ज्ञान न अज्ञान, न सुख न दुःख || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2014)

Acharya Prashant

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ज्ञान न अज्ञान, न सुख न दुःख || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2014)

न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो नमूढता।

न सुखं न च वा दुःखं उपशान्तस्य योगिनः।।

~ अष्टावक्र गीता, श्लोक १०, अध्याय १८

(अर्थ: अपने स्वरुप में स्थित होकर शांत हुए तत्वज्ञानी के लिए न विक्षेप है और न एकाग्रता, न ज्ञान है और न अज्ञान, न सुख है और न दुःख)

आचार्य प्रशांत: तीन प्रकार के द्वैत हैं जिनकी बात कर रहे हैं अष्टावक्र:

  1. विक्षेप और एकाग्रता।
  2. बोध और मूढ़ता।
  3. सुख और दुःख।

समझने वाले के लिए समस्त द्वैत मिट जाते हैं, इस अर्थ में मिट जाते हैं कि वो समस्त द्वैतों के मूल में स्थापित हो जाता है। द्वैत का अर्थ ही है: अलग-अलग। उस समझने वाले को अष्टावक्र ‘योगी’ कह रहे हैं, उसने द्वैत के दोनों सिरों के संधि स्थल पर, जहाँ उनका योग होता है वहाँ अपना आसन जमा लिया है, अब उसके लिए विक्षेप और एकाग्रता अलग-अलग नहीं हैं। न उसके लिए मन की एकाग्रता है, कि जहाँ जाकर के बैठने के लिए मन उत्सुक हो, न उसके लिए कुछ ऐसा है कि जहाँ से मन भागना चाहे — न विक्षेप न एकाग्रता।

आप एकाग्र सिर्फ़ उन्हीं वस्तुओं पर होते हैं जो या तो आपको बड़ी प्रिय होती हैं या अप्रिय होती हैं। जिधर को अहंकार खिंचता है, उसका नाम आप दे देते हो ‘एकाग्रता’। और अहंकार को जो चीज़ जितनी प्रिय होगी, उसपर वो उतना ही एकाग्र हो जाएगा – वो एकाग्रता हो गयी। और अहंकार को जो चीज़ जितनी अरुचिकर लगती है, वो वहाँ से उतना भागता है, वो विक्षेप हो गया, व्याकुल हो गया।

आमतौर पर बचपन से ही जो ये घुट्टी पिलाई जाती है कि एकाग्रता बड़ी कीमती चीज़ है, ये बड़ी नासमझी की बात है। क्योंकि एकाग्रता का मतलब ही है अहंकार, जहाँ कुछ ऐसा मिला जो सुख का आश्वासन दे रहा है, मन तो हो जायेगा तैयार एकाग्र होने को। और जो आपकी परिभाषा है सुख की, उसी के अनुसार आपकी एकाग्रता हो जाएगी। यहाँ कई तरह के पकवान रख दिए जाएँ, तो जिसको जिसमें सुख मिलता है वो उधर को ही एकाग्र हो जाएगा, एकाग्रता तुरन्त आ जाएगी। एकाग्रता का मतलब है एक प्रमुख विचार। मन एक ही वस्तु पर जाकर के पूरा-पूरा बैठ गया है।

मन दो स्थितियों में किसी भी वस्तु पर पूरा बैठता है:

१. पहली, जब वो उसे बड़ी प्रिय हो।

२. दूसरी, जब वो उसे बड़ी अप्रिय हो।

अभी यहाँ आपके सामने शेर आ जाये तो बड़ी गहरी एकाग्रता हो जाएगी। मन में कुछ और बचेगा नहीं उस शेर के अलावा। बाकी सारे विचार पीछे हो जाएंगे बस वो शेर बचेगा। तो एकाग्रता तो चित्त की वृत्ति ही है। एक तरफ़ को भागना – इसी का नाम एकाग्रता है।

दिक्कत तब होती है जब चित्त एक तरफ़ को भाग रहा है और आपको संस्कार दिए गए हैं उधर को ना जाने के, विरोधाभासी संस्कार हैं। वृत्ति है कि ‘उधर को जाओ’, और दूसरी वृत्ति है, या संस्कार है, कि ‘उधर को ना जाओ’, तो तब समस्या पैदा होती है विकर्षण की। वृत्ति है, गहरी वृत्ति है, बैठ गयी है कि तुम एक प्रकार के खाने की तरफ़ आकर्षित होते हो। और बाद में तुम्हें संस्कार दे दिए गए कि ये भोजन तो गलत है, अब ये समस्या पैदा होगी कि इच्छुक वस्तु पर एकाग्र नहीं हो पाता और मन जिधर को जाना नहीं चाहिए उधर को भागता है।

उदाहरण ले लो, काम वृत्ति है, तो तुम्हारा अगर पुरुष मन है तो वो भाग रहा है औरत की तरफ़। संस्कार दे दिया गया है कि ये गलत है, तो अब बंटोगे दो वृत्तियों में, या वृत्ति और संस्कार के बीच में अब कलह होगी। और इसी को कहते हैं ‘एकाग्रता की समस्या’। मन के दो हिस्से हैं: एक हिस्सा जिसको प्रिय मान रहा है, दूसरे हिस्से को संस्कारित किया गया है उसे अप्रिय मानने के लिए। और अब ये दोनों हिस्से आपस में गुत्थम-गुत्था हैं। इन दोनों में कलह चल रही है। समझ में आ रही है बात? तो सीधी सी बात है कि जहाँ एकाग्रता होगी वहाँ विक्षेप भी होगा ही होगा। और जो लोग एकाग्रता को बड़ा कीमती समझते हैं वो एक विक्षेप-युक्त जीवन के लिए तैयार रहें। उनका जीवन बड़ा अशांत रहेगा। क्योंकि जहाँ एकाग्रता है वहाँ विक्षेप होगा ही होगा। लेकिन जैसा पहले भी कहा था कि हमे बचपन से ही घुट्टी पिला दी जाती है कि एकाग्रता बहुत कीमती चीज़ है; एकाग्रता बड़ा दुःख है!

देखिये, एकाग्रता ध्यान नहीं है, आप अगर अभी ध्यान लगाकर सुन रहे हैं, तो आप एकाग्र नहीं हैं, आप मात्र ध्यान में हैं।

ध्यान कीमती है, एकाग्रता नहीं।

उस ध्यान से यदि एकाग्रता फलित हो तो बात दूसरी हो जाती है। पर जो एकाग्रता संस्कार से आ रही है वो एकाग्रता किसी काम की नहीं है। वो एकाग्रता तो आपको ध्यान में जाने ही नहीं देगी।

तो योगी के विषय में यही कह रहे हैं अष्टावक्र कि उसके पास ना एकाग्रता है ना विक्षेप है; ना वो ज्ञान से जुड़ा हुआ है ना ही वो मूढ़ है; ना वो सुख से आसक्त है ना उसे दुःख से कोई आपत्ति है; वो समस्त द्वैत से परे हो गया है — परे होने का मतलब वो वहाँ पर स्थित हो गया है जहाँ से सुख और दुःख दोनों निकलते हैं। उसने उस जगह को समझ लिया है। उसने अपना आसन वहीं जमा लिया है। तो वो इनको देख भर सकता है, इनके साथ जुड़ नहीं सकता। सुख आ रहा है, हाँ उसको दिखाई देगा कि सुख आया है, पर उससे वो हिल नहीं जाएगा।

‘सूने मंदिर दिया जला के तू आसन से मत डोल रे, तोहे पिया मिलेंगे’। दिया लगातार जल रहा है और उसी दिये के साथ उसका आसन है और वो वहाँ से कभी नहीं हटता। मंदिर के बाहर जो हो रहा है सो हो रहा है, वो अपने मंदिर की रिक्तता में, शान्ति में चुप बैठा हुआ है। मंदिर के बाहर दुःख भी है, सुख भी है, सब चल रहा है, ठीक है। पर वो अपने आसन से हिलता नहीं है।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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