आचार्य प्रशांत: माइ मास्टर गेव मी जस्ट वन रूल — ‘फॉर्गेट द आउटसाइड, गो टू द इनसाइड ऑफ थिंग्स’। आइ, लल्ला, टुक दैट टीचिंग टू हार्ट। ऑन दैट डे आ हेव डांस्ड नेकेड। (मेरे गुरु ने मुझे मात्र एक नियम दिया, 'बाहर को भूलो, चीज़ों के भीतर को जाओ'। मैं, लल्ला, ने उस नियम को हृदय में लिया। उस दिन मैं निर्वस्त्र नाची।)
बस एक मन्त्र मिला गुरु से, अन्तर्गमन, और इस मन्त्र को मैंने हृदयस्थ कर लिया। उस दिन से लल्ला निर्वस्त्र नाच रही है।
बस एक मन्त्र दिया गुरु ने, बाहर को भूलो, भीतर को झांको। और ऐसा जादू हो गया उस एक मन्त्र का कि लल्ला बिना आवरण के नाचे ही जा रही है।
गुरु कौन?
गुरु का कर्म क्या?
क्या गुरु वो है जो संसार में सही-गलत की शिक्षा दे? क्या गुरु वो है जो आपको जो प्रिय हो, जो मनोवांछित हो, उस तक पहुँचने का रास्ता दिखाये? क्या वो है गुरु जो किसी मूल्य को लेकर के आपको वो दे दे, जो पाने आप उसके पास गये थे? क्या वो है गुरु जो गुरू जैसा लगे, गुरू जैसा दिखे, स्वयं को गुरु घोषित करे?
हम जीव हैं। हम मनुष्य कहते हैं अपनेआप को और मनुष्य होने का अर्थ ही होता है संसार से पूर्णतया सम्पृक्त होना और फिर भी संसार से अपनेआप को अलग मानना। ये दोनों शर्तें जब एकसाथ पूरी होती हैं, तब आप कहते हैं कि मैं मनुष्य हूँ। आपको संसार से अलग कर दिया जाए तो आपका अस्तित्व नहीं बचेगा। शारीरिक रूप से भी नहीं बचेगा क्योंकि आप खाना-पीना, साँस नहीं ले पाएँगे, और मानसिक रूप से भी नहीं बचेगा क्योंकि मन बनता ही संसार से है। उसके भीतर जो कुछ है वो संसार का है। संसार अगर पूरी तरह हट गया तो आप भी पूरी तरह हट जाएँगे, नष्ट हो जाएँगे, शरीर से भी और मन से भी।
दूसरी ओर अगर आप संसार के साथ पूरी तरह एक हो गये तो भी आप नष्ट हो जाएँगे क्योंकि फिर आप वैसे ही हो जाएँगे जैसे नदी, बादल, रेत — जो अस्तित्व के साथ एक हैं और इतने एक हैं कि अब वो ‘मैं’ कह ही नहीं सकते। तो आप पूर्णतया एक हो गये। तो आप भी ‘मैं’ कह ही नहीं पाएँगे। हवा जैसे हो जाएँगे। हवा कहाँ से कहेगी ‘मैं’?
तो ऐसा रिश्ता होता है आदमी का और दुनिया का। एक तरफ़ तो वो दुनिया पर लगातार अवलंबित है, और दूसरी ओर वो दुनिया से अपनेआप को पृथक, जुदा भी रखना चाहता है। दुनिया से ही सब कुछ लेता है लेकिन मान्यता वो ये रखना चाहता है जैसे कि दुनिया से अलहदा उसका कोई वजूद है। देखा है न कितनी ठसक के साथ हम बोलते हैं, ‘मैं’। ‘मैं’ हम ऐसे बोलते हैं जैसे कि संसार से भिन्न हम कुछ हों। जैसे कि कहीं पर संसार ख़त्म होता हो और कहीं पर हम शुरू होते हों। आप ज़रा ग़ौर करिए कि वो बिन्दु है कहाँ पर जहाँ संसार ख़त्म होता है और आप शुरू होते हैं।
वो सबकुछ जो आपके ‘मैं’ के अन्तर्गत आता है, वो पूर्णतया सांसारिक ही है न? आप अपनेआप को शरीर जानते हो, आप अपनेआप को मन जानते हो। शरीर जितना है, पूरे तरीक़े से संसार से ही आया है। आपके शरीर की एक भी कोशिका नहीं जो कहीं और से आयी हो। आपके खून की एक बूंद नहीं जो कहीं और से आयी।
यदि मन को लें तो मन में जो कुछ है — भाषा, भावना, विचार, प्रवाह, वो सबकुछ भी संसार से आया है। तो कहाँ पर आकर आप कहते हैं कि अब ‘मैं’ शुरू हुआ? कहाँ पर आकर आप कहते हैं कि इस बिन्दु पर मैं संसार से अलग हूँ? कहाँ पर आप सीमा खींचते हैं? पर फिर भी सीमा तो हम खींचते हैं।
अपना और संसार का रिश्ता स्पष्ट होना बहुत ज़रूरी है। हम ऐसे दोस्त हैं जो लगातार एक-दूसरे से मुक्त होने के लिए व्याकुल हैं और हम ऐसे दुश्मन हैं जो एक-दूसरे के बिना जी नहीं सकते। ये है जीव और जगत का रिश्ता। दो दुश्मन जो एक-दूसरे के बिना जी नहीं सकते, दो दोस्त जिन्हें एक-दूसरे से नफ़रत है। मिला-जुलाकर के जो नतीजा निकलता है वो ये होता है कि इस नफ़रत के चलते आप कुछ जान तो नहीं पाते; हाँ, संसार में ही अपनी जलन का इलाज खोजना शुरू कर देते हो।
देखते बाहर ही रह जाते हो। आश्रित संसार पर ही रह जाते हो। उसी को गाली देते हो और उसी से पनाह माँगते हो। उसी को कहते हो कि ज़हर है और उसी को दवा भी मानते हो। जैसे कि एक ही बोतल हो जिस पर एक तरफ़ लिखा हो ‘दवा’ और दूसरी तरफ़ लिखा हो ‘ज़हर’। कभी तुम उसे एक तरफ़ देखकर के पीते हो और कभी तुम उसे दूसरी तरफ़ देखकर के पीते हो। ये हमारा और संसार का रिश्ता है, बड़ी बेबसी का रिश्ता है। ‘पता है मुझे कि तू दुश्मन है मेरा, पर जाऊँ तो जाऊँ कहाँ? पता है मुझे तेरी दोस्ती झूठी है, पर कोई तो चाहिए न जीने के लिए। अकेले हुए तो मर जाएँगे, मिट जाएँगे। तेरा साथ विषैला ही सही, कोई साथ तो हुआ।’
संसार काटता है, नोचता है, हज़ार तरह की तकलीफ़ें देता है। अभिशप्त महसूस करते हैं आप। भागते भी हैं उससे और पुनः-पुनः लौटकर के जाते हैं क्योंकि संसार से भाग करके संसार की तरफ़ ही तो भागते हैं; और कोई दिशा तो हम जानते ही नहीं। जैसे कमरे का कैदी एक कोने से उठकर के दूसरे कोने की तरफ़ भागे। जिधर को भी भागेगा, कमरे के भीतर ही भागेगा। और कोई दिशा तो वो जानता ही नहीं।
हितैषी बहुत हैं, मददगार बहुत हैं और वो रास्ते दिखाते हैं। वो कहते हैं, ‘उस कोने में यंत्रणा मिल रही है तो इस कोने आ जाओ न’, ‘उस रिश्ते में धोखा खाया है तो अब इधर रिश्ता बनाओ न’, ‘उस प्रयत्न में असफलता मिली है तो अब नयी प्रेरणा के साथ प्रयत्न करो न’। ये वो हैं जो आपको संसार के एक कोने से दूसरे कोने तक भगाते हैं। पता आपको भी है कि उनकी सलाह मूर्खतापूर्ण है, बल्कि द्वेषपूर्ण भी है, लेकिन आप भी उन्हीं की तरह मजबूर हैं। वो चाहें भी तो इससे बेहतर सलाह नहीं दे सकते क्योंकि उन्होंने भी तो जो जाना है, वो बस संसार है। वो तुम्हें कष्ट से मुक्ति देना चाहें भी, वो तुम्हें तुम्हारी मनोवांछित वस्तु देना चाहें भी तो कहाँ देंगे? दुनिया में ही देंगे, क्योंकि उनके मुताबिक जो है सो वही है जो आँखों से दिखता है। और कुछ है नहीं।
ये तुम्हारे दुनियावी मददगार, हितैषी हैं। ये बहुधा अच्छा करना चाहते नहीं और कभी-कभी जब अच्छा करना चाहते भी हैं, तो भी करते बुरा ही हैं। किसी की मदद की नीयत उठना ही विरल घटना है। पर उनको जब मदद की नीयत होती भी है तो वो तुम्हें और गहरे कष्ट में डाल देते हैं।
गुरू कौन?
गुरु वो जो तुम्हें गड्ढे से निकाल के कुएँ में न डाल दे। गुरु वो जो तुम्हें साँपनाथ से बचाकर नागनाथ के पास न भेज दे। गुरु वो जिसकी दवाई बीमारी से बड़ी बीमारी न बन जाए। गुरु वो जो जानता हो कि उपचार उसी जगह पर और उसी राह चलकर और उसी आयाम में नहीं मिल सकता जिस राह पर, जिस आचरण पर, जिस आयाम में तुम्हें तुम्हारे कष्ट मिले थे।
तो इसीलिए गुरु को जो सलाह देनी है वो बड़ी सरल है। बाहर ये जो फैला हुआ अनन्त संसार नज़र आता है, इसकी उसे कोई विशेष परवाह ही नहीं करनी। उसे बस इतना कहना है कि अनन्त रास्ते हैं इस संसार में, पर हर रास्ता ले तुम्हें कष्ट की तरफ़ ही जा रहा है। अनन्त रास्ते हैं इस संसार में, पर बोलो, है कोई रास्ता जिस पर चलकर के मृत्यु तक नहीं पहुँचोगे?
लगा लो जितने उपाय लगाने हैं। तुम्हारे प्रयत्नों से और विधियों से हो सकता है तुम्हें कुछ मनोरंजन मिल जाए, अपने विषय में कुछ ग़लतफ़हमियाँ मिल जाएँ, अहंकार को थोड़ा पोषण मिल जाए। लेकिन एक ही कसौटी पर कस लो, संसार के जिस भी रास्ते पर चलोगे, दुनिया में जो कुछ भी कर लोगे, ऊँचे बनोगे कि नीचे बनोगे, साधक बनोगे कि सिद्ध बनोगे, आस्तिक बनोगे कि नास्तिक बनोगे, जो भी बनोगे, अन्ततः तो मरोगे। ये मृत्युलोक है और मृत्युलोक का अर्थ ये नहीं होता कि अन्ततः वहाँ मृत्यु आती है। मृत्युलोक से आशय होता है कि पल-पल मरण है वहाँ, पल-पल दम घुटता है, पल-पल मरते हो।
तो गुरु तुमको संसार का झूठा दिलासा नहीं देता। वो नहीं कहता कि कोई नया सांसारिक आचरण करके, किसी नयी राह चलके, किसी नयी वस्तु का विचार करके, समय और स्थान से सम्बन्धित कोई नयी विधि अपना करके तुम्हें मुक्ति, प्रेम, आनन्द मिल सकते हैं; वो ये बिलकुल नहीं कहेगा। वो नहीं कहेगा कि तुम्हें यदि कोई नया व्यक्ति मिल जाए तो तुम्हारे जीवन में रूपांतरण हो सकता है। वो तुमसे नहीं कहेगा कि तुम्हें कोई नया शास्त्र मिल जाए तो तुम्हारे मन में चमत्कार उठ सकता है। उसे तुमसे बस एक सरल बात कहनी है, कुछ पाओगे या कुछ छोड़ोगे, करोगे तो संसार में ही न। और संसार में ही करना, यही तो टीस है तुम्हारी, यही तो घाव है तुम्हारा।
किसी कमरे में ज़हरीली गैस भरी हो, और उस कमरे में काँटे रखे हों, और गुलाब रखे हों और उस कमरे में राक्षस हों और परियाँ हों। किधर को जाओगे? कहाँ जान बचाओगे? काँटे बुरे लग रहे हैं। काँटों के पास हो, तुम्हें चोट लग रही है। और कोई भेज दे तुम्हें गुलाबों के पास, क्या तुम्हारी स्थिति बेहतर हो जाएगी? कुछ लोग तुम्हें सता रहे हैं, कोई भेज दे तुम्हें कुछ दूसरे लोगों के पास, क्या तुम्हारी स्थिति बेहतर हो जाएगी? एक शहर है, उससे समायोजित नहीं हो पा रहे हो, कोई भेज दे तुम्हें किसी दूसरे शहर में, क्या तुम्हारी स्थिति बेहतर हो जाएगी? भूलना मत, सारे शहर उसी कमरे के भीतर हैं जो ज़हरीली गैस से भरा हुआ है। जहाँ को जाओगे, संसार में ही जाओगे न।
गुरु कहता है भीतर जाओ। न इधर जाओ, न उधर जाओ, न आगे जाओ, न पीछे जाओ, न दाएँ, न बाएँ, ऊपर न नीचे; भीतर जाओ।
ये भीतर जाना क्या है? ये कौनसी दिशा है? हम चार दिशाएँ जानते हैं, हम दस दिशाएँ जानते हैं। ये भीतर को जाने वाली कौनसी दिशा है? लल्ला के गुरु ने किस दिशा भेजा उन्हें?
जो भीतर को जाने वाली दिशा है, ये वास्तव में उस अर्थ में दिशा है ही नहीं जिस अर्थ में दसों दिशाएँ हैं। ये दिशा, ग्यारहवीं, बस नाम को है। हमें नामकरण का बड़ा शौक रहता है तो हम कह देते हैं कि भीतर को एक दिशा है, कि ग्यारहवीं कोई दिशा है, कि चौथी कोई अवस्था है, कि तुरीय कुछ, तो हम कह देते हैं। पर ये उस अर्थ में कुछ है ही नहीं जिस अर्थ में हम कुछ भी कहते हैं भाषा में।
मन दसों दिशाओं दौड़ता है पर दसों दिशाओं दौड़ते मन की दिशा बस एक होती है, क्या? संसार की ओर। वो जब संसार की ओर भागता दिखे तो भी संसार का विचार कर रहा है। वो जब संसार के विरुद्ध भागता दिखे, वो तो भी संसार का ही विचार कर रहा है। अतः मन की दिशा सदा एक होती है — संसार की ओर। जब मन उन कारणों की असलियत और व्यर्थता को जान ले जिनके वशीभूत होकर वो संसार की ओर भागता था, तब मन का भागना ठहर जाता है। वो किसी नयी दिशा को नहीं चल पड़ता। कहीं भीतर को नहीं चल पड़ता। बस ये जो दसों दिशाओं में भागना है, इसके सत्य का उद्घाटित होना ही एक नयी दिशा है। वो नयी दिशा नहीं नया आयाम है।
ये भूल हमने खूब की है। हमें लगा है कि जैसे बाहर कुछ होता है, वैसे ही भीतर कुछ होता है। हम कहते हैं दो तरह के लोग होते हैं — एक बहिर्मुखी, एक अन्तर्मुखी। ध्यान इत्यादि की प्रक्रियाओं में हम कहते हैं, ये अन्तर्गमन की प्रक्रिया है। आप यदि कभी ध्यान केन्द्रों इत्यादि में जाएँ तो वहाँ पाएँगे कि ध्यानार्थियों से कहा जा रहा है, ‘भीतर जाओ, भीतर जाओ, अपने में उतरो’। ये भ्रामक बातें हैं। बाहर भी संसार है और जिसे तुम भीतर कहते हो वो भी संसार मात्र है, और कुछ नहीं। भीतर तुम्हारे जो कुछ हैं, चाहे शारीरिक रूप से, चाहे मानसिक रूप से, क्या वो संसार से अलग हैं? तो ये भीतर जाना क्या खिलवाड़ हुआ?
पर भाषा में हम इस शब्द का प्रयोग करते हैं, भीतर जाओ। स्वयं लल्ला ने कहा अभी-अभी, कि गुरू से बस एक मन्त्र मिला — ‘बाहर को भूलो, भीतर को जाओ’। भूलना नहीं होगा हमें कि ये बस कहने की बात है, भाषाई बात है। वास्तव में भीतर कुछ नहीं, या भीतर जो कुछ है वो वही जो बाहर है, अलग उससे कुछ नहीं।
आप आँख बन्द करके जो देखते हो, वो भी भ्रम है और आप आँख खोलकर जो देखते हो, वो भी भ्रम है। ध्यान से पूर्व आप आँख खोलकर के सपने ले रहे थे, अब आपको कह दिया जाता है, ‘आँख बन्द करो’, अब आप आँख बन्द करके सपने लेते हो। अरे! आँख ही भ्रम है, आँख ही सपना है, उसको खोलने या बन्द करने से क्या अन्तर पड़ जाएगा? पर हमें ये एहसास कुछ यूँ दिलाया जाता है मानो आँख के बाहर जो है वो झूठा था और आँख के भीतर जो है वो असली है। और भीतर से आशय हमारा वही होता है, समय और आकाश, स्पेस और टाइम। क्योंकि हमारा और कोई आशय हो ही नहीं सकता। हम तो जो कुछ कहते हैं वो समय और स्थान की ही परिधि के भीतर आता है।
तो गुरु ने एक ही मन्त्र दिया, ‘लल्ला बाहर जो कुछ दिख रहा है, ज़रा होशियार रहना’। बाहर को लेकर के ग़लतफ़हमी में न पड़ना ही अन्तर्गमन है। और कुछ नहीं है अन्तर्गमन। तो अन्तर्गमन हो भी सिर्फ़ तब सकता है जब आप बाहर की ओर देख रहे हों। ये बड़ी मज़ेदार बात है। देखिए, आप आम तरीक़े से सुनेंगे तो आपको ऐसा लगेगा कि दो दिशाएँ हैं — एक बाहरी, एक भीतरी। तो जब भीतर जा रहे हैं तो उस वक्त हम बाहर नहीं जा रहे हैं, और जब हम बाहर जा रहे हैं तो हम भीतर नहीं जा रहे हैं।
लेकिन बात की हक़ीक़त को समझिए। अन्तर्गमन का अर्थ है कि आँखों से, इन्द्रियों से चारो तरफ़ फैला जो संसार प्रतीत होता है, वो बस प्रतीत भर ही होता है। ये अन्तर्गमन है। तो ये अन्तर्गमन सिर्फ़ कब हो सकता है, बोलिए? ये अन्तर्गमन सिर्फ़ कब हो सकता है?
अन्तर्गमन की परिभाषा पर दोबारा आते हैं। अन्तर्गमन है बाहर जो दिखायी दे रहा हो, उसको जानना कि वो दिखायी ही दे रहा है, और दिखायी देना प्रमाण नहीं है सत्य का। तो अन्तर्गमन मात्र कब हो सकता है? जब आप बाहर देख रहे हों। तो अन्तर्गमन के लिए आँख बन्द करना कहाँ की होशियारी है?
ध्यान सिर्फ़ तब लग सकता है जब आप संसार में हों। अगर मैं ये कहूँ कि मैंने ध्यान के लिए कोई निश्चित स्थान और निश्चित समय तय किया है तो आप जानते हैं, मैं क्या कर रहा हूँ? मैं एक वैकल्पिक संसार तैयार कर रहा हूँ। मैं संसार से कहीं बाहर नहीं जा रहा, मैं बस संसार के एक दूसरे कोने में जा रहा हूँ। और संसार के एक कोने से दूसरे कोने में तो हम हमेशा जाते ही रहते हैं। पर ये जाना अब ख़तरनाक हो गया है क्योंकि अब इस दूसरे कोने को मैंने संसार के पार का नाम दे दिया है। मैंने अब ये नहीं कहा कि मैं संसार के ही एक दूसरे कोने में जा रहा हूँ, मैंने अब ये दावा कर दिया है कि ये तो कहीं और का अनुभव है, ये तो कोई पारलौकिक बात है।
ध्यान है चेतना के पूर्णभाव को देखना। ध्यान है चेतना की उठा-पटक को देखना। चाहे वो चेतना का कोई भी रूप हो — स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति, दुख-सुख। ये ध्यान है। और इतनी सी ही बात गुरु लल्ला को कह रहे हैं ‘लल्ला! बाहर जो कुछ है, जानना कि बाहरी ही है।’ इसका मतलब ये नहीं है कि भीतरी कुछ है, भीतरी कुछ नहीं है। जो है सो बाहरी है। ये भ्रम ही हमें डुबो देता है कि कुछ भीतरी भी होता है। भीतरी कुछ नहीं होता। जो प्रतीत हो, सो बाहरी। ध्यान है निष्प्रतीति में जाना। कोई नयी प्रतीति नहीं, निष्प्रतीति। अब कुछ प्रतीत ही नहीं हो रहा, अब कुछ अनुभव ही नहीं हो रहा। किसे? ये कहने वाला भी कोई नहीं है। एक पूर्ण रिक्तता, पूर्ण रिक्तता, एक विशुद्ध शून्यता।
बात अगर इतनी सी थी तो दुनिया के तमाम गुरु इतनी सी ही बात क्यों नहीं कह देते? क्योंकि तुम इतनी सी बात सुनने के लिए अभी राज़ी नहीं हो। तुम्हें बहुत कुछ चाहिए। ये बात तुम्हारे गले ही नहीं उतरती कि सत्य इतना सरल है और इस बात को तो तुम बिलकुल स्वीकार नहीं करना चाहते कि संसार भासित भर होता है, प्रतीति मात्र है। क्योंकि जिसे तुम अपना अहंकार कहते हो वो पूरे तरीक़े से संसार पर आश्रित है। संसार यदि भ्रम है तो अहंकार भी क्या हुआ? भ्रम।
तुम किसी हालत में ये नहीं मानना चाहोगे कि ये सब यूँही है, जैसे कोहरे में छायी आकृतियाँ, जैसे बादलों के बनते-बिगड़ते आकार; बस यूँही है। ये मानना नहीं चाहोगे। ये यूँही है तो तुम भी यूँही हो। ये मानना बड़ा अपमानजनक लगता है। ये मानने के बाद तुम न अपनेआप को गंभीरता से ले सकते हो, जिस रूप में अपनेआप को जानते हो, न संसार को, न संसार के नियमों को, न सामाजिक क़ायदों को।
अब कहती हैं लल्लेश्वरी कि इतना ही बहुत हुआ कि सत्य के ऊपर आवरण की तरह ये देह चढ़ी हुई है, अब इतना ही बहुत हुआ कि आत्मा के ऊपर इतनी परतें माँस की, मज्जा की, हड्डी की, रक्त की और चमड़ी की चढ़ा रखी हैं। अब क्या इनके ऊपर एक पर्त और चढ़ाऊँ। अरे! इतनी परतें काफ़ी नहीं हैं क्या? पैदा ही हुए इतना कुछ ढक के, ओढ़ के। पैदा ही हुए ऐसे जैसे सूरज आच्छादित हो बादलों से। अभी उन बादलों के ऊपर कोहरा भी डालना है? फिर तो एक किरण भी न पहुँचेगी! फिर तो पूरा ही अंधेरा हो जाएगा!
आत्मा के सूरज को देह ने पहले ही ढक रखा है बादल रूप में। अब तुम उसके ऊपर वस्त्र भी धारण करोगे? तो हालात वैसे ही हो जाएँगे जैसे जाड़े में कभी-कभी होता है कि बादल हैं और कोहरा भी है, कितना प्रकाश शेष रह जाता है? अंधेरा। और अंधेरा ही है आम आदमी की ज़िन्दगी। देह है और देह को सुसज्जित करने की, और चमकाने की आसक्ति है, कोशिश है।
बहुत छोटी उम्र में लल्ला का विवाह कर दिया गया था। पति, सास-ससुर समझ ही नहीं पाते थे कि वो क्या कह रही है, क्या उसकी दृष्टि है, किधर को उसका मन भाग रहा है। ससुराल पक्ष के हाथों यंत्रणा खूब मिले उसे। खाने को भी पूरा न दें और कश्मीर की बात है तो कश्मीर में माँसाहार आम है। लल्लेश्वरी ने तय कर रखा था कि कुछ हो जाए, माँस नहीं खाऊँगी। कहते हैं कि सास ने एक बार कहा कि या तो माँस खाओ नहीं तो पत्थर खाओ। तो उसने पत्थर खाना स्वीकार किया।
ये स्थिति कोई लल्लेश्वरी भर की नहीं है। ये स्थिति हम सभी की है। हम सभी को मजबूरन वैसे जीना पड़ रहा है जैसे हम जीना नहीं चाहते। पर ललेश्वरी के जीवन में कुछ ऐसा होता है जो आम आदमी के जीवन में नहीं होता। घटनाएँ, परिस्थितियाँ उनकी भी आम हैं। उन्होंने भी पाया कि अपनी इच्छा के विरुद्ध एक घर में, एक माहौल में, एक परिवार में फँस गयीं हैं। हममें से ज़्यादातर लोग समझौता कर लेते हैं, समायोजन कर लेते हैं। लल्लेश्वरी ने कहा, ‘नहीं’।
बाईस-चौबीस वर्ष की थीं। बाईस-चौबीस वर्ष की उनकी अवस्था रही होगी, घर छोड़ दिया। और घर छोड़कर के दूसरे घर की तलाश में नहीं निकलीं। अन्तर समझिएगा। यहीं पर आम संसारी में और साधक में अन्तर आ जाता है। आम संसारी जब एक घर छोड़ता है तो दूसरे घर की तरफ़ निकल पड़ता है। ससुराल छोड़ता है तो मायके की तरफ़ निकल पड़ता है। एक पति को छोड़ता है तो दूसरा रिश्ता बनाने की ओर निकल पड़ता है।
लल्ला ने कहा, "न, पति में, और सास में, और विवाह में, और इस घर में कुछ विशेष ग़लत नहीं था। संसार की प्रकृति में ही कुछ ऐसा है जो ग़लत है, जो कष्टप्रद है। तो इस घर को छोड़कर किसी भी घर जाऊँगी, हश्र मेरा एक ही होना है। एक भूल करी है, अब दूसरी नहीं करूँगी। घर छोड़कर दूसरे घर नहीं जाती हूँ।‘ सीधे गुरु के पास जाती हैं। और आसान नहीं रहा होगा। चौदहवीं शताब्दी की बात है, कश्मीर प्रदेश है, एक स्त्री की कथा है, वो भी एक बेवा स्त्री की; आसान नहीं रहा होगा।
लल्ला के बारे में ज़्यादा लिखित ब्यौरा उपलब्ध है नहीं। उनके बारे में जो लिखा गया, वो उनकी मृत्यु के चार-सौ साल बाद लिखा गया। तो जो कुछ पता है वो जनश्रुति है। जनश्रुति ये कहती है कि गईं गुरु के पास, गुरु ने भी परीक्षा ली। आसानी से स्वीकार नहीं कर लिया। जो भी परीक्षा ली, लल्ला उसमें खरी उतरीं। और कुछ ही समय में गुरु को भी ये स्पष्ट हो गया कि साधारण शिष्या नहीं है। जितना कहते थे उससे एक कदम आगे ही जाकर करती थीं। गुरु ने इतना ही कहा, ‘संसार से ज़रा होशियार’ और लल्ला ने सारे आवरण त्याग दिये।
अब वस्तुतः इसमें तथ्य कितना है, ये बात ज़रा संदिग्ध हो सकती है। लेकिन जितना भी हो, बड़ा विशिष्ट है। हो सकता है सदा के लिए न त्यागे हों, हो सकता है किसी विशेष मौक़े पर, किसी घटना में, किसी अन्तराल में ये हुआ हो। पर गुरु का ये कहना और लल्ला का ये समझ जाना कि संसार बाहर-बाहर ही नहीं है, संसार घुसा हुआ है पूर्णतया मेरी रग-रग में, ये बड़ी अद्भुत बात है; ये होता नहीं है हमारे साथ। उसके बाद लल्ला के वाक्य, लल्ला के बोल, लल्ला के वचन। कश्मीरी भाषा में उन्हें ‘वाख’ बोलते हैं। वो गाती रहीं, नाचती रहीं। किसी विशेष राह पर नहीं चलीं। सूफ़ियों से भी उन्होंने दीक्षा ली। शैव, अद्वैत की योगिनी तो वो थीं हीं, सूफ़ी सन्त भी थीं।
ये साहस हम भी दिखाएँ। जब चोट खायें तो दूसरी चोट के लिए तुरन्त तैयार न हो जाएँ। संसार आकर्षित तो करता है, प्रिय तो लगता है, सुख तो देता है, पर लगातार अपना घिनौना चेहरा भी दिखाता रहता है। जब उसका घिनौना चेहरा दिखायी दे तो आँखें बन्द न कर लें। एक ही भूल बार-बार न दोहराएँ।
देखिए, लल्ला के निर्णय को देखिए। युवती थीं और रूपवती थीं। बड़ी सुन्दर युवती थीं लल्ला। जनश्रुति है, कोई उनका चित्र तो उपलब्ध है नहीं। पर जब विवाह से, परिवार से, संसार से, धोखा मिलता है, यातना मिलती है, चोट लगती है, तो वो ये नहीं कहती हैं कि मैं अब ज़रा भी और यकीन करने को तैयार हूँ। वो कहती हैं, ‘नहीं, नहीं, नहीं, नहीं, कुछ बदलेगा नहीं। तुम वही कर रहे हो जो तुम कर सकते हो, जो तुम्हारी प्रकृति है। अभी कष्ट एक रूप में आ रहा है, कुछ और करूँगी तो किसी और रूप में आएगा। तो तुम पर तो पूर्ण अविश्वास। तुम्हें मैं दूसरा मौका देने को राज़ी नहीं हूँ। और गुरु ने जो कहा , उस पर पूर्ण विश्वास।‘
यहीं पर हममें और लल्ला में अन्तर आ जाता है। लल्ला कौन? जिसका संसार पर पूर्ण अविश्वास और गुरु पर पूर्ण विश्वास। गुरु ने बस इतना ही कहा ‘लल्ला, बाहरी से बचना’, और लल्ला ने कहा, ‘ये वस्त्र भी तो बाहरी हैं। आपने कहा, बाहरी से बचना, तो ये गये।‘ इतना तो गुरु ने कहा भी नहीं था। अन्य शिष्य भी थे। गुरु के वचन उनके पास भी जाते थे। गुरु ने किसी से ये माँग नहीं रखी थी। पर लल्ला का पूर्ण विश्वास!
हमारा खेल उल्टा चलता है। हम संसार से धोखे खा-खाकर भी उसी पर बार-बार विश्वास किये जाते हैं। जिस दरवाज़े चोट लगती है, रोज़ शाम उसी दरवाज़े वापस पहुँच जाते हैं। और कभी किस्मत के चलते, अनुग्रह की तरह कोई आवाज़ हम तक आ भी जाए जो बताये. ‘देखो, फँसे हो, पर फँसे रहना तुम्हारी नियति नहीं। मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है। आओ, बाहर आओ, उड़ो’, तो हम उस आवाज़ पर अविश्वास ही करते हैं। हमने बिलकुल उल्टी गंगा बहा रखी है। जो यक़ीन के क़ाबिल नहीं, हम उस पर दोहरा-दोहरा के यक़ीन करते हैं। और जो पात्र होना चाहिए पूर्ण श्रद्धा का, उसको लेकर के हमारे मन में हज़ार तरह के संशय रहते हैं। यही हममें और लल्लेश्वरी में अन्तर है।
जानो कहाँ यक़ीन करना है कहाँ नहीं। जानो कि जब संशय उठे तो कब उसे सत्य का द्वार समझना है, और कब उसे माया की चाल समझना है। संशय, सन्देह दोनों हो सकता है। जब संसार पर सन्देह उठे तो समझना सत्य का द्वार खुला है। ज़रा सा संशय उठा है, ज़रा सा द्वार खुला है, तुम पूरा खोल दो। और जब सत्य पर सन्देह उठे तो समझना कि माया की चाल है। द्वार खुल भी रहा हो तो तुम ज़ोर से बन्द कर दो; खुलने मत देना। वो द्वार नर्क का द्वार है। बोलिए।
प्रश्नकर्ता: आपने कहा जो बाहर है वो ही अन्दर है और ऐसा कुछ ख़ास नहीं है जो बाहर नहीं है। तो आत्मा जो होती है, कहा जाता है कि वो अन्दर ही होती है।
आचार्य: किसने कहा कि अन्दर है आत्मा? ये भी उन्होंने ही कहा जो आपको कमरे के एक कोने से दूसरे कोने ले जाना चाहते हैं। वो आपसे कह रहे हैं कमरे के एक कोने पर संसार है और दूसरे पर आत्मा है। एक कोने को नाम दिया है बाहर का, दूसरे कोने को नाम दिया है भीतर का। जिस कोने को भीतर का नाम दिया है, उस कोने में वो कहते हैं कि आत्मा है। ये कौनसी आत्मा है जो संसार के भीतर की है? ये कौनसी आत्मा है जो कमरे के भीतर की है?
आत्मा भीतर नहीं होती। सुनिएगा ध्यान से, आप आत्मा के भीतर होते हैं। पर ये बड़ी प्रचलित बात है और इससे ज़्यादा मूर्खतापूर्ण बात कोई हो नहीं सकती कि आपके भीतर आत्मा है। आपके भीतर कोई आत्मा इत्यादि नहीं है, और यदि आपके भीतर आत्मा है भी तो मात्र उतनी ही है जितनी कि आपके बाहर है। और जो अन्दर-बाहर दोनों हों उसे भीतर कहने का क्या प्रयोजन? ये जो पूरा जगत विस्तीर्ण है, क्या ये आत्मा नहीं है? यदि अन्दर भी है और बाहर भी है तो क्या ये कहा जा सकता है कि अन्दर है? ये कहना क्या सार्थक हुआ? और यदि कुछ ऐसा है जो अन्दर भी है और बाहर भी है, तो फिर आप कहाँ हैं? आप उसके अन्दर हैं। वो बात ज़्यादा उचित हुई, कहिए, ‘मैं आत्मा में हूँ।’
आत्मा अर्थात् सत्य। सत्य यदि आपके भीतर बैठा है तो फिर आप कौन हैं? फिर तो बड़ा छोटा सा सत्य हुआ। आप छोटे और आपके भी भीतर सत्य। और ऐसा लगता है जैसे कि सत्य ने आपके भीतर कहीं कोई छोटी सी जगह घेर रखी हो। तो फिर बाक़ी सारी जो जगह है, वहाँ कौन है? इस भ्रांति से बाज़ आइए कि आत्मा आपके भीतर है।
पंचकोषों के भीतर आत्मा का नहीं निवास है। आत्मा वो है जिसमें समस्त कोष स्थापित हैं। आत्मा वो है जो कभी एक, कभी दूसरा, कभी पाँचों कोष बनकर प्रकट होती है। मात्र आत्मा ही है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। आप कहते हैं ‘मुझमें आत्मा है’, तो आप कौन हैं फिर? कहना भी है कि आत्मा किसी में है तो कहिए, ‘आत्मा में आत्मा है’। आप में आत्मा नहीं है क्योंकि आप तो अपनेआप को बस मन और शरीर जानते हैं। तो आप कहना चाहते हैं कि मन और शरीर के भीतर आत्मा है?
पर ऐसी बात खूब कही गयी है और तथाकथित ज्ञानियों द्वारा कही गयी है, तो इसीलिए हम मान ही लेते हैं। और देखिए कि ये बात अहंकार को कितना बढ़ाती है। ‘आत्मा यदि सत्य है तो मुझमें सत्य है। अब मैं तो अपनेआप को रूप और आकार ही जानता हूँ'। और एक आकार के भीतर यदि कुछ है तो वो भी क्या होगा? एक दूसरा आकार। न सिर्फ़ दूसरा आकार बल्कि पहले आकार से छोटा आकार। तो अहंकार को ये बात बड़ी रुचेगी — ‘हाँ, मुझमें आत्मा है, मैं आकार हूँ।’ मुझमें आत्मा है तो आत्मा भी आकार हुई, पहली बात तो, और दूसरी बात, छोटा आकार हुई। तो मैं कौन हुआ? सत्य से भी बड़ा, आत्मा से भी बड़ा। ये न कहिए, और जो कह रहे हों, उन्हें भी कहिए कि ये मत कहो।