गृहस्थ जीवन, और प्रेम का अभाव || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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गृहस्थ जीवन, और प्रेम का अभाव || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। आचार्य जी, क्या गृहस्थ जीवन में प्रेम होता है? यदि प्रेम होता है तो इतना दुख क्यों होता है?

आचार्य प्रशांत: तुम प्रश्न पूछ रहे हो या मुझे उकसा रहे हो! गृहस्थ जीवन में गृहस्थ होता है। एक गृहस्थ होता है, एक ग्रहस्थिन होती है और उनकी गृहस्थी होती है, और उस गृहस्थी के छोटे-छोटे फल-फूल, मोदक होते हैं। प्रेम तो गड़बड़ चीज़ है। उसकी गृहस्थी में ज़रूरत तो नहीं ही है, वो आ गया तो गृहस्थी के वर्तमान ढाँचे के लिए आफ़त खड़ी हो जाती है।

ऐसा नहीं कि प्रेम पर आधारित घर नहीं हो सकते, तब हो सकते हैं जब प्रेम पहले हो, घर बाद में हो। लेकिन अगर आप कहेंगे कि क्या घर में प्रेम हो सकता है? तो मैं कहूँगा, 'नहीं हो सकता'। अंतर समझ लीजिएगा। अगर घर पहले है, प्रेम बाद में है तो घर में कोई प्रेम नहीं हो सकता। हाँ, प्रेम पहले हो, प्रेम के कारण घर बन रहा हो, घर बिगड़ रहा हो, फिर ठीक है।

प्रेम बड़ी चीज़ है, बहुत बड़ी चीज़ है। प्रेम चाहे तो एक घर खड़ा कर दे, प्रेम चाहे तो पाँच घर खड़े कर दे। प्रेम चाहे तो आपको झोपड़ी में डाल दे, चाहे तो महल में डाल दे। प्रेम है तो सब स्वीकार्य है, सब मज़ेदार है; तब जब प्रेम पहले आता हो।

आप कहें कि प्रेम का अभी तकाज़ा है कि घर बनना चाहिए, और फिर घर बना तो अच्छा हुआ। और आप कहें, 'प्रेम का अभी तकाज़ा है कि घर से बहिर्गमन करना चाहिए,' तो घर छूटा तो अच्छा हुआ। घर बना, घर छूटा, छोटी बात। बड़ी बात ये है कि जो हुआ सब प्रेम में हुआ, प्रेम पहले था। प्रेम में कभी हाथ पकड़ भी लिया, कभी हाथ छोड़ भी दिया। मूल्य, केंद्रीय मूल्य रखा गया प्रेम पर। प्रेम जो कराएगा, सो हम करेंगे।

और प्रेम बड़ी सच्ची बात होती है, बहुत महीन। स्थूल चीज़ों के प्रति आकर्षण को प्रेम नहीं कहते। सच्चाई और सौंदर्य और शांति के प्रति शुद्ध खिंचाव का नाम है- प्रेम। वो बहुत बड़ी बात होती है, उसमें जो घटना घटे, सब स्वीकार।

लेकिन हमारा हिसाब उल्टा चलता है। हम कहते हैं, 'केंद्रीय मूल्य प्रेम का नहीं है, केंद्रीय मूल्य घर का है, घर बना रहना चाहिए।' और जब घर बना ही रहना चाहिए तो केंद्रीय चीज़ घर हो गई। तो फिर वो घर अक्सर प्रेम की लाश पर खड़ा होता है।

समझिएगा, ऐसा नहीं कि घर और प्रेम साथ-साथ नहीं चल सकते। घर और प्रेम साथ चल सकते हैं अगर इन दोनों के साथ में पहले कौन आए?

श्रोतागण: प्रेम।

आचार्य: और बाद में कौन आए?

श्रोतागण: घर।

आचार्य: तब दोनों साथ चल सकते हैं। पर इन दोनों के साथ में अगर पहले आया घर, तो साथ नहीं चल सकते। फिर प्रेम मरेगा, घर चलेगा। हम घर को ज़्यादा महत्व देते हैं प्रेम से। तो अब इसमें ताज़्ज़ुब क्या कि हमारे घर प्रेम से शून्य होते हैं।

घर माने समझ रहे हो न? स्थूल दीवारें, सुरक्षा की चाहत, परंपरागत ढर्रों पर चलने का आग्रह, बँधी-बँधाई दिनचर्या, सामाजिक प्रथाओं का पालन, ये सब कहलाता है- घर। हमारे लिए ये पहले आते हैं। जब ये पहले आते हैं तो प्रेम कहाँ से आएगा भाई!

इसीलिए प्रेम के सबसे बड़े कवि और सबसे बड़े संत को कहना पड़ा कि "जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ"। द्रष्टव्य है कि ये बात वो ही कह रहे हैं जो कह रहे हैं कि प्रेम से ऊँचा और कुछ नहीं।

"ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहि । सर काटे भुई धरे, सो बैठे घर माहि ।।"

"प्रेम प्रेम सब कोई कहे, प्रेम न चिनै कोय । जा मारग साहब मिलें, प्रेम कहावे सोय ।।" ~ कबीर साहब

जिन्होंने प्रेम को इतनी हैसियत दी, वो ही कह रहे हैं कि "जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ"।

देख रहे हो न घर और प्रेम का रिश्ता! जो प्रेम को जितनी हैसियत देगा, वो घर को उतनी कम हैसियत देगा। और मज़ेदार बात ये है कि जो प्रेम को जितनी ज़्यादा हैसियत देगा, उसका घर उतना स्वर्गतुल्य हो जाएगा। जो घर को प्रेम से ऊपर का स्थान देगा, उसका घर नर्क जैसा रहेगा।

मामला थोड़ा विचित्र है, समझिएगा!

जो प्रेम का हो लिया, उसे वरदान में सुन्दर घर मिल जाएगा। सुन्दर, लेकिन प्रत्याशित नहीं, अनुमानित नहीं, अपेक्षित नहीं। वो सौंदर्य अनुपम होता है, कल्पनातीत होता है। वो सौंदर्य आपकी माँग का नहीं होगा। वो सौंदर्य वैसा नहीं होगा जैसा आपने चाहा होगा कि एक बंगला बने न्यारा, वैसा घर नहीं।

प्रेम है जीवन में तो घर मिलेगा। हाँ, वो घर कुछ अलग हो सकता है। चिड़ियाघर हो सकता है, पर प्रेम है तो घर जैसा भी होगा, स्वर्ग जैसा होगा। और घर की ही परवाह करते रह गए, प्रेम छोड़ दिया तो फिर सुनो कि साहब क्या कह रहे हैं "जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ"। घर जलाओ, हमारे साथ चलो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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