगे क्योंकि हम लोग तो नब्बे घंटे काम करते हैं और पचास घंटे काम करते हैं।

वो इस चीज पे बात करते-करते फिर एक थोड़ा सेक्सिस्ट रिमार्क भी ले आए थे। वो बोल रहे थे कि तुम घर पे बैठे-बैठे करते भी क्या हो? तुम कब तक अपनी बीवी का शक्ल देखोगे? कब तक बीवी तुम्हारा शक्ल देखेगी? इसलिए सीधे आके काम पर काम करो।

तो मैं आपसे समझना चाह रहा था कि ये वर्किंग आवर्स को लेकर के, मतलब हम कैसे समझें? क्या नंबर दें इसे?

आचार्य प्रशांत: नहीं, समझे क्या? जिस कॉन्टेक्स्ट में बात हो रही है, वहाँ एक तरफ एंप्लयर है और एक तरफ एंप्लई है। एंप्लयर को भी यह जो पूरा काम है उससे कोई प्रेम नहीं है। एंप्लयर भी उस काम को इसलिए करवाना चाहता है ताकि उससे उसको पैसे मिल जाए।

जो एंप्लयर है वो भी उस काम को करवाना चाहता है सिर्फ इसलिए ताकि मुनाफा कमा सके। और जो एंप्लई है वह भी वह काम बस इसलिए कर रहा है ताकि उससे वो सैलरी पा सके। तो कुल मिलाकर बात बस इतनी-सी है कि आप जब बिना प्रेम के काम करते हो तो आप अपना आउटपुट अपॉन इनपुट मैक्सिमाइज करना चाहते हो।

इनपुट माने कितने घंटे काम करा और आउटपुट माने कितनी तनख्वाह मिली। और ये जो इक्वेशन है जिसमें आप कहते हो कि पर्पस ऑफ़ वर्क इज टू मैक्सिमाइज आउटपुट अपॉन इनपुट। यह इक्वेशन बस एक लवलेस माहौल में काम करती है। अगर काम में प्यार आ गया तो फिर वहाँ दूसरी इक्वेशन चलती है। उसकी बात बाद में कर लेंगे।

पर ये अभी जितनी बातें हो रही हैं चाहे इनफ़ोसिस की हो रही हो, एल एंड टी की हो रही हो, चाइना का नाइन-नाइन-सिक्स है, वहाँ की बात हो रही हो। ये पूरा डिबेट ही चल रहा है। इस पूरे डिबेट में कहीं भी यह तो है ही नहीं ना कि काम चीज़ क्या होती है।

इस पूरे डिबेट में काम का एक ही मतलब होता है कि काम माने वह चीज़ जिससे पैसा मिलता है, सस्टेनेंस मिलता है, कामनाएँ पूरी होती है, एंबिशंस पूरी होती हैं वगैरह-वगैरह। तो इसीलिए इस पूरी डिबेट में तुमने कहीं पर यह देखा कि कोई वर्क की परिभाषा को लेकर आया हो कि कोई पूछ रहा हो कि हाउ डू वी डिफाइन वर्क, फर्स्ट ऑफ ऑल? यह किसी ने बात करी क्या?

क्योंकि वह सब इस बात पर एकमत है कि वर्क का तो मतलब होता है कुछ ऐसा जिसमें हाथ-पांव चलाने से पैसा मिल जाता है। आउटपुट है पैसा और इनपुट है हाथ-पांव चलाया मैं, माने कितने घंटे हाथ-पांव चलाया यह इनपुट है मेरा। कोई वर्क की परिभाषा बात भी नहीं करना चाहता।

तो हम चलो सबसे पहले उन्हीं की दुनिया में चले आते हैं और वहीं बात कर लेते हैं। फिर उस दुनिया से बाहर की भी कुछ बात कर लेंगे। वो दुनिया जिसमें काम बस इसलिए होता है कि उससे आप अपना घर चला सकें, पैसे ले आएँ ताकि उन पैसों से आप कुछ और खरीद सकें, कहीं जाकर के मस्ती मार सकें, अपनी हॉबीज पूरी कर सकें, शादी ब्याह कर पाएँ, बच्चों की फीस दे पाएँ।

जहाँ काम बस इसलिए होता है, वहाँ यह बिल्कुल ज़रूरी है कि काम के घंटे सीमित रखे जाएँ। और वर्क लाइफ बैलेंस का जो कांसेप्ट है, वह ऐसे एनवायरमेंट में, माहौल में बिल्कुल एप्लीकेबल है। क्योंकि भाई, वो वहाँ पर इसलिए थोड़ी आया है कि वह काम कर-करके जान दे देगा।

जो एंप्लई है उसने ऑफर लेटर इसलिए थोड़ी साइन किया है कि मैं नब्बे-नब्बे घंटे काम कर के वहाँ जान दे दूंगा। वह तो इसलिए आया है कि कम से कम काम करूं, इनपुट को मिनिमाइज करूं और आउटपुट को मैक्सिमाइज करूं। वो आया ही इसी नियत से है। हां, जो उसका नियोक्ता है एंप्लयर उसकी नियत बिल्कुल दूसरी है। वो कह रहा है मैं इससे ज़्यादा से ज़्यादा काम ले लूं। इसे कम से कम पैसे दूं। ज़्यादा से ज़्यादा इसके घंटे ले लूं मैं।

तो इसलिए यह एक कंफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट हमेशा होके रहेगा। जब भी कभी ये स्टेटमेंट्स आएँगे कि और ज़्यादा काम होना चाहिए और ज़्यादा काम होना चाहिए। वो या तो ओनर्स से आएँगे या सीईओ से आएँगे और जो आउटरेज मचेगी कि अरे! नहीं, नहीं इतना काम क्यों करा रहे हो? वर्क लाइफ बैलेंस कहाँ गया? बर्न आउट हो जाता है वो सारी एंप्लाइजस की ओर से मचेगी।

रेडिट हो, ट्वीटर हो, उस पे जाके अच्छे से देख लेना कि जो कोई कह रहा होगा कि यह तो गलत है और यह एक्सप्लॉयटेशन है और एक अपर लिमिट होनी चाहिए वीकली आवर्स पे कि इतने घंटे ही काम होना चाहिए या कि यह सब सीईओस जो यह इतने घंटे काम करने की बात कर रहे हैं यह तो शोषक हैं और नालायक हैं। उनका मज़ाक उड़ाया जा रहा हो या कुछ हो। वह सब एम्प्लाइज होंगे जो मज़ाक उड़ा रहे होंगे। क्योंकि यह उन्हीं के पक्ष की बात है कि मुझे कम से कम काम करने को मिले। कम से कम।

तो यह तो एक तरह का क्लास स्ट्रगल हो गया है। ये एक वर्ग संघर्ष है। एक वर्ग है जो अपना कम से कम काम करना चाहता है। दूसरा वर्ग है जो ज़्यादा से ज़्यादा काम लेना चाहता है। तो वो दोनों इस पर बात कर रहे हैं। लेकिन अगर आप यह भी चाहते हो कि जो आपका एंप्लई है उसकी प्रोडक्टिविटी मैक्सिमाइज हो और यह अभी मैं उसी लवलेस एनवायरमेंट के संदर्भ में बोल रहा हूँ। ठीक है?

अभी इसमें ये तो कहीं आया ही नहीं है कि वर्क माने सचमुच क्या? वर्क की परिभाषा क्या होती है? वो नहीं आया। अभी मैं एक जो जेनरल कॉर्पोरेट एनवायरमेंट है, मैं उसकी बात कर रहा हूँ।

अगर एक जेनरल कॉर्पोरेट एनवायरमेंट भी लोगे जहाँ हमें प्रोडक्टिविटी मैक्सिमाइजेशन करना है। तो अगर मामला लवलेस है तो ये बिल्कुल जरूरी है कि जो घंटे हैं वह अपर लिमिट कैप करी जाए। और वो अपर लिमिट पर एक सीमा: ‘कितने आप घंटे काम करोगे’ इसलिए नहीं लगती क्योंकि लोग गरीब हैं। जो जितना गरीब होता है उसका हाथ उतना ज़्यादा मरोड़ा जा सकता है।

तो इसीलिए आप पाते हो कि जर्मनी है, जापान है, नीदरलैंड्स है या स्केंडिनेवियन कंट्रीज हैं। ये सब इकत्तीस, बत्तीस, पैंतीस, छत्तीस घंटे, यहाँ पे आपको मिलेगा एवरेज जो वर्क वीक होगा हम बस ये इतना ही काम करते हैं हफ्ते में बत्तीस घंटा कहीं, छत्तीस घंटा कहीं। इनका इतना ही चलता है और जो गरीब देश होंगे भारत पाकिस्तान या जो और अभी विकासशील देश हैं: मेक्सिको हो गया, ब्राजील हो गए, ये लोग हो गए, इनमें जो एवरेज वर्क वीक पाओगे वो होगा पैंतालीस घंटे का।

इतना ही नहीं, भारत की आधी आबादी है जो पचास घंटे से ज़्यादा के वर्क वीक पर काम करती है और यह चीज़ आपको विकसित देशों में देखने को नहीं मिलेगी। यूके में, ब्रिटेन में, और जर्मनी, जापान में शायद जो ‘फोर डे वर्क वीक’ है उससे भी प्रयोग करके देखा गया और पाया गया कि नहीं साहब प्रोडक्टिविटी ठीक रहती है। छह घंटे का वर्क डे भी करके देखा गया कि दिन में छह घंटे काम करो। कहा प्रोडक्टिविटी ठीक रहती है।

चार दिन का वर्क वीक कर दो। वो इतना खुश हो जाता है कहता है अब तीन दिन मुझे मौज मारने को मिलेगी। तो वो बिल्कुल ड्योढ़ी ताकत से काम करता है चार दिन। क्योंकि वो अपने काम से नफरत करता है ना। जिस चीज़ से आप नफरत करते हो उसे आप जल्दी-जल्दी निपटा देना चाहते हो। जिस चीज़ से आप नफरत करते हो उसे आप जब पाते हो कि तीन दिन नहीं करना पड़ेगा तो आप बहुत खुश हो जाते हो। दुनिया की ज़्यादातर आबादी, अपने काम से नफरत करती है।

अभी दो साल पहले, फ्रांस में सिर्फ रिटायरमेंट एज दो साल बढ़ा दी गई। दस लाख लोगों ने मार्च निकाली। दस लाख लोगों ने मार्च निकाली। रिटायरमेंट एज सिर्फ दो साल बढ़ा दी गई थी। लोग बोले हम काम नहीं करना चाहते। हमें रिटायर होने दो। हमें जल्दी से पेंशन मिलनी शुरू हो। क्योंकि लोग अपने काम से नफरत करते हैं।

और अभी हम उसी माहौल की बात कर रहे हैं, ‘रिसर्च लैब्स में मालूम है क्या देखा जाता है?’ कि जब रिटायर होने का वक्त आता है तो जो वैज्ञानिक हैं वो कहते हैं अभी हम और काम करेंगे। किसी तरीके से हमारी रिटायरमेंट की उम्र बढ़ा दो, वो बहुत आतुर रहते हैं। रिटायरमेंट की जो उम्र होगी उनकी लैब में मान लो पैसठ साल है तो ऐसा तक देखा जाता है कि वो पछत्तर साल तक भी अपनी लैब में लगे हुए हैं।

और यह देखा जाता है कि जो निचले दर्जे के लोग हैं, जिनको उस काम में किसी तरह से कोई प्रेम हो ही नहीं सकता था; असिस्टेंट हो गए, टेक्नशियन हो गए, ये लोग हो गए; इनको जैसे ही रिटायर होने का मौका मिलता है, ये भागते हैं क्योंकि दुनिया के ज़्यादातर काम हैं ही ऐसे कि आप उनसे कोई प्यार कर ही नहीं सकते।

जब आप उससे प्यार नहीं कर सकते तो वहाँ आप एक ही चीज़ कर सकते हो कि बस किसी तरह आउटपुट इनपुट मैक्सिमाइजेशन हो जाए। और वो जो आप उससे इनपुट ले रहे हो मैं बिल्कुल मानता हूँ उसको एक सीमा में रखना जरूरी होगा, नहीं तो आदमी पागल हो जाएगा।

कारण बहुत साफ है। आप काम से क्या करते हो? नफरत। और आपसे कहा गया, ‘जिस काम से तुम नफरत करते हो वो काम तुम्हें हफ्ते में नब्बे घंटे करना है तो तुम क्या हो जाओगे?’ पागल हो जाओगे। तो इसलिए जरूरी है कि काम के घंटे रोक के रखे जाए क्योंकि दुनिया में ज़्यादातर लोग ऐसे कामों में फंसे हुए हैं जिनसे र्सिफ़ नफरत करी जा सकती है।

या तो नफरत या इनडिफरेंस, एपेथी, उदासीनता। जो काम आपको पसंद ही नहीं है उसको आप इतना ज़्यादा करोगे तो न्यूरोटिक हो जाओगे, बर्न आउट हो जाएगा, और प्रोडक्टिविटी भी आपकी डिप करने लग जाएगी। सब हो जाएगा। आपके लिए भी गलत हो जाएगा और आपके एंप्लयर के लिए भी गलत हो जाएगा।

इसीलिए दुनिया में जो विकसित देश है वो फिर नियम बनाते रहते हैं कि भाई किसी से एक हफ्ते में इससे ज़्यादा काम मत कराओ, नहीं तो पागल हो जाएगा क्योंकि उसे काम पसंद नहीं है। और काम होता है जीवन-साथी जैसा। जीवन साथी को तो आप फिर भी तलाक दे सकते हो और बहुत लोग शादी ही नहीं करते हैं। लेकिन कोई ऐसा नहीं होगा जो काम नहीं करता है। तो जितनी खराब हालत होती है एक गलत व्यक्ति के साथ विवाह में बंध जाने में, उससे ज़्यादा खराब हालत होती है एक गलत काम में बंध जाने में।

आप व्यक्ति के साथ बंध गए हो तो फिर भी उपाय है। संबंध-विच्छेद हो गया, भाई। तुम अपना देखो, हम अपना देखेंगे। है ही नहीं हम किसी के साथ। पर ऐसा तो कोई नहीं मिलेगा जो कहेगा अब मैं काम ही नहीं करता। काम तो करना पड़ेगा। किसी के साथ रहो चाहे ना रहो पर काम के साथ तो रहना पड़ेगा। तो जिसने काम गलत चुन लिया, जिसने काम ऐसा चुन लिया जिससे प्यार करा नहीं जा सकता, उसकी बड़ी दयनीय हालत है। और उसके लिए तो मैं कह रहा हूँ बिल्कुल ठीक है कि उसके काम के घंटे लिमिट करके रखो नहीं तो वो मर जाएगा।

और अब खौफनाक बात यह है कि दुनिया में हम कह रहे हैं, 'नब्बे से पंचानवे प्रतिशत लोग शायद और ज़्यादा लोग, ऐसे ही काम कर रहे हैं जिसमें उनका दिल नहीं है।' बिल्कुल। क्यों? क्योंकि तुम्हारी शिक्षा व्यवस्था ने उनको तैयार ही करा है। काम को बस आउटपुट अपॉन इनपुट के तौर पर देखने के लिए। तुम्हारे परिवार ने, तुम्हारी संस्कृति, तुम्हारे प्लेसमेंट ऑफिस, ये सब क्या बोलते हैं? गो एंड लुक फॉर अ मीनिंगफुल वोकेशन, ये बोलते हैं क्या? ये बोलते हैं गो एंड लुक फॉर द सीटीसी फिगर।

तो तुम वही देखते हो कि कितना पैसा मिल रहा है और तुम कहते हो उतना पैसा अगर बस हफ्ते में एक घंटे काम करके मिल जाए तो कैसा मज़ा आएगा। सोचो मेरे इतना बोलने भर से ना जाने कितनों की बांछे खिल गई होंगी कि जितनी सैलरी मिलती है उतनी ही मिले और हफ्ते में काम कुल एक घंटा करना पड़े तो कैसा मज़ा। क्यों? क्योंकि काम तुम काम के लिए कर ही नहीं रहे काम तुम सैलरी के लिए कर रहे हो और ये ज़िन्दगी जीने का सबसे घटिया तरीका है कि काम मैं करता हूँ कुछ और करने के लिए।

लोग कहते हैं वर्क लाइफ बैलेंस तो होना चाहिए ना। क्या करोगे? अच्छा घर जाकर के वर्क लाइफ बैलेंस होना चाहिए तो हॉबी परस्यू करेंगे। तुम्हारे हॉबी है, तुम्हें हॉबी से इतना प्यार है तो तुमने उस हॉबी को अपनी ज़िन्दगी क्यों नहीं बनाया? क्यों नहीं बनाया? तुम कहते हो, ‘नहीं मैं घर जाकर के क्वालिटी टाइम स्पेंड करूंगा अपने बीवी बच्चों के साथ।’ तुम क्वालिटी इंडिविजुअल ही नहीं हो। तुम क्वालिटी टाइम कैसे स्पेंड करोगे किसी के साथ?

तुम क्वालिटी इंडिविजुअल होते तो तुमने सबसे पहले क्वालिटी वर्क अपने लिए खड़ा करा होता ना। तुम आदमी ही ऐसे हो जिसने अपने आप को बेच रखा है। नौकरी में सीटीसी के चक्कर में यह बिका हुआ आदमी घर में क्या क्वालिटी टाइम स्पेंड करेगा? यह तो अपने बच्चों को भी बस बिकना सिखा देगा। और मैं इस आदमी की सेहत के लिए बिल्कुल कह रहा हूँ कि भाई, इससे ज़्यादा काम मत कराओ।

अधिक से अधिक चालीस घंटे, इससे हफ्ते में काम कराना। नहीं तो यह पागल हो जाएगा। मुझे तो बहुत दया है इसपे, मैं तो इससे और कम काम कराऊं। मैं जिनको देखता हूँ कि उन्हें अपने काम से प्यार नहीं है, मैं उनको सज़ा ये देता हूँ कि उनका काम कम कर देता हूँ क्योंकि उनको काम देना उन पर अत्याचार है। मैं कैसे किसी पर अत्याचार करूं?

काम मैं उसको देता हूँ जिसको काम से प्यार हो। और ये बड़ी अजीब बात है। इसको काम से प्यार होता है, मैं कहता हूँ, ‘और कर और कर और कर।’ प्यार तो अनंत होता है। तू और कर। और जिसका मुझे दिखता है कि नाक बहुत सिकोड़ रहा है, ज़्यादा हो गया, ये नहीं करूंगा वो नहीं करूंगा। हो नहीं रहा है। ऐसा मतलब, ‘छटो काम कम करो। छटह।’

अब यहाँ से हम आते हैं कि काम की परिभाषा क्या होनी चाहिए? बहुत लोगों ने तो यह जो रिकॉर्डिंग हो रही है यहीं तक देखनी ही बंद कर दी होगी। जैसे ही हमने कहा कि यह जो तुम वर्क लाइफ बैलेंस मांगते हो बस इसलिए मांगते हो क्योंकि तुम्हारी ज़िन्दगी में काम के लिए कोई प्यार नहीं है। वैसे ही बहुत लोगों ने कहा होगा, ‘नहीं ये तो बेकार की बात है। हम नहीं सुन रहे, हम नहीं सुन रहे। हम ठीक है।’ अब जब एक बार आदमी अपने आप को सीटीसी के लिए बेच दे, उसके बाद सच सुनना उसके लिए बड़ा मुश्किल हो जाता है।

काम क्या होता है? काम आशिकी होती है। काम वो चीज़ होता है जिसके लिए तुम कहो मैं पैसे देने को तैयार हूँ।

मैं पैसे देने को तैयार हूँ। यह तो छोड़ दो कि मैं सैलरी मांग रहा हूँ। कुछ मिल गया ऊपर से तो बोनस है, भाई। बहुत कुछ मिल गया ऊपर से तो ग्रेस है, भाई। अनुकंपा है, अनुग्रह है, ग्रेस है, कुछ और मिलता गया तो कोई दिक्कत नहीं है। आ रहा है वो पर जो मिल रहा है उसके लिए काम नहीं कर रहे।

काम के लिए काम कर रहे। काम इतना प्यारा है कि घंटे गिने कौन? हमें कैसे पता चले हमारा कितना आवर का वर्क वीक है। हमने कभी घंटे गिने ही नहीं। और गिनेंगे तो एक ही आंकड़ा आएगा चौबीस। क्योंकि दिन में चौबीस ही घंटे होते हैं। और चौबीसों घंटे हम आशिकी के अलावा कुछ करते नहीं। वही आशिकी हमारा प्यार हमारा काम बनकर सामने आ जाती है। हम कैसे बताएँ कि मेरे कितने आवर का वर्क वीक है? कैसे बताएँ?

और एक बात और बताऊं? ये मत सोचना कि ये सीईओ लोग जो कह रहे हैं कि और काम करो और काम करो तो इन्हें अपने काम से बहुत प्यार है। ना ना ना। अभी तो जो एंप्लई की तरफ से तो हमने बोला कि वो तो बेचारा बस आता है पैसे के लिए करने। तो वो यही कहेगा कि घंटे कम करो मेरे।

पर जो सीईओ और जो ओनर होते हैं जो बोलते हैं कि घंटे बढ़ाओ। वो भी घंटे इसलिए बढ़ाने को नहीं बोल रहे कि उन्हें बहुत प्यार है काम से। वो घंटे बढ़ाने को इसलिए बोल रहे हैं क्योंकि आम एंप्लई की तुलना में वो तीन सौ, चार सौ, आठ सौ गुना सैलरी उठाते हैं। जब इतनी सैलरी लोगे तो बिकना भी तो और पूरा ही पड़ेगा ना।

जो तुमको इतना दे रहा है वो इसलिए थोड़ी दे रहा है कि फ्री में तुम ऐश करो। जो तुम्हें इतने पैसे देगा हम जो एवरेज सीईओ जो कंपनसेशन है वो थ्री हंड्रेड इज टू वन है भारत में, और कुछ-कुछ कंपनियों में हज़ार इज टू वन से भी वो आगे का है। माने जो एवरेज एंप्लई सैलरी है और जो सीईओ सैलरी है उसमें हज़ार इज टू वन का रेश्यो है।

समटाइम्स एक्सीडिंग दैट। तो जो इतने पैसे लेगा वो तो करेगा ही काम तो वो क्या बता रहा है कि मैं बहुत काम करता हूँ। तू इतने काम नहीं करेगा तो तुझे बोर्ड लात मार के निकाल देगा। तू क्या बोल रहा है कि मैं रोल मॉडल हूँ। मैं इतना काम करता हूँ। चलो तुम सब भी करो। जितने पैसे तुम्हें मिलते हैं उतने तुम उनको भी दे दो तो वो भी करेंगे। उनको क्या बता रहे हो कि तुम्हें नब्बे घंटे काम करना चाहिए या एक सौ नब्बे घंटे काम करना चाहिए।

जितना तुम खाते हो उनको भी खिला दो। तो वो भी करेंगे। खुशी-खुशी करेंगे। ये सब तो रूखी ज़िन्दगी के अवसाने हैं। ये सब वही है कि काम इसलिए होता है कि पैसा आए। पैसा इसलिए होता है कि कंजमशन करेंगे। इसलिए गीता चाहिए होती है। वो बताती है कि क्या मौज है निष्कामता में कि जब कर्म इसलिए नहीं होता कि कर्म फल मिलेगा।

कर्म इसलिए होता है कि कर्म अपने आप ही ऊँची से ऊँची चीज़ है। क्यों ऊँची है? क्योंकि वो हमारे बोध से निकल रही है।

हम कुछ समझते हैं। हम कुछ जानते हैं। इसलिए हम कुछ करते हैं तो हमारे करने में फिर एक धार है, एक बात है, एक प्यार है। हम पीछे नहीं हटने वाले।

स्टार्टअप्स इतनी फेल होती हैं। हम जानते ही हैं बीस अगर स्टार्टअप्स होती हैं उसमें से उन्नीस फेल कर जाती हैं। वो फेल क्यों कर जाती हैं? इसलिए कि उन्होंने मार्केट सेगमेंट सही नहीं चुना था। उनका प्रोडक्ट खराब था। फंडिंग नहीं मिली। कुछ नहीं। ज़्यादातर स्टार्टअप्स फेल नहीं करती हैं। वो बंद करी जाती हैं।

क्यों बंद करी जाती है? क्योंकि वह शुरू ही करी गई थी बस मुनाफा खाने के लिए और दो-तीन साल हो गए। दिखाई दे रहा है कि उतना मुनाफा तो बन ही नहीं रहा जितनी की हवस थी तो बंद करो।

इस कंपनी में काम काम के लिए थोड़ी करा जा रहा है। काम परिणाम के लिए करा जा रहा है तो फिर काम से प्यार कैसे होगा? सारा प्यार तो परिणाम से है और यह चीज़ बचपन से ही डाल दी जाती है दिमाग में। मम्मी बोल रही है धनिया; छोटे को कि तू अगर बोर्ड टॉप करेगा तो मैं तुझे बहुत-बहुत प्यार करूंगी। माने प्रेम भी तुम्हें मिलेगा एक अकंप्लिशमेंट के तौर पर। वाह, बेटा वाह।

तो कहता है कि टॉप ही तो करना है ना। इसमें ये थोड़ी है कि मैंने कितनी गहराई से गणित पढ़ी कि इतिहास पढ़ा कि क्या पढ़ा। टॉप ही तो करना है। किसी भी तरीके से मैं टॉप कर जाऊं तो मेरा काम हो जाए। माने रिजल्ट फोकस। प्रोसेस फोकस नहीं मामला, लव फोकस नहीं मामला, हार्ट फोकस नहीं। बस किसी भी तरीके से आड़े तिरछे तरीके से एक रिजल्ट ले आ दो। तो रिजल्ट ही जब लाना है तो रिजल्ट जितने कम इनपुट में आ जाए उतना अच्छा भाई। उतना अच्छा।

तो हर आदमी लगा हुआ है कि वर्क फ्रॉम होम भी कर लूंगा और मेरा फोर डे वर्क वीक भी कर दो और तीस घंटे कुल काम करूंगा और मैं उनसे सहमत हूँ। मैं तो कह ही नहीं रहा कि इनके घंटे बढ़ाओ। मैं कह रहा हूँ इनके घंटे और कम कर दो। बेचारों की बड़ी दुर्दशा है। इन पर दया करो। इससे बड़ी सज़ा इनको क्या मिलेगी कि ये ऐसा काम कर रहे हैं जिसको ये चाहते नहीं। ये तो इतनी बड़ी सज़ा है। अब इनको काम पे बुला के और सज़ा काहे को दे रहे हो?

जिस आदमी को ज़िन्दगी में एक मकसद मिल गया हो पर्पस, उससे जाकर पूछना। तुम पाओगे कि उसकी कलाई में घड़ी तक नहीं बंधी हुई है। क्या दिन, क्या रात, क्या गुरुवार, क्या शनिवार, क्या इतवार, क्या यह महीना, क्या वो महीना, क्या गर्मी, क्या बरसात। वो तो डूबा हुआ है अपनी मौज में। गलती उस एंप्लई की नहीं है। गलती उस व्यवस्था की है। जो दिल पर नहीं, आंकड़ों पर चलती है।

तुम छोटे थे। तुमको कहा गया कि नंबर ले आ दो। नंबर एक आंकड़ा है। फिर तुमसे कहा गया कि बोर्ड में नंबर ले दो। वो भी एक आंकड़ा है। फिर तुमसे कहा गया एंट्रेंस एग्जाम में एक रैंक ले आ दो। वो रैंक भी एक आंकड़ा है। फिर तुमसे कहा गया कॉलेज में एक सीजीपीए ले आ दो। सीजीपीए भी एक आंकड़ा है। फिर तुमसे कहा गया प्लेसमेंट में एक सीटीसी ले आ दो। सीटीसी भी एक आंकड़ा है। उसके बाद कुछ लोग एंटरप्रेन्योर बन जाते हैं। उनसे कहा जाता है तुम आईपीओ ले आ दो और वो आईपीओ भी एक आंकड़ा है।

दिल तो कहीं है ही नहीं। आंकड़े हैं। आंकड़ों के पीछे आंकड़े खेल रहे हो। आंकड़ों का खेल तो फिर जो वर्क आवर्स हैं वो भी एक आंकड़ा ही है। तुम ऐसी आंकड़ों के पीछे लड़े रहो। इसमें ज़िन्दगी कहीं नहीं है। इसमें प्यार कहीं नहीं है। तो जिनको बिकी हुई ज़िन्दगी जीनी है मैं बिल्कुल सहमत हूँ। उनके लिए वर्क आवर्स बिल्कुल लिमिटेड होने चाहिए और उनके वर्क लाइफ बैलेंस का पूरा ख्याल किया जाना चाहिए।

लेकिन मैं साथ ही यह भी पूछ रहा हूँ कि आंकड़ों, पैसों के पीछे, सुविधाओं के पीछे बिकी हुई ज़िन्दगी जीना जरूरी है क्या? तुम्हारा काम हो, चाहे वो तुम्हारी नौकरी हो, चाहे वो तुम्हारा व्यवसाय हो, अपना व्यापार हो वो एक दिली चीज़ क्यों नहीं हो सकता? दिली चीज़ क्यों नहीं हो सकता? यह सवाल है।

सबके लिए सवाल है। और दिल से नहीं जी रहे हो तो जी भी रहे हो क्या? रोज सुबह ऐसा काम करने पहुंच जाते हो कि उठते हुए कोफ्त होती है। कार्ड स्वाइप करते हुए नफरत होती है। तो ये ज़िन्दगी है कि क्या है? और ये सब किस लिए? ये थोड़े से पैसे मिल जाते हैं महीने के अंदर। उनसे घर चल जाता है और खुश हो जाते हो। कुकर की सीटी बज गई मज़ा आ गया।

पश्चिम में बड़ा रोचक चल रहा है हिसाब किताब। अब लाइफ एक्सपेक्टेंसी बढ़ती जा रही है। मजेदार किस्सा है। ध्यान से सुनना। लाइफ एक्सपेक्टेंसी बढ़ती जा रही है। ठीक है? और बर्थ रेट कम होता जा रहा है। ठीक है? और मॉर्बिडिटी भी कम होती जा रही है। मॉर्बिडिटी माने बीमारी। बीमारियों के भी इलाज आ रहे हैं। तो मतलब यह है कि बूढ़े लोग बहुत लंबा-लंबा जी रहे हैं। बूढ़े लोग बहुत लंबा-लंबा जी रहे हैं। और बीमार है नहीं। और रिटायर साठ में हो गए थे। और जिएंगे नब्बे तक और साठ से नब्बे के बीच में भी हट्टे-कट्टे हैं।

अभी वहाँ और बर्थ रेट कम हो गया है, तो जवान लोग हैं नहीं। लेकिन, यह जो बूढ़े थे, यह साठ में ही रिटायर हो गए, तो अब इकॉनमी में प्रोडक्शन कौन करे? जवान लोग हैं नहीं। बूढ़े साठ में रिटायर हो गए पर जिएंगे अभी लंबा। तो बूढ़ों के ऊपर यह आ रहा है कि भैया, और काम करो। सत्तर की उम्र तक काम करो। तो एक ओपिनियन यह बड़ा पश्चिम में निकल के आ रहा है कि भाई, यह जो एजिंग रिसर्च वगैरह हो रही है, इसकी जरूरत ही नहीं है।

अगर ज़्यादा जीने का मतलब यह है कि ज़्यादा काम करना पड़ेगा, तो हमें ज़्यादा जीना ही नहीं है। लोगों को अपने काम से इतनी नफरत है कि कह रहे हैं कि अगर एक एक्सटेंडेड लाइफ स्पैन का मतलब यह होगा कि हमारी रिटायरमेंट एज भी आगे को पुश होगी तो हमें एक्सटेंडेड लाइफ स्पैन मत दो। हम ज़्यादा नहीं जीना चाहते। पर हम काम नहीं करेंगे। हम जल्दी मर जाए स्वीकार है पर ये काम मत कराओ क्योंकि हम इस काम से घृणा करते हैं।

एक सर्वे हुआ था। ब्रिटेन में हुआ था। उसके तुम डिटेल्स खोज लेना। उसमें मैं समझता हूँ बहुत बड़ा प्रतिशत था, शायद चालीस, शायद साठ, या सत्तर, वो जो ब्रिटिश एंप्लाइज थे वो कह रहे थे कि ‘वी कंसीडर आवर जॉब एस आइदर फ्रिवलस ऑर रिडंडेंट। अब ये आदमी तो कहेगा ही ना कि भाई, मुझसे ज़्यादा काम मत कराओ। और चूंकि उनका काम फ्रिवलस है, ट्रिवियल है, रिडंडेंट है तो इसीलिए अब और एक नया भूत खड़ा हो गया है ‘एआई’ के नाम से।

क्योंकि तुम्हारा काम ही ऐसा है जो कोई और कर देगा। तुमने दिल से कुछ किया होता तो एआई तुम्हारी जॉब नहीं छीन सकता था क्योंकि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को रियल लव नहीं आता है। एआई को कुछ भी आ जाए प्यार तो नहीं आ जाएगा ना। तुम अपने काम में वो चीज़ डालते होते जो सिर्फ एक इंसान डाल सकता है, 'अ ट्रांसेंडेंटल क्रिएटिविटी' तो एआई तुमको आसानी से रिप्लेस नहीं कर सकता था। पर तुम्हारा काम है ही बस ऐसा पेपर पुशिंग। तो अब तुम रोते हो कि एआई मेरा जॉब छीन लेगा।

कोई नर्क नहीं होता है। एक सड़ा हुआ ऑफिस ही नर्क है। और उस सड़े हुए ऑफिस को पूरा कर देता है, ऑफिस के बाद जब आते हो तो एक सड़ा हुआ घर। और कौन-सा नर्क होगा? ऑफिस ऐसा है जहाँ तुम गए हो बस किसी तरीके से कुछ पैसे पाने के लिए और घर ऐसा है कि जहाँ तुम आते हो बस वो पैसे खर्च करने के लिए और क्या नर्क होता है? सैलरी के लिए काम करते हैं। अच्छा, महीने में कितने दिन सैलरी मिलती है? एक दिन मिलती है। तो बाकी उंतीस दिन कैसे जीते हो बेटा?

सैलरी तो एक ही दिन मिलती है। बाकी उंतीस दिन क्या करते हो? सैलरी का इंतजार सैलरी डे पर बार-बार अपने बैंक अकाउंट को रिफ्रेश करते हैं। अभी आई कि नहीं आई? क्या? बहुत खुश हो जाते हैं। चार प्रतिशत हाईक मिल जाए तो। अरे मैं कह रहा हूँ इसके वर्क आवर्स एकदम ही कम कर दो। यह बेचारा तो जानता भी नहीं है कि जो इसे आउटपुट भी मिल रहा है सैलरी के तौर पर वह भी दिन-बदिन सिकुड़ता जा रहा है।

ये जितने लोग कह रहे हैं कि वर्क आवर्स बढ़ा दो, ये सब कैपिटलिज्म के बेनिफिशयरीज हैं। और कैपिटलिज्म में जो ट्रिकल डाउन इफेक्ट होता है ना उसमें वेल्थ नहीं ट्रिकल डाउन करती। उसमें पावर्टी ट्रिकल डाउन करती है। तुम्हारी सैलरी बढ़ी साल में कितने परसेंट? पांच परसेंट और तुम खुश हो गए नाचने लग गए। उसकी सैलरी कितनी बढ़ी स्टॉक ऑप्शंस के साथ? उसकी बढ़ गई अस्सी परसेंट। हाँ, तो बताओ तुम अमीर हुए कि गरीब हुए? तुम और गरीब हो गए।

बात सिर्फ इस नॉमिनल टर्म्स में नहीं कि मैं रिलेटिवली गरीब हो गया। उसके पैसे इतने बढ़ गए हैं कि अब वो जिस भी चीज़ को खरीदेगा उसके दाम बढ़ा देगा। तुम्हें भी अपने बच्चे को स्कूल भेजना है। वो जो ऊपर बैठा हुआ है कैपिटलिज्म का बेनिफिशयरी वो भी अपने बच्चे को स्कूल भेजेगा। स्कूल में सीटें लिमिटेड हैं। तो वो जो लिमिटेड सीट्स हैं उनको तो ये ऊपर वाले ही भर देंगे मोटी-मोटी फीस दे के।

अब तुम भी चाहोगे कि मुझे भी अपना बच्चा पढ़ाना है। तो तुमसे भी तो वही फीस मांगी जाएगी ना जो फीस वो ऊपर वाले अफोर्ड कर सकते हैं। वो ऊपर वाले अफोर्ड कर लेंगे क्योंकि उनकी सैलरी अस्सी परसेंट बढ़ी है। पहले भी ज़्यादा थी और अस्सी परसेंट बढ़ भी गई। और तुम्हारी बढ़ रही है बस पांच परसेंट तुम कैसे अफोर्ड कर लोगे?

जिसके पास ज़्यादा से पैसा आ रहा है वो हर चीज़ के प्राइसेस बढ़ा रहा है। चाहे वो होटल के रूम हो, चाहे वो लैंड के प्राइसेस हो, चाहे वो स्कूलों के फीस हो, वो हर चीज़ के चाहे वो हॉस्पिटल के चार्जेस। वो हर चीज़ के प्राइसेस बढ़ा रहा है और तुम्हें और गरीब कर रहा है।

लेकिन तुम गिनते हो देखो मेरी सीटीसी। यह पूरी डिबेट ही फ्रिवलस है। कितने घंटे काम, कितने घंटे नहीं काम। दोनों ओर जो लोग बात कर रहे हैं दोनों ही कैदी हैं एक शोषक व्यवस्था के। जो कह रहा है घंटे बढ़ाओ वह भी कैदी है। जो कह रहा है घंटे नहीं बढ़ाओ वह भी कैदी है।

आज़ादी तो आशिकी में है। वह दोनों में से कोई जानता नहीं। दोनों के लिए आज़ादी का यह मतलब है कि वीकेंड पर जाकर गोलफ खेल आए। यह आज़ादी जो हफ्ते में दो घंटे के लिए मिलती है, इसको आज़ादी कहूँ कि जेल? जेल के कैदियों को भी दो घंटे की आज़ादी तो मिल ही जाती है।

कबीर साहब का है-

प्रेम मगन जब मन भया कौन गिने तिथि वार।

जब प्रेम में मन मगन हो जाता है ना तो तिथि और वार माने दिन ये नहीं गिने जाते। लेकिन जिनके पास प्रेम नहीं है मैं कह रहा हूँ उनको तो जरूर गिनना चाहिए और उनको बिल्कुल गिनना चाहिए कि पैंतीस घंटे से आधा घंटा काम नहीं। उनको तो मैं कह रहा हूँ पहले इतनी सज़ा मिल रही है। लवलेस लाइफ जी रहे हैं। उनको और सज़ा क्यों देते हो उनसे काम करा करा के?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बहुत बार जो हमारे साथी गीता सत्र से जुड़े हुए हैं, वो ये प्रश्न करते हैं और लगभग शिकायत सी करते हैं कि हम लोग आचार्य जी की तरफ जब आए थे तो जीवन में एक तरह की शांति चाहते थे क्योंकि हमारा जो मन था, उसमें बहुत सारी फालतू के विचार भरे हुए थे। पर जब आचार्य जी के पास पहुंचे तो जीवन के ऐसे पड़ाव पे पहुंचे कि उस समय, हम लोगों ने एक तरह की व्यवस्था में जीना शुरू कर ही दिया था और धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि वो व्यवस्था गलत है और उससे बाहर निकलने की जरूरत है।

पर ये जो विचार ही भर होता है, ये अपने आप में और ज़्यादा एंग्जाइटी और टेंशन बढ़ा देता है। तो वो फिर पूछना चाहते हैं इस तरह से कि जो सही काम है वो भी कहीं ना कहीं लगता है कि बहुत ज़्यादा स्ट्रेस देता है। एंग्जाइटी देता है। तो क्या वो सही है?

आचार्य प्रशांत: सही काम से स्ट्रेस नहीं मिलता है। अपने लालच से मिलता है। बिल्कुल पसीने छूटने लग जाते हैं। कहते हैं कि अरे अगले महीने से इतने लाख नहीं मिलेंगे क्या? सही काम स्ट्रेस नहीं देता। बुरे काम के छूटने का डर स्ट्रेस देता है। सही काम कैसे स्ट्रेस देगा? वो तो सही काम है। उसमें क्या स्ट्रेस है? डर बस यह है कि तमाम तरीके की हवस बैठा ली है। अपने कॉस्ट स्ट्रक्चर्स खड़े कर लिए हैं।

इतना पैसा इस चीज़ में तो खर्च करना ही है। इतना पैसा उस चीज़ में तो खर्च करना ही है। बुरा काम ऐसे ही थोड़ी आता है। वह सीटीसी ले आता है ना तो सीटीसी के छूटने का डर लगता है और कोई बात नहीं है। और सीटीसी कोई नहीं खाता। उस सीटीसी से जो सुविधाएँ भोगते हो उनके छूने का टेंशन हो जाता है। सुविधाएँ छूट जाएँगी।

सुविधाएँ, क्या सुविधाएँ हैं? कुछ भी नहीं। सुविधाएँ ये है कि साधारण बाथरूम मिल जाएगा। अभी कौन-सा अभी जैकूज़ी वाला है। बड़ा टेंशन हो गया। हार्ट अटैक हो रहा है। हाय, हाय, हाय मेरा जैकूज़ी छूट गया। क्या स्ट्रेस है कि ये साधारण टीवी है। अभी मान लो कितने इंच का टीवी है ये? कितने इंच?

कुछ हो गया इंच जो भी है। हाँ। कितने? चालीस इंच का टीवी है। अब उनके पास अरमान है कि चार सौ इंच का टीवी खरीदना है। अब पसीने छूट रहे हैं कि चार सौ इंच का टीवी कैसे आएगा? पूरी दीवार टीवी से भर जाए, ऐसा बड़ा टीवी लाना है। वो आता भी है बाजार में। इस बात पे पसीने छूटते हैं।

जिन चीज़ों की तुम्हें सचमुच कोई जरूरत नहीं तुम उन चीज़ों की आदत डाल लो, उसके इर्द-गिर्द तुम एक कॉस्ट स्ट्रक्चर खड़ा कर लो फिर बोलो कि मैं तो अब मजबूर हो गया। मैं साफ-सुथरी सही ज़िन्दगी कैसे जिऊं? मेरे ऊपर तो लायबिलिटीज़ है कौन सी लायबिलिटी है? क्या लायबिलिटी? नहीं लायबिलिटी ये है कि मुझे हज़ार स्क्वायर मीटर के प्लॉट में अपना किला खड़ा करना है। ये मेरी छोटी-सी आशा है। और क्यों खड़ा करना है? क्योंकि पता है नहीं खड़ा करेंगे तो बीवी भाग जाएगी।

बीवी क्यों भाग जाएगी? क्योंकि बीवी को तुमसे प्यार तो है नहीं ना। न तुम्हें बीवी से प्यार है। बीवी भी तुम्हारे साथ इसी लालच में बैठी हुई है कि एक दिन वो मैंशन बनेगा। वो उस मैंशन की रानी बनेगी। तो इसलिए तुम्हारे लिए जरूरी है कि घटिया नौकरी भी करते रहो सीटीसी के लालच में। घर में बच्चे इज्जत देना बंद कर दें। बाप बेरोजगार हो जाए तो। क्यों? क्योंकि तुमने बच्चों की परवरिश ही ऐसी करी है।

तो अब जरूरी है कि बाप कमाता रहे। असली डर यह है कि नहीं कमाऊंगा तो बच्चे ही लात मार के मेरे ही घर से निकाल देंगे। कम कमाऊंगा तो समाज में साख गिर जाएगी। दोस्तों के बीच बट्टा लग जाएगा। क्यों? क्योंकि तुमने दोस्त बनाए ही ऐसे तुम्हारा पैसा देख के तुम्हारे पास आए थे। तुम बेरोजगार हो जाओ। तुम एक सादा जीवन जीने लगो। तुम्हारे सारे दोस्त भाग जाएँगे।अच्छी बात है ना भाग जाए तो। ऐसे घटिया दोस्त रखने से फायदा है कोई?

अभी किसी कैंपस में हुआ था। तो इंजीनियरिंग कैंपस में तो वो जो कंपनी ने अपना प्रपोजल भेजा था प्लेसमेंट के लिए तो उसमें उन्होंने सीटीसी लिखी साढ़े बारह। साढ़े बारह लाख पर एनम। अब ये कोई बहुत एकदम टॉप वाला कॉलेज नहीं था तो यहाँ जो स्टूडेंट्स हैं, उनके लिए बहुत बड़ी बात थी कि कंपनी आ रही है साढ़े बारह लाख पर एनम (एल. पी. ए) का पैकेज देगी।

माने हाथ में ही सत्तर-अस्सी हज़ार शुरू में ही आ जाएगा। बहुत बड़ी बात है तो वो उसमें उनका जो भी ऑडिटोरियम वगैरह था, कंपनी आई प्रेजेंटेशन देने। ये असली घटनाएँ बता रहा हूँ। अभी हुई है इसी प्लेसमेंट सीजन में। तो वो कंपनी आई वो ऑडिटोरियम में प्रेजेंटेशन दे रहे हैं तो जो उनका एचआर का बंदा था उसने पहली स्लाइड खोली और उसमें देखता है सीटीसी लिखी हुई है साढ़े बारह एलपीए लाख पर एनम।

तो वो बोलता है इट सीम्स देयर इज सम कन्फ्यूजन। स्टूडेंट्स भी हैरान थे क्योंकि फ्रेशर्स की तो बहुत दुर्गति है। फ्रेशर्स को अभी भी आईटी इंडस्ट्री में भी ऑन एन एवरेज तीन, साढ़े तीन लाख पर एनम सैलरी मिलती है। और ये कॉलेज कोई टॉप का कॉलेज भी नहीं था तो स्टूडेंट्स भी एकदम पगलाए हुए थे। साढ़े बारह लाख देने वाली कंपनी आ रही है, पूरा ऑडिटोरियम सारा कुछ भर गया।

जो पास आउट हो चुके थे कहीं और नौकरी कर रहे थे, आगे के बैचेस वाले वो भी आके बैठ गए कि हम भी है नौकरी दे दो। तो एचआर का बंदा पहली स्लाइड देखता है बोलता है सी देयर इज़ सम कन्फ्यूजन और उसने वो जो वन था वो हटा दिया बोलता है ढाई लाख एलपीए है। जब बोलता है ढाई लाख एलपीए है तो पूरा ऑडिटोरियम खाली हो गया।

एचआर के लोगों के सामने से सारे स्टूडेंट्स उठकर के बाहर निकल गए। अब तुम क्या करोगे बताओ कोई ये भी नहीं पूछ रहा कि यह तो बता दो जॉब प्रोफाइल क्या है? केआरए क्या है? कुछ नहीं जानना किसी को। सब वहाँ आकर के बैठते हैं कि पैसा मिलेगा। सबको पैसे के लिए काम करना है वो तो कहेगा ही कि फ्री में ही दे दो पैसा। एक भी दिन ऑफिस ना जाना पड़े। एक भी घंटे काम ना करना पड़े।

जैसे कि आप रिजल्ट के लिए काम कर रहे हो। आपसे कहा जाए आपको नाईंटी नाइन परसेंट मार्क्स मिल जाएँगे, एग्जाम बिना दिए तो आप मना थोड़ी करोगे। यही हमें हमारे परिवार ने, जो हमारा लोक धर्म है, जो हमारा लोक दर्शन है, उसने सिखाया है कि प्यार से नहीं काम करना है। परिणाम से काम करना है। किसी भी तरीके से बस परिणाम आना चाहिए। गीता कहती है प्यार ही परिणाम है। ‘मा फलेशु कदाचनम,’ फल से हमें क्या लेना देना?

प्रश्नकर्ता: सर, खलिल जिब्रान की कोट है वर्क पे।

वर्क इज लव मेड विज़िबल। एंड इफ यू कैन नॉट वर्क विथ लव बट ओनली डिस्टेस्ट इट इज बेटर दैट यू शुड लीव योर वर्क एंड सीट ऐट द गेट ऑफ द टेंपल एंड टेक आम्स ऑफ दोज़ हु वर्क विथ जॉय।।

(“Work is love made visible. And if you cannot work with love but only distaste, it is better that you should leave your work and sit at the gate of the temple and take alms of those who work with joy.”)

मुझे हमेशा सेकंड पार्ट ऑफ द कोट समझ नहीं आता था। मतलब वो क्यों कह रहे हैं……

आचार्य प्रशांत: आम्स से मतलब है सीख और टेंपल की नहीं बात हो रही, ऑफिस की बात हो रही है। कह रहे हैं जहाँ कोई व्यक्ति जॉय के साथ काम कर रहा होता है, वह ऑफिस ही टेंपल हो जाता है। टेंपल के सामने नहीं बैठना है। किसी ऐसे ऑफिस के सामने जाकर बैठ जाओ जहाँ पर लोग दिल से काम करते हो। वह ऑफिस नहीं है। वो टेंपल हो गया। और जिब्रान कह रहे हैं कि वहाँ फिर जाकर के उस मंदिर में आम्स लो, दक्षिणा दान लो। काहे का दान लो? कौन-सा दान लोगे वहाँ पे?

यही, प्यार सीखो उनसे। प्रेम दान लो। सीखो कि ज़िन्दगी प्यार में कैसे जी जा सकती है। देखो, बात सिर्फ काम से प्यार करने की भी नहीं है। बात प्यार करने की है।

जो प्यार करेगा ना, वो काम से भी प्यार करेगा। वो ज़िन्दगी से प्यार करेगा। वो अपने रिश्तों में प्यार करेगा। और जिसको प्यार नहीं आता। उसका ऐसा नहीं है कि बस वह अपने काम से प्यार नहीं कर सकता। वो अपने बच्चों से भी नहीं प्यार कर सकता। अपने दोस्तों से नहीं प्यार कर सकता। वो खुद से नहीं प्यार कर सकता। क्योंकि प्यार सेलेक्टिव चीज़ नहीं होती है। प्यार सेगमेंटेड चीज़ नहीं होती है कि इससे करूंगा, उससे नहीं करूंगा। प्यार रोशनी की तरह होता है। पड़ता है तो सब पे पड़ता है। सूरज की जैसे रोशनी होती है।

जो आदमी दिल से जिएगा उसके काम में भी दिल होगा। उसके एक-एक कदम में दिल दिखाई देगा। और जो जो पैसे के लिए कर रहा है वह फिर कहेगा कि जहाँ दहेज ज़्यादा मिल रहा होगा वहीं शादी कर लूंगा और जहाँ सीटीसी ज़्यादा मिल रही होगी वहाँ नौकरी कर लूंगा और जो घूस ज़्यादा दे रहा होगा उसको कॉन्ट्रैक्ट दे दूंगा।

और यह जो प्यार है इसको कौन सिखाता है? यही सीखना विज़डम है, यही आत्मज्ञान है, यही आत्म-अवलोकन है। इसी के लिए हमारे गीता सत्र है। पूरा गीता कार्यक्रम हमारा इसीलिए है कि हम प्यार सीख सकें। आप गीता में श्लोक सीखने थोड़ी आए हो। आप गीता में आए हो ताकि आप प्यार सीख सको। और कितना आपने गीता कार्यक्रम से सीखा?

चाहे आपको छह महीने हो गए हो, साल भर हो गया हो, दो साल हो गया हो। एक अच्छा तरीका है जांचने का कि पूछिए कि प्यार कितना आया आपके जीवन में? प्यार माने विराटता दे पाना और प्यार की कमी माने छुद्रता, गिनना, ‘कितना मिला, कितना मिला, कितना मिला।’

प्यार माने अनंतता जिसमें सब कुछ देने के बाद भी भी अनंत शेष रहता है और जहाँ प्यार नहीं होता वहाँ बस ऐज ए कैलकुलेटर चलता रहता है। नफा नुकसान हानि लाभ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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