चकमक पत्थर रहे एक संगा, नहीं उठे चिंगारी।
बिनु दया संयोग गुरु बिनु, होत नहीं उजियारी।।
~ संत कबीर साहिब
आचार्य प्रशांत: चकमक पत्थर। चकमक कौन-सा पत्थर होता है?
श्रोता: आग जलाने के काम आता है।
आचार्य प्रशांत: ठीक है!
चकमक पत्थर रहे एक संगा।
अकेला है वो। वो कह रहा है, “भाई! मुझे किसी से कोई मतलब नहीं है। मैं तो अपनेआप में ही काफ़ी हूँ,” क्योंकि चकमक को बता दिया गया है कि – “आग तो तेरे भीतर ही है।” शायद चकमक ने कबीर साहिब को ही सुन लिया होगा।
*ज्यों तिल माही तेल है, ज्यों चकमक में आग।*तेरा साईं तुझमें है, जाग सके तो जाग।।
तो चकमक ने कबीर साहिब को ही सुन लिया। और चकमक ने क्या कहा? “जैसे तिल में तेल, ज्यों चकमक में आग है। तेरा साईं तुझमें है, जाग सके तो जाग।” तो चकमक ने क्या कहा, “आग तो मेरे भीतर ही है। प्रकाश तो मेरे भीतर ही है। तो मुझे और किसी की ज़रूरत क्या है।” अब वो अकेला पड़ा हुआ है। कह रहा है, “आग तो मेरे ही भीतर है, मुझे किसी की ज़रूरत क्या है!” तो फिर उसी चकमक को आगे कबीर साहिब क्या सन्देश दे रहे हैं?
चकमक पत्थर रहे एक संगा, नहीं उठे चिंगारी।
आग तेरे भीतर होगी, पर कोई चिंगारी नहीं उठेगी अगर अकेला रहेगा। तू ये सोचता रहे कि – ‘मेरे भीतर है, चिंगारी यूँ ही उठ आएगी,’ तो नहीं उठेगी।
बिनु दया संयोग गुरु बिनु, होत नहीं उजियारी।
आग तेरे ही भीतर होगी, पर जब तक गुरु का संयोग नहीं मिलेगा, गुरु से जुड़ेगा नहीं, तब तक चिंगारी नहीं उठेगी।
दोनों बातें अपनी-अपनी जगह बिलकुल ठीक हैं।
पहली बात – गुरु बाहर से लाकर तुझे चिंगारी नहीं दे रहा है। सत्य तो तेरे ही भीतर था, तू ही सत्य है। कबीर साहिब ने बिलकुल ठीक कहा था, “ज्यों चकमक में आग है, ज्यों तिल में तेल।” तो बात तो कबीर साहिब ने बिलकुल ठीक कही थी। पर बात किसके कानों में पड़ गई? बात पड़ गई अहंकार के कानों में। ‘अहंकारी चकमक’ ने क्या सुना? “मुझमें ही तो है न, आग मुझमें ही है!” अब फँस गया, अब दुखी है कि – अँधेरा-अँधेरा सा क्यों है? उजियारी क्यों नहीं हो रही? तो फिर आगे कबीर साहिब का क्या सन्देश है चकमक को?
चकमक पत्थर रहे एक संगा, नहीं उठे चिंगारी।
तू जब तक गुरु के स्पर्श में नहीं आएगा…..और स्पर्श भी कैसा? गुरु से रगड़ा खाना पड़ेगा। जब तक रगड़ा नहीं खाएगा, चिंगारी नहीं उठेगी, और तू अँधेरा-ही-अँधेरा रहेगा।
तो बड़े साधारण-से प्रतीक के साथ, बड़ी गहरी बात कह दी है कबीर साहिब ने। पहली – सत्य तेरे ही भीतर। दूसरी – वो सत्य उद्भूत नहीं होगा, प्रकट नहीं होगा, जबतक गुरु के पास नहीं जाओगे।
कबीर साहिब का यही है। कृष्णमूर्ति और ओशो दोनों ही उनमें समाए हुए हैं, जब कहते हैं,
*ज्यों तिल माही तेल है, ज्यों चकमक में आग।*तेरा साईं तुझमें है, जाग सके तो जाग।।
तो कृष्णमूर्ति इस बात से तुरंत सहमत हो जाएँगे। कृष्णमूर्ति कहेंगे, “बिलकुल यही तो कहता हूँ मैं, कि तुझे किसी और के सहारे की ज़रूरत ही नहीं है। आग तेरे ही भीतर है, यू हैव दा इंटेलिजेंस। ख़ुद जग!” कृष्णमूर्ति बिलकुल अभी कबीर साहिब से सहमत रहेंगे इस बात पर। थोड़ी देर में लेकिन कबीर कुछ और कह जाएँगे। थोड़ी देर में कबीर कह रहे हैं कि,
बिनु दया संयोग गुरु बिनु, होत नहीं उजियारी।
अब कृष्णमूर्ति को पीछे हटना पड़ेगा। अब कृष्णमूर्ति कहेंगे, “नहीं… नहीं… ये क्या हो गया।” अब ओशो बहुत ख़ुश हो जाएँगे। कहेंगे, “यही तो बात है।”
श्रोता: गुरु गोबिंद दोऊ खड़े।
आचार्य प्रशांत: बिलकुल! दोनों ही बात अपनी-अपनी जगह बिलकुल ठीक हैं ।
रमण से पूछा था किसी ने कि – ‘गुरु’ क्या? रमण ने कहा, “‘गुरु’ आत्मा।” आत्मा के अलावा और कोई गुरु हो नहीं सकता। फिर रमण ने पूछा, “तुम क्या हो? तुम आत्मा अनुभव करते हो अपने आपको?” बोला, “नहीं, मैं तो शरीर ही अनुभव करता हूँ।” तो रमण ने कहा, “जैसे तुम सत्य होते हुए भी अपने आपको शरीर ही अनुभव करते हो, उसी प्रकार तुम्हें अभी गुरु भी शारीरिक रूप में ही चाहिए। जिस दिन तुम अपने आपको आत्मा अनुभव करने लगोगे, उस दिन आत्मा ही तुम्हारी गुरु है। अभी ये सब बातें मत करो कि आत्मा ही गुरु है। अभी ये कहो भी मत कि गुरु मेरे भीतर बैठा है।”
ज्यों तिल माही तेल है, ज्यों चकमक में आग।
वो बात सही होगी। पर वो पारमार्थिक सत्य है, वो कभी तुम्हारे काम नहीं आएगा। वो बात अभी तुम्हारे काम नहीं आएगी। जब कृष्णमूर्ति समान हो जाओगे, जब तुम्हारा अपना बोध इतना प्रबल हो जाएगा, तब वो बात ठीक है। अभी नहीं! अभी तो रगड़ा चाहिए तुमको।