वक्ता: प्रश्न है, ‘घमंड क्या है?’
जब कभी भी आप किसी दूसरे के मन में एक छवि बनाना चाहते हो, कैसी भी, तो वही घमंड है। घमंड सिर्फ इसी को ही मत मानना कि तुम अपने आप को बड़ा कर के दिखा रहे हो। हम कई बार औरों के सामने अपनी एक छोटी छवि भी बनाते हैं। उदाहरण के लिए, तुम बड़ी-बड़ी हरकतें करते हो और अपने घर में उसकी छोटी-सी छवि बनाते हो। परिवार वालों को अगर तुमने सब कुछ बता दिया कि मैं इतना पहुंचा हुआ आदमी हूँ, तो अब तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी। पर तुम इसको ईगो नहीं मानोगे। तुम कहोगे कि ये तो घमंड नहीं है क्योंकि हमने छोटा कर के बताया है। बात यह नहीं है कि क्या करके बताया है, बात यह है कि दूसरे हावी हो गए। बात यह है कि मेरा जो लोकस ऑफ़ कण्ट्रोल था, मेरी जो पूरी सत्ता थी, आंतरिक, वो मैंने किसी और के हाथों में सौंप दी।
चाहे उसे छोटा बताया, चाहे बड़ा बताया लेकिन आख़िरी बात ये है कि उसकी आँखों में एक छवि प्रतिस्थापित करने की कोशिश की। अब मैं यहाँ तुम्हारे सामने खड़ा हूँ, तुमसे बोल रहा हूँ, मैं दो तरीके से बोल सकता हूँ। पहला मैं वो बोलूं जो उचित है बोलना, वो बोलूं जो तुम्हारे काम आयेगा, और दूसरा ये है कि मैं तुम्हारे मन में एक छवि बनाने के लिए बोलूं। अगर मैं तुमसे दूसरे तरीके से बोलूँगा तो मैं तुमसे कुछ ऐसा बोलूँगा जिससे तुम तालियाँ बजाओ। फिर मैं तुमसे कुछ ऐसा बोलूँगा जो तुम्हें आहत न करे, बल्कि तुम्हारे अहंकार को और पुष्टि दे। और मैं ज़रा भी नहीं चाहूँगा के तुम किसी भी तरीके से मेरे बारे में कुछ बुरा सोचो।
तुम क्या चाहते हो मैं तुमसे किस तरह की बात करूं? पहले तरीके से या दूसरे तरीके से?
सभी श्रोतागण(एक स्वर में): पहले।
वक्ता: जब मैं दूसरे तरीके से बात करूंगा तो याद रखना कि तुम खुश बहुत हो जाओगे। मैं तुम्हें चुटकुले सुना सकता हूँ, मैं तुम्हारा मनोरंजन कर सकता हूँ और मुझे तुम्हें डांटने की कोई जरूरत नहीं होगी। मैं तुमसे कहूँगा कि तुम्हारी जो इच्छा हो वो करो, लेकिन वो तुम्हारे काम का नहीं होगा। याद रखना अहंकार जब भी छवि बनाने की कोशिश करता है सामने वाले के मन में, तो अपना तो नुकसान करता ही है, सामने वाले का भी नुकसान करता है। मैं अगर तुम्हारे मन में अपनी छवि बनाने की कोशिश करूंगा तो तुम्हारा ही नुकसान करूंगा। फिर तुम्हें मुझसे कुछ मिलेगा नहीं, तुम जैसे यहाँ से आये थे वैसे ही यहाँ से निकल जाओगे। कुछ मिला नहीं होगा।
बात ये बिल्कुल भी नहीं है कि दूसरे के मन में कैसी छवि बनाई है। ये जो दूसरापन है ना ‘अदरनेस’, ये अदरनेस ही बड़ी गड़बड़ बात है। कि मेरे सारे विचारों का केंद्र, मेरे मन की सभी गतिविधियों का केंद्र भीतर नहीं है, बाहर है। मैं चल रहा हूँ तो सोच रहा हूँ कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोच रहे होंगे।अब मैं अपना तो दिमाग खराब कर ही रहा हूँ, मैं दूसरों का दिमाग भी खराब कर रहा हूँ। कुछ लोग मुस्कुरा रहे हैं क्योंकि वो जानते हैं कि सुबह-सुबह यही हुआ था। आने को तो ऐसे आ सकते थे कि एक साधारण सी टी-शर्ट डालो, पैंट पहने, चप्पल पहनो, आ जाओ। पर कई लोग आने से पहले पूरी तैयारी करते होंगे।
(सभी श्रोतागण हँसते हैं)
आप लोग क्यों हंस रहे हो? तैयारी तो ज्यादा आप ही लोग करते होगे। अब हो जाएगी दिक्कत, अब होगी। और हम इसी तरीके से ज़िंदगी जीते हैं। जैसे सड़क पर एक व्यक्ति का केले के छिलके पर पाँव पड़ा, और वह गिर गया। जैसे ही खड़ा होता है क्या करता है? इधर-उधर देखता है कि किसी ने देखा तो नहीं। एक-एक काम हमारा दूसरे पर आश्रित है। हम कुछ भी ऐसा करते ही नहीं जो मुक्त हो, जो इंडिपेंडेंट हो जो, फ्री हो। लगातार हमारी दृष्टि किसी और पर बनी रहती है और ये बड़ा डर का सूचक है, एक गहरा डर है इसमें, उसी का संकेत है। कि कहीं मेरी छवि बिगड़ न जाये क्योंकि हम वास्तविकता में जी ही नहीं रहे ना, हम तो जी रहे हैं छवि में और उसी छवि के बिगड़ने का हमें बड़ा डर रहता है।
आज सुबह की ही बात थी, तुम लोगों को भी बताता हूँ। परीक्षा का परिणाम आया था। परिणाम गड़बड़ आया था, सभी को ऐसा लगता था कि बर्बाद हो गए, अब जी नहीं सकते। अच्छा ऐसा हो गया। सभी विद्यार्थी बोलते हैं कि आज आप कुछ भी बोल लीजिये, आज नहीं सुनेंगे आपको, आज तो बस हमें रोना है, बर्बाद हो गए हैं। अच्छा, क्या हो गया है? ‘परिणाम आया है सर, इतनी बैक लग गईं हैं’। मैंने कहा कि अच्छा ये जो मार्कशीट है, ये किसी को अगर दिखानी न होती, किसी को दिखानी न होती, इसको बस ले जा कर किसी अलमारी में रख देना होता, और जीवन भर किसी को नहीं दिखाना होता, ना दोस्तों को, ना माँ-बाप को, ना एम्प्लायर को, कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ती दिखाने की, तो क्या तब भी इतने ही उदास रहते? बच्चे बोले, ‘अरे नहीं तब किस बात का डर होता। आप के मुहं में घी-शक्कर अगर ऐसा हो जाए तो। पर ये तो परिवारवाले अभी फ़ोन करेंगे कि कितने अंक आये हैं’। मैंने कहा कि इसका मतलब तुम्हें डर जो है वो अंक कम होने का नहीं है, डर तुम्हें दूसरों का है। तुम्हारी ज़िन्दगी को नर्क जो है अंकों ने नहीं बना रखा, ये दूसरों के डर ने बना रखा है।
हर डर दूसरे के कारण है। तुम्हारे मन में और कोई डर हो ही नहीं सकता, दूसरे के डर के अलावा।
मैं जब अपने कॉलेज कैंपस में था, तो लोगों की नौकरियाँ लग रही थीं। आर्थिक व्यवस्था का थोडा सा खराब समय था वो, 9 /11 हुआ था, आज से दस-बारह साल पहले की बात है। तो औसतन तनख्वाह थोड़ी गिर गयी थी। तो कुछ छात्र परेशान घूम रहे हैं। क्या है? कुछ नहीं बस आत्महत्या करनी है। क्यों? मुहँ क्या दिखायेंगे अपने परिवार जन को। मैंने उस छात्र से कहा कि तेरा यहाँ पांच हज़ार में पूरा खर्चा चलता है, पांच हज़ार से कम में भी, इतने में हम लोग बाइक में पेट्रोल डला लेते हैं, घूम फिर लेते हैं, खाना-पीना भी कर लेते हैं, और अब तुझे पचास हज़ार दे रही है कंपनी, तेरा इसमें काम नहीं चलेगा? वह बोला, ‘काम चलने की किसको फ़िक्र है, घर पर क्या बताऊँ?’
तो तुम्हें कुछ भी अपने लिए करना कहाँ है। तुम्हें तो जो करना है दिखाने के लिए करना है। ऐसी ही है ज़िन्दगी हमारी। तुम में से कुछ लोगों की फेसबुक प्रोफाइल देखी तो पाया कि ज़्यादातर लड़कों ने अपना रिलेशनशिप स्टेटस ‘कमिटेड’ लिखा हुआ है और ज़्यादातर लड़कियों ने नहीं लिखा है। थोड़ा विश्लेषण किया तो समझ आया कि बात असल में ये है कि दुनिया को दिखाना जरूरी है कि ‘मैं कोई बेवकूफ नहीं हूँ, मेरे पास भी लडकी है’। तुम तो प्रेम भी अपने लिए नहीं करते, तुम्हारे लिए तो प्रेम भी सिर्फ प्रदर्शन की वस्तु है। तुम तो प्रेम भी अपने लिए कहाँ कर रहे हो?
एक कॉलेज में जिस पहुंचा वहां वैलेंटाइन्स डे अभी बीता था। उस दिन छात्र कम आये थे, जो आये हुए थे मैंने पूछा कि तुम यहाँ क्यों बैठे हो? तुम्हारा कुछ नहीं है? वो छात्र बोलते हैं, ‘है तो किसी का कुछ नहीं, पर अगर वो आ गए तो सब समझ जायेंगे कि इनका कुछ नहीं है ।तो सब गायब इसलिए हैं ताकि औरों को धोखा दे सकें कि आज के दिन ये अपने प्रेमी-प्रेमिका के साथ घूम रहे थे।
जो कुछ हम कर रहे हैं, एक-एक कदम पर, हम कहां अपने लिए कर रहे हैं? और यह सबसे गहरी गुलामी है। प्रेम में भी तुम्हें यह चिंता है कि और लोग क्या सोचेंगे, कैरियर चुनने में भी चिंता है कि और लोग क्या सोचेंगे। हर कदम पर तुम्हें यह चिंता है कि और लोग क्या सोचेंगे।
यही ईगो है, यही एब्सेंस ऑफ़ फ्रीडम है, इसी का नाम है पर्सनैलिटी है, और इसी को कहते हैं, ‘एब्सेंस ऑफ़ इन्दिविजुअलिटी’, ‘निजता का आभाव’, ‘प्रेम में भी डर रहा हूँ कि कहीं किसी को पता ना चल जाए, लोग क्या कहेंगे’।
-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।