हद हद करते सब गये, और बेहद गयो न कोय। *बेहद के मैदान में, रहा कबीरा सोय।। ~कबीर *
प्रश्न: ये दोहा मुझे बहुत पसंद है लेकिन इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है पूरे तरीके से
वक्ता: एक बात बताइए, कबीर आपको अर्थ समझाना चाहते थे या कबीर आपको गा कर अपना गायन दे रहे हैं?
कबीर को आपको अर्थ ही समझाना होता तो आपको अर्थ देते न। कबीर तो निरर्थक के कलाकार हैं, अर्थ से उन्हें कोई बहुत प्रयोजन रहता नहीं। हम कबीर का अर्थ करना चाहते हैं। जब भी अर्थ किया जाएगा तो संतों ने जो कहा उसमें से कुछ छूट जाएगा। वो ह्रदय छूट जाएगा जिस ह्रदय से गान निकलता है। गद्य और पद्य में अभिव्यक्ति जब होती है तो उसमें अंतर होता है। अर्थ जब भी किया जाएगा तो वो तो गद्य में ही रहेगा, पर देखते हैं क्या कह रहे हैं कबीर
श्रोता: हद और बेहद थोड़ा साफ़ नहीं है?
वक्ता: हद माने हद और बेहद माने जहाँ सीमा न हो। आप जो भी कुछ कहते हैं, सोचते हैं उसके चारों तरफ एक सीमा होती है अन्यथा आप उसे सोच नहीं पाते। तो कह रहे हैं कबीर कि, तुम हदों में ही रह गए, तुम विचार में ही रह गए क्योंकि तुमने जीवन में जो भी कुछ किया वो विचार से ही संचालित था। सोचते गए, करते गए; विचार हमेशा संस्कारित होता है, विचार हमेशा सीमित होता है।
कबीर वो, जो मन पर नहीं चलता। कबीर वो जो विचार पर नहीं चलता।
बेहद के मैदान में, रहा कबीरा सोय।
बेहद का मैदान यानी, अनंतता। जहाँ सीमाएँ नहीं हैं। कोई भी सीमा नहीं है। आपका हर विचार एक सीमा है। आपका हर विचार एक सीमा है जो आपको रोकता है, भले ही वो आपको आश्वासन मुक्ति का देता हो पर हर विचार है सीमा ही। वो आपको बाँधता है, वो आपको कष्ट देता है।
कबीर की सारी अभिव्यक्तियाँ विचार की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं, वो विचार जनित नहीं हैं। चूँकि वो विचार से नहीं आ रही हैं तो हम उनको कहते हैं कि वो सीधे ह्रदय से आ रही हैं, या वो आत्मा के फूल हैं; एक ही बात है। इतना ही समझना काफी है कि सोच-सोच के नहीं बोला है।
बेहद के मैदान में…
और भी दोहे हैं ऐसे-
हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साध। *हद बेहद दोनों तजे, ताका मता आगाध।।***
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।