प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सही गुरु की पहचान कैसे करें? क्योंकि सारे रास्ते तो मन ही दिखाता है?
आचार्य प्रशांत: ये हमेशा से जटिल प्रश्न रहा है। देखो, बात ये नहीं है कि सही गुरु की पहचान कैसे करें। थोड़ा प्रश्न को अगर आप बदलेंगे तो आपको ठीक रहेगा। हम वो कैसे बने जिसके सामने अगर सही गुरु आये तो मुँह ना चुराए?
आपने जो सवाल पूछा है, देखिए आप क्या पूछ रहे हैं? आप पूछ रहें हैं हम जैसे हैं हम तो हैं हीं ऐसे। जैसे भी हैं, हम जैसे हैं ऐसे हैं। ठीक है? अब एक तरीका बताइए, विधि बताइए कि हम ऐसा रहते हुए भी सही गुरु की पहचान वगैरह कर लें। होने से रहा।
आप जैसे हैं वैसे रहते-रहते आपने किसी भी सही चीज़ की सही पहचान करी है आज तक? अपने लिए सही घर ढूँढा है, सही नौकरी ढूँढी है,सही जूते भी ढूँढे हैं? आपने सही जूते ढूँढे होते तो ऐसा क्यों होता कि आप जूते खरीदकर लाते हैं, वो भी पड़ोसी बताता है अरे! इससे बेहतर और जूते तो फ़लानी दुकान में मिल रहे हैं और वहाँ बीस प्रतिशत छूट भी चल रही है। और आप कहते हैं अरे! गलती हो गयी।
जब कुछ सही आपको मिलता है तो उसके बाद कोई कुछ भी कहे, कभी संशय उठ सकता है? पर हमें तो संशय उठ जाता है न, अपनी हर चीज़ पर? आपने जीवन में कोई भी निर्णय लिया, वो निर्णय भी जो आपको बिलकुल ठीक लगते हों, अभी कोई आये तो अपनी बातों से आपको विवश कर सकता है, अपने पक्के-से-पक्के निर्णय को भी दोषपूर्ण देखने के लिए। भले ही थोड़ी देर के लिए। थोड़ी देर के लिए लेकिन आपको संशय हो जाएगा और अफ़सोस भी हो जाएगा कि अरे! ये मैंने क्या चुन लिया? क्यों कर लिया? कुछ और कर लेते तो बेहतर रहता।
तो हम जैसे हैं, हमारे लिए कुछ भी सही कर पाना मुश्किल है। क्योंकि हम ही सही नहीं है। जब कुछ भी सही नहीं हो सकता तो, सही गुरु भी कहाँ से हो जाएगा? जिन्हें हम गलत गुरु कहते हैं, वो गलत गुरु हमें इसलिए नहीं मिल गए कि उन गुरुओं ने कोई षड्यंत्र करा था हम पर छा जाने का, उन्होंने चलो करा होगा अपनी ओर से। हम पर वो इसलिए छा गए हैं क्योंकि हम गलत ही हैं। हम गलत हैं तो हमें गलत गुरु मिल जाता है। हम जैसे होते हैं हमें वैसा गुरु मिल जाता है।
आप देख रहे हैं मेरा उत्तर किस दिशा में जा रहा है? आपने पूछा सही गुरु की पहचान कैसे करें? मैं कह रहा हूँ हम गलत होते हैं तो हमें गलत गुरु मिल जाता है। आशय स्पष्ट होगा।
सही गुरु कब मिलेगा? आपके भीतर सही प्यास उठेगी तो सही गुरु मिल जाएगा भाई। किस रूप में मिलेगा, कहाँ मिलेगा, निकट मिलेगा, दूर मिलेगा, हमें क्या पता? आदमी रूप में मिलेगा, ग्रन्थ रूप में मिलेगा,पेड़ रूप में मिलेगा, नदी रूप में मिलेगा, जीवन रूप में मिलेगा, ऑनलाइन मिलेगा, ऑफलाइन मिलेगा हमें क्या पता? कैसे भी मिल सकता है। हो सकता है लगातार मिलता हीं रहता हो। पर हम गलत हैं इसीलिए उसे पहचान नहीं पाते कभी।
हो सकता है आप अगर चालीस वर्ष के हैं तो आपके चालीस वर्ष के जीवन में वो आपको चार हज़ार बार मिला हो। हो सकता है वो अनन्त बार मिला हो। हो सकता है वो हर समय आपके साथ हो। आप उसे स्वीकार कैसे करोगे जब आप ही गलत हो तो? आप तो स्वीकार करे बैठे हो इधर-उधर पाँच-सात चंपू लोगों को।
सही को स्वीकार करने के लिए सही की पात्रता होनी चाहिए न। आप सही होइये, सही गुरु दूर नहीं है, मिल जाएगा।
आपके सही होने से मेरा आशय क्या है? आपके सही होने का मतलब ये होता है कि आप देख लें कि आप गलत हो। जो ये देख लेता है कि वो गलत है, वो सही हो जाता है। जो ये देख लेता है वो गलत है, उसको सही गुरु मिल जाता है। आप जब तक अपनी नज़रों में सही हो, आप बहुत गलत हो। आप उस दिन सही हो जाओगे जिस दिन आपको दिख जाएगा कि आप गलत हो। ये बात अहंकार को चोट देती है।
कैसे मान लें हम गलत हैं? बड़ी मेहनत करी है, इतनी शिक्षा पायी है,दो-चार डिग्रियाँ इकट्ठा करी है, इतना पैसा लगाया है,यहाँ-वहाँ धंधा बढ़ाया,आज व्यापार करोड़ों का है। हम गलत कैसे हो सकते हैं? समाज में हमारा नाम है,सम्मान है,हम गलत कैसे हो सकते हैं? ऐसे हीं कुछ भी बोल देते हैं ये तो कि पहले मानो गलत हो। क्यों गलत हैं हम? भारत के राष्ट्रपति ने एक बार हमें सम्मानित किया था। हम गलत होते तो सम्मान मिलता हमको?
तुम मत मानो, मत मानो। माया है। किसी का क्या बिगड़ता है, खेल है। तुम कुछ मानो,तुम नहीं मानो। पर हाँ, अगर आग्रह है सच्चाई को पाने का तो इतना बता देता हूँ, सच्चाई उन्हें मिलती है,जिन्हें झूठ दिख जाता है। हमको सच का बड़ा आग्रह रहता है, झूठ ठुकराए बिना। कोई और विकल्प नहीं है। होता तो देखिए मैं आपको बता देता। हम कोई आसान, मीठा विकल्प चाहते हैं। होता नहीं है न, ठुकराना पड़ेगा।
असल में झूठ को देखना भी आसान हो जाता अगर आपको ये सुविधा होती कि देख लो,त्यागो मत। दिक्कत तब हो जाती है जब कहा जाता है कि अगर झूठ दिख गया, तो त्यागना भी पड़ेगा। वहाँ फिर हम बिलकुल एकदम तिलमिलाने लगते हैं कि अरे! ये क्या शर्त रख दी।
आत्मा प्रथम गुरु है। ठीक है? आपके भीतर तैयारी हो, तो वही जो निराकार आत्मा है,वो साकार रूप में भी सिखाने वाले को प्रस्तुत कर देती है। कोई नाटकीय धारणा मत बनाइये कि गुरु कोई ऐसा व्यक्ति होता है, ऐसा-ऐसा घूम रहा होता है, ऐसे-ऐसे करके। वो मुझे मिलेगा कहाँ? किसी कंदरा में बैठा है, किसी पेड़ पर चढ़ा हुआ है, किसी आश्रम में है। कहाँ है वो? कहाँ समाधि मारकर बैठा है गुरु? कुछ नहीं।
आपके भीतर वो प्यास तो पैदा हो, वो तड़प पैदा हो न कि ज़िन्दगी झूठ में बीत रही है, सच चाहिए। फिर सच्चा गुरु भी मिल जाएगा। फिर कोई झूठा गुरु आपको बेवकूफ बना नहीं पाएगा। बताइए क्यों? क्योंकि आप इतने पैने हो चुके कि आपने जो झूठ देखना सबसे मुश्किल था, वो भी देख लिया। कौन सा झूठ? अपना झूठ।
जो आदमी अपना झूठा देख सकता है न, वो बाहर वाले का झूठ तो चुटकी बजाकर देख लेगा। अपने झूठ को लेकर के अगर आप ईमानदार हो गए, तो बाहर के झूठों को तो आप ऐसे पकड़ लेंगे तुरन्त ये झूठा है। बाहर के झूठे आकर के हमें मूर्ख बना लेते हैं तो उसकी वजह यही है कि हम भीतर से झूठे हैं।
झूठे तर्कों, झूठे बन्धनों, झूठी बातों में फँसने की हमारी पूरी तैयारी है। पहले से ही हमारी तैयारी है। और वो जो सामने धूर्त बैठा है,वो अच्छे से जानता है हमारी तैयारी है। तो उसके लिए मुश्किल है हीं नहीं फिर हमें फँसा लेना। आप आन्तरिक तौर पर सच्चे हो जाइए। आप बिलकुल कड़े हो जाइए अपने साथ कि अन्दर की किसी झूठ को मैं बर्दाश्त करूँगा नहीं।फिर बाहर भी कोई झूठ बोलकर आपको फँसा नहीं पाएगा।
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