गुरु के बिना क्या परमात्मा से साक्षात्कार संभव है?

Acharya Prashant

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गुरु के बिना क्या परमात्मा से साक्षात्कार संभव है?

प्रश्नकर्ता: किसी भी मन को सत्य की तरफ़ दिशा कैसे मिलेगी अगर उसकी ज़िन्दगी में शरीर रुपी गुरु ही नहीं हो? गुरु के बिना क्या सत्य से साक्षात्कार होने की सम्भावना है भी?

आचार्य प्रशांत: ऐसा किसी के साथ भी नहीं होता कि वो एक पर्सन (व्यक्ति) से ही खाली सीख ले। आप कितना भी बोल लो कि आप किसी फ़िज़िकल (भौतिक) गुरु को डिवोटेड (समर्पित) हो, वगैरह-वगैरह। लेकिन आप चौबीसों घंटे उसी का स्मरण थोड़े ही कर रहे हो।

तो जो सीखने वाला कार्यक्रम होता है वो हमेशा बहुत सारे लोगों, बहुत सारी परिस्थितियों, और बहुत सारी घटनाओं वगैरह को शामिल करके चलता है। उसमें ये हो सकता है कि पन्द्रह-बीस-पचास तरीके के फैक्टर्स (तथ्य) शामिल हैं। तो उनमें कोई एक फैक्टर सेन्ट्रल लगे, या कि कोई एक फैक्टर बाकी सारे फैक्टर्स का कारण लगे।

लेकिन ऐसा कभी भी नहीं होता कि कोई किसी एक इंसान से ही सीख रहा है, ऐसा कुछ हो रहा है। तो पचासों फैक्टर्स सबके लिए होते हैं। किसी के में ये हो सकता है कि किसी एक व्यक्ति की प्रधानता हो जाए, कोई एक व्यक्ति है व्यक्ति केन्द्रिय हो जाए।

और किसी के में ऐसा भी हो सकता है — दूसरे छोर पर — कि उसमें कोई विशेष व्यक्ति शामिल ही न हो। विशेष व्यक्ति शामिल ही न हो। उसमें बहुत सारे छोटे-छोटे व्यक्तियों के छोटे-छोटे रोल हों। हम सीखने की बात कर रहे हैं कि जो शिष्य गुरु से सीखता है वो प्रक्रिया क्या है।

सीखने की आपमें एक कैपेबिलिटी (क्षमता) आती है सुनने की, तो ऐसा थोड़े ही होता है कि आप किसी एक आदमी को ही सुन पाओगे, या एक जगह से ही सीख पाओगे।

फिर तो ऐसा होता है कि जैसे आँखें देखने लग गयी हैं, तो अब किसी की आँखें देखने लग जाती हैं, तो क्या ऐसा होता है कि सिर्फ़ किसी एक खास आदमी को ही देख पाती हैं? जब आप अन्धे होते हो, तो आपको कोई भी दिखाई नहीं देता। लेकिन जब आँखों में रोशनी आती है, तो आपको?

श्रोतागण: सब दिखाई देता है।

आचार्य प्रशांत: सब दिखाई देते हैं। ऐसा थोड़े ही होता है कि आँखों को एक ही दिखाई देता है। तो यही चीज़ सीखने पर भी लागू होती है।

जो सीखता है वो हमेशा पचासों स्रोतों से सीखता है। ये ज़रूर हो सकता है कि उन पचास में से किसी एक की बहुत प्रधानता हो, या ऐसा लगे कि प्रधानता है किसी एक की, ये हो सकता है। लेकिन सीखना तो हमेशा बहुतों से होता है, लगातार होता है बल्कि।

उसको अगर और सटीक होकर के बोलना चाहोगे, बिलकुल प्रीसाइज, तो ये कहना चाहिए कि सीखना पचासों से भी नहीं, अनगिनत माध्यमों से और कारणों से होता है, स्रोतों से होता है।

समझ रहे हो?

तब इसमें ये ताज्जुब की बात फिर हुई ही नहीं कि कोई बिना गुरु के कैसे सीख सकता है। भई! हर कोई सैकड़ों जगहों से सीख रहा है। जब उसके सीखने की जो चाह है वो जब जगती है, तो हर कोई पता नहीं कितनी जगहों से सीख रहा होता है। तो उसमें कभी कोई खास व्यक्ति गुरु नाम का शामिल हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है।

प्र: सीखता तो वैसे हर कोई ही है, क्योंकि लगातार कुछ-न-कुछ तो हो ही रहा है, घट ही रहा है और वहाँ पर हम इसमें व्याख्या कर ही रहे हैं। कुछ-न-कुछ तो आ ही रहा है, बढ़ा ही है, लेकिन जैसे कि बाहरी तौर पर व्यक्ति के रूप में होता है, कोई एक चीज़ है जिसका महत्त्व और प्रधानता ज़्यादा है।

उसके द्वारा सम्भावना ये हो जाती है कि आपकी जो समयावधि होती है किसी से सीखने की, वो काफ़ी कम हो जाती है। तो सारा हिस्सा जिसके लिए कोई विशेष व्यक्ति नहीं है, लेकिन हर चीज़ से सीख ही रहा है, तो वहाँ पर समयावधि कम कैसे, किस तरीके से बोलते हैं...

आचार्य प्रशांत: नहीं, जिसके साथ तुम ये कह रहे हो कि टाइम स्पैन वगैरह रिड्यूस हो जाता है। ये सब है।

प्र: एक डायरेक्शन में।

आचार्य प्रशांत: उसके साथ भी सबका टाइम स्पैन रिड्यूस नहीं हो जाएगा। हो सकता है बहुतों का हो जाए, हो सकता है उसके माध्यम से बहुतों को कम समय में सीखने की सुविधा हो जाए। लेकिन तब भी ऐसा नहीं होने वाला कि ये सुविधा सबको ही हो जानी है। ठीक है?

जब सबको नहीं हो जानी है, तो फिर बात ज़ाहिर है कि इसमें काफ़ी बड़ा जो रोल है वो आपका है। अगर आपका नहीं होता उस गुरु का होता, तो फिर उससे सभी सीख रहे होते न। सभी तो नहीं सीख पा रहे हैं न। आप सीख रहे हो? तो काफ़ी हद तक जो बाहर गुरु है उसका निर्माण आप करते हो। ‘गुरु को गुरु आपका शिष्यत्व बना देता है।’

समझ रहे हो?

आप चूँकि अब सीखने को, शिष्य होने को राज़ी हो गये हो, तो इसीलिए सामने वाला फिर गुरु बन जाता है। वरना वो भी एक साधारण आदमी है। आप में ये ताकत है कि आप साधारण आदमी को भी गुरु बना देते हो। तो जब व्यक्तियों के तल पर बात होती है कि एक व्यक्ति है जो शिष्य है, एक व्यक्ति है जो गुरु है, तो उसमें आम आँखों को ये दिखता है कि शिष्य का जो रूपान्तरण है, ट्रांसफॉर्मेशन, वो गुरु कर रहा है।

ऐसा ही लगता है न?

उल्टा होता है। पहले जो शिष्य होता है वो गुरु का रूपान्तरण करता है। क्योंकि शिष्य न हो, तो तुम जिसे गुरु बोल रहे हो उसका फिर कोई और ही चेहरा देखोगे तुम। जब शिष्य आता है न, तभी उसका गुरु वाला चेहरा सामने आता है। इसका मतलब ये है कि सामने वाले को कारण समझना गलत होगा।

गुरु को शिष्य की उन्नति का, या मुक्ति का कारण समझना गलत होगा। गुरु नहीं होता है। शिष्य में कुछ ऐसा होता है जो गुरु का गुरु वाला चेहरा खोल देता है और जब वो ताकत शिष्य में है, तो फिर वो किसी को भी गुरु बना सकता है।

तुम हो जो गुरु पैदा किये जा रहे हो। जब तुम गुरु पैदा करना जानते हो, तो तुम किसी को भी बना दोगे न। इसका मतलब मूलभूत से ये है कि तुम कहीं से भी सीखना शुरू कर देते हो।

तो एक तल पर बहुत बड़ी बाधा नहीं है कि आपका कोई विशिष्ट गुरु नहीं है। क्योंकि विशिष्ठ गुरु तो किसी का भी नहीं होता। जो सीखता है सही में वो सबसे ही सीखता है। ऐसा कोई नहीं मिलेगा, और ये बहुत अजूबी बात होगी, ये बहुत बड़ा मज़ाक होगा कि कोई कहे कि भई! मेरा तो फ़लाना गुरु था, और मैंने सिर्फ़ उसी से सीखा और किसी से नहीं सीखा।

सीधी सी बात है, या तो तुम सीखोगे, तो हज़ार जगह से सीखोगे और नहीं सीखोगे, तो किसी से नहीं सीखोगे। ये कहना कि मुझे, मैंने तो कहीं से नहीं सीखा, सिर्फ़ एक व्यक्ति से सीखा। ये झूठी बात है। ऐसा हो नहीं सकता। ऐसा नहीं होता। इसीलिए आप जिसको फ़िज़िकल गुरु बोलते हो उससे सम्बन्ध में बहुत केयरफुल रहना चाहिए, बहुत केयरफुल।

एक तरफ़ तो ये बात बिलकुल सही है कि उससे आपको काफ़ी कुछ मिल रहा है। दूसरी ये बात भी सही है कि उसको आपकी आत्मा ने ही गुरु बनाया है। आत्मा अरूप होती है उसको तो आप देख नहीं सकते। वो जब गुरु के माध्यम से आपको मिलती है और आपकी मदद करती है, तो आप उसको देख पाते हो।

तो जब आप गुरु को नमस्कार करो, तो आपको ये बहुत साफ़ होना चाहिए कि आप किसको नमस्कार कर रहे हो‌। जब आप गुरु को नमस्कार करो, तो आपको ये बहुत साफ़ होना चाहिए कि आप आत्मा को नमस्कार कर रहे हो।

आप अपने भीतर वाली उस चीज़ को नमस्कार कर रहे हो जिसके कारण गुरु है बाहर वाला। अगर ये याद रखकर के आपने गुरु को नमस्कार किया, तब तो ठीक रहेगा और यदि ये याद रखे बिना आपने गुरु को नमस्कार कर लिया, तो आप गुरु को शरीर बना दोगे। तो फिर तरह-तरह के खेल चालू हो जाएँगे।

जिसको आप सामने शरीर रूप में खड़ा पाते हो, जिसको आप बोलते हो कि ये मेरा गुरु है। गुरु, व्यक्ति रूप में। वो बड़ी नाजुक चीज़ होता है। उसको नमस्कार करना भी ज़रूरी है और उसको नमस्कार करते हुए याद रखना भी ज़रूरी है कि इसको नहीं कर रहे नमस्कार।

नहीं समझ रहे हो?

अगर तुम्हारे मन में ये भाव आ गया न कि ये सामने खड़ा हुआ है हाड़-माँस, इससे मुझे बहुत कुछ मिल रहा है, तो तुरन्त ही तुम्हारे मन में ये लालच भी आएगा कि हाड़-माँस ही तो है, पकड़ लो न। क्योंकि हाड़-माँस तो किसी का भी पकड़ा जा सकता है। पदार्थ ही तो है, मटेरियल ही तो है, लिमिटेड है।

तो एक ओर तो बहुत ज़रूरी है कि गुरु को नमस्ते किया जाए, नमन किया जाए। दूसरी ओर ये भी याद रखा जाए कि नमन जिस असली को करना है, वो तो आत्मा है, जिसके कारण ये गुरु है। आत्मा न होती तो ये क्या सिखा पाते। कोई गुरु किसी मुर्दे को कुछ सिखा सकता है क्या। या कोई एकदम ही नशा खाकर के पड़ा है, उसे कुछ सिखा सकता है क्या? या कोई एकदम ही अनइच्छुक हो, तो उसको सिखा सकता है क्या?

तो बाहर वाला तभी सिखा सकता है जब अन्दर वाला चाहता है। आप नमस्ते तो कीजिए, लेकिन याद रखिए कि नमस्ते आप हड्डी को, खून को और पेशाब को नहीं कर रहे हो। आपके मन में अगर ये स्पष्ट नहीं है कि आप किसको नमस्ते कर रहे हो, तो फिर आप गुरु को भी हड्डी, खून, पेशाब बना दोगे। और जिस भी चीज़ को आपने हड्डी, खून, पेशाब बनाया, उसको तो आप जानते हो कि फिर वो आपके शरीर के ही तल पर है। हड्डी हड्डी तो एक बराबर होती है न।

हड्डी तो आपके पास भी है। फिर आपका यही मन करेगा कि इस हड्डी को मैं पकड़ ही क्यों न लूँ। इस हड्डी को अपने अनुसार नियंत्रित ही क्यों न कर लूँ। जब इस हड्डी से ही मुझे कुछ मिलना है, तो जिससे मुझे मिलना है उस पर ही अगर काबू हो जाए, तो इससे अच्छा क्या हो सकता है। मिलने की गारंटी हो गयी हमेशा।

प्र: लेकिन क्या इस चीज़ से बहाना नहीं मिलता कि आप जाकर के किसी और के सामने झुक गये? क्योंकि आपको उसमें भी आत्मा दिख रही है।

आचार्य प्रशांत: ये बातें बहुत नाजुक हैं, बहुत नाजुक हैं। इसमें बहाना हर चीज़ पर बन सकता है, हर कदम पर बन सकता है। कोई बहाना बनाने पर ही उतारू हो, तो आप फिर उसे रोक नहीं सकते। वो तो कोई भी बात आप बोल दोगे, वो बहाना उसके लिए बन ही जाएगी। बहाना न बन पाए फिर उसके लिए आपको बहुत ही मोटी और भोथरी बात बोलनी पड़ेगी। उसका बहाना आप नहीं बना सकते। लेकिन फिर वो मोटी और भोथरी बात होती भी किसी काम की नहीं है।

जो बात जितने काम की होगी, वो बात उतनी ही महीन भी होगी। जो चीज़ जितनी सत्य होती है न, वो उतनी ही एक मायने में कमज़ोर भी होती है। उसको बहुत आसानी से तोड़ा जा सकता है, उसको बहुत आसानी से विकृत किया जा सकता है।

तो अगर कोई इस पर ही आमादा हो, तो उसको नहीं रोक सकते, वो तो फिर कर लेगा। देखो, अहंकार और आत्मा के बीच का जो खेल है ये बहुत महीन खेल है। इसमें कौन किसका है, कौन किसका नहीं है, किसकी क्या चाहत है। ये आप साफ़-साफ़ कभी नहीं जान पाओगे।

बस इतना पता चलेगा कि कोई खेल चल तो रहा है। उस खेल में कुछ पाने को, कुछ खोने को नहीं है, लेकिन घटनाएँ बहुत घटती हैं। है कुछ नहीं। लेकिन होता उसमें बहुत कुछ है। ये हो रहा है, वो हो रहा है, ये ऊँच, ये नीच, ये पाया, ये खोया। है उसमें कुछ नहीं पाने-खोने को। पर फिर भी इस तरह की घटनाएँ होती बहुत हैं उसमें।

कहते हैं न, ए लाइफ़ इज़ ए टेल टोल्ड बाइ एन इडियट, लाइफ इज ए टेल टोल्ड बाइ एन इडियट, फुल ऑफ साउंड एंड फ्यूरी सिग्नीफाइंग नथिंग (जीवन एक बेवकूफ़ द्वारा बताई गयी कहानी है, जीवन एक बेवकूफ़ द्वारा बताई गयी कहानी है। ध्वनि से भरपूर है और रोष कुछ भी नहीं दर्शाता है)।

फिर उसने ये कर दिया, फिर उसके सिर पर नारियल फोड़ दिया, उसने उसकी गाड़ी में बम लगा दिया। और चल रहा है, बहुत कुछ चल रहा है। जिसका कुछ अर्थ नहीं है, जिसकी कोई तीर-तुक्का नहीं है।

तो ये तो मतलब एब्सर्ड (बेतुकी) बात और मज़ाक की बात हो गयी। तो अहंकार और आत्मा के खेल का भी ऐसा ही है। उस पर गाने-वाने बहुत लिखे जाते हैं। ये है, वो है, ऐसा-वैसा, मैं-तू, तू-मैं। तू-तू करता तू हुआ। बहुत सारी बातें जो यही रहती हैं। मैं-तू, मैं-तू का खेल। पर वो खेल बहुत ही, बहुत ही टेंडर (नाजुक) है। इट इज द मोस्ट सिलेंडर ऑफ थ्रेड्स। (ये धागों का सर्वाधिक बेलन है।)

इसमें उन दोनों में दोस्ती है या दुश्मनी, ये पता कर पाना बहुत मुश्किल है। जब कोई टीचर ये सब बोलता है न। इगो इज द अफ्रेड ऑफ द ट्रुथ। (अहंकार सत्य का भय है।) और इस तरह की ग्रॉस (स्थूल) बातें।

तो ये मतलब, कहीं से भी सच्चाई नहीं है। इगो इज अफ्रेड ऑफ द ट्रुथ करेक्ट, बट देन इगो ऑलसो लुक्स द ट्रुथ एज द रेमेडी फोर ऑल फियर, इगो हेट्स द ट्रुथ करेक्ट, बट इगो लव द ट्रुथ इक्वअली करेक्ट (अहंकार सत्य से डरता है, सही है। लेकिन फिर अहंकार सत्य को सभी भय के समाधान के रूप में भी देखता है। अहंकार सत्य से नफ़रत करता है, लेकिन अहंकार सत्य को भी उतना ही प्यार करता है)।

तो ये बात ज़रा महीन है। आप कुछ कह नहीं पाओगे कि वास्तविक रिश्ता क्या है इन दोनों के बीच में। लव हेट है, हेट लव है। लेट हब है। क्या है? आप कुछ बता नहीं पाओगे। कुछ है तो लेकिन, कुछ तो है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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