प्रश्नकर्ता: आचार्य श्री, प्रणाम। जीवित गुरु का क्या अर्थ है? संत जन जीवित गुरु को अधिक महत्त्व देते हैं, पर कभी-कभी ये भी कहते हैं कि ये हवाएँ, ये जल, ये पर्वत, ये जानवर, ये सब भी मेरे गुरु हैं। आप भी कहते हैं कि "ये तुमने क्या कर दिया, तुमने मुझको भी शरीर तक ही सीमित कर दिया!" आखिर गुरु कौन है? कृपया समझाने की अनुकंपा करें।
आचार्य प्रशांत: गुरु कौन है, ये समझने से पहले ये जानना होगा कि तुम कौन हो, क्योंकि गुरु प्रासंगिक सिर्फ़ तुम्हारे संदर्भ में होता है न। तुम न हो तो गुरु जैसा क्या? गुरु सदा किसी का गुरु होता है, ठीक।
.'गुरु' शब्द की भी अगर विवेचना करें तो शब्द कहता है, जो तुम्हें 'गु' (अंधकार) से 'रु' (प्रकाश) तक की यात्रा करा दे, सो गुरु है।
तो गुरु के होने के लिए सर्वप्रथम 'गु' का तो होना जरूरी है न? अगर 'गु' नहीं, तो गुरु कहाँ? और 'गु' कौन है? चेला। पहले उसकी बात करनी पड़ेगी। 'गु-रु' समझना है तो पहले 'गु' को समझना होगा। 'गु' हो तुम।
कौन हो तुम? एक वृत्ति मात्र हो तुम। वृत्ति, टेंडेन्सी। कोई पदार्थ नहीं तुम, एक भाव हो, एक धारणा हो, एक मान्यता हो। कह सकते हो कि एक ज़िद हो तुम, ये तुम हो। क्या कहते हो तुम? तुम कहते हो, "हम ज़रा कम हैं।" क्या कहते हो तुम? "हम कम हैं, हम भरपूर नहीं। हम पूर्ण और तृप्त नहीं हम कम हैं," ये तुम्हारा नाम है। और अपनी इस कमी को पूरा करने के लिए तुम सहारा लेते हो शरीर का।
शरीर प्रकृति है, मस्तिष्क प्रकृति है, संसार प्रकृति है। तीनों साथ-साथ ही चलते हैं न? जहाँ शरीर होगा वहाँ मस्तिष्क भी होगा, और जहाँ शरीर है वहाँ संसार भी होगा। बिना संसार के तो कोई शरीर होता नहीं। तो ये दुनिया है, इस दुनिया में संसार है और शरीर है। जो वृत्ति हो तुम, वो वृत्ति जाकर के शरीर को पकड़ लेती है, कहती है — "इसके माध्यम से क्या पता कमी पूरी हो जाए।" शरीर के माध्यम से क्या पता कमी पूरी ही हो जाए? वो कमी पूरी होती नहीं।
तुम शरीर और शरीर के सभी उपकरण का पूरा इस्तेमाल कर लेते हो। शरीर के क्या उपकरण हैं? खाल, आँख, नाक, लिंग और ये खोपड़ा जिसमें स्मृति, बुद्धि इत्यादि बैठे हुए हैं। तुम इन सबका पूरा इस्तेमाल कर लेते हो। सोचते हो कि वो कमी किसी तरह से हटे। जीवन भर तुम शरीर से ही संबद्ध होकर जीते हो, अपने आप को शरीर मान के जीते हो। और तुम्हारे पास एक वजह है, तुम्हारी नजरों में तुम्हारे पास एक वाजिब वजह है शरीर बनके जीने की। और वो वाजिब वजह ये है कि शरीर बनके जिएँगे तो ज़रा आसार बढ़ेंगे पूर्णता के, क्योंकि सब अनुभव किसके माध्यम से मिलने हैं? शरीर के माध्यम से।
और धारणा पकड़ रखी है। मैंने कहा था न, एक ज़िद हो तुम। धारणा तुम्हारी ये है कि अनुभवों के माध्यम से पूर्णता मिल जाएगी। किन्हीं अनुभवों की ही तो कमी है जीवन में। इसीलिए देखा नहीं कि नए-नए अनुभवों के लिए कितने आतुर रहते हो! कोई कहता है चलो विदेश चलते हैं, पेरिस घूम के आएँगे, मॉरीशस जाना चाहता है, कह रहे हैं हवाई चलते हैं। तुमने कभी देखा है कि जानवर अपना बँधा-बँधाया दायरा छोड़ कर के बहुत दूर जाते हों अनुभवों की तलाश में? हाँ, रोटी-पानी की तलाश में भले चले जाएँ, पर अनुभवों की तलाश में देखा है? क्योंकि उनको ये ज़िद ही नहीं कि नए-नए अनुभवों के माध्यम से उन्हें तृप्ति मिल जाएगी। आदमी को ये बड़ी ज़िद है!
क्या बने बैठे हो तुम? शरीर। तुम्हारी नज़रों में सबसे कीमती क्या चीज़ है? शरीर। शरीर बने बैठे हो, शरीर को ही कीमत देते हो, शरीर की ही सुनते हो, शरीर से ही सुनते हो। ये तुम्हारी ज़िद है। चूँकि ये तुम्हारी ज़िद है, इसलिए शरीरी गुरु आवश्यक हो जाता है। अन्यथा शरीरी गुरु का कोई महत्त्व नहीं। तुम्हें हर चीज़ शरीरी ही तो चाहिए न! इसीलिए गुरु भी तुम्हें शरीरी चाहिए। तुम्हें भाषा शरीर की ही समझ में आती है न? पेड़ भी बोलते हैं, हवाएँ भी गाती हैं। तुम्हें कुछ समझ में आता है? तो तुम्हें तो तभी समझ में आता है जब इंसान बोले, इंसान की ही भाषा में। ये तुम्हारी ज़िद है। इसलिए फिर तुम्हें गुरु भी ऐसा चाहिए जो तुम्हारे सामने खड़ा हो, तुम्हारी ही भाषा में तुमसे बात कर पाए।
परम तत्व तो सर्वत्र विराजता है। उसी का प्रसार है। पर कहो, इस कमरे में बैठे हो तुम मुझसे सीख रहे हो या इन पर्दों और दीवारों से? जल्दी बोलो।
श्रोता: आपसे।
आचार्य प्रशांत: तो बस इसी से स्पष्ट हो जाएगा, कि शरीरी गुरु क्यों चाहिए? इसलिए नहीं कि परमात्मा पक्षपात करता है, इसलिए क्योंकि तुम पक्षपात करते हो। ऊपरवाले की ज़िद नहीं है कि गुरु कोई देही आदमी ही हो सकता है। ये तुम्हारी ज़िद है।
तुम्हें शरीर से बड़ा मोह है, बड़ी आसक्ति है। तुम्हें शरीर से बड़ी आसक्ति है, तो फिर तुम सीखते भी किसी ऐसे से ही हो जो सशरीर हो। नहीं तो तुम सीख नहीं पाओगे। तुम्हारे सामने चींटियाँ और कबूतर हों — बोलो, सीख लेते हो? सीख लेते हो क्या? सीखा जा सकता है, पर तुम सीख लेते हो क्या? तुम तो नहीं सीखते न, इसलिए शरीरी गुरु चाहिए।
जिस दिन तुम ऐसे हो जाओगे कि चाँद, तारों और हवाओं से भी सीखने लग जाओगे, उस दिन तुम्हें शरीरी गुरु की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। पर वैसे तुम तब हो जाओगे जब तुम्हें अपने ही शरीर से बहुत आसक्ति नहीं रहेगी। जिस दिन तक तुम्हें अपने शरीर से बड़ा मोह है, अपने शरीर को बड़ा महत्त्व देते हो, उस दिन तक तुम चाँद-तारों से कैसे सीख लोगे? और चाँद-तारे तो फिर भी साकार हैं। उस दिन तुम निराकार सत्य से सीधे कैसे सीख लोगे? अभी तो तुम अपनी पहचान ही बताते हो कि "मैं साकार हूँ," ठीक।
तुम्हारी क्या पहचान है अभी? "मैं साकार हूँ।" इसीलिए मृत्यु तुम्हारे लिए कितना बड़ा डर है, है न? कहीं मर न जाएँ। मरने पर क्या मरता है? आकार ही तो मरता है। तो जिस दिन तक तुम मौत से घबराते हो, उस दिन तक तो तुम्हें सशरीर ही गुरु चाहिए।
जिस दिन तुम ऐसे हो जाओगे कि मौत तुम्हारे लिए एक मज़ाक रह जाए, उस दिन तुम खाली आकाश से, और बंदर से, और बहते पानी से, और मौन से, और सन्नाटे से भी सीख लेना। शरीरी गुरु का काम बड़ा मुश्किल होता है, उसे काँटे से काँटा निकालना होता है। तुम्हारा मूल काँटा ही यही है कि तुम्हें पदार्थ से, देह से, संसार से बड़ा मोह है। और शरीरी गुरु ख़ुद तुम्हारे सामने क्या धारण करके बैठा है? देह। तो तुम उसकी समस्या समझो, एक देही आदमी को तुम्हें ये सिखाना है कि देह महत्त्वपूर्ण नहीं। काँटे से काँटा निकालना है।
तुम्हारे सामने कोई ख़ुद देह लेके बैठा हुआ है, और वो तुमको सिखा क्या रहा है?
श्रोता: देह से मोह छोड़ो।
आचार्य प्रशांत: “देह से मोह छोड़ो।" कितना मुश्किल काम है, इसीलिए शरीरी गुरु और आवश्यक हो जाता है। वो देह धारण करके तुम्हारे सामने आएगा। क्योंकि देह लेकर न आए, तो बड़े ज़िदी हो तुम उसकी सुनोगे ही नहीं। देह से तुम्हारी आसक्ति छुड़ाएगा। और जब सब पदार्थों से तुम्हारी आसक्ति छूट जाएगी, तो तुम पाओगे कि एक आख़िरी पदार्थ है जिससे तुम्हारी आसक्ति बची हुई है, बल्कि और दृढ़ हो गई है। वो कौन सा आखिरी पदार्थ होता है? वो गुरु की देह होती है।
‘अहम्' कुछ न कुछ तो पकड़ना चाहता है। जब उससे सब कुछ छूट जाता है, तो वो आख़िरी चीज़ पकड़ता है — गुरु। कहते हो न, “धन-धन गुरुदेव, तेरा ही आसरा।” अब सबको छोड़ दिया, तो आख़िरी यही बचे, इनको पकड़ लो। तब गुरु को अपना आख़िरी काम करना पड़ता है। वो कहता है — "अब सब छोड़ दिया है, मुझे भी छोड़ो। हटो।" और तुम चीखते-चिल्लाते हो, फिर कहते हो “दगाबाज़! बेवफ़ा! इसके भरोसे हमने पूरी दुनिया छोड़ी, और अब ये छोड़ के चल दिया!”
तुम बड़े से बड़ा आक्षेप लगाते हो। देखते हो न, कितनी बड़ी तोहमत है कि "तुम्हारे लिए हमने पूरी दुनिया छोड़ी, अब तुम ही हमें छोड़ के चल दिए।" ये तो उसे करना पड़ेगा। आख़िर तक भी उसे शरीर चाहिए। क्यों चाहिए? ताकि जिस हाथ से तुमने उसको पकड़ लिया है, उस हाथ को वो छुड़ा सके। बात बड़ी विरोधाभासी है — ये हाथ चाहिए, ताकि इस हाथ को तुम्हारे हाथ की पकड़ से छुड़ा सकूँ। शरीर नहीं होगा तो कैसे होगा?
तो गुरु के दोनों रूप ज़रूरी हैं। उसका देही होना बहुत ज़रूरी है। उसका तुम्हारे मन को समझना बहुत ज़रूरी है। कोई किताब तुम्हारे मन को नहीं समझ पाएगी। यहाँ पर किताब बैठी हो तो उसे थोड़ी दिखाई देगा कि तुम कितनी जंभाईयाँ मार रहे हो! फिर उसके बाद कोई किताब तुमसे थोड़ी कह पाएगी कि — "आप बाहर ही जाइए, जंभाई मारिए।" तुम यहाँ पर बैठा दो कोई बड़ा विशुद्ध और पावन ग्रंथ, वो थोड़ी ही तुम्हें दरवाज़ा दिखाएगा। गुरु दिखा देगा। क्योंकि वो तुम्हारी जंभाई का अर्थ समझता है। ग्रंथ क्या समझेगा?
तो गुरु का देही होना आवश्यक है। और फिर गुरु को ही ये सतर्कता रखनी पड़ती है कि जैसे तुम तमाम देहों से आसक्त होते हो, कहीं तुम गुरु की देह से भी आसक्त न हो जाओ। गुरु के व्यक्तित्व से ही कहीं जुड़ न जाओ। वो आख़िरी बात होती है। वो काम भी गुरु का ही होता है।
तो मैं दोनों बातें कहता हूँ इसीलिए। मैं ये भी कहता हूँ कि जैसे तुम हो, जो तुमने अपनी हालत कर रखी है, उसमें तो तुम्हें कोई सशरीर ही चाहिए। क्या सदा कोई चाहिए शरीरी गुरु? नहीं, सदा नहीं चाहिए। सबको नहीं चाहिए। ऐसा हो सकता है, किन्हीं परिस्थितियों में एक विरल संभावना ये है कि कोई बिना जीवित गुरु के भी बोध को उपलब्ध हो जाए — ऐसी संभावना है। पर वो संभावना न्यूनतम है। लाखों में किसी एक के साथ ऐसा हो सकता है कि उसे जीवित गुरु न मिले, तो भी वो बोध को उपलब्ध हो जाए। ऐसा हो सकता है। अधिकांश लोगों के साथ ऐसा नहीं हो सकता। तो आवश्यकता है, ये पहली बात।
और दूसरी बात, गुरु के लिए आवश्यक है कि वह देह धार करके सामने आए, और शिष्य के लिए आवश्यक है कि वो गुरु को देह न समझे। अब ये बात फिर तुमको अटपटी लगेगी, पर समझना इसको।
गुरु के लिए ज़रूरी है कि वो देह धरे, क्योंकि देह नहीं धरेगा तो तुम्हें देखेगा कैसे? तुम्हारे कान कैसे खींचेगा? और शिष्य के लिए ज़रूरी है कि वो गुरु को देह न माने, क्योंकि आख़िरी बात तो यही है कि देह में क्या रखा है, दोस्तों? देह से तृप्ति मिलनी होती तो तुम कब के पा गए होते न? कोई कोर-कसर तो छोड़ी नहीं है तुमने! जितने तरीक़ों से तुम शरीर का इस्तेमाल कर के अपने आप को प्रसन्न कर सकते थे, तुमने कोशिश तो पूरी करी ही है। कुछ मिला क्या?
तो आख़िरी बात तो यही है कि पदार्थ से, शरीर से, इनकी आसक्तियों से आगे बढ़ना है। गुरु को देह नहीं मान लेना है। इस पहली और दूसरी बात को अगर एक बात बनाकर कहूँ तो वो ये होगी, कि गुरु की देह बस एक साधन है। गुरु का जीवभाषित होना बस एक साधन की बात है।
गुरु के शरीर को एक साधन मानना अंत नहीं है, साध्य नहीं है। साध्य तो वो है जो निराकार है। साधन वो है जो साकार है।