शब्द न करे मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार। आपा पर जब चीनिहा, तब गुरु सिष व्यवहार॥
~ संत कबीर
आचार्य प्रशांत: पहली पंक्ति है, वह दो दिशा में मार करती है, “शब्द न करे मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार” इसको चाहे गुरु की तरफ से पढ़िए, चाहे शिष्य की तरफ से पढ़िए, दोनों तरफ से अर्थवान है यह। गुरु की तरफ से पढ़िए तो इसका अर्थ यह है कि गुरु व्यवहारिकता को ध्यान में रखकर के नहीं बोलता है शिष्य से, वह इसलिए नहीं बोलता है कि चीज़ों की शालीनता बनी रहे। अन्यत्र भी, लगातार कबीर ने यह कहा है कि गुरु का शब्द तलवार की भाँति होता है, वह काटता है।
“शब्द फिरै चहुं धार”–यहाँ पर धार का अर्थ हो जाएगा–वह जो काटता है और हर दिशा में काटता है। तो यह गुरु की ओर से लगातार होता ही रहता है, उसको यह ख़्याल रखने में कोई रुचि नहीं होती है कि उसकी छवि तो नहीं आहत हो जाएगी।
उसको यह ख़्याल रखने में भी कोई रूचि नहीं होती है कि वह जो बोल रहा है उससे किसी के मन को धक्का ना लगे, ना ही वह यह जो सामाजिक ढाँचे हैं, उनके बीच में रहकर के बोले यह भी कोई आवश्यक नहीं है। उसके शब्द का एक ही उद्देश्य है, शिष्य को सत्य की तरफ ले जाना, और उसके लिए शब्द जैसा भी हो गुरु उसका इस्तेमाल करता है, कड़वा भी हो सकता है और मीठा भी हो सकता है।
गुरु के लिए शब्द सिर्फ़ एक तरीका है, एक उपकरण है जिसका उसे इस्तेमाल करना है। इसी को शिष्य की तरफ़ से पढ़ें तो वहाँ एक बिलकुल दूसरी घटना घट रही है। गुरु तो अपनी ओर से शब्द का प्रयोग कर रहा है और उस शब्द की धार बड़ी तीख़ी है, और शिष्य की ओर से क्या हो रहा है?–“शब्द न करे मुलाहिजा” वह भी गुरु का दिल रखने के लिए सुन ही ले रहा है। वह सुन ही नहीं रहा – “शब्द न करे मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार” – यहाँ पर धार का अर्थ दिशा हो जाएगा कि हर तरफ शब्द व्यापक हैं, क्योंकि गुरु का शब्द सीमित नहीं है, उसकी गूँज तो हर तरफ है, कोई सुनने वाला होना चाहिए बस। पर यह ध्यान देने के लिए तैयार नहीं है, इसने भी ठान रखा है, “मैं सुनूँगा नहीं”, और इसके ठान रखने के कारण ही इसे कुछ सुनाई नहीं देता।
जिस दिन यह कह दे कि “सुनना है”, उस दिन सब सुनाई देने लग जाएगा, हर दिशा से गुरु प्रकट हो जाएगा। तो यह जो पहली पंक्ति है, इसमें तो निरूपण है कि चल क्या रहा है। गुरु दिए जा रहा है और दिए जा रहा है, और शिष्य को कुछ मिलता दिखाई दे नहीं रहा, ऐसा क्यों होता है उसकी वजह आगे आती है।
“आपा पर जब चीनिहा, तब गुरु सिष व्यवहार”
वास्तव में गुरु और शिष्य का संबंध, उनके बीच एक सेतु, उनके बीच एक जुड़ाव तभी बनता है जब शिष्य को यह समझ में आ जाता है कि “मैं कौन हूँ”।
“आपा पर” यानी अपने और पराये की पहचान। अपने और पराये पन के भाव में तो हम लगातार जीते ही जीते हैं, लेकिन उसके विषय में हमें कोई स्पष्ट बोध नहीं है। जो अपना है ही नहीं उसको हमने लगातार अपना माना है, और जो पूर्णतया अपना है, सदा हमने उसको पराया देखा है, यही हमारे जीवन की मूर्खता है, यही विडंबना है।
आत्म-बोध पूरे तरीके से गायब है। जीवन की सारी मूर्खताओं को यदि संक्षेप में कहना हो तो इतना ही कहना काफ़ी होगा: पता ही नहीं है कि “मैं कौन हूँ”। “कोहम” प्रश्न का कभी उत्तर ही नहीं दिया गया है। जब तक उस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता, आपका किसी से भी प्रेम का संबंध नहीं हो सकता, तो लाज़मी ही है कि गुरु से भी नहीं हो सकता।
बाकी संबंध तो आपके फिर भी चल जाएँगे क्योंकि वह सामाजिकता, व्यवहारिकता के दायरे में आते हैं, गुरु से बिलकुल भी नहीं चल पाएगा। क्योंकि गुरु जिन तरीकों से आपसे व्यवहार करता है, आपसे बात करता है, वह बड़े विचित्र होते हैं। यदि आपके भीतर गहरी समझ ही नहीं है तो आप टिक ही नहीं पाएँगे। आपको वह तरीके समझ में ही नहीं आएँगे, उन शब्दों की मार आपको असहनीय लगेगी, आपको हटना पड़ेगा। या आप यह भी कह सकते हैं कि “गुरु एक व्यक्ति है, मैं चला जाता हूँ, मैं किसी और स्रोत की तलाश कर लूँगा, किसी और व्यक्ति की तलाश कर लूँगा।”
“आपा पर जब चीनिहा”, अपना-पराया चीन्हने का अर्थ ही है यह समझ पाना कि देह क्या है, मन क्या है, मैं कौन हूँ, और आत्म का क्या अर्थ होता है, जब यह समझ में आता है, मात्र तभी आप यह भी समझ सकते हैं कि गुरु का क्या अर्थ होता है। जब तक आपको अपने होने की पूरी तरह पहचान नहीं है, तब तक आप गुरु को भी शरीर ही समझते रहेंगे। और जिसने गुरु को शरीर समझा, वह गुरु को बर्दाश्त नहीं कर सकता। उससे उसका फिर बस उतना ही संबंध बन सकता है, जितना कि शरीर का शरीर से हो सकता है। उससे ज़्यादा का संबंध बन नहीं पाएगा।
बहुत तरह के संबंध होते हैं हमारे। सबसे निचले तल पर शरीर से शरीर का संबंध होता ही है, और ध्यान से आप देखेंगे तो अधिकांशतः जो हमारे संबंध होते हैं वह इसी श्रेणी में आते हैं, शरीर से शरीर। शरीर का अर्थ है पदार्थ, जहाँ कहीं भी व्यक्ति पदार्थ भर है वहाँ संबंध शरीर से शरीर तक का है।
अधिकांशतः जो प्रेम संबंध समझे जाते हैं वह यही हैं, शरीर से शरीर। आप अपने-आप से अगर ध्यान से पूछें कि जिनको आप अपना प्रेमी कहते हैं, क्या वह आपके जीवन में कायम रह पाएँगे, यदि उनके शरीरों में कुछ कमी आ जाए? तो जवाब आपको थोड़ा असंतुलित कर देगा। यह जितने प्रेम-प्रसंग चलते हैं, इनमें यदि किसी पक्ष का चेहरा ख़राब हो जाए, तो पूरा प्रेम-प्रसंग ही मिट जाएगा। हज़ार में से एक ही होगा जो कायम रह पाएगा, साबुत बचा रह पाएगा, अन्यथा नहीं। अदालतों तक में तलाक का यह एक वाज़िब कारण माना जाता है–‘यदि आपका साथी शारीरिक रूप से अब नाकाबिल हो गया है।’ यह सब शरीर के शरीर से संबंध हैं।
बहुत हद तक माँ और बच्चे का संबंध भी मात्र शरीर से शरीर का ही होता है। “यह मेरे शरीर से निकला है, मेरा है।” उस संबंध के आधार में इसके अलावा कुछ होता ही नहीं है। माँ को यदि बच्चे से प्रेम होता तो बच्चे तो करोड़ों हैं, अरबों हैं। उसे बच्चे से प्रेम नहीं होता है, उसे ‘अपने’ बच्चे से प्रेम होता है। उसे उस बच्चे से प्रेम होता है जो उसके शरीर से निकला होता है। और बच्चे को भी वह शरीर मात्र ही देखती है। आप माँओं को देखिएगा, उन्हें इस बात की बड़ी फ़िक्र रहती है, “बच्चे की त्वचा चमक रही है या नहीं?", “उसका वज़न कितना है?", “वह दिखाई कैसा दे रहा है?", "उसने खाना खा लिया या नहीं खा लिया?", “भूखा तो नहीं है?", “प्यासा तो नहीं है?" पर कोई माँ कभी ही यह देखती होगी कि बच्चे की आत्मा तो नहीं तड़प रही। उसकी आत्मा तो नहीं भूखी है? शरीर भरा होना चाहिए। शरीर से शरीर का ही संबंध है।
फिर आप उससे थोड़ा ऊपर उठते हैं, तो मन के संबंध बनने लग जाते है। यहाँ पर कम ध्यान दिया जाता है कि आप दिखते कैसे हो, यहाँ पर ध्यान इस पर चला जाता है कि आप सोचते कैसे हो। आपकी विचारणा कैसी है, आप किस विचारधारा से आ रहे हो, आपके मत कैसे हैं। यहाँ पर भी संबंध बनते हैं। कोई लेखक है जो आज से ३०० साल पहले हुआ करता था, आपने उसकी तस्वीर देखी भी नहीं है और देखी भी है तो वह दिखने में बिलकुल साधारण है, लेकिन फिर भी वह आपको बहुत पसंद है। वह आपको क्यों पसंद है? क्योंकि आपको उसके विचार अच्छे लगते हैं। यह विचारों का संबंध है, कम पाया जाता है। लोग शरीर भाव से ही ऊपर नहीं उठ पाते, तो मन से मन का संबंध बनना बड़ा मुश्किल होता है।
पर फिर भी, यह भी दिख जाएगा, थोड़ा ध्यान से देखेंगे, नज़र घुमाएँगे तो दिख जाएगा। कोई तुम्हें क्यों पसंद है? “भई! सोचता बहुत अच्छा है, बोलता बहुत अच्छा है।” इस संबंध में भी कुछ रखा नहीं है, क्योंकि विचार बदल जाएँगे। वह सारे कारण जिनके कारण शरीर से शरीर का संबंध निम्न कोटि का है, उन्हीं कारणों की वजह से विचार से विचार का, मन से मन का संबंध भी निम्न कोटि का ही है। ठीक जैसे शरीर बाहर से आता है वैसे ही विचार भी बाहर से आते हैं। अंतर बस स्थूल और सूक्ष्म का है, शरीर स्थूल है और विचार सूक्ष्म हैं। हैं दोनों एक ही।
फिर एक संबंध होता है गुरु का और शिष्य का, प्रेम का संबंध, यह अपने-आप में अकेला संबंध है जो ना शरीर का है ना मन का है, यह संबंध कहीं और का है। पर यह कहाँ का है, यह आप कैसे जानोगे जब तक आपने अपने-आप को शरीर और मन ही समझा है?
इसी कारण गुरु रहे आते हैं, पड़े रह जाते हैं, पूरा अस्तित्व ही गुरु है, गुरुओं की कोई कमी नहीं, लेकिन उनसे लाभ किसी को नहीं मिल पाता। जैसे आपके सामने से नदी बही जा रही हो और आप फिर भी प्यासे मर जाओ। ठीक आपके सामने नदी थी, बहती जा रही थी, आप प्यासे ही मर गए! क्योंकि पहले दृष्टि तो होनी चाहिए न, कि नदी, नदी जैसी दिखाई दे। पहले इतना तो आत्म-बोध होना चाहिए न कि अपनी ही प्यास का पता चले। जिसको ना यह पता है कि “मैं कौन हूँ”, ना यह समझ में आता है कि गुरुता का अर्थ क्या होता है, वह कैसे संबंध बनाएगा?
कबीर ने बहुत स्पष्ट चेतावनी देते हुए कहा है कि “इससे बड़ी भूल हो नहीं सकती है कि आप गुरु को मनुष्य समझ लें।” लेकिन क्योंकि आप अपने-आप को मनुष्य ही समझते हो, आपने अपने-आप को देह के अतिरिक्त कुछ जाना नहीं, इसीलिए गुरु को भी आप देह के अतिरिक्त कुछ जानते नहीं।
मैं एक जगह बोल रहा था, तो वहाँ के चेयरमैन भी बैठे हुए थे लोगों में, सुन रहे थे। सुन कर ऐसा लगा बड़े गदगद से हुए, उसके बाद बोलते हैं उठ करके कि “आपके विचार सुनकर के बड़ा आनंद आया”, मैं थोड़ा कस-मसाया कि यह विचार नहीं है, पर चलो ठीक है, अच्छी बात है, आपके घर में आया हूँ बोलने, आप जैसा भी कहें। फिर अभी कुछ ही दिन पहले, २-३ दिन पहले, देखता हूँ तो लिखा हुआ है एक जगह पर कि, “कृष्ण के विचारों से अर्जुन को एक नई दिशा मिली” मैंने कहा, "फिर ठीक है! जब लोग यहाँ तक जा सकते हैं!"
अभी भी आप मुस्कुरा इसलिए पा रहे हैं क्योंकि मैं एक संदर्भ बना कर कह रहा हूँ, नहीं तो आप भी यही कहेंगे। अभी भी आप मुस्कुरा इसलिए पा रहे हैं क्योंकि मैंने एक माहौल तैयार कर दिया है, तो आपको दिख रहा है कि स्पष्ट है किसी पर व्यंग्य किया जा रहा है। नहीं तो आपको भी साधारणतया यह वाक्य सामने रखा जाए कि “गीता में कृष्ण के विचारों की बात है”, कि “सम्पूर्ण गीता कृष्ण के विचार हैं” तो आप कहेंगे, “ठीक बात है! बड़े उच्च विचार हैं पर हैं तो विचार ही।” जबतक कृष्ण को मनुष्य और गीता को उस मनुष्य के विचार समझा जाएगा तब तक कहाँ से गीता आपको मिल जाएगी? और अभी भी यहाँ बैठे हुए भी आपको बड़ी तकलीफ हो रही होगी यह समझने में कि अगर वह कृष्ण के विचार नहीं तो और क्या हैं?
ध्यान से देखिए, अगर जो कुछ गीता में लिखा हुआ है वह कृष्ण के विचार हैं तो फिर तो कृष्ण को आदमी होना पड़ा, एक आदमी जो सोचता जा रहा है और बोलता जा रहा है, ठीक? सोचता जा रहा है और बोलता जा रहा है। फिर तो आप में और कृष्ण में कोई अंतर ही नहीं है! आप भी सोचिए और बोलिए! पर आप कहेंगे, “नहीं, नहीं, उनकी जो सोच है वह ज़रा सूक्ष्म सोच है, परिष्कृत सोच है, हमारी सोच अभी थोड़ी सी मैली है, उनकी सोच साफ़ है, पर है तो सोच ही, बात एक ही आयाम की है।”
(व्यंगात्मक लय में) जैसे आप सोच सकते हैं वैसे ही वह सोच सकते हैं! “आपके विचार बड़े अच्छे लगे!” और यह सब बातें तारीफ़ के तौर पर कही जा रही हैं। “आपके विचारों का प्रसार होना चाहिए, फैलने चाहिए।” फिर यदि विचार अच्छे लग रहे हैं तो किसको अच्छे लग रहे हैं? यह निर्णय कौन कर रहा है कि अच्छे विचार हैं? शिष्य कर रहा है! गुरु तो बेचारा प्रार्थी है, वह कह रहा है, “महाराज! यह मेरे कुछ विचार हैं, ले लीजिए”, और शिष्य निर्णेता है, शिष्य जज है, वह कह रहा है, “ठीक! आप अपने विचार ले कर के आए, हमने उनको परखा और हमें ठीक लगे और हम आपको प्रमाण-पत्र भी दे रहे हैं।” बड़ी कृपा है आपकी कि आपने माना कि बड़े अच्छे विचार थे, आप ना मानते तो उनकी महत्ता ही घट जाती!
एक मंच पर एक है जो प्रमाण-पत्र दे रहा है और एक है जो प्रमाण-पत्र ले रहा है, दोनों में हमेशा बड़ा कौन होता है?
प्र: जो देता है।
आचार्य: भई! आप प्रमाणित कर रहे हैं कि गुरु के विचार बड़े अच्छे हैं, तो बड़ा कौन होगा?
प्र: शिष्य।
आचार्य: तो बड़ा कौन हुआ? शिष्य बड़ा हुआ। पर हमारी शिक्षा व्यवस्था को यह बात बिलकुल समझ नहीं आती है, और गुरु को लेकर के जो भ्राँतियाँ हैं, उसका बहुत बड़ा कारण यह आजकल की शिक्षा व्यवस्था है। जिसमें इस बात पर बहुत ज़्यादा ज़ोर है कि फ़ीडबैक लिया जाए। आप क्या कर रहे हो? ख़ैर वहाँ ठीक भी है क्योंकि वहाँ जहाँ पर फ़ीडबैक लिया जाता है, आमतौर पर ज़्यादातर शिक्षक कार्यरत होते हैं, गुरु वहाँ होते ही नहीं हैं। कबीर कहते हैं, “गुरु को मानुष जानते, सो जन जानिए अँध” वह अँधा ही होगा! भारत में यह कभी नहीं रही बात कि सेमेस्टर पूरा हुआ है तो जाकर के पूछा जा रहा है विद्यार्थियों से “यह ठीक लगे? इनकी नौकरी रखें या इनको निकाल दें? इनसे और पढ़ना चाहोगे? तुम बताओ इनका क्या किया जाए? तनख़्वाह काट दें इनकी अगर इन्होंने तुम्हें कष्ट दिया हो पूरे सेमेस्टर में?”
और हमारे कॉलेजों में और यूनिवर्सिटी में जो गुरु-जन कार्यरत होते हैं, उनका सेमेस्टर भर ज़ोर इसी बात पर होता है कि किसी तरीके से शिष्य को बहला-फुसला कर रखें। स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो चापलूसी करते हैं सब की, औरों की तो करते-ही-करते हैं, शिष्यों की भी करते हैं, कि अंत में फ़ीडबैक तो इन्हीं से लेना है। कौन बड़ा हो गया?
जब तक गुरु व्यक्ति है, और जब तक उसके शब्द मात्र विचार हैं, तब तक आपका अहंकार आपको सुनने नहीं देगा। तब तक आप निर्णेता बन कर खड़े ही रहोगे। तब तक आप एक दीवार के पीछे छुप कर रहोगे, उपलब्ध हो ही नहीं पाओगे।
कदम-कदम पर आप सतर्क रहोगे, आप कहोगे, “पहले छानूँगा कि मुझ तक क्या पहुँच रहा है और जब मुझे ठीक लगेगा, मात्र तभी ग्रहण करूँगा।” अब प्रश्न यह उठता है कि छलनी तो आपकी ही है न छानने वाली? और जैसे आप, वैसी आपकी छलनी। आप क्या ग्रहण करोगे? मात्र वही जो आपके अहंकार को अनुकूल पड़ता है, पर यह हमारी बड़ी होशियारी की चाल रहती है, “सब पढ़ लो, सब सुन लो, उपनिषद पढ़ लो, गीता पढ़ लो, क़ुरआन पढ़ लो, बाइबल पढ़ लो, दुनिया में जिसने जो कहा है सब पढ़ लो, लेकिन मान मत लेना! क्योंकि तुम उन सब से बड़े हो। उसमें से बस उतना ही अपने तक आने दो, जो तुम्हें पहले से ही ठीक लगता है।” तो तुम पढ़ क्या रहे हो फिर? तुम इसीलिए पढ़ने गए थे ताकि जो तुम्हारी पहले से ही धारणाएँ हैं वह और पुख्ता हो जाएँ?
तुम यह कह रहे हो कि, "मैंने कुछ मत बना रखे हैं और मैं पढ़ रहा हूँ, ताकि उसमें से छाँट सकूँ कि मेरे मुताबिक क्या-क्या है।" यही काम तुम गुरु के साथ करते हो। जिन ग्रंथों के मैंने नाम लिए, यह गुरु ही हैं। और यह हमारी बड़ी चालाकी है, आप में से भी यहाँ जो लोग बैठे हुए हैं, अधिकांशतः का यही होगा, “आने दो! फिर देखो, कबीर ही कह गए थे न ‘सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाए’ तो यह जो बोलते हैं उसमें से थोथा बहुत सारा होता है, उसको हम नहीं सुनते, हम तो सार को ग्रहण करते हैं।” बड़े होशियार हो तुम! पर यह निर्णय कौन कर रहा है कि सार क्या है उसमें से? यह नहीं समझ में आता? जिस अहंकार को गुरु विगलित कर देना चाहता है, जिस अहंकार की नियति ही है टूट जाना, बिखर जाना, तुम उसी का आसरा लेकर के, जब गुरु के समक्ष जाते हो, तो तुम्हें कुछ नहीं मिल सकता।
प्रेम में माँग नहीं रखी जाती, प्रार्थना में शर्तें नहीं रखी जातीं, वहाँ बस उपलब्ध हो जाते हैं। चालाकी करना तो अपने-आप में मूर्खता है ही और मूर्खों में मूर्ख वह है जो गुरु के साथ भी चालाकी खेल जाए।
क्योंकि गुरु अगर गुरु है तो इससे उसका क्या बिगड़ जाना है? जिसका अभी कुछ बिगड़ सकता हो, वह अभी गुरु हुआ ही नहीं। जिसको अभी हानि-लाभ की चिंता हो, वह गुरु अभी हुआ ही नहीं। तो उसका तुम बिगाड़ क्या लोगे? वह इन चिंताओं के पार है। उसको यदि अब चिंता है भी तो अपनी नहीं है। तुम उसका क्या बिगाड़ लोगे? उसको क्या धोखे में रख लोगे? तुम्हारी सारी चालाकियाँ पलट-पलट कर तुम्हीं पर पड़ रही हैं।
और जीवन को अपने ध्यान से देखो, चेहरे को अपने ध्यान से देखो, यह जो बेरौनक चेहरा है, यह जो उदासियाँ हैं, यह और कहाँ से आ रही हैं? अपनी ही मूर्खताओं से आ रही हैं। पर समझ में नहीं आता।
चतुराई क्या कीजिये, जो नहिं शब्द समाय। कोटिक गुन सूवा पढै, अंत बिलाई खाय।।
(उस चतुरता से क्या लाभ? जब सतगुरु के ज्ञान-उपदेश के निर्णय और शब्द भी हृदय में नहीं समाते और उस प्रवचन का भी फिर क्या लाभ हुआ। जैसे करोड़ों गुणों की बातें तोता सीखता-पढ़ता है, परंतु अवसर आने पर उसे बिल्ली खा जाती है। इसी प्रकार सदगुरु के शब्द सुनते हुए भी अज्ञानी जन यूँ ही मर जाते हैं।)
चतुराई बहुत है, बहुत ज़्यादा चतुराई है जीवन में!