(गीता-13) रातों को जागने की एक खास वजह || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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(गीता-13) रातों को जागने की एक खास वजह || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2022)

आचार्य प्रशांत: तो अर्जुन ने जो स्थितप्रज्ञ के लक्षण पूछे थे उसी पर बात आगे बढ़ती है। अड़सठवाँ श्लोक है दूसरे अध्याय का, श्रीमद्भगवद्गीता, सांख्य योग —

“हे अर्जुन! जिसकी इन्द्रियाँ शब्द आदि विषयों से पूर्णतया संयत हैं उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है अर्थात् वही स्थितप्रज्ञ है।”

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।२.६८।।

(स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के) विविध लक्षण बताते हैं — हे महावीर अर्जुन, इसलिए जिसकी इन्द्रियाँ शब्दादि विषयों से पूर्णतया संयत हैं उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है अर्थात् वही स्थितप्रज्ञ है।

~श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ६८)

इस श्लोक में कुछ भी नया नहीं है। अर्जुन के सामने बहुत बातें बहुत बार दोहरानी पड़ रही हैं। और ये जो दोहराने की विधि है, इसका वेदान्त में आप ज़बरदस्त उपयोग पाएँगे। वेदान्त में भी और अन्य जितने भी अच्छे आध्यात्मिक ग्रन्थ हैं, सभी में दोहराव खूब है। वो दोहराव क्या बताता है? दोहराव अभ्यास की आवश्यकता बताता है।

दोहराव माने अभ्यास। वही काम दोबारा, वही बात दोबारा, क्यों? क्योंकि मन पर भ्रष्ट और विकृत करने वाले प्रभाव तो लगातार पड़ ही रहे हैं न! वो प्रभाव लगातार पड़ रहे हों, और आप कहें कि मैंने गीता पढ़ ली एक बार जब मैं चौबीस साल का था। और कहें, ‘मैंने पढ़ ली, मैंने खत्म करके रख दी।’ तो बात बनेगी क्या?

दुष्प्रभाव प्रतिदिन पड़ रहे हैं और सुप्रभाव आप पर पड़ा एक बार अपनी ज़िन्दगी में, जब आप चौबीस बरस के थे। और उसके बाद से दावा आपका निरन्तर है कि मैंने भी गीता पढ़ ली है, तो बात बनेगी नहीं। इसीलिए धार्मिक ग्रन्थों का निरन्तर पाठ करने को कहा जाता है। रोज़ करो, रोज़ पढ़ो। वही बात है लेकिन रोज़ पढ़ो। क्यों पढ़ो रोज़? ठीक उस वजह से जिस वजह से रोज़ नहाते हो। रोज़ क्यों नहाते हो? क्योंकि रोज़ गन्दे हो जाते हो।

तन रोज़ गन्दा हो जाता है, तो रोज़ स्नान भी करना होता है। उसी तरीके से मन भी तो रोज़ ही गन्दा हो जाता है न, तो उसे भी रोज़ नहलाना ही पड़ेगा।

लेकिन हम हठी लोग हैं। रोज़ नहाते वक्त हम नहीं कहते कि पर यही काम तो कल भी किया था, नया क्या है। कभी ऐसा कहते हो कि चौबीस वर्ष के थे एक बार जब नहा लिए? बड़ा ही दुर्गन्धयुक्त दावा होगा ये। कोई आकर आपको बोले, ‘अच्छा! अच्छा! नहा रहे हो। हाँ, हम जानते हैं नहाना। एक बार चौबीस साल के थे तब नहाये थे।’

पर गीता के मामले में लोग ऐसे ही आकर बोल जाते हैं — ‘अरे! हमने भी पढ़ रखी है गीता अपनी जवानी में।’ और उन्हें लगता है उन्होंने बड़ी भारी बात बोल दी। ‘हाँ! हाँ!’ ताऊ जी होंगे पैंसठ साल के। वो कहेंगे, ‘हाँ! हम भी जब कॉलेज में थे तो एक बार पढ़ी थी गीता। नयी बात कुछ नहीं है, हम जानते हैं। हम भी जानते हैं।’

ऐसे नहीं होता। दोहराओ, दोहराओ, दोहराओ, दोहराओ। वही बात कह रहे हैं। जिसकी इन्द्रियाँ विषयों से संयत हो गयी हैं वो स्थितप्रज्ञ है। इस बात को कम-से-कम पाँच श्लोकों में दोहराकर कह चुके हैं। कभी दृष्टान्त बदलते हैं, कभी निरूपक बदलते हैं। कभी इसी शब्द का कोई पर्यायवाची प्रयुक्त हो जाता है। इशारा लेकिन एक ही तरफ़ को करना है। हम पचास तरीकों से झूठ की तरफ़ भागते हैं इसीलिए पचास अलग-अलग तरीकों से हमको सच की तरफ़ वापस लाना पड़ता है। वो तरीके अलग- अलग होते हैं। उन सब तरीकों का उद्देश्य एक ही होता है — आपको खींचकर के वापस ले आना। समझ में आ रही है बात?

अगला श्लोक है वो जो पहली बार पढ़ा था मैंने अपनी किशोरावस्था में, तभी से बिलकुल छप गया था मन में। कुछ उसमें ऐसा था जो बहुत रहस्यात्मक था और बहुत आकर्षक था। पता चलता था कि कोई बहुत-बहुत महत्वपूर्ण बात बोली जा रही है। पन्द्रह-सत्रह साल का था मैं। और ये भी पता चलता था कि जो बात बोली जा रही है वो मैं समझ नहीं पा रहा हूँ पूरी तरह से। लेकिन इतना पक्का है कि ये बात है बहुत काम की।

‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।’

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:।।२.६९।।

समस्त प्राणियों के लिए जो अवस्था रात्रि या अन्धकार स्वरूप है, उस अवस्था में जितेन्द्रिय व्यक्ति जागता रहता है। जिस अवस्था में साधारण प्राणी जागते रहते हैं, आत्मदर्शी योगी के लिए वह अवस्था रात्रि या अन्धकार-स्वरूप है।

~श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ६९)

सब भूतों के लिए, सब जीवों के लिए जो रात होती है उसमें जो स्थितप्रज्ञ है— यहाँ संयमी कहा है। पिछले ही श्लोक में बताया न कि जिसका इन्द्रिय संयम है वही स्थितप्रज्ञ है — तो संयमी माने स्थितप्रज्ञ उसमें संयमी जगता है। और सब भूतों के लिए—अगली ही पंक्ति कहती है—जो दिन होता है वो स्थितप्रज्ञ के लिए या निष्काम कर्मयोगी के लिए गहरी रात जैसा होता है।’

कुछ इसका थोड़ा अन्दाज़ा तो मुझे लगा करता था इसलिए भी क्योंकि उसी समय से मेरा रात्रि जागरण शुरू हो चुका था। और मुझे पता भी होता था कि रात में जगने में एक खिंचाव है, एक कशिश है, एक आनन्द है। जिसकी वजह से मुझे रात का एकान्त ज़्यादा प्रिय रहता था। और मेरे लिए चौंकाने वाली बात थी कि ये श्लोक इशारा कर किधर को रहा है।

सबके लिए जो रात होती है उसमें संयमी, योगी, स्थितप्रज्ञ जागता है। और जिस अवस्था में साधारण प्राणी जागते रहते हैं, आत्मदर्शी के लिए वो अन्धकार जैसी अवस्था है। पूरा विस्तार में समझ लेंगे। पर जो बात है वो पहले एक वाक्य में है।

आप जिसको होश कहते हैं वो ज्ञानी के लिए बहुत गहरी बेहोशी जैसा है। और आप जिस बेहोशी के सामने घुटने टेक चुके हैं, आप जिस अन्धेरे के सामने बिलकुल अचेतन हो जाते हैं, उसी अन्धेरे से घिरा रहकर के भी ज्ञानी जगता रहता है। जो रात आपको सोने को मजबूर कर देती है वो उस रात को ज्ञानी जगकर काटता है। किस रात की बात हो रही है? दिन के एक खंड की बात नहीं हो रही है। चौबीस घंटों में जो रात आती है उसकी बात नहीं हो रही है यहाँ पर। भीतरी रात की बात हो रही है।

प्रकृति ने व्यवस्था कर रखी है न! देखा है सारे पशु-पक्षी कैसे होते हैं? उनका एक समय निश्चित होता है। सूरज ढला नहीं कि सारे पक्षी—उदाहरण के लिए—क्या करते हैं? तो पक्षियों का सूरज ढलते ही अपने नीड़ में लौट जाना क्या है? उनके पाशविक होने की निशानी। उनको ये उनकी पशुता ने ही सिखा दिया है कि सूरज ढला नहीं कि सो जाओ। ये उन्हें उनकी चेतना नहीं सिखा रही। ये बात उन्हें उनकी चेतना नहीं सिखा रही है कि सूरज ढला नहीं कि सो जाओ।

इसी तरीके से आम आदमी जो कुछ भी कर रहा होता है वो उसे उसकी पशुता सिखा रही होती है। उसकी पशुता ही उसकी चेतना पर इतनी हावी रहती है कि चेतना की सारी अवस्थाओं को संचालित करती रहती है। सुलाती भी उसको पशुता है। जब वो जग जाता है तब भी पाशविक व्यवहार करता है। और जब वो सपने देखता है तो उन सपनों में भी बस पशुता ही होती है।

यही तीन अवस्थाएँ होती हैं न चेतना की, और चेतना की इन तीनों अवस्थाओं पर हावी कौन है? जाग्रति, स्वप्न, सुषुप्ति, तीनों पर हावी कौन है? पशुता ही हावी है।

कृष्ण कह रहे हैं यहाँ पर—बहुत गूढ़ बात है — ‘ज्ञानी जगता रहता है।’ ज्ञानी प्रकृति के चलाये नहीं चलता। प्रकृति कह रही होगी, ‘सो जाओ।’ नहीं सोता। प्रकृति कह रही होगी, ‘अब फलाने तरीके के सपने लो।’ सपने माने कामनाएँ। वो नहीं करेगा। लेकिन उसी प्रकृतिगत पाशविकता पर चलना संसार का नियम बन गया है, संसार में उसी को सामान्य माना जाता है। ठीक!

चिड़ियों के दल में से एक चिड़िया शाम को अपने घोंसले में लौटकर न आये, तो बात बहुत असामान्य हो जाएगी न! और करा क्या है उसने? बस इतना करा है कि प्रकृति का नियम तोड़ा है। कह रही, ‘प्रकृति के चलाये नहीं चलेंगे। कोई और चीज़ है जो हमें बुला रही है, हम उसके चलाये चलेंगे। प्रकृति के चलाये नहीं चलना।’

ज्ञानी देह के चलाये नहीं चलता। और समाज देहाभिमानी लोगों से ही भरा हुआ है। तो माने समाज भी देह से ही चल रहा है। तो ज्ञानी फिर समाज के चलाये भी नहीं चलता। वो न तो अपनी वृत्ति का अनुगमन करता है, न सामाजिक नियम-कायदों, रस्मों, रिवाजों के पीछे चलता है। वो किसके पीछे चलता है? वो उसी के पीछे चलता है जिसका ये श्लोक है। वो कृष्ण के पीछे चलता है।

कह रहे हैं, ‘कहाँ तुम रात और दिन के पीछे चलने लगे? तुम मेरे पीछे चलो अर्जुन।’ न तो तुम्हें धूप-छाँव का खयाल करना है, न तुम्हें अपनी देह का खयाल करना है। न तुम्हें रात-दिन का खयाल करना है, न ‘दुनिया-समाज क्या बोलेंगे’ इसका खयाल करना है। तुम्हें बस मेरा ध्यान रखना है। मेरा ध्यान रखो अर्जुन। बस मेरा ध्यान रखो।’

और जब साधारण मनुष्यों को ये भ्रम हो जाता है कि वो जगे हुए हैं, तब ज्ञानी जानता है कि ये जगे नहीं हुए हैं। ये बहुत गहरी बेहोशी में लिप्त हैं। तो दूसरी पंक्ति कह रही है, ‘जिस अवस्था में साधारण प्राणी जागते रहते हैं, आत्मदर्शी के लिए वो अवस्था अन्धकार स्वरूप है।’

जब तुम्हारा दावा होता है कि तुम्हें पता है, तुम्हें कुछ पता नहीं है। जब तुम्हारा दावा है कि तुम होश में हो, तुम गहराई से बेहोश हो। जब तुम्हारा दावा है कि तुम्हें दिख रहा है, तुम्हें कुछ दिख रहा नहीं। जब तुम्हारा दावा है कि जगत रोशन है, ज्ञानी जान रहा है कि तुम्हारा जगत अन्धकारमय है।

कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं, ‘न अपनी सुनो, न अपने अतीत की सुनो, न अपने संस्कारों की सुनो, न अपनी भावनाओं की सुनो। मेरी सुनो। उठाओ धनुष और युद्ध करो। तुम्हारी समस्या ही अभी यही है अर्जुन कि तुम प्रकृति की सुन रहे हो।’ ये सब प्रकृति के अवयव हैं, दिख रहा है? आपका अतीत क्या है? प्राकृतिक है। आपका अतीत माने समय। देह का अतीत — प्रकृति है वो। आपकी भावनाएँ क्या हैं? प्राकृतिक हैं। विचार, तर्क, बुद्धि प्राकृतिक हैं। समाज ने जो बातें बता दीं, प्राकृतिक हैं।

कैसे जानें कि क्या प्राकृतिक है और क्या नहीं? जो कुछ भी जाना जा सकता है, सब प्राकृतिक है। जानने की कोई ज़रूरत ही नहीं। जिसकी भी आप कल्पना कर सकते हो, जिसके बारे में भी आप दो शब्द बोल सकते हो वो सब प्राकृतिक है। जो कुछ भी दिखाई दे, सुनाई दे, अनुभव में आ जाए, सब प्राकृतिक है। प्राकृतिक माने वही भर नहीं जो जंगल में पाया जाता है। अप्राकृतिक कुछ होता ही नहीं। ये तो हमारी भाषा बेहोश लोगों की भाषा है इसलिए उसमें एक शब्द आता है — अप्राकृतिक।

अप्राकृतिक क्या होता है? कुछ भी नहीं होता। सब प्राकृतिक है। ये माइक क्या है? ये प्राकृतिक है। कहेंगे, ‘अरे! नहीं, ऐसा थोड़े ही होता है। बाहर जो पेड़ लगा है वो प्राकृतिक है, माइक थोड़े ही प्राकृतिक है।’ ये भी प्रकृति ही है। ये किससे आया? ये आपसे आया न! आप कहाँ से आये? प्रकृति से आये। तो ये भी प्राकृतिक है। सबकुछ प्राकृतिक है।

अध्यात्म की भाषा और जो साधारण घर की और सड़क की भाषा होती है— लोकभाषा, उसमें बहुत अन्तर होता है। लोकभाषा में आप प्राकृतिक बस जंगल को मानते हो। और कहते हो, ‘इंसान प्रकृति पर अत्याचार कर रहा है।’ इंसान प्रकृति पर अत्याचार कर रहा है माने क्या? कुछ नहीं। प्रकृति तो रहेगी हमेशा। हाँ, वो ऐसी हो जाएगी कि जिसमें इंसान नहीं रह पाएगा।

प्रकृति पर थोड़े ही अत्याचार कर रहे हो, तुम स्वयं पर अत्याचार कर रहे हो। प्रकृति का तो बस रूप बदल जाएगा। और वो जो नया रूप होगा वो मनुष्य के लिए अनुकूल नहीं होगा। मनुष्य उस नये रूप के साथ समायोजित नहीं कर पाएगा, मिट जाएगा।

अब औसत तापमान बढ़ रहा है बाहर का, तो प्रकृति मिट थोड़ी ही रही है। प्रकृति बस अपना रूप बदल रही है, ठंडी से गर्म हो रही है। प्रकृति अपना रूप बदल देगी। प्रकृति को कोई नुकसान नहीं होगा। वो सदा थी, सदा रहेगी। बस उस गर्म तापमान में मनुष्य नहीं रह पाएगा। मनुष्य मिट रहा है, प्रकृति नहीं मिट रही। प्रकृति तब भी थी। मनुष्य के होने से करोड़ों साल पहले से प्रकृति है। और मनुष्य जैसी हज़ार प्रजातियाँ मिट जाएँगी, उसके करोड़ों साल बाद भी प्रकृति रहेगी। और जब सबकुछ बिन्दु रूप या बीज रूप हो जाएगा, प्रकृति तब भी रहेगी बीज रूप; मनुष्य नहीं रहेगा।

तो कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर, प्रोटेक्शन ऑफ़ नेचर (प्रकृति का संरक्षण, प्रकृति की सुरक्षा) — ये मूर्खतापूर्ण बातें हैं। तुम अपने कंज़र्वेशन (संरक्षण) की बात कर लो। यू आर अ थ्रेटेंड स्पीशीज़ अबाउट टू गो एक्सटिंक्ट (आप विलुप्त होने वाली एक संकटग्रस्त प्रजाति हैं)। खतरा हमें है, प्रकृति को नहीं है। प्रकृति बहुत बड़ी चीज़ है, उसको क्या खतरा होना है।

ये जो चाँद देख रहे हो, जो तारे देख रहे हो, ये जो बृहस्पति, शुक्र और मंगल ग्रह देख रहे हो, ये भी क्या हैं? ये तो प्रकृति ही हैं। और पृथ्वी एक बहुत छोटा सा ग्रह है। वो बहुत छोटा सा ग्रह मिट भी गया, तो प्रकृति मिट गयी क्या? ये अखिल ब्रह्मांड समूचा क्या है? प्रकृति ही तो है। तो प्रकृति थोड़ी मिट जाएगी, मनुष्य मिट जाएगा।

(आचार्य जी मेज पर हाथ थपथपाते हुए) ये क्या है? (रूमाल दिखाते हुए) ये भी क्या है? सुपर कम्प्यूटर भी क्या है? ‘हैं! पर वो तो मैन मेड (मानव निर्मित) है।’ और मैन (मानव) किसका मेड (बनाया हुआ) है? (आचार्य जी हँसते हुए) सुपर कम्प्यूटर आपने बनाया, आपके खयाल में भी नहीं आएगा न कि ये सिर्फ़ प्राकृतिक है। नहीं आता न! वो भी प्राकृतिक है।

प्रकृति से परे बस एक है और उसी को कृष्ण कहते हैं। प्रकृति से परे बस एक है, उसी को कृष्ण कहते हैं, उसी को पूर्ण पुरुष कहते हैं; बाकी सब प्रकृति है। समझ में आ रही है बात?

जो जीव प्रकृति के भीतर-भीतर ही यात्रा करता रहे और सोचता रहे कि उसका जीवन प्रकाशित है, उससे कृष्ण कह रहे हैं, ‘तुम गहरे अन्धेरे में जी रहे हो, क्योंकि तुम्हारी पूरी यात्रा अन्धकार से अन्धकार तक की है।’ प्रकृति के भीतर क्या है सिर्फ़? अहंकार। बोध मात्र को वेदान्त कहता है कि प्रकाश स्वरूप है। आत्मा मात्र को वेदान्त कहता है कि प्रकाश स्वरूप है। प्रकृति में क्या है? अन्धकार मात्र। ठीक! अब बताइए आपके जीवन में प्रकाश कितना है?

आप सुबह बिस्तर से उठे। बिस्तर क्या है? और प्रकृति माने क्या है? अन्धकार। आप बिस्तर से उठे, आपने चाय-कॉफी पी। वो क्या है? प्रकृति। आप गाड़ी पर बैठे, आप दफ़्तर गये। गाड़ी क्या है? दफ़्तर क्या है? बॉस क्या है? फ़ाइलें क्या हैं? सैलरी क्या है? पत्नी क्या है? टीवी क्या है? फिर सो गये। और प्रकृति क्या है? अन्धकार। रोशनी कहाँ है?

वही बात श्रीकृष्ण यहाँ कह रहे हैं, ‘तुम जो ज़िन्दगी जी रहे हो, उसमें अन्धकार के अलावा कुछ नहीं है। सिर्फ़ अन्धकार है।’ और जिस अन्धकार में तुम घिरे हुए हो, उसी अन्धकार से घिरा होकर के भी ज्ञानी जगा हुआ है। ‘तस्यां जागर्ति संयमी’ क्योंकि प्रकृति में तो वो भी अवस्थित है। शिवलिंग का प्रतीक याद है न? देह के भीतर ही अवस्थित है चेतना, पर फिर भी वो जगा हुआ है क्योंकि उसकी चेतना देह से आगे किसी की प्रतीक्षा कर रही है। प्रतीक्षा कर रही है, तैयारी कर रही है, पलक-पाँवड़े बिछाकर बैठी है। मौज़ नहीं मना रही, वियोग में है। आराम नहीं कर रही, श्रम में है। उसे देह से माने प्रकृति से, माने संसार से आगे का कुछ चाहिए। वो जगा हुआ है। वो प्रकृति के भीतर सो नहीं सकता।

हम जब सोते हैं तब तो सोते ही हैं। हम जब कहते हैं कि हम जगे हुए हैं, हम तब भी सो ही रहे हैं। हमारा जगना भी एक सपने की तरह है बस। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि आप अभी भी सो रहे हों और सोते में ये सपना ले रहे हों कि आप जगे हुए हैं।

श्रीकृष्ण यही कह रहे हैं, ‘तुम अभी भी सो रहे हो। गहरी नींद में खर्राटे मारकर सो रहे हो। और अपनी सोती हुई अवस्था में ये सपना ले रहे हो कि तुम जगे हुए हो।’ ऐसा हुआ है पहले, कि नहीं? अपने सपने में कई बार देखा होगा — आप जगे हुए हैं, कहीं को दौड़ लगा रहे हैं, कुछ कर रहे हैं। और तब यही लगता है न कि आप वास्तव में जगे हुए हैं। अभी भी आपको यही लग रहा है न, आप वास्तव में जगे हुए हैं।

हौ! ये तो आपको तब भी लग रहा था जब आप सपने ले रहे थे कि आप सचमुच जगे हुए हैं। हम जगे ही नहीं। जो जगेगा वो भगेगा। आप भाग कहाँ रहे हैं, आप तो तम्बू गाड़कर बैठ गये हैं। यही घर है। बताने वाले बोल गये हैं, ‘साधो, ये मुर्दों का गाँव।’ और आप कह रहे हैं, ‘यही घर है, तम्बू गाड़ रे!’

बोले, ‘नहीं, गुरुजी ने बोला था — भागो नहीं, जागो।’ बिलकुल ठीक है ‘भागो नहीं, जागो।’ सोते-सोते नहीं भागो, भागने से पहले जागो। लेकिन जो जग जाएगा वो भगेगा। जब कहा जाता है ‘जागो नहीं, भागो’ तो उसका अर्थ होता है, ‘सोते-सोते मत भाग रे! चोट लग जाएगी। पहले जग जा।’ भागो नहीं, जागो। पहले जग जाओ। लेकिन जो जगेगा वो भगेगा, तम्बू नहीं गाड़ देगा।

भगने से क्या आशय है? हटना। हटो। जहाँ हो उसके आगे जाओ, उसके परे जाओ, बियोन्ड जाओ। ये बियोन्डनेस (परे हो जाना) ही अध्यात्म है। ये बियोन्डनेस ही जीवन को जीने लायक बनाती है। ये बियोन्डनेस ही जीवन है। इसके बिना आप जी नहीं रहे हो। इसके बिना आप यन्त्र जैसे हो, चिड़िया जैसे हो; शाम ढ़ली, वो आकर घोसले में बैठ गयी। कोई पूछे क्यों? वो कहेगी, ‘पता नहीं।’

आप भी जो कुछ कर रहे हो, आपको पता है क्यों कर रहे हो? तो क्या है फिर? सूरजमुखी का फूल होता है। क्या करता है वो? जिधर सूरज गया उधर को झुक जाता है। आप भी कभी इधर झुकते हो, कभी उधर झुकते हो। मैं पूछूँ, ‘क्यों? कुछ पता है?’ कुछ पता नहीं।

‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।’ सोने दो सबको। उठो।

पता भी कैसे चलेगा सब सो रहे हैं? थोड़ा उठ तो जाओ। अभी ऐसे सपने में हो जिसमें सब जगे हुए हैं। तो कौन, सो कौन रहा है? कौन सो रहा है? किसकी बात हो रही है? कौन सो रहा है? सब तो जगे हुए हैं। ज़रा वास्तव में जगो तो कहोगे, ‘सब सो रहे हैं।’ अभी तुम्हें लगता है सब जगे हुए हैं, क्योंकि तुम स्वयं सो रहे हो। लेकिन जैसे ही कहोगे कि ये तो सब सो रहे हैं, वैसे ही क्या बन जाओगे? निगेटिव (नकारात्मक) आदमी। इनको तो यही लगता रहता है कि यही जगे हैं, बाकी सब सो रहे हैं।

तो श्रीकृष्ण यहाँ कौनसी बात कर रहे हैं? यही तो कह रहे हैं— ‘या निशा सर्वभूतानाम्।’ सबको एक बार में लपेट लिया है, ‘सर्वभूतानाम्’। ये सब-के-सब सो रहे हैं, बस एकमात्र वही ज्ञानी है जो जग रहा है। ये तो कैसी बात कर हैं? बड़े अहंकार की बात है। अपने अलावा किसी को मानते ही नहीं हैं कुछ। अब ऐसा ही है, तो क्या करें? क्या करें अगर सच ऐसा ही है तो। तुम्हें रुष्ट न करने की खातिर झूठ बोल दें? तुम दिन को कहो रात, हम रात कहेंगे — ऐसे नहीं हैं कृष्ण। वो कह रहे हैं, ‘रात है तो है।’ और तुम्हारा जीवन एक अन्तहीन रात भर है। आ रही है बात समझ में?

कोई इसमें गारंटी नहीं होती कि आप दूसरों से हटकर कुछ करेंगे, तो अनिवार्य रूप से ठीक ही होगा। लेकिन ये लगभग निश्चित होता है कि आप वही सबकुछ कर रहे हैं जो दूसरे कर रहे हैं, तो आप गलत ही होंगे।

एक व्यक्ति आये जो कहे कि मैं लगभग वही सारे काम कर रहा हूँ जो पूरी दुनिया कर रही है। और दूसरा व्यक्ति आये जो कहे कि मैं दुनिया से विपरीत ज़्यादातर काम कर रहा हूँ। कुछ निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता इन दोनों ही व्यक्तियों के बारे में। लेकिन सम्भावना यही है कि शायद दूसरा व्यक्ति ज़्यादा सही जीवन जी रहा है।

आश्वस्ति नहीं, गारंटी नहीं, लेकिन सम्भावना यही है कि जो व्यक्ति प्रचलित ढ़र्रों से अलग होकर, हटकर या विपरीत जाकर कर रहा है, वही शायद ज़्यादा सही जीवन जी रहा है। बाकी यथार्थ तो और निकट जाकर के जाँच-पड़ताल करके पता चलेगा। लेकिन इतना पक्का है कि ये दुनिया इतनी पागल है और इतनी बेहोश, विक्षिप्त है कि अगर आप इसके विपरीत जाते हैं, तो लगभग निश्चित हो जाता है कि आप आदमी अच्छे ही होंगे। लगभग, पूरी तरह नहीं।

अब मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि कुर्सी पर मुँह उधर को करके बैठ जाओ तो अच्छे आदमी हो जाओगे। कहे, ‘आचार्य जी ने बोला था। सबका मुँह इधर को है, मैं उधर को (कर लेता हूँ)।’ नाप-तौल कर बोलना पड़ता है, पता नहीं क्या हो जाए।

उल्टी गिलास से पी गये पानी — आचार्य जी ने बोला था। टोपे की जगह मोजा पहनकर आ गये। अब कैसे समझाऊँ? जो कुछ भी बोलकर समझाना चाहता हूँ, मुझे ही दिख जाता है कि अभी अर्थ का अनर्थ होगा। कोई बड़ी बात नहीं है कि कोई रात में जगना शुरू कर दे। कि यही तो पूरा आशय था इसका कि रात ही में जगना होता है। सब कॉल सेंटर्स की चाँदी हो जाएगी। कहेंगे, ‘हम श्रीकृष्ण के पथ पर चल रहे हैं। रात-रात भर जगाते हैं देश के जवान लोगों को।’

बात यहाँ सूक्ष्म है। चेतना की बात हो रही है। रात के दो बजे, रात के चार बजे जगने की बात नहीं हो रही है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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