हारोगे तुम बार-बार, बस कोई हार आखिरी न हो || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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हारोगे तुम बार-बार, बस कोई हार आखिरी न हो || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: सर, कभी यहाँ न आने के लिए तर्क उठते हैं मन में पर ध्यान से देखूँ, तो वो तर्क कट जाते हैं। पर कभी-कभी शारीरिक तल पर भी ये तर्क उठते हैं, वो नहीं काटे जाते हैं कि ऐसा लगता है कि बिलकुल शरीर साथ नहीं दे सकता।

वक्ता: अपने प्रति सहानुभूति रखें। अपने विरुद्ध मत खड़े हों। हम हारे हुए ही हैं, और हम हारेंगे बार-बार, बस इतना कर लीजिए कि कोई भी हार आखिरी ना हो। एक सुनने वाला कान होगा, जो कहेगा कि मैंने जो कहा, वो बहुत हारा हुआ वक्तव्य है। और मैं बात हार की ही कर रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि हारे हुए हम हैं, और हारेंगे हम बार-बार। बस इतना तय कर लीजिए कि कोई भी हार, आखिरी नहीं होगी। यही आपकी बड़ी जीत है।

शरीर आपको हराएगा, बार-बार हराएगा, अभी तो आप जवान हैं! जैसे-जैसे समय बढ़ेगा, शरीर और जीतेगा। तो हारे हुए तो हम हैं ही। अपनी हार अपने साथ ले करके घूम रहे हैं। ये सारी इन्द्रियाँ, जो लगातार संसार से अनुरक्त रहती हैं, ये शरीर जो बात-बात में भोजन मांगता है; लगातार थक जाता है; जिसे सुरक्षा की ज़रूरत है, जिसे कपड़े चाहिए, सफ़ाई चाहिए। है कि नहीं एक ज़बरदस्ती का झमेला? एक ताम-झाम ही तो है! जैसे कि सब कुछ ठीक चल रहा हो, और कोई फोड़ा, कोई ट्यूमर उग आया हो, शरीर क्या कुछ वैसा ही नहीं है? जो चीज़ इतनी देखभाल माँगती हो, उसको आप बीमारी के अलावा और क्या कहेंगे? स्वास्थ तो देखभाल माँगता नहीं, बीमारी ही देखभाल माँगती है और शरीर तो मांगता है: नित्य प्रति दिन पानी दो, खाना दो, हवा दो, सफाई दो, व्यायाम दो, नींद दो, विश्राम दो! और ये सब देने के बाद भी भरोसा नहीं कि कौन सा जीवाणु प्रवेश कर जाएगा और आप बीमार हो जायेंगे! हो सकता है आप सब कुछ ठीक कर रहे हों, फिर भी आप पाएं कि लग गई बीमारी। हो सकता है आप सब कुछ ठीक कर रहे हों, फिर भी आप पाएं कि समय बहुत बड़ी बीमारी है, उम्र अब ऐसी हो गई है कि बीमार अब होना ही पड़ेगा।

तो, हारे तो हम हैं ही। हारे तो हम हैं ही! बुद्ध ने यूँ ही नहीं कहा था कि जीवन…

श्रोतागण: दुःख है।

वक्ता: दुःख है! मन क्या है? हार नहीं है? अजीब सी एक शय है, जो कभी इधर भागती है, कभी उधर भागती है। और उसके बाद आप आयोजन करते हो कि इसको पकड़ना है, चित्त-निरोध करना है, दमन-शमन करना है, उप्रति तितिक्षा करनी है। अरे! क्यों करना है? ये तो कुछ ऐसा ही है कि कोई चिकित्सक आपको लिख कर दे दे कि पाँच दवाईयां सुबह, फिर इंजेक्शन, पाँच दवाईयाँ शाम को! वही मन के लिए।

कोई साक्षित्व सिखा रहा है, कोई आसन सिखा रहा है, कोई भक्ति, कोई ज्ञान दे रहा है! बीमारी ही तो है, जिसको इतनी देख-भाल चाहिए। ये जीतेंगे; आप हारिएगा मत! आप हारिएगा मत!

सुबह पाँच बजे, ये आपको अक्सर हरा देंगे, ख़ास तौर पर जाड़ों में, आप छह बजे जीतिएगा। ये छह बजे आपको फिर से हरा दें, आप साढ़े छह बजे जीतिएगा। आप कहिएगा, ‘’कोई भी हार आखिरी नहीं होनी चाहिए। और तुम जितनी भी बार मुझे हराओगे, मैं हार तो मानूंगा नहीं, क्योंकि? हारा हुआ तो मैं हूँ ही!

तुम जीतो! तुम जितनी बार जीत सकते हो जीतो, मैं वापस आऊँगा! मैं पलटूंगा! पलटवार होगा, तुम जितने मार सकते हो मारो! तुम दस मार सकते हो, मारो! बीस मार सकते हो, मारो! उसके बाद एक मैं मारूँगा; आखिरी मेरा होगा, और खाने को तैयार रहिये, बुरा मत मानियेगा! आपके प्रबलतम शत्रु आपके साथ हैं, साथ ही नहीं हैं, उनका आपसे तादात्म्य है। वो आपके घर में घुस के बैठे हुए हैं, आप हारेंगे। जब हारें, तो बुरा नहीं मानते, सवाल नहीं बनाते; चोट नहीं लेते। जितना बुरा मानोगे, अपने दुश्मनों को ही ताक़त दोगे।

तुमने अपने दुश्मन को बताया कि, “तूने मुझे आहत किया, चोट दी!”, और चोट हमेशा लगती अहंकार पर ही है। तुमने अपने दुश्मन को अहंकार से जोड़ दिया। दुश्मन बली है, दुश्मन अहंकार से जुड़ गया, तो क्या बली हो गया? अहंकार! बुरा नहीं मानो; दिल पर मत लेना!

कबीर खूब समझा गए हैं ना? कि क्या साधू? क्या संत? क्या पीर? क्या औलिया? माया सब पर भारी पड़ती है। किसकी क्या बिसात? और मोटी माया नहीं, तो झीनी माया भारी पड़ती है। जब वो जीते, तो मुस्कुरा दो! फिर तुम जीतो! तुम्हारी कोई हार आखिरी नहीं, तुम्हारी कोई जीत भी आखिरी नहीं! वो फिर पलट के आएगी, वो फिर हराएगी, तुम फिर जीतना!

इस हार-जीत के आगे क्या है? वहाँ चुप हो जाना, मौन हो जाना, बकवास नहीं करते। तुम्हारा काम इतना ही है कि तुम पलटो, तुम गिरो तो उठ खड़े हो! फिर क्या होगा? यह प्रश्न ही बेहूदा है। ये सवाल नहीं करते।

मन तुरंत पूछेगा, ”आखिरी जीत कब होगी?”

“दुश्मन की पूर्ण हार कब होगी?,” इस तरह के सवाल, व्यर्थ! तुम तो युद्ध करो, हार जीत छोड़ो!

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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