माया दीपक नर पतंग, भृमि-भृमि मांहि परंत।
कोई एक गुरु ज्ञान ते, उबरे साधु संत।।
~ कबीर
वक्ता: (दोहा पढ़ते हुए) माया दीपक नर पतंग, भृमि- भृमि मांहि परंत। कोई एक गुरु ज्ञान ते, उबरे साधु संत।
पतंगे को भ्रम क्या हो गया है? भ्रम क्या है?
श्रोता १: भ्रम जो है, वो उसकी अग्नि है।
वक्ता: हाँ, चलिए ऐसे बोलिए। आगे?
श्रोता १: उसे यह लगने लगता है कि उसके करने से ही सब हो रहा है, मतलब, उसके अन्दर जो उछल-कूद हो रही है, भाग-दौड़ हो रही है, यह सब, उसकी डोर उसके अपने हाथ में है।
वक्ता: चलिएकबीर तो लक्षणा के तौर पर बोल रहे हैं। तथ्य के तौर पर ही देखें, तो भी बताइए कि क्या होता है जब एक पतंगा जाकर के आग में पड़ जाता है, तो वो क्या कर रहा होता है? वैज्ञानिकों से पूछेंगे, तो वो क्या बताएँगे? भ्रम क्या है?
श्रोता २: उसको लगता है, रौशनी है।
वक्ता: रौशनी तो है ही। भ्रम क्या है?
श्रोता ३: वो उसको पा लेगा, तो कुछ एक्स्ट्रा उसे मिल जाएगा।
वक्ता: आप क्यों नहीं जाकर आग में घुस जाते हो कि एक्स्ट्रा मिल जाएगा।
श्रोता १: उसका अट्रैक्शन (आकर्षण) है।
श्रोता ४: उसको यह लगता होगा कि यह स्वर्ग है।
वक्ता: बहुत मज़ेदार बात है। उसको यह लगता है, रौशनी से, कुछ तरंगे, कुछ वेव्स (तरंगे) बिलकुल वही निकलती हैं नर पतंग के लिए, जो मादा पतंग की मेटिंग कॉल (प्रजनन के लिए आमंत्रण) होती है। इस नाते, वो जल मरता है। यह है भ्रम।
माया क्या है? जो नहीं है उसका भासित होना ही माया है।
पतंगा, दीपक में प्रेम की खातिर जल मर रहा है, और ऐसी जगह प्रेम ढूँढ़ रहा है जहाँ प्रेम मिल नहीं सकता। यही भ्रम है। आग को प्रेम की पुकार समझ रहा है। यही भ्रम है। और यही हम करते हैं। जहाँ प्रेम नहीं मिल सकता, जहाँ प्रेम मिल ही नहीं सकता, वहाँ हम प्रेम के भिखारी बनकर खड़े हो जाते हैं। हष्र हमारा कैसा होता है? पतंगे जैसा ही। प्रेम तो नहीं ही मिलता, जीवन की संभावना से भी हाथ धो बैठते हैं। यही भ्रम है। इसी को कह रहा हैं कबीर- *‘भृमि-भृमि मांहि परंत’*। जो है नहीं, तुमको वो दिखाई पड़ रहा है, जैसे शराबी। शराबियों को हाल देखा है? जो नहीं है, वो उन्हें दिखाई पड़ता है। जो है, वो उन्हें दिखाई नहीं पड़ता। वही हालत हमारी है।
कई तलों पर भ्रम है पतंगे का। पहली बात- आग को, वो मादा पतंगा समझ रहा है। दूसरी बात- मादा पतंगे को, वो प्रेम समझ रहा है। मान लो, आग न होती। मान लो, मादा पतंगा ही होती। तो भी क्या नर पतंगे को वो मिल जाना था, जिसकी तलाश में वो गया है? आप जब किसी के शरीर से आकर्षित होते हैं, तो यह न समझियेगा कि आपको उसका शरीर चाहिए। चाहिए आपको परम ही, पर भ्रम हो जाता है न। सस्ता विकल्प मिल जाता है। आपको लगता है कि यह जो प्यास है, गहरी प्यास, वो शरीर से मिट जायेगी। शरीर से मिट नहीं सकती।
पतंगे का जलना दिखाई पड़ जाता है क्योंकि भौतिक है। साफ़-साफ दिखाई पड़ता है, जला और गिर पड़ा और मृत है। वो मृत है, दिखाई पड़ता है। हम मृतवत् हैं, दिखाई नहीं पड़ता। उसका शरीर जलता है, दिखाई पड़ता है। हमारा मन राख हो चुका है, दिखाई नहीं पड़ता। कहा है न कबीर ने- ‘*लकड़ी जल कोयला भयी, कोयला जल भया राख। मैं बिरह में ऐसी जली, कोयला भयी न राख’*।
तो कोयला हो जाता है पतंगा और जला हुआ हमें दिखता है। हम उससे कुछ बेहतर नहीं हैं, वैसे ही जले हुए हैं। जिसने भी प्रेम को गलत जगह ढूँढा, उसकी नियति पतंगे जैसी ही होगी। कोयला और राख बनकर पड़ा होगा। हम भी कोयला और राख हो चुके हैं। हमारा दिखाई नहीं पड़ता। कहा न- वो मृत है। हम मृतवत् हैं। सो हमें भ्रम रहता है कि हम जीवित हैं। दोनों जगह बस काम इसी का है कि जो नहीं था वो दिखने लग गया। इसे कौन सी शक्ति कहते हैं माया की?
श्रोता ५: विक्षेप।
वक्ता: विक्षेप शक्ति। जो है ही नहीं, वो दिखाई पड़ रहा है। जहाँ से प्रेम मिल ही नहीं सकता, जो कुआँ सूखा हुआ है, वहाँ पर हम बाल्टी पर बाल्टी डाले जा रहे हैं कि क्या पता दो-चार बूंद निकल आये। कैसे निकल आयेगा! इस कुएं में कोई धार ही नहीं है। कुएं को पानी कहाँ से मिलता है? स्रोत से। जो कुआं खुद अपने स्रोत से सम्प्रक्त नहीं है, वो आपको पानी कहाँ से दे देगा! जो व्यक्ति स्वयं परम से सम्बंधित नहीं है, उससे आपको प्रेम कहाँ से मिल जाएगा! पर आप सूखे कूओं में लगे हुए हो। आशा है न, कि क्या पता, सूखे कूओं से ही कुछ मिल जाए।
पतंगे हैं भई! और शायरों ने पतंगों की तारीफ़ में बड़े कसीदे कहे हैं। पतंगा। वाह! पतंगा! जल मारा।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।