गुरु के प्रति धन्यवाद कम क्यों हो जाता है? आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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गुरु के प्रति धन्यवाद कम क्यों हो जाता है? आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कृतज्ञता का जो भाव मेरे अन्दर पहले था, वह अब नहीं रहा। ऐसा क्यों?

आचार्य प्रशांत: आप देख रहे हैं, अभी आप सवाल क्यों पूछ रहे हैं? क्योंकि आपके भीतर कृतज्ञ अनुभव करने की अभी इच्छा शेष है। तभी तो आपको बुरा लग रहा है ना। पहले जितना कृतज्ञ अनुभव करती थीं अब नहीं कर पाती हैं। तभी तो आप इस बात को समस्या के रूप में रख रही हैं। वरना यह समस्या क्यों होती, आप कहतीं, ‘ठीक है।‘ तो अभी ये इच्छा शेष है कि मैं कृतज्ञ अनुभव करती रहूँ।

अब देखिएगा, क्या हो रहा है। कोई कृतज्ञ कब अनुभव करेगा? जब पहले उसकी हालत ख़राब हो और कोई बचाए। आपके भीतर अभी यह इच्छा शेष है कि आप कृतज्ञ अनुभव करती रहें और कृतज्ञता अनुभव करने के लिए ज़रूरी है कि कुछ गड़बड़ हो और फिर उस गड़बड़ से आप उबार ली जाएँ। तो फिर आप कृतज्ञ अनुभव करेंगी कि, अरे, मेरा सौभाग्य कि मुझे किसी ने बचा लिया। उस सौभाग्य का अनुभव हो इसके लिए आवश्यक है कि पहले कुछ गड़बड़ हो। और आप चाहती हैं कि आप कृतज्ञ अनुभव करें तो कृतज्ञ अनुभव करने के लिए कुछ गड़बड़ होनी आवश्यक है ना। तो गड़बड़ हो रही है।

आपके भीतर से कृतज्ञता जाएगी नहीं तो आपके साथ गड़बड़ कैसे होगी? और गड़बड़ होनी ज़रूरी है तभी तो फिर आप और कृतज्ञ अनुभव कर पाएँगी। तो अब आपके साथ गड़बड़ होने के दिन आ रहे हैं। फिर कोई बचाएगा फिर आप पुनः कृतज्ञ अनुभव करेंगी।

भाई, अगर कोई निरंतर, निर्विरोध कृतज्ञ अनुभव करता ही रहे तो कभी उसके साथ कुछ अनहोनी होगी ही क्यों? कुछ ऊँच-नीच होगी ही क्यों, कि होगी? मन में यदि अनुग्रह बना ही हुआ है, मन यदि कृतज्ञता में डूबा ही हुआ है तो धन्यता की ही बारिश होती रहेगी, होती ही रहेगी ना? और मन यदि कृतज्ञता में डूबा हुआ है तो फिर उसे कृतज्ञता का अनुभव नहीं होता। वह कृतज्ञता के प्रति नमित हो गया होता है, कृतज्ञता में विगलित हो गया होता है, मिट ही गया होता है। इतना भी वह नहीं बचा होता कि वह कहे कि मैं आभारी हूँ।

वह झूला देखा है ना आपने। क्या बोलते हैं उसको? जो ऊपर जाता है और उसमें जितने लोग बैठे होते हैं वे उलटे हो जाते हैं और फिर वह नीचे आता है।

श्रोता: मेरी गो राउंड

आचार्य: नहीं, वह तो गोल वाला होता है। वह जिसमें वह एक…

श्रोता: रोलर कोस्टर

आचार्य: रोलर कोस्टर । देखा है? रोलर कोस्टर में सबसे उत्तेजक क्षण कौनसा होता है जिसकी ख़ातिर लोग उस पर चढ़ते हैं? लोग पैसे क्यों देते हैं उस पर चढ़ने के? क्या इस बात के पैसे देते हैं कि सब ठीक रहे? आप रोलर कोस्टर पर क्या इसलिए चढ़ते हो कि सब ठीक रहे? कुछ बीच में ऐसा हो जाना चाहिए कि प्राण हलक में अटक जाएँ और फिर जब ठीक होता है मामला तो लगता है, ‘अरे वाह, क्या बात है!’

हमारे लिए मात्र ‘ठीक होना’, काफ़ी नहीं है। मन को समझिएगा। मन के लिए आवश्यक है, बीमार हो कर ठीक होना। अगर सब निरंतर ठीक रहे तो मन को मज़ा नहीं आता। रोलर कोस्टर में यदि सब लगातार ही ठीक रहे कि वह रेल की भाँति, ऐसे चलता हुआ (हाथों से सीधे चलने का दर्शाते हुए) आपको आपकी मंजिल तक ले आया तो कोई, आप बैठेंगे उसपर? आप नहीं बैठेंगे।

रोलर कोस्टर में मज़ा ही तब है जब बीच में ऐसा हो जाए कि आपको लगे कि गए, पलट गए! बुद्धि क्या भ्रष्ट हुई थी जो इस पर चढ़े; एक बार, बस नीचे उतर जाए तो परमात्मा कसम, दोबारा नहीं चढ़ेंगे। और फिर जब आपको नीचे उतरने को मिलता है तो आप कहते हैं, ‘पैसा वसूल हुआ, भाई।‘

तो वही हो रहा है, कुछ उपद्रव होना आवश्यक है। उपद्रव होगा, उसके बाद जब फिर कोई आएगा जो ठीक करा देगा तो आपको लगेगा, ‘बड़ा अच्छा हुआ।’ अब बहुत दिनों से उपद्रव हुआ नहीं है। उपद्रव क्यों नहीं हुआ है? क्योंकि कृतज्ञता थी। कृतज्ञता थी तो उपद्रव हुए नहीं हैं। अब उपद्रव हुए नहीं हैं तो मन मसाले के लिए अब ज़रा छटपटा रहा है, कुछ उपद्रव हो ना। देखा है, रोलर कोस्टर में जब सब उलटे हो जाते हैं तो कितनी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हैं? खास तौर पर स्त्रियाँ, क्या आवाज़ें आती हैं? आत्मिक अनुभूतियाँ, तन-मन सब गीला हो जाता है। और फिर वह सीधा होता है, आकर थम जाता है तब जो राहत की साँस आती है कि क्या कहने!

कालचक्र इसी को कहते है। उलटे दिन आने ज़रूरी होते हैं ताकि सीधे दिनों का महत्व समझ में आए। और उलटे दिन आएँगे कैसे यदि कृतज्ञता बची रह गई? तो जो भी कुछ हो रहा है आप परेशान मत होइए, रोलर कोस्टर है। अब बस बुरा कुछ आने वाला है, आने दीजिए जैसे अच्छा आया था वैसे ही बुरा आ जाएगा। जब बुरा आएगा उसके बाद पुनः कुछ अच्छा आ जाएगा। इसी को तो भवसागर कहते हैं। आदमी इसी में डूबता, उतरता रहता है। चक्र का क्या मतलब होता है? वृत्ति का क्या मतलब होता है? जो गोल हो। जिसमें कभी ऊपर गए, कभी नीचे आए, कभी दाएँ, कभी बाएँ। परन्तु जिससे मुक्ति नहीं है, गोल-गोल घूमते रहो, फँसे रहो। यह है कहानी।

आप अकेली नहीं हैं। पुराण कहानियाँ सुनाते हैं, देवता भी भूल जाते हैं फिर जब दानवों से पाला पड़ता है तो भाग-भाग के कभी विष्णु की शरण में जाएँगे, कभी शिव की शरण में जाएँगे। देवता कब जाते थे शिव की शरण में? जब पीट दिए जाते थे। जब तक पीटे नहीं जाते थे तब तक तो देवता भी नहीं याद करते थे शिव को, आप कैसे याद करेंगी?

तो शिव याद आएँ इसके लिए ज़रूरी है कि पहले कुछ दानवी घटे फिर शिव याद आते हैं ना। इसीलिए शिव होते हैं अद्वैत और नीचे पूरा द्वैत का खेल होता है। यदि देवता हैं तो दानव भी होंगे-ही-होंगे। दानव ही तो फिर देवताओं को याद दिलाएँगे ना, शिव की। दानव ना हों तो शिव के पास कहाँ जाएँ देवता। जाएँगे ही नहीं। ये खेल बहुत पुराना है, चलता ही आ रहा है। परेशान मत होइए, चलता ही रहेगा, ‘कभी भूला, कभी याद किया’ (आचार्य जी गाते हुए), है ना?

भगवान का भी स्वार्थ है। सब अच्छा-ही-अच्छा हो जाए तो उनके पास कौन आएगा? “दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय”, सुमिरन होता रहे इसके लिए दुख ज़रूरी है। ऐसे ही हैं हम, क्या करें? अभी बैठे हैं, बैठे हैं, एक मारूँ चट-से तो बोलेगा ‘हाय राम’!

ऐसे बोल रहा है कोई? एक पड़ेगी तुरन्त कहेगा, ‘हाय राम’! याद आ गए ना राम! तो चट से पड़नी ज़रूरी है। बहुत दिनों तक जब पड़ती नहीं है राम की ही कृपा से तो राम ही भूल जाते हैं। राम की ही कृपा से बहुत दिनों तक जब पड़ती नहीं है तो राम ही भूल जाते हैं। लगता है, ‘क्या राम ने क्या किया, राम ने क्या किया?’ पड़ थोड़े ही रही है?

जो हो रहा है, होने दीजिए। ऐसा ही रहा है, ऐसा ही रहेगा। कोई नहीं बदल सकता, बदलना चाहिए भी क्यों?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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