गुरुओं जैसा होने की चाह || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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गुरुओं जैसा होने की चाह || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, जब मैं बीस-इक्कीस साल का था तब अध्यात्म में प्रवेश किया था। इस दौरान मैंने कृष्णमूर्ति जी को, आपको सुना, ओशो को। तो उस समय जोश था कि इन जैसा ही बनना है, पर अब हौसले पस्त हो गए हैं, अब लगता नहीं कि एक प्रतिशत भी अवसर है, पेशे से मैं एक वकील हूँ तो ये भी तो सोच सकता हूँ न कि एक दिन मैं उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश भी तो हो सकता हूँ, पर ये अब सोचा भी नहीं जाता कि आप जैसा, कृष्णमूर्ति जैसा हुआ जा सकता है, जैसे वो कहते हैं कि “आई नेवर हेड काॅन्फ्लिक्ट इन माय लाइफ” ( मेरे जीवन में मुझे कभी द्वंद नहीं रहा ), किन्तु मुझे तो दिन में पिच्चासी बार, पिच्चासी -सौ बार काॅन्फ्लिक्ट (द्वंद) होता है हर चीज़ में। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत:

"पारस में और संत में, यही अंतरो जान | वो लोहा कंचन करे, वो कर दें आप समान ||"

~ कबीर साहब

ये सब काम तो फैक्ट्रियों (कारखानों) में होते हैं कि माल आ रहा है, कच्चा माल और उससे फिर एक तयशुदा, अंतिम उत्पाद तैयार हो जाए, ये काम अध्यात्म में थोड़े ही होता है। संत का काम ये नहीं होता कि तुमको वो कोई खास रूप-रंग, आकार दे दे, कोई विशिष्ट पूर्व निर्धारित तरह का जीवन दे दे। “कर दे आप समान” संत का काम होता है वो तुमको तुम्हारे ही शुद्धतम रूप में अवस्थित कर देता है।

क्या कह रहे हैं, "कबीर साहब" इस दोहे में?

कह रहे हैं कि पारस पत्थर का काम होता है कि तुम उसके पास लोहा वगैरह लेकर के आओगे तो वो उसको सोना बना देगा, माने कोई भी चीज़ लेकर के आओ वो उसको परिवर्तित करके एक ही चीज़ बना देगा ये बड़ी बात है, बहुत बड़ी बात है, आप कील लेकर के आ रहे हो, आप खूॅंटा लेकर के आ रहे हो, आप लोहे की कोई भी चीज़ लेकर आ गये और वो बदलकर क्या बना दी गई? सोना। ये बड़ी बात है।

लेकिन इससे कहीं ज़्यादा बड़ा काम संत का होता है, उसका काम ये नहीं होता कि आप कैसे भी आये थे और आपको सोना बना दिया गया, नहीं, संत ये नहीं करता। वो आपके ही व्यक्तित्व को उसके शुद्धतम रूप तक पहुँचा देता है, जिनका तुम नाम ले रहे हो कृष्णमूर्ति हों, रमण महर्षि हों, उनका काम ये नहीं है कि वो तुमको अपनी प्रतिलिपि बना लें, उनका काम ये नहीं है कि तुम उनके जैसे बन जाओ, उनका काम ये है कि तुम अपने जैसे बन जाओ। इन दोनों बातों में अंतर समझना, तुम कह रहे हो कि अब तो तुम्हारी उम्मीद टूट रही है, हौसला हार रहे हो कि ज़िंदगी में कभी भी कृष्णमूर्ति जैसे हो सकते हो।

कृष्णमूर्ति कब कह रहे हैं, कब चाह रहे हैं कि तुम उनके जैसे बन जाओ? और जब तुम कहते हो तुम्हें कृष्णमूर्ति जैसा बनना है तो तुम्हारे लिए इस शब्द 'कृष्णमूर्ति' का अर्थ क्या है ? वही सब न; कृष्णमूर्ति के विचार, हाव-भाव, सोच, बात करने का तरीक़ा, धारणायें, उनके जैसा मन हो जाए तुम्हारा, तुम कह रहे हो कि उन्होंने कहा कि उन्हें कभी द्वन्द नहीं होता था और तुम्हें काॅन्फ्लिक्ट रहती है, तो तुम उन्हीं सब चीज़ों की तो नकल करना चाहते हो न जो देखी जा सकती हैं, सोची जा सकती हैं, सुनी-पकड़ी जा सकती हैं, इन सब चीज़ों का तो नाम ही कृष्णमूर्ति नहीं है, जो मर्म है कृष्णमूर्ति का, जो मर्म है संत का, वो तो कुछ और होता है न।

बाहर-बाहर से आपको जो दिखाई देता है, वो तो सब अभिव्यक्ति मात्र है और अभिव्यक्ति तो हमेशा प्रकृति के गुणों के अधीन होती है।

कोई अगर महिला संत होंगीं, तो उनकी आवाज़ तो महिला जैसी ही होगी न? मीरा अगर भजन गाती हैं तो आवाज़ तो उनकी स्त्री समान ही होगी न? भले ही वो गीत परमात्मा को समर्पित हो, पर उसमें भाव तो स्त्रैण ही रहेंगे और तुम्हें बाहर से दिखाई क्या पड़ता है? सिर्फ़ वो जो प्राकृतिक है, जो आत्मिक है वो कहाँ से दिखाई पड़ेगा?

जब नकल करना भी चाहोगे तो प्राकृतिक की ही नकल करना चाहोगे, उसकी नकल तुम कर ही नहीं सकते। तुम कैसे अपनी जेनेटिक सामग्री को बदल दोगे भई ? कौन बदल सकता है? तो जिसको प्रकृति का जो रूप मिला होता है, जो गुण मिले होते हैं उसको उन्हीं के साथ अपनी शुद्धतम अवस्था को पाना होता है। इसीलिए तो तुम पाते हो कि तुम जाओ उपनिषदों में इतने ऋषि-मुनि वर्णित हैं लेकिन उनके भी सबके व्यक्तित्व अलग-अलग हैं, उनकी भी सबकी बातें अलग-अलग हैं, कोई-कोई ऐसे भी हैं जो बड़े क्रोधी हैं, सबकी पहचान अलग-अलग हैं, सबकी विशिष्टताएँ अलग-अलग हैं, ऐसा क्यों हैं भई?

अगर वो सब-के-सब इस लायक थे कि उनके द्वारा रचित ऋचाएँ उपनिषदों में जगह पातीं हैं तो उनमें व्यक्तित्व के भेद क्यों थे बोलो? क्योंकि प्रकृति वाले जो अंतर हैं वो तो रहेंगें-ही-रहेंगें, तुम उनसे पार नहीं पा सकते और नकल की कोशिश जब भी करोगे, तुम प्रकृति की नकल करोगे। अब ये तुमने अपने लिए असंभव लक्ष्य खोज रहे हो और ये अगर तुमने कर लिया तो तुम सफल नहीं कहलाओगे, तुम नकलबाज़ कहलाओगे। ये काम करने में अगर तुम सफल हो गए तो वो सफलता और ख़तरनाक होगी क्योंकि उस सफलता का अर्थ होगा कि तुमने बड़ी साफ़-सुथरी नकल कर ली है और ऐसे नकलची बहुत हैं, तुम उनको दूर से ही देखकर कह दोगे, कोई चला आ रहा है बहुत पहुँचा हुआ महाज्ञानी या उनकी वेश-भूषा देखोगे तो कहोगे कि ये आ रहे हैं कोई पीर-पैगंबर आ रहे हैं, महागुरु हैं।

तुम्हें ये दूर से ही कैसे पता चल जाता है किसी को देखकर के कि ये महागुरु चले आ रहे हैं? कैसे पता चल जाता है? क्योंकि उन्होंने बहुत बढ़िया तरीक़े से नकल कर ली है। नकल किन लोगों की कर ली है? जो अतीत में गुरु वगैरह कहलाये। तो बिना जाँचे, बिना परखे, बिना किसी बात के ही मन अपने आलस में तुरंत ये निष्कर्ष निकाल लेता है आसानी से कि ये भी गुरुदेव ही चले आ रहे हैं, भले ही हों कुछ न। वही करने की मन को बड़ी लालसा रहती है, वही लालसा तुम अपने सवाल में अभिव्यक्त कर रहे हो। पहुँचते सब एक ही जगह हैं, पर कृष्णमूर्ति का रास्ता, कृष्णमूर्ति का रास्ता होगा। उनके छह-सात भाई-बहन थे, तुम्हारे हैं? वो जब बचपन में थे, बड़े गरीब थे, एक-दम गरीब, तुम थे? उन्होंने थोड़े ही एलएलबी करा था, तुमने करा है। वो थोड़े ही कवर ड्राइव ( क्रिकेट में एक प्रकार का शॉट है, जो बल्लेबाजों द्वारा खेल जाता है ) मारते थे, तुम मारते हो। तो मंज़िल एक हो सकती है लेकिन रास्ते तो बिलकुल अलग-अलग ही होने हैं न? तुम्हें वो बनना है जो तुम हो, किसी और जैसे होओगे तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी।

प्रश्नकर्ता: नहीं, मैं उनकी पर्सनैलिटी (व्यक्तित्व) की बात नहीं कर रहा, जो उनका हेयरस्टाइल है या जो कपड़े डालते हैं, उसकी नहीं।

आचार्य प्रशांत: बेटा, पर्सनैलिटी के अलावा किसी और चीज़ की तो बात की ही नहीं जा सकती न, आत्मा क्या कहलाती है? अनिर्वचनीय, माने अकथ्य, माने अकलप्य, माने अचिंत्य, माने जब भी तुम बात करोगे तो किसकी बात करोगे? व्यक्तित्व की ही तो बात करोगे। जब कहोगे कि मैं उनके जैसा नहीं हो पा रहा हूँ, तो तुम क्या कहोगे? तुम उनकी आत्मा जैसे नहीं हो पा रहे? तुम यही तो कहोगे न कि किसी-न-किसी तरीक़े से उनके व्यक्तित्व जैसे नहीं हो पा रहे हो।

दो ही चीजें होतीं हैं– या तो बाहर की सब जो तहे हैं, ये जो बाहर के सब छिलके हैं, जिनका क्या नाम होता है? व्यक्तित्व। या फिर केंद्र में जो बिन्दु बैठा है, उसका क्या नाम है? "आत्मा या शिवत्व।"

जब तुम कह रहे हो तुम्हें कृष्णमूर्ति जैसा होना है, हो नहीं पा रहे, तो निस्संदेह किसकी बात कर रहे हो? उस बिन्दु की या किसी छिलके की ही बात कर रहे हो? छिलके की ही तो बात कर रहे हो, आत्मा की तो बात की ही नहीं जा सकती।

प्रश्नकर्ता: कृष्णमूर्ति जिस प्रेम की बात करते हैं और वो कहते हैं— “हेव यू एवर थॉट विदाउट योर पर्सनल सेल्फ़ इन्टरेस्ट?” (क्या आपने कभी अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के बिना सोचा है?) मुझे थॉट तो अपने इन्टरेस्ट के लिए आते हैं, चाहे कोई जिये या मरे।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो ये जो चीज़ है वो यात्रा से सम्बन्धित है तुम्हारी, वो साधना से सम्बन्धित है तुम्हारी। उसके लिए फिर तुम्हें उतनी ही साधना करनी पड़ेगी जितनी कृष्णमूर्ति ने करी, जितनी अन्य मनीषियों ने करी, करो। वो तो जीवन भर सच की ही साधना में रत रहे, तुम्हें भी होना पड़ेगा। उन्होंने तो दुनियावी आचार-विचार को बहुत तवज्जो दी नहीं, तुम्हें भी कम करनी पड़ेगी, पर ये सब बातें भी देखो बहुत हद तक स्थितियों पर आश्रित होती हैं, उनकी स्थिति ऐसी थी कि उन्हें बहुत ज़रूरत भी नहीं थी दुनियावी चीज़ों का ख़्याल करने की। 'एनीबेसेन्ट' ने उन्हें गोद ले लिया था, अब उनका रहना, खाना-पीना, परवरिश, शिक्षा सब थियोसोफिकल सोसाइटी करा रही थी।

तुम्हारे साथ तो जीवन में कुछ ऐसा हुआ नहीं है, तो तुम्हारा रास्ता भी फिर तुम्हारे ही जैसा होगा। हाँ, इतना याद रखना कि रास्ते सबके अलग-अलग भले ही हों, पर मंज़िल एक है और रास्तों पर चलने का श्रम भी सबको अकेले ही करना पड़ता है, श्रम में अंतर नहीं पाओगे। बाधाएँ तुम्हें भी झेलनी पड़ेंगीं, बाधाएँ इनको भी झेलनी पड़ेंगीं, बाधाएँ हर व्यक्ति को झेलनी पड़ेंगीं क्योंकि जो चल रहा है न रास्ते पर, वो रास्ते पर अपने ख़िलाफ़ बाधा ख़ुद ही है, ये जो चल रहा है रास्ते पर वो ख़ुद ही अपने ख़िलाफ़ बाधा है, तो चलने वाले की मौजूदगी से ही ये तय हो जाता है कि चलने वाले को बाधाओं का सामना भी करना पड़ेगा। चलने वाला मौजूद है, माने बाधा मौजूद है, तो बाधा तो झेलनी पड़ेगी। झेलो, आगे बढ़ो, अभी तुमने श्रम ही कितना करा है? अभी कितनी मेहनत कर ली है?

जिस मुक्ति को चाहते हो उसको क्या इतना सस्ता समझ लिया है कि आसानी से मिल जाएगी? तुम्हें हताश होने का भी हक़ क्या है ये बताओ न? कोई छोटी सी चीज़ हो उसके लिए कोई आदमी साल-दो साल कोशिश करे, न मिले तो उसे शिकायत करने का कुछ अधिकार भी है, ये छोटी सी चीज़ है इसके लिए दो साल लगे रहे, देखो मिली नहीं, अब मन में शिकायत आ रही है, पर तुम किसी अथाह चीज़ की ओर बढ़ो, किसी ऐसी चीज़ की ओर बढ़ो जो अमूल्य है, मैं तुम्हारी जान बचने की बात कर रहा हूँ, जान बचने की क्या क़ीमत लगाओगे? अमूल्य ही तो है न वो ? कि जन्म बच गया नहीं तो जन्म ही बर्बाद हो जाता।

तो तुम इस अमूल्य चीज़ की ओर बढ़ो और वो तुमको साल-दो साल में न मिले और तुम शिकायत करने लग जाओ तो इसका मतलब है कि तुम उस अमूल्य चीज़ को अमूल्य मानते ही नहीं।

तुम कह रहे हो कोई ऐसी ही छोटी-मोटी सस्ती चीज़ है, मिल जानी चाहिए थी साल भर की मेहनत में, मिली क्यों नहीं? ये नाइंसाफी हुई है हमारे साथसाथ। भई! इतनी छोटी सी ही तो चीज़ है, अभी तक मिली क्यों नहीं?

तुम चालीस साल भी मेहनत कर लो और तब भी न मिले, तुम्हें शिकायत करने का हक़ तब भी नहीं हैं, वो चीज़ इतनी बड़ी है।

प्रश्नकर्ता: नहीं, ये भी एक तरह से एस्केपिज़म (भगोड़ापन) हुआ न कि आज से चालीस साल तक मेहनत करता रहूँ फिर हो जाएगा, वो जब है ही टाइमलेस (समय से परे) तो उसपर अभी मैं क्यों नहीं ध्यान दे सकता?

आचार्य प्रशांत: बाबा, अगर तुम्हें वो चीज़ चाहिए ही नहीं होगी, तभी तो तुम उसकी प्राप्ति से एस्केप (भागना) करोगे न? एस्केप करने का अर्थ तुम ये कह रहे हो कोई पूरी मेहनत ही न करे पाने में, कोई चालीस साल तक यूँही सतही-उथला श्रम करता रहे और फिर चालीस साल बाद कहे कि मुझे तो इसलिए नहीं मिली क्योंकि चीज़ ही बहुत बड़ी है, ऊँची है, तो ये बहाना वो किसको दे रहा है? ये बहाना वो किसको बता रहा है? कोर्ट के जज को? वो बेवकूफ़ बना रहा है न, वो किसको बना रहा है बेवकूफ़? कोर्ट के जज को। मान लो उसने किसी को बना भी लिया बेवकूफ़, पर वो चीज़ उसे चाहिए थी वो किसके लिए चाहिए थी उसके लिए ( दूर इशारा करते हुए ) या इसके लिए? ( स्वयं की तरफ इशारा करते हुए ), किसी दूसरे के लिए चाहिए थी या अपने लिए? तो तुम बना लो दूसरे को बेवकूफ़, ये कहकर कि नहीं मैंने तो कोशिश पूरी की, मैंने तो चालीस साल लगाए फिर भी नहीं मिली, दूसरा मान भी जाएगा, दूसरे का क्या जाता है ?

वो चीज़ तुमको चाहिए थी तुम्हारी अपनी मुक्ति के लिए, तुम्हें ही नहीं चाहिए तो काहे को मिलेगी ?

प्रश्नकर्ता: नहीं, जैसे वो कहते हैं कि “देअर इज साॅरो, जेलेसी" "सी इट, बी इट, अवेयर ऑफ इट, इन दैट अवेयर इज़ एन्डिंग ऑफ इट” (जो भी दु:ख है, ईर्ष्या है, उसे देखो, उसके बारे में जागरूक रहो, इस प्रकार उसकी समाप्ति हो जाएगी ), एन्डिंग (समाप्ति) तो कभी होती नहीं न?

आचार्य प्रशांत: एन्डिंग इसलिए नहीं होती क्योंकि उसका जो तुम्हारा देखना है वही पूरा नहीं हैं, वही सफ़ाई के साथ नहीं हैं। मुक्ति चार हज़ार साल भी ले सकती है, तत्क्षण भी हो सकती है, वो तो निर्भर इस पर करता है न कि तुम्हें कितनी तीव्रता से चाहिए है। कहा करते थे कृष्णमूर्ति, कहते थे कि इस हॉल में मैं बोल रहा हूँ, अगर तुम मुझे ध्यान से सुन रहे हो तो ये संभव है कि तुम यहाँ से ही पूरी तरह से परिवर्तित होकर निकलो, इसके बाद तुम्हें किसी को, कभी भी सुनने की ज़रूरत ही न पड़े, लेकिन ऐसा होगा तो लाख में किसी एक के साथ ही।

किसके साथ होगा? जो उतना ज़्यादा आतुर होगा मुक्ति के लिए। जैसे जे़न कोआन होते हैं न कि भिक्षु चला जा रहा था और एक औरत दिखी, उसने उससे पूछा कि ये कौन-सी जगह है? और औरत बोलती है ये पेड़ है इसको देख लो और इतना सुनकर के उस भिक्षु की आँखें खुल जातीं हैं। ये कैसे हो जाता है ? ये जो त्वरित निर्वाण है, इन्स्टेन्ट एन्लाइटन्मेन्ट ये कैसे हो जाता है? इसी की तो बात कृष्णमूर्ति भी करते थे, ये तब हो जाता है, जब पहले से ही तुमने इतनी तैयारी कर रखी हो। जैसे कि मैं इसको ले आकर बिलकुल यहाँ रख दूँ किनारे पर (रुमाल को मेज़ के सिरे पर रखते हुए) मेज़ के मुहाने पर और फिर हल्का सा भी धक्का दे दूँ तो क्या होगा ? ये गिर जाएगा। इसका मतलब ये नहीं है कि मेरे धक्के में बहुत दम था, इसका मतलब ये है कि इसने गिरने की तैयारी पूरी-पूरी कर रखी थी, तैयारी पूरी-पूरी कर रखी थी, उसके बाद ये जाकर के बैठ गया कृष्णमूर्ति की मेज़ पर, कृष्णमूर्ति ने फूँक मारी, वो उड़ गया आकाश में।

उसका अहम् विलीन हो गया, ऐसा सिर्फ़ उनके साथ होगा जिन्होंने इतनी ज़्यादा अपने भीतर आग जला रखी है, जो बिलकुल छटपटाए बैठे हैं कि या तो मुक्ति दे दो या तो मौत। उनके साथ होगा। जिनके लिए अभी ज़िंदगी में सुकून है, चैन है, जो इधर-उधर अभी खुशियाँ मना रहे हैं, उनके साथ ये थोड़े ही होगा कि कृष्णमूर्ति के पास आयें हैं ऐसे ही घूमते-टहलते और उनको ज़बरदस्ती कि मुक्ति मिल गई और वो बेचारे घबरा रहे हैं, परेशान हो रहे हैं कि यार ये बैठे-बिठाए आफ़त गले पड़ गई है, देखो ये मुक्ति दे दी है। चाहिए भी नहीं थी, हम तो यूँही आ गये थे, पोस्टर लगा देखा, लगा चलो भई! ऐसे ही निशुल्क सत्र हो रहा है, जाकर बैठ जाते हैं और वहाँ ज़बरदस्ती मुँह खोला और फट से मुक्ति ठूँस दी है, अब गले में फँस गई है मुक्ति, न निगलते बन रही है, न उगलते बन रही है।

पूरी क़ीमत अदा करनी पड़ती है न, वो भी अग्रिम भुगतान, एड्वान्स पेमेंट , उसके बाद जो वहाँ जाकर के बैठेगा, ऐसे बैठ जाएगा (मेज़ के मुहाने पर रखे रुमाल की ओर इशारा करते हुए), वो (कृष्णमूर्ति) मारेंगें फूँक और वो उड़ जाएगा। आ रही है बात समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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