गुरु के शब्द, और सत्य की चाह || आचार्य प्रशांत, संत लल्लेश्वरी पर (2014)

Acharya Prashant

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गुरु के शब्द, और सत्य की चाह || आचार्य प्रशांत, संत लल्लेश्वरी पर (2014)

आचार्य प्रशांत: कहानी कहती है, लल्ला घर में जब भी ज़रा भी कोई सच्चाई की बात करती तो घरवालों को अच्छा नहीं लगता, मारते-पीटते। माँस बहुत खाते थे और लल्ला पर भी ज़ोर डालते कि तू भी माँस खा। वो मना कर देती। तो लल्ला की सास ने लल्ला के लिए सज़ा रखी कि या तो तू माँस खा नहीं तो पत्थर खा।

तो कहानी कहती है कि घर में जब भी माँस बनता, लल्ला पत्थर खा लेती। कश्मीर में आज भी कहावत है, "माँस मत खाना, अगर माँस खाओगे तो लल्ला को पत्थर खाना पड़ेगा।" ऐसे ही चलता रहा, लल्ला जवान हो गयी। पति के कई तरीक़े के दबाव बढ़ने लगे, शारीरिक दबाव भी बढ़ने लगे। तो लल्ला एक दिन घर छोड़कर भाग गयी।

एक ऋषि थे, रहते थे जंगल में, उनके पास चली गयी और निवेदन किया कि शिष्या बना लो। उन्होंने उसकी पूरी कहानी सुनी। देखा कि लड़की घर-वार, पति, धन-दौलत, सब छोड़कर आयी है यहाँ जंगल में, बोले, 'ठीक है, तू क़ाबिल है।'

लल्ला से पूछा, 'क्या चाहिए?' लल्ला ने कहा, 'पति चाहिए।'

समझ रहे हो न? पति को तो छोड़ आयी थी पीछे, कौनसा पति चाहिए?

प्रश्नकर्ता: जिन्हें सूफ़ी पिया कहते हैं।

आचार्य: तो गुरु ने कहा, 'पूरी ज़िन्दगी भी लग सकती है — दो-चार साल की बात नहीं है — और तब भी पक्का नहीं।' लल्ला बोली, 'कई जन्म भी लग जाएँ तो कोई बात नहीं।' बोले, 'ठीक है।'

तो कहानी है कि लड़की थी इस नाते गुरु उस पर थोड़ा नर्म रहते। अपने बाक़ी शिष्यों को जितनी साधना बताते, इसको कम बताते कि नहीं कर पाएगी। कड़ी साधनाएँ होती थीं — खाना मत खाओ, कश्मीर की ठंड में भी कपड़े कम पहनो। लल्ला को उतना कड़ा काम नहीं देते थे। तो लल्ला ने अपने लिए नियम बनाया कि गुरु जो कहेंगे उससे पाँच गुना करूँगी।

उन्होंने वो लल्ला की बात पढ़ी होगी कि मैंने अपने गुरु से हज़ार बार पूछा, तो वो ऐसी ही थी — ज़िद्दी। तो लल्ला गुरु के यहाँ तेज़ी से आगे बढ़ने लगी। जंगल में थी, ज़्यादा लोग जानते नहीं थे, छुपी हुई थी।

तो ये जो सब शैव तपस्वी थे, शिव की उपासना करते थे, तो इन सबका अपना एक कोड था, जैसे शंकर रहते हैं न, नंगे-पुंगे, अघोरी, ये भी वैसे ही रहते थे। लल्ला को गुरु अनुमति नहीं दें ऐसा रहने की। लल्ला को बोलें कि नहीं, तू तो स्त्री है, तू कपड़े-वपड़े पहनकर रख। तो लल्ला बोली कि ठीक है। अपना पहने रहती थी।

एक दिन गुरु के पास बैठी थी तो पूछती है, ‘आप जितनी बात मुझसे बोलते हैं अगर वो सब एक बात में बोलनी हो तो आप क्या कहेंगे?' गुरु ने कहा, 'अन्दर-बाहर एक सी रह।' तो लल्ला ने सारे कपड़े अपने उतार कर फेंक दिये और फिर ज़िन्दगीभर कभी उसने कपड़े नहीं पहने।

तो फिर जल्दी समय आ गया, गुरु ने कहा लल्ला से कि अब तू जा, जंगल में मत रह, दुनिया को तेरी ज़रूरत है, तू अब दुनिया में जा। तो फिर वैसी ही हालत में — और कहते हैं कि लल्ला जैसी खूबसूरत औरत कश्मीर में दूसरी नहीं हुई — गाँव-शहर की तरफ़ आ गयी। उसके बाद बहुत सारी कहानियाँ हैं, कोई रिटन रिकॉर्ड (लिखित प्रमाण) तो है नहीं, बस ऐसे ही हैं जनश्रुतियाँ। जिसमें से सबसे प्रसिद्ध ये मुहावरा है कि लल्ला पागलों के पास जाती थी तो पागल ठीक हो जाते थे, और लल्ला जो बहुत होशियार, समझदार लोग होते थे उनके पास जाती थी तो वो पागल हो जाते थे।

ऐसी ही एक कहानी है कि अब लल्ला शहर में आ गयी तो सबको पता चला कि उसका नाम पड़ गया 'लल्ला योगिनी'; मुसलमान कहते थे 'लल्ला आरिफ़ा'। तो उसके पुराने पति को पता चला कि ये तो वही है और इसका नाम भी बहुत हो गया है।

तो पता है न अपना घर छोड़कर क्यों भागी थी, क्यों? मुख्य कारण ये था कि वो सब वही कश्मीरी पंडितों में बिलकुल नरक वाली आदत होती है माँस खाने की।

तो कहानी कहती है कि पुराना पति घोड़े पर बैठकर लल्ला को लेने आया। लल्ला बोली, 'ठीक है, मुझे वापस ले चलो, लेकिन पहले इन लोगों से मिल लो।' और लल्ला ने उसको चिड़िया से, साँप से, हिरण से, खरगोश से, शेर से, जंगल के जितने जानवर थे उन सबसे मिलवा दिया। उसके बाद कहते हैं, 'वो घोड़े पर आया था तन कर कि बीवी को लेने जा रहा हूँ और एक भैंस पर बैठकर अपने कपड़े फाड़कर नाचता हुआ वापस गया, ये कहकर कि ये भैंस मेरी यार है, मेरी भैंस से दोस्ती हो गयी।

ज़ाहिर सी बात है कि उसके बाद ज़िन्दगी में कभी उसने माँस खाना तो छोड़ो, किसी जानवर को सताया भी नहीं। लल्ला के दीवाने बढ़ते जा रहे थे। जितने भी गृहस्थ लोग थे, ख़ासतौर पर गृहस्थ औरतें वो लल्ला को पानी पी-पीकर बद्दुआ देती थीं कि साली, घर-परिवार छोड़कर नंगी घूमती है। और जितने भी समझदार लोग थे वो लल्ला के पास आते थे कि ज्ञान दो।

तो लल्ला को पत्थर भी खूब पड़ते थे और सराहना भी मिलती थी। तो बात फैलते-फैलते राजा तक पहुँची, राजा आया लल्ला से मिलने। लल्ला को देखा; कहानी है कि लल्ला को देखकर राजा की आँखों को लकवा मार गया। लल्ला ने ही ठीक किया। आया था लल्ला को ले जाने, ख़ुद कभी लौटकर नहीं गया।

लल्ला से बोलता है, 'शादी कर लो मुझसे।' लल्ला बोलती है, 'कर लूँगी, तुम मेरे पहले पति से मेरा तलाक़ करा दो।' बोला, 'करा दूँगा, मैं तो राजा हूँ, अभी करा देता हूँ।' लल्ला बोली, 'ठीक, जाओ उसको ढूँढ के लाओ, उसको मिलो, उसको कहो कि मुझे छोड़ दे। जब वो मुझे छोड़ देगा तो मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगी।'

उसने पूछा, 'क्या नाम है तुम्हारे पहले पति का?' लल्ला बोली, 'रुद्र, जाओ ढूँढो उसे।' कहानी ये कि वो राजा फिर ज़िन्दगीभर रुद्र को ढूँढता ही रहा। सल्तनत छोड़ दी, सब छोड़ दिया, ज़िन्दगीभर रुद्र को ढूँढता रहा।

रुद्र समझते हो न?

प्र: शिवजी का दूसरा नाम।

आचार्य: शिव। वो ज़िन्दगीभर शिव को ढूँढता रहा। कश्मीर का जो पहला सूफ़ी ऑर्डर था, वो लल्ला के बाद निकला। कश्मीर का जो पहला सूफ़ी सन्त था वो लल्ला का दत्तक पुत्र था — गोद लिया हुआ बेटा। वो अपनेआप को सूफ़ी ऋषि कहते थे, और उनके लिए दो व्रत लेना अनिवार्य था — पहला, पूरी दुनिया मेरा परिवार है; दूसरा, किसी जीव को कभी सताएँगे नहीं, मतलब माँस नहीं खाएँगे। वो सूफ़ी ऋषि 'ऋषि सूफ़ी' कहलाते हैं।

तो हिन्दुओं ने, मुसलमानों ने — वही समय था जब कश्मीर में इस्लाम बिलकुल नया-नया, ताज़ा-ताज़ा फैल रहा था — हिन्दुओं ने, मुसलमानों ने, सबने लल्ला को अपना ही कहा, जैसे कबीर को। मुसलमानों में यहाँ तक है कि ऊपर अल्लाह है और नीचे लल्ला है, और इन दो के अलावा हम किसी को जानते नहीं। ये है लल्ला की कहानी।

प्र: आचार्य जी, 'लाल देद' नाम कैसे पड़ा?

आचार्य: देद माने दादी। जब लल्ला मर गयी तो उसके बाद लोगों ने इज़्ज़त के तौर पर लल्ला योगिनी को 'लल्ला दादी' कहना शुरू कर दिया। ये है लल्ला की कहानी। जंगल में नाचती थी लल्ला रुद्र के लिए। कहते हैं कि वो राजा मरा नहीं है, वो आज भी कश्मीर के जंगलों में रुद्र को खोज रहा है। कहता है कि रुद्र को पाये बिना, लल्ला को पाये बिना तो मुझे मौत भी नहीं आ सकती।

कश्मीरियों सुधर जाओ, तुम जब भी चिकन खाओगे, लल्ला को पत्थर खाना पड़ेगा। तुम्हीं कश्मीरी पंडितों से त्रस्त होकर लल्ला भागी थी। अभी तुम लल्ला को गाओगे, वो हँसेगी।

कश्मीर में ठंड कितनी होती है, जानते हो? कश्मीर के जाड़े कैसे होते हैं? कैसे होते हैं?

प्र: तापमान शून्य से नीचे चला जाता है।

आचार्य: उस ठंड में कोई बिना कपड़ों के घूम रहा है। महावीर का तो आसान था, यूपी-बिहार में थे — 'ठंडा-ठंडा कूल-कूल' — कपड़े उतारोगे तो अच्छा लगेगा; कपड़े पहनो तो पसीना और आता है। लल्ला का सोचो, कश्मीर की ठंड में बिना कपड़ों के घूमना!

ठीक से याद नहीं आ रहा पर शायद ऐसा ही था कि जिस दिन उसने सारे कपड़े उतार दिये, उसी दिन गुरु ने कहा, ‘अब आश्रम में तेरा काम नहीं, अब तू जा।’

तुम्हारे मन में जितनी भी छवियाँ होंगी न अध्यात्म की, उनमें आग लगा दो अच्छे से। आध्यात्मिक आदमी वैसा नहीं होता, कंज़रवेटिव (रूढ़िवादी) और ये-वो। बेइन्तहा सुन्दर थी लल्ला; और तुम्हारी दीपिका पादुकोण क्या एक्सपोज़र (अनावरण) करेगी और सन्नी लियोनी की औक़ात है कि ज़िन्दगीभर नंगी रहे!

स्पिरिचुअल आदमी में ही ये दम हो सकता है कि अब कपड़े उतार दिये तो उतार दिये, अब नहीं पहनेंगे। तुमने स्पिरिचुएलिटी को बना रखा है कि घोंचूलाल और घूँघट डालकर चलने वाले लोग, उनको तुम बोलोगे स्पिरिचुअल।

कबीर साहब ने कहा है, "नाचन निकली बापुरी घूँघट कैसा होय।” कि अब नाचने निकल पड़ी तो घूँघट क्या डाल रखा है। स्पिरिचुअल आदमी को तो नंगा होना ही पड़ेगा। और फिर वो छोटा-मोटा एक्सपोज़र नहीं करता कि दो बटन यहाँ के खोल दिये, दो बटन वहाँ के खोल दिये, वो तो पूर्णतया निर्वस्त्र होता है।

वो थोड़ा-बहुत उतारता है तो तुम्हें टिटिलेशन (उत्तेजना) होता है, थोड़ी सी क्लीवेज दिख जाए तो तुम उछलना शुरू कर देते हो, लेकिन लल्ला जैसी कोई सामने आ जाए न, पूरी नंगी, तो छुपते भी नहीं बनेगा तुमसे, भागते फिरोगे।

जंगल में जब थी तो कहते हैं कि आदमियों को उससे डर लगता था और जानवरों को उससे बड़ी मोहब्बत थी। आदमी उससे दूर भागते थे। तुम आमतौर पर ये सोचोगे कि एक खूबसूरत लड़की है, बिना कपड़ों के है, तो लोग आएँगे। लोगों की हिम्मत नहीं पड़ती थी।

अभी मैं पढ़ रहा था किताब तो उसमें एक नया पहलू निकल कर आया कि जो पूरा फैमिली सिस्टम (पारिवारिक व्यवस्था) था, लल्ला इसके ऊपर बहुत बड़ा आघात थी। कि आज तक तो सिर्फ़ मर्द ही संन्यासी होते थे, लल्ला ने एक नयी परम्परा शुरू की कि स्त्री भी संन्यासिनी हो सकती है। तो किताब कह रही थी कि मीरा और इस तरह की आगे जितनी भी हुईं, लल्ला उन सबमें पहली है। और लल्ला का इतना विरोध भी इसीलिए हुआ, लल्ला के विरुद्ध भी खूब कोशिशें की गयीं।

मज़ेदार बात ये है कि बाक़ी सारे सन्त हुए हैं, उनको मारने की कोशिशें पंडितों ने, पुरोहितों ने, इन लोगों ने करी हैं, लल्ला को मारने की सबसे ज़्यादा कोशिश करती थीं गृहस्थिन औरतें, हाउस वाइव्स। उन्होंने खूब कोशिश करी थी कि किसी तरह ये मरे।

ऐसी है कश्मीर की मिट्टी!

और ये देखो, जहाँ पर लल्ला थी जिसने कपड़े उतार दिये, वहाँ के कश्मीरी पंडित कपड़े बेच रहे हैं। लल्ला से पूछा एक बार किसी ने, 'कपड़े काहे नहीं पहनती?' बोली, 'पहन तो रखा है जो पिया ने दिया। जो पति ने दिया वही पहन रखा है, और कुछ क्यों पहनूँ?'

शिव ने क्या देकर भेजा है कपड़ा? शिव ने कौनसा कपड़ा देकर भेजा है?

प्र: खाल।

आचार्य: खाल। तो बोली, 'जो पति ने दिया है वही पहनूँगी, और किसी का दिया मैं पहनती नहीं। बाक़ी सब तो तुमने बनाये हैं; मैन मेड चीज़ें मैं पहनती नहीं। पति ने यही (शरीर) देकर भेजा है, यही कपड़ा है मेरा।’

समझे बाबू?

मुसलमान कहते थे कि चार किताबों के बाद कुरान, हदीस, इनके बाद कोई पाँचवीं किताब है तो लल्ला की बोली। तब लिखी नहीं जाती थी, बाद में लिखी गयी। इसीलिए आज लल्ला के कहे हुए बस मुश्किल से ढाई-सौ वचन हैं। बाक़ी हैं ही नहीं, खो गये। ख़ुद वो लिखती नहीं थी, बाक़ियों को अक्ल ही नहीं थी, तो खो गये।

लल्ला के खोये हुए वचन भी लिपिबद्ध किये अंग्रेज़ों ने, अभी मुश्किल से सौ साल पहले। इसीलिए अलग-अलग किताबों में देखोगे तो उनमें थोड़ा-थोड़ा अन्तर मिलेगा, क्योंकि किसी को पक्का पता नहीं है। तो फिर कश्मीर जा-जाकर जो वहाँ लोगों को याद है मौखिक परम्परा में, उनसे पूछा गया, उनको लिखा गया। क़रीब-क़रीब फ़रीद जैसा है। पर फ़रीद के तो दो ही सौ साल बाद नानक आ गये थे। लल्ला को हुए तो अब सात-सौ साल बीत चुके हैं।

तो मुसलमान कहते थे कि चार किताबों के बाद पाँचवीं किताब लल्ला की वाणी, हिन्दू कहते थे कि चार वेदों के बाद पाँचवाँ वेद लल्ला के वचन — इतना मोटा वेद पढ़ने से अच्छा है कि लल्ला के चार शब्द पढ़ लो, उसमें सारे वेद समाये हुए हैं।

बाद में पंडितों ने लाज़ ढँकने के लिए क्या बना दिया, जानते हो कहानी? कि लल्ला के बाल इतने लम्बे थे कि उसके केश ही उसके वस्त्र हो जाते थे। तो ये सब ठीक है, बाद की लिखा-पढ़ी है। उनसे ये स्वीकार ही नहीं किया गया। पुरुष के लिए ये सबसे बड़ा अपमान है अगर उसके सामने से एक नंगी साध्वी निकल जाए। आदमी सबकुछ बर्दाश्त कर सकता है, नंगी योगिनी नहीं बर्दाश्त कर सकता है। क्योंकि स्त्री नंगी है, इसका मतलब ये हुआ कि अब वो अपनी देह के पार निकल गयी है। तो ये नहीं बर्दाश्त किया जा सकता। तो कहानी बना दी कि नहीं, कपड़े पहनती थी, वो अपने ही बाल के कपड़े पहनती थी। उसके केश ऐसे थे कि उसका पूरा शरीर ढँक देते थे।

प्र: तस्वीरें भी वैसी ही बनती हैं।

आचार्य: हाँ। वो निर्वस्त्र नहीं रहती थी, ऐसी कहानी बनायी। कश्मीरी में जो लल्ला के गाने हैं उनमें ये रहता है कि लल्ला जब नाचती थी मस्त होकर, तो इधर से, उधर से, तमाम सब छोटे-बड़े जानवर आ जाते थे, वो भी इकट्ठे होकर नाचते थे। इंसान भाग जाते थे और जानवर आ जाते थे और नाचना शुरू कर देते थे साथ में।

तो लल्ला का जो हिस्टॉरिक कॉन्ट्रिब्यूशन (ऐतिहासिक योगदान) है वो यही है कि वो काश्मीरी सूफ़ीज्म की मदर हैं। लल्ला काश्मीरी सूफ़ीज्म की मदर हैं। और ये बड़ी मज़ेदार बात है कि एक तरफ़ तो वो कश्मीरी सूफ़ीज्म की माँ हैं, दूसरी तरफ़ शैव परम्परा, मतलब शिव भक्तों की परम्परा में भी लल्ला का बिलकुल अनूठा स्थान है। दोनों ही चीज़ें हैं।

हिन्दुओं से पूछो तो कहेंगे, 'ऐसी शिवभक्त दूसरी नहीं’। मुसलमानों से पूछा तो कहेंगे, 'लाल देद, लाल देद।' लेकिन लल्ला ने कभी शिव की मूर्ति की पूजा नहीं की। शरीर में उसका यक़ीन ही नहीं था, तो मूर्ति में कैसे होता! लल्ला के लिए शिव कुछ और ही हैं, यत्र-तत्र, सर्वत्र। उसके लिए सबकुछ शिव ही था। शिव के अलावा उसे कुछ दिखता ही नहीं था।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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