प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, गुरु के प्रति हमारा जो देहभाव है, उसे ख़त्म कैसे करें?
आचार्य प्रशांत: ये बिलकुल तलवार की धार पर चलने वाली बात होती है। ये देहभाव ख़त्म करने के लिए भी अक्सर तुम्हें गुरु की देह का सहारा लेना पड़ता है। यह बड़े अनुशासन की बात है, यह व्रत है कि सहारा तो ले रहे हो गुरु की देह का लेकिन गुरु को देह नहीं मान लेना है।
तुम्हारा देहभाव ख़त्म हो इसके लिए तुम्हें सहारा तो गुरु की देह का ही लेना पड़ेगा। क्यों? क्योंकि तुम अपनेआप को देह मानते हो न। जो अपनेआप को देह मानता है, वो देह के अतिरिक्त सुनेगा किसकी? तुम आसमान की सुन सकते हो? तुम पेड़ों की, पशुओं की, पक्षियों की सुन सकते हो? तुम तो अपनेआप को मनुष्य देह मानते हो।
तो तुम किसी निराकार की तो सुन नहीं पाओगे। साकार में भी जो तुम्हारी भाषा न बोलता हो उसकी भी नहीं सुन पाओगे। अन्यथा गुरुता तो पूरे अस्तित्व में है। सिखाने को तुम्हें ये दीवार भी सिखा दे, यह पर्दा भी सिखा दे; सिखाने को तुम्हें बारिश की एक बूँद भी सिखा दे, पर उनसे सीख नहीं पाओगे क्योंकि तुम अपनेआप को मानते हो मनुष्य देह।
चूँकि तुम अपनेआप को मनुष्य देह मानते हो इसलिए तुम्हें गुरु भी देह रूप में चाहिए। गुरु देह रूप में चाहिए इसलिए नहीं कि तुम अपना देहभाव और सघन कर लो और गुरु को देह ही देखना शुरू कर दो; गुरु तुम्हें देह रूप में इसलिए चाहिए ताकि वो तुम्हारा देहभाव काट सके।
तो मैंने कहा, ये बड़े अनुशासन की बात होती है कि सामने गुरु बैठा हो शरीर धारण करके लेकिन फिर भी तुम मन में मान्यता यही रखो कि जो बात आ रही है मुझ तक वो किसी शरीर से नहीं आ रही, शरीर तो हाड-माँस है, शरीर से ऐसी बातें कैसे आ सकती हैं; ये बातें कहीं और से आ रही हैं।
न ही तुम ये कहो कि जो बातें आ रही हैं वो मन से उठ रही है। क्योंकि मन तो वृत्तियों और प्रभावों का पुतला है, अनुभवों का संकलन है। जो बातें आ रही हैं वो वृत्ति से आगे की हैं, अनुभवों से अतीत हैं, तो वो बातें फिर मन से कैसे आ सकती हैं? तो निश्चित रूप से जो बातें अभी मुझ तक आ रही हैं वो भले ही प्रतीत होती हैं किसी शरीर से आती हुईं, पर वो किसी शरीर से नहीं आ रही हैं—न तन से आ रही हैं, न मन से आ रही हैं—वो कहीं और से आ रही हैं।
ये अनुशासन शिष्य को रखना ही पड़ता है। और जो शिष्य यह अनुशासन नहीं रख पाता वो अपना बड़ा नुक़सान कर लेता है। यह अनुशासन सरल नहीं है, कठिन ही है। कठिन इसलिए है क्योंकि तुम्हें साफ़ दिखाई पड़ रहा है कि सामने बैठा शरीर बोल रहा है, तुम्हें आवाज़ सुनाई दे रही है, तुम्हें होठों का चलना सुनाई दे रहा है, तुम्हें वाक्य-विन्यास की पूरी प्रक्रिया दिखाई दे रही है, तुम्हें बात उच्चारित होती दिखाई दे रही है। तुम्हें यह भी दिख रहा है कि जिस भाषा में बात आ रही है, वो आदमी की ही भाषा है।
लेकिन फिर भी तुम्हें यह जागरूकता बनाए रखनी है कि बात लग भले ही रही हो कि हाड़-माँस से आ रही है, बात भले ही प्रतीत हो रही हो कि इंसान की भाषा में आ रही है, पर ये बात इंसानी नहीं है, हाड़-माँस की नहीं है, बात कहीं और से आ रही है। गुरु शरीर नहीं होता।
अगर ये धारणा लगातार तुमने नहीं बना रखी है, तो सुनने से तुम्हें लाभ की जगह नुक़सान होगा। सही दृष्टि से सुन रहे हो, सच्चे श्रोता हो, तो गुरु के पास जो समय बिताओगे, उसके बाद पक्के होकर लौटोगे; अन्यथा समय, संसाधन व्यर्थ गवाएँ।
ये लगातार जागरूकता रखनी पड़ती है कि छवियाँ बन रही हैं, मन आतुर है गुरु को छवियों में क़ैद कर लेने को, और तुम्हें सतर्क रहना पड़ता है कि मन सफल न हो जाए।
गुरु की छवि भी जब याद आए तो गौर करना कि तुम क्या याद कर रहे हो। छवि तो तुम्हें बहुत लोगों की याद आती है न। दिन के सारे पहरों को उठाकर देख लो तो कभी तुम्हें दोस्त-यार की छवि याद आती है, कभी माता-पिता की याद आती है, कभी किसी फ़िल्मी अभिनेता-अभिनेत्री की भी आ जाती है।
गुरु की छवि तुम्हें वैसे ही नहीं याद आ सकती जैसी कि दोस्त-यार, माँ-बाप या अभिनेता-अभिनेत्री की आती है। अंतर होता है, अनुशासन चाहिए। दूसरे जब छवि रूप में सामने आते हैं तो वो उतने ही हैं, जितने छवि में दिख रहे हैं। गुरु जब सामने आता है छवि रूप में तो छवि सिर्फ़ प्रतीक है, इशारा है। अंतर समझना।
तुम्हें भाई की छवि आयी, तो भाई का चेहरा तुम्हारी आँखों के सामने आ गया। भाई उतना ही है! भाई शरीर के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जिस दिन वो शरीर नहीं रहेगा, उस दिन तुम कह दोगे भाई नहीं रहा। ठीक? तो अगर भाई की छवि तुम्हारी आँखों के सामने आ रही है, तो भाई जितनी छवि है उतना ही है, भाई उस छवि से आगे कुछ नहीं, बियॉन्ड (परे) कुछ नहीं।
और सत्य को याद रखने के लिए, सत्य के स्मरण के लिए हो सकता है कि तुम्हारी आँखों के सामने बार-बार छवि आए — स-त्-य। अब ये जो तुम्हारे सामने ढ़ाई अक्षर आ रहे हैं, ये प्रतीक हैं।
भाई का चेहरा तुम्हारी आँखों के सामने जो आ रहा है, वो प्रतीक नहीं है। क्योंकि भाई किसी चीज़ का प्रतीक है ही नहीं। भाई तो जितना है, उतना ही है। प्रतीक का अर्थ होता है कि एक चीज़ जो अपने से आगे और अपने से बड़ी किसी चीज़ की ओर संकेत करती हो। है न?
जैसे कि तुम यहाँ पर (दीवार की ओर इंगित करते हुए) एक इशारा लगा दो, उस पर लिख दो 'तालाब', एक दिशा-सूचक लगा दो यहाँ पर और उस पर लिख दो 'तालाब।' अब ये जो दिशा-सूचक है, ये तालाब नहीं है अपनेआप में। यह क्या है? यह प्रतीक है, यह संकेत है।
ये अपने से आगे की और अपने से कहीं ज़्यादा विराट और सुन्दर किसी चीज़ की ओर इशारा कर रहा है। तो गुरु की छवि ऐसी है कि यहाँ पर तुमने एक दिशा-सूचक लगा दिया, उसपर लिख दिया 'तालाब।' अब तुम इस दिशा-सूचक पर कूद नहीं सकते, तुम ये नहीं कहोगे कि इसी में नहा लेता हूँ। इशारा आगे की ओर है।
और दूसरी ओर यहाँ पर (दीवार के दूसरी ओर इंगित करते हुए) तुम्हें तुम्हारे भाई की छवि आ रही है। तुमने आँख बंद कर के—तुम याद कर रहे हो, 'अरे भाई तू कैसा है भाई।' भाई कहीं की ओर इशारा नहीं है, भाई भाई है।
तालाब रहेगा, भले 'ता', 'ला' और 'ब' शब्द रहें चाहे न रहें। पर भाई का तुमने जो चेहरा याद किया अगर वो चेहरा मिट गया किसी दिन तो मैंने कहा, 'फिर भाई नहीं रहेगा' क्योंकि भाई उस चेहरे के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं।
तो गुरु का चेहरा जब याद करो तो याद अच्छे से रखना कि चेहरा भले ही मुझे याद आ रहा है, पर गुरु इस चेहरे से आगे का कुछ है। चेहरा ही मत बना लेना उसे, नहीं तो फिर तुमने गुरु को भी दोस्त-यार, भाई-बहन, पति-पत्नी वाले ही तल पर उतार दिया; लाभ नहीं होगा।
गुरु को याद रखना ही काफ़ी नहीं है, जब गुरु को याद करो तो ये भी याद रखना साथ-साथ ज़रूरी है कि 'तुम गुरु के माध्यम से किसी और को याद कर रहे हो।' गुरु प्रतीक मात्र है, इशारा मात्र है। साकार है गुरु, इशारा निराकार की ओर है।
उससे एक लाभ और भी होता है — तुम व्यक्तित्व पूजन के खेल से बच जाते हो। और ये व्यक्तित्व पूजन का जो खेल है, यह गुरु और शिष्य दोनों को ही भारी पड़ता है। तुमने गुरु की देह को ही गुरु मान कर पूजना शुरू कर दिया। माया को बड़ा मज़ा रहता है, वो गुरु को ये ग़ुरूर दिला देती है कि 'तुम ही तो परमात्मा हो।'
अब गुरुजी फूले नहीं समा रहे, वो कह रहे हैं, 'हम ही तो कुछ हैं। देखो न कितने लोग आकर के नमस्कार करते हैं, चरणवंदन करते है।' शिष्य तो शिष्य, गुरुजी भी बह गए। क्यों बह गए गुरुजी? क्योंकि शिष्यों ने गुरु के शरीर को ही गुरु मान लिया और लग गए—फिर देखते हो न कितने काण्ड सामने आते हैं। ये सब ऐसे ही होता है, व्यक्तित्व पूजा का खेल जब शुरू हो जाता है। उसमें शिष्य को भी कुछ नहीं मिलता और गुरु भी मारा जाता है।
प्र: आमतौर पर हम संसार में व्यक्तित्व के आगे कुछ देख ही नहीं पाते हैं। हम देखते भी हैं अपनों को, जैसे माँ या बाप को, तो वो व्यक्तिगत रूप से ही देख रहे हैं।
आचार्य: ठीक किया है, अभी तक तुमने व्यक्तित्वों को ही देखा है। तो उनसे तुम्हें मिला भी फिर उतना ही जितना तुम्हें कोई व्यक्ति दे सकता है। जितना तुम्हें कोई व्यक्ति दे सकता है, वो तुम्हें पूरा पड़ा है? अगर नहीं पड़ा है तो तुम्हें फिर व्यक्तित्व से आगे का कुछ चाहिए न।
अगर गुरु को भी व्यक्ति के रूप में ही देखोगे तो उससे उतना ही पाओगे जितना तुम्हें कोई व्यक्ति दे सकता है। और व्यक्ति बेचारा कितना दे सकता है? उसे ख़ुद ही कितना मिला है? गुरु अगर व्यक्ति है, तो उसे ख़ुद ही कितना मिला है?
गुरुओं का अगर तुम व्यक्तिगत जीवन देखोगे तो तुम्हें बड़ी निराशा-सी होगी, तुम कहोगे, "यहाँ तो कुछ भी सनसनीखेज नहीं है। हमें तो लगता था कि गुरुजी जाते होंगे, बल्ब की ओर ऐसे देखते होंगे (ऊपर की ओर आँखों और हाथों से इशारा करते हुए) और वो जल पड़ता होगा। खाँसी आती होगी तो कहते होंगे, 'जा' और चली जाती होगी। ऐसा तो कुछ है ही नहीं।"
हाँ, जितने ये नक़ली पाखंडी घूम रहे हैं, वो ज़रूर बताते हैं कि 'हमारे साथ ऐसा, हमारे साथ वैसा; हम अपनी तीसरी आँख खोलते हैं और चाय बन जाती है, हमें उबालनी थोड़ी पड़ती है।'
पर जो वास्तव में हुए हैं, उनकी ज़िंदगी में जा करके देखो — रामकृष्ण कैंसर से गए, बुद्ध पेट की बीमारी से गए, कृष्णमूर्ति कैंसर से गए, रमण महर्षि कैंसर से गए।
व्यक्ति के साथ तो वही सबकुछ होगा न जो किसी व्यक्ति के साथ हो सकता है। जिस सीमा तक गुरु व्यक्ति है, जिस सीमा तक तुम गुरु की देह की बात कर रहे हो, वहाँ वही सबकुछ चल रहा है जो तुम्हारी भी देह के साथ चलता है। तो गुरु को अगर तुमने व्यक्ति ही बना दिया तो वहाँ वही सबकुछ पाओगे जो तुम्हारी ज़िंदगी में पहले से ही मौजूद है; वहाँ कुछ ख़ास नहीं मिलने का। कुछ ख़ास नहीं मिलने का!
बात समझ में आ रही है?
आज तुम यहाँ बैठकर के वो पुराने लोगों की ओर देखते हो और कहते हो, 'पूजनीय हैं, पूजनीय हैं।' वो तो अब आम अवधारणा बन गई है। शिशुपाल से पूछो और दुर्योधन से पूछो, 'कृष्ण पूजनीय हैं?' क्या बोलेंगे? और दोनों श्रीकृष्ण के समकालीन थे।
जहाँ तक व्यक्ति की बात है, तो व्यक्ति जैसे दुनिया में मान-अपमान दोनों पाता है, वैसे ही श्रीकृष्ण को भी मान-अपमान दोनों झेलने पड़े थे। शिशुपाल ने एक-दो गालियाँ नहीं दी थी, उसने अपशब्दों की झड़ी लगा दी थी।
तुम जाओ कंस से पूछो, और रावण से पूछो। तुम शूर्पणखा से पूछोगे कि 'क्या श्री रामचन्द्र मर्यादा पुरुषोत्तम हैं?' तो क्या बोलेगी? 'अरे हटाओ! बाँका जवान है, मुझे पसंद है, मुझे चाहिए।'
उनकी भी ज़िंदगी में वही सबकुछ चल रहा है, जो तुम्हारी ज़िंदगी में चलता है। ये सब तुम्हारे साथ होता है कि नहीं होता है, कि कोई गाली दे गया? जैसे तुम्हें कोई गाली दे जाता है, वैसे ही व्यक्तिगत जीवन में गालियाँ तो गुरुओं को भी पड़ी हैं। कौन अछूता रहा है, दुनिया की कीचड़ सब पर पड़ती हैं बराबर की। हाँ बीच-बीच में कोई होता है, जो कमल बनकर खिल भी जाता है, पर कीचड़ तो सब पर पड़ती है।
"माया काली कूतरी जे छेड़े तेही खाए।" इसको तो छेड़ोगे नहीं कि ये फट से काटेगी।
श्रीकृष्ण को जानना हो तो गीता को देखना। पर हमारी अक्सर रुचि ज़्यादा किस्से-कहानियों में रहती है। कितने ही कृष्ण भक्त देखे हैं मैंने जो कहते हैं, 'हमें श्रीमद्भगवद्गीता से कोई लेना ही देना नहीं, हमें तो कृष्ण का व्यक्तित्व पसंद है।' और एक बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण आंदोलन ही चला हुआ है श्रीकृष्ण के नाम पर, जो श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व की ही पूजा कर रहा है।
जहाँ तक व्यक्ति रूप की बात है—इस बात को फिर अच्छे से समझ लो—वहाँ अगर तुम तथ्यों का निरीक्षण करोगे, तो पाओगे कि व्यक्ति-व्यक्ति सब एक तल पर हैं। हाड़-माँस में अंतर नहीं होता; बोध में अंतर होता है।
और बोध हृदय में कितना भी हो, हाड़-माँस के तल पर तो जन्म-मृत्यु, जरा, व्याधि और मृत्यु सबको मिलेंगे ही मिलेंगे। तो फिर तुम्हें क्या मिल गया ख़ास किसी को व्यक्ति देखकर और व्यक्ति रूप में उसकी पूजा करके?
क्या करोगे किसी अवतार की पूजा करके अगर तुम्हें उस अवतार को व्यक्ति ही मानना है; फिर तो वो अवतार भी मरा। और मृत्यु से बचने के लिए ही तुम लालायित हो। मृत्यु से बचना चाहते हो, अमरता ही तुम्हारी आख़िरी इच्छा है, और पूजा फिर किसी ऐसे की कर रहे हो जिसको देह मानते हो और उसकी मृत्यु भी हुई।
कौन नहीं मरा था? अगर राम व्यक्ति हैं तो राम की मृत्यु हुई है, अगर कृष्ण व्यक्ति हैं तो कृष्ण की हुई। क्राइस्ट के साथ देखा था क्या बर्ताव हुआ था?
प्र: आचार्य जी, क्या ध्यान में ग्रंथों को गुरु मान सकते हैं?
आचार्य: तुम शिष्य हो जाओ, तुम शिष्य हो जाओ। एक बात बताना, कुरक्षेत्र है, युद्ध स्थल है—अब वेद और उपनिषद् तो श्रीमद्भगवद्गीता से ज़्यादा प्राचीन हैं। तो महाभारत के युद्ध के पहले दिन भी वेद और उपनिषद् तो मौजूद थे—तो श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यह क्यों नहीं कह दिया कि 'जा तू और ईशावास्योपनिषद का पाठ करके आ'?
अगर ग्रंथों को ही गुरु बनाना सर्वश्रेष्ठ बात होती तो श्रीकृष्ण को अर्जुन को क्या कहना चाहिए था? कि 'वेद तो अपौरुषेय हैं, वेद तो ब्रह्म वाक्य हैं। जो दुनिया का ऊँचा-से-ऊँचा सत्य है, वो वेदों में निहित है, वर्णित है। तो अर्जुन मैं तुझे वेदों से आगे का क्या बता दूँगा? तू ऐसा कर जा वेदों का पाठ कर, तुझे सदबुद्धि मिलेगी।' पर ऐसा तो उन्होंने कहा नहीं। उन्होंने कहा, 'तू यहाँ बैठ, मैं तुझे कुछ बताऊँगा।'
अर्जुन को कृष्ण जितना समझा सकते हैं और जैसे समझा सकते हैं, वैसे ग्रंथ नहीं समझा पाते। हाँ, कृष्ण न उपलब्ध हों तो मज़बूरी में चले जाना ग्रंथों के पास, और कृष्ण उपलब्ध हों और फिर कृष्ण कहें कि 'जाओ और इन-इन ग्रंथों का पाठ कर लो', तो भी चले जाना ग्रंथों के पास।
पर तुम अपनी ही बुद्धि लगाकर के पहुँच गए ग्रंथों के पास, तो क्या ख़ाक पाओगे? मुझे ये बात बड़ी अजीब लगती है — तुम्हें डॉक्टर बनना होता है, तो तुम मेडिकल कॉलेज में जाने के लिए छटपटाते हो। मेडिकल कॉलेज माने क्या, दीवारें? वहाँ के प्रोफेसर, वहाँ की पूरी शिक्षण व्यवस्था, है न? और तुम्हें अच्छा डॉक्टर बनना होता है तो हम कहते हैं, 'ऊँचे-से-ऊँचे मेडिकल कॉलेज में जाएँगे।'
तुम्हें इंजीनियर बनना होता है, तुम अच्छे-से-अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में जाने के लिए छटपटाते हो। तब तो तुम नहीं कह देते कि हमें किसी डिग्री की कोई ज़रूरत नहीं है, किताबें बताओ, हम ख़ुद ही पढ़ लेंगे। पर मुक्ति और समाधि को तुमने इतना सस्ता बना रखा है कि तुम कहते हो, 'नहीं साहब; गुरु क्या, कोई शिक्षक भी नहीं चाहिए, किताब बताओ, किताब बताओ अभी हुआ जाता है।'
अपने दम पर आठवीं की परीक्षा तो पास न हो, तुम समाधि तक छलाँग मारने को आतुर हो। और ऐसे बहुत घूम रहे हैं। और ये भ्रम भी आजकल के तथाकथित गुरुओं ने फैलाया हुआ है। वो कहते हैं, 'हमने कुछ पढ़ा नहीं है, किसी को कुछ पढ़ने की ज़रूरत नहीं है।' तुमने अगर कुछ पढ़ा नहीं है, तो जाओ पढ़ो! यह बात शेखी बघारने की नहीं है कि हमने कुछ पढ़ा नहीं है। इस बात पर तो तुम्हें लज्जा आनी चाहिए कि तुमने कुछ पढ़ा नहीं है। अनपढ़ हो क्या?
बाक़ी सबकुछ पढ़ते हो, दुनियाभर के विषयों पर टीका-टिप्पणी करते फिरते हो। निश्चित रूप से अख़बार पढ़ते हो, टीवी देखते हो, तमाम तरह की पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ते हो; सबकुछ पढ़ते हो। उपनिषद् पढ़ते तुम्हें लाज़ आती है? समझाओ कि उपनिषद् क्यों नहीं पढ़े?
या तो ये कह दो कि 'अनपढ़ हूँ, काला अक्षर भैंस बराबर, पढ़ने में नहीं आता इसलिए नहीं पढ़े।' पर इतनी अंग्रेजी बोलते हो। सबकुछ पढ़ सकते हो, कबीर साहब के पास जाकर पढ़ते हुए लाज़ आती है या ग्लानि का अनुभव होता है। क्योंकि वहाँ जाओगे तो तुम्हारे झूठ खुल जाएँगे, वहाँ जाओगे तो इतने जो भ्रम तुम फैला रहे हो उन भ्रमों पर से पर्दा उठ जाएगा।
ख़ूब प्रचलन हुआ पड़ा है आजकल कि ग्रंथों इत्यादि के पाठ की कोई ज़रूरत ही नहीं। बेटा, वो तुमसे भी आगे निकल गए। तुमने तो बस इतना ही कहा कि 'ख़ुद पढ़ लूँ?' वो कह रहे हैं, 'ख़ुद भी पढ़ने की ज़रूरत नहीं।'
अगर सौभाग्य है तुम्हारा, तो कोई गुरु मिल जाएगा इस क़ाबिल जो तुम्हें दो-चार बातें बता दे, और तुम्हें ग्रंथों से भी मिलवा दे। न मिले गुरु तो ख़ुद ही चले जाना ग्रंथों के पास। पर ये तमाशा कभी मत कर देना कि 'न गुरु चाहिए, न ग्रंथ चाहिए।' और ऐसे गुरुओं से भी बहुत सावधान रहना जो कहें कि 'हमने कोई ग्रंथ पढ़ा नहीं, न कोई ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता है।'
कोई ऐसा कह रहा है, तो न जाने उसके लिए कौन-कौन से विशेषण इस्तेमाल किए जा सकते हैं।
कुछ बातें अच्छे से समझ लो — कोई भी, कभी भी जीवन की किसी भी स्थिति में अगर सत्य ग्रंथों के पाठ से इंकार कर रहा है, तो फ़र्क नहीं पड़ता कि स्थिति क्या है, संदर्भ क्या है, उस व्यक्ति की पृष्ठभूमि क्या है, माहौल क्या है, उस व्यक्ति के पास बहाना क्या है—इन सब किसी भी बातों से फ़र्क नहीं पड़ता—अगर कोई व्यक्ति कभी भी, कहीं भी, कैसे भी धर्मग्रंथों के पाठ से इंकार कर रहा है तो उससे सावधान रहना, वो माया का भोगी है।
सुख हो, दुख हो; दिन हो, रात हो; जाड़ा हो, गर्मी हो तुम साँस लेने से इंकार करते हो क्या? तो ऐसा कैसे हो गया कि किसी स्थिति में तुमने मना कर दिया कि 'हम वेद नहीं पढ़ेंगे, हम संतों के भजन नहीं गाएँगे'? कैसे मना कर दिया? साँस लेने से तो तुम कभी इंकार नहीं करते, वेद पाठ से कैसे इंकार कर बैठे?
हाँ, तुम्हारे पास बहाने ख़ूब होंगे, तुम कारण गिना दोगे। वो सब कारण झूठे हैं। असली कारण एक ही है — अहंकार बहुत है, और भोगने की लिप्सा ख़त्म नहीं हो रही।
प्र: आचार्य जी, ऐसा बोल सकते हैं कि गुरु नहीं तो ग्रंथ का भी मान नहीं है?
आचार्य: बेटा, विशेष परिस्थितियों में ऐसा हो सकता है कि सजीव गुरु तुम्हें कुछ समय तक किन्हीं कारणों से उपलब्ध हो ही न पाए, तब ग्रंथों का सहारा लो। होने को ये भी हो सकता है कि किन्हीं विशेष परिस्थितियों में तुम्हें ग्रंथ भी अनुपलब्ध हो जाएँ। तुम फँस गए हो किसी ऐसी जगह जहाँ न किताब है, न बिजली है, न पानी, न कुछ, तब अपने हृदय में बैठे गुरु का सहारा लो।
पर चूँकि तुम अपनेआप को शरीर ही मानते हो इसलिए तुम्हारे लिए तो सबसे सुविधापूर्ण और सबसे सौभाग्यपूर्ण बात यही है कि तुम्हें सजीव गुरु ही उपलब्ध हो जाए। पर इंतज़ार करते मत बैठे रहना, नहीं मिलता हो कोई ज़िंदा पथ-प्रदर्शक तो पथ पर अकेले ही चल पड़ना। यह मत कह देना कि 'बीस साल से प्रतीक्षा कर रहे हैं, गुरु इत्यादि तो कोई मिला नहीं तो हम आगे नहीं बढ़ रहे।' नहीं मिलता गुरु तो न मिले, तुम आगे बढ़ो, अकेले आगे बढ़ो; एकला चलो।
जीवन में कभी-कभार वो स्थिति सबके साथ आएगी कि कोई साथ नहीं होगा, गुरु भी साथ नहीं होगा; कई बार तो गुरु ही ऐसी स्थितियाँ निर्मित करेगा कि वो थोड़े अंतराल के लिए हट ही जाए। अकेले हो गए हो तो भी चलते ज़रूर रहना, भले गिरते-पड़ते आगे बढ़ो, ठोकरे खाते आगे बढ़ो; पर रुकना तब भी नहीं।
जिन्हें ठोकरें इत्यादि खाने से डर लगता हो, अध्यात्म उनके लिए नहीं है। जो सुख-सुविधा की ज़िंदगी चाहते हों, आरामतलब हों, अध्यात्म को एक तरह की अय्याशी, विलासिता समझते हों, वो कृपया मेरे पास न आएँ। अध्यात्म साधना है, संग्राम है।
कितना सुंदर शब्द आया है—आप गीता की बात कर रहे थे—'परंतप'। गीता में शब्द है — परंतप। हे परंतप! और परंतप के दो अर्थ होते हैं, क्या? एक साधक, एक योद्धा। एक साधक, और एक योद्धा।
साधक को योद्धा होना ही पड़ेगा और योद्धा तुम हो नहीं सकते बिना साधक हुए। बाहर-बाहर संग्राम, भीतर विश्राम। जिन्हें विश्राम चाहिए हो वो संग्राम के लिए बिलकुल तैयार रहें। और जिन्हें विश्राम मिल गया है, वो मज़े में संग्राम करेंगे।