(गीता-3) जब सत्य गरजता है || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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(गीता-3) जब सत्य गरजता है || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2022)

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् विषीदंतमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।२.१।।

~ श्रीमद्भगवतगीता, द्वितीय अध्याय, सांख्य योग, प्रथम श्लोक

आचार्य प्रशांत: संजय कहते हैं कि श्री कृष्ण ने उस प्रकार भाव से आविष्ट और अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन से कहा- 'हे अर्जुन, अनार्यों के योग्य, स्वर्ग प्राप्ति का विरोधी निंदाजनक ये मोह तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुआ है? चित्त के ज्ञाता, मन के विशेषज्ञ की ये निशानी होती है, बहुत पैनी दृष्टि होती है। और बहुत द्रुत गति से वो सामने जो भी बैठा है; शिष्य, रोगी, प्रार्थी, उसकी वास्तविक दशा को पकड़ लेता है। शिष्य अपनी लम्बी-चौड़ी, व्यथा-कथा सुनाता है। स्वयं भी उलझा हुआ है और बड़े उलझे हुए शब्दों में अपनी हालत का वर्णन करता है। लेकिन गुरु यदि ज्ञाता है, तो वो बिलकुल सार- संक्षेप में चिन्हित कर लेता है कि वास्तविक बात क्या है। जटिलताओं को काटकर जो सीधा,स्पष्ट, सरल, यथार्थ — गुरु उस पर उंगली रख देता है।

पूरे प्रथम अध्याय में अर्जुन ने अपने विषय में, युद्ध की स्थिति के विषय में, अपने प्रियजनों के विषय में, धर्म के विषय में, युद्ध के परिणाम के विषय में, कितनी ही बातें कहीं। लेकिन जिस बात का बहुत कम या एकदम नहीं उल्लेख किया वो थी 'मोह'।

'मोह' शब्द अर्जुन से उच्चारित ही नहीं हुआ पूरे अध्याय में। सब इधर-उधर की बातें करते रहे। कभी कह दिया कि हम क्योंकि श्रेष्ठ हैं धृतराष्ट्र के पुत्रों से, इसलिए हमें युद्ध नहीं करना चाहिए। कभी कह दिया कि युद्ध हो गया तो स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाएँगी, वर्ण संकर पैदा हो जाएँगे, फिर पितरों का क्या होगा? कभी कोई तर्क दे दिया, कभी कोई बात कह दी। बस एक बात नहीं कही — 'मुझे मोह है'। ये बात अर्जुन ने नहीं कही। यही बात असली है, इसलिए, यही बात अर्जुन को छुपानी थी। अर्जुन ने कही नहीं, और श्री कृष्ण जब बोलना शुरू करते हैं, तो श्रीकृष्ण ने सबसे पहले कह दी।

अर्जुन ज्योंही तर्क दे रहे थे, आप पाएँगे कि कृष्ण उनका खंडन करते ही नहीं हैं। कृष्ण सीधे पते की बात करते हैं। वृत्ति से ग्रस्त व्यक्ति सौ तरह के घुमावदार तर्क देता है। उलझाऊ बातें करता है। उसकी उन बातों में कुछ रखा नहीं है। वो व्यक्ति स्वयं ही उन बातों में बहुत विश्वास नहीं रखता है। वो बातें तो वो सामने बस इसलिए रख रहा है, ताकि वो अपने बचाव में कुछ कह सके। ध्यान दीजिएगा उन तर्कों में स्वयं ही उसका कोई गहरा विश्वास नहीं है। यहाँ पर आप अर्जुन से पूछिए; ये वर्ण संकर वाली बात में, आप वाकई विश्वास रखते हो? अर्जुन बगलें झाँकने लगेंगे।

एक तर्क गढ़ा गया है। कहने को कुछ चाहिए। अपनी सुरक्षा के लिए कुछ तो कवच खड़ा करना है। तो कोई उटपटाँग बात ही सही, कहनी तो है। कृष्ण भली-भाँति जानते हैं कि ये सब बातें बिना सार की होती हैं। इनमें कोई दम नहीं। इनसे क्या उलझें? इन बातों का क्या जवाब दें?

कोई कम गहरा व्यक्ति होता, कोई थोड़ा हलका गुरू होता, तो वो अर्जुन के तर्कों को काटना शुरू कर देता। कृष्ण बहुत गहरे हैं। कृष्ण झूठे तर्कों में, उथली बातों में उलझते ही नहीं हैं। उन्होंने सीधे केन्द्र पर उंगली रख दी। बोले, 'अर्जुन तुम मोहग्रस्त हो। क्या बहकी-बहकी बातें कर रहे हो? युद्ध चल रहा है ये।'

कृष्ण बिना केन्द्र के होते हैं। इसलिए परमसत्ता को 'सर्वव्यापक' कहा जाता है। वो किसी एक जगह नहीं होती। उसका कोई केन्द्र नहीं होता। वो सर्वत्र होती है। तो इसीलिए जब कृष्ण को परास्त करना चाहते हैं अर्जुन, तो उन्हें हर दिशा में अपने छितराये हुए बाण मारने पड़ते हैं। कभी कुछ कहना पड़ता है, कभी कुछ कहना पड़ता है, कभी कुछ कहना पड़ता है। क्योंकि कृष्ण किसी एक जगह नहीं हैं न! एक जगह होते तो उसी दिशा में बाण मार दिया होता, और अपनी बात सध जाती, अपना प्रयोजन सिद्ध हो जाता। कृष्ण किसी एक जगह हैं नहीं।

तो अर्जुन को सौ तरह की बातें करनी पड़ती हैं। सौ दिशाओं में बाण मारने पड़ते हैं। लेकिन अर्जुन सर्वव्यापी नहीं हैं। अर्जुन तो एक बिन्दु से संचालित हो रहे हैं। जो एक बिन्दु से संचालित होता है, उसी को तो अहंकार बोलते हैं। अर्जुन के पास एक अपना व्यक्तिगत केन्द्र है। तो कृष्ण के लिए बहुत आसान है, उन्हें वो केन्द्र दिख रहा है। वो मोह की वृत्ति का केन्द्र हैं। तो कृष्ण को बहुत इधर-उधर शस्त्र संचालन नहीं करना पड़ता। कृष्ण सीधे जाकर के बस उस एक केन्द्र पर निशाना कर देते हैं। और कर दिया यहाँ पर।

पूरे पहले अध्याय में ऐसे समझ लीजिए जैसे आपने अर्जुन की बाण-वर्षा देखी है। और दूसरा अध्याय ऐसे शुरू होता है समझ लीजिए कि जैसे "सौ सुनार की एक लोहार की"। सौ बातें कह ली अर्जुन ने पहले अध्याय में, न जाने क्या-क्या और दूसरा अध्याय आरम्भ होता है, और कृष्ण का एक तीर- बात ख़त्म हो गयी।

'अर्जुन तुम मोह ग्रस्त हो'। (हँसते हैं) 'अर्जुन तुम मोह ग्रस्त हो'। वास्तव में सरल व्यक्ति के लिए जटिलता कहीं होती ही नहीं है। जटिलता सिर्फ़ जटिलमना के लिए होती है। जो जितना जटिल है उसकी दुनिया उसके लिए उतनी ही जटिल रहेगी। आप आ करके अपनी बड़ी लम्बी-चौड़ी, उपन्यास-सरीखी कहानी सुना लेते हैं। पर सुनने वाले के पास यदि साफ कान हैं, तो वो जान जाता है कि इस पूरी कहानी का सार क्या है, लब्बो-लुआब क्या है। और जो सार होता है, उसमें कोई विशेषता नहीं होती। किसी को काम ने पकड़ रखा है, किसी को क्रोध ने, किसी को मोह ने, किसी को मद ने, किसी को भय ने, बस यही। क्योंकि इसके अलावा और कुछ होता ही नहीं है, किसी भी व्यक्ति के जीवन में। हाँ, ऊपर-ऊपर से देखो तो कहानियाँ सबकी बड़ी अलग-अलग दिखायी देती है। और आप किसी से भी कहिए कि अपनी कहानी सुनाओ ज़रा। वो कम-से-कम दो घंटा सुनाएगा। और दो घंटे की उसकी जो कुल कहानी होगी वो एक शब्द में समेटी जा सकती है। वो एक शब्द कुछ भी हो सकता है — भय, अज्ञान, मोह।

वास्तव में वो कुल कहानी एक ही शब्द की थी। इसीलिए तो उसको इतना लम्बा-चौड़ा बनाकर बताना पड़ा। बतानेवाला भी कहीं-न-कहीं जानता है कि उसकी कहानी में कोई दम नहीं है। ज़रा सी बात है ये। उस ज़रा सी बात की ख़ातिर इतना बड़ा किस्सा तैयार किया गया है।

अभी दो तीन साल पहले तक हम ये भी कर लेते थे कि जो भी कभी व्यक्तिगत रूप से मुझसे मिलना चाहे, उनका स्वागत करते थे। आइए, बैठिए, अपनी बात बताइए। फिर वो चीज़ रोकनी पड़ी। अब रोके हुए लगभग तीन वर्ष हो गये हैं। उसकी वजह थी। पहली बात तो बहुत ज़्यादा लोग थे, जो आतुर थे मिलने के लिए। दूसरी बात, उसका समय निर्धारित किया गया था एक घंटे का। याद है? (श्रोतागण से पूछते हैं) कि आप आएँ और कुल एक घंटे की वार्ता होगी, उसमें आपको जो बात करनी है।

जो भी सज्जन या देवियाँ मिलने के लिए आएँ, एक घंटे में बात निपटाना तो दूर कि कुल बातचीत ही निपट गयी एक घंटे में, दो घंटे तक तो वो पूरा विस्तार से अपनी ही ओर से विवरण देते रहते थे। और बड़ी गम्भीरता से। मैं उनको थोड़ा बहुत टोकने की कोशिश भी करूँ पर वो उद्धृष्टता जैसी लगे। तो विनम्रता के नाते मैं सुनता जाऊँ, सुनता जाऊँ। और जो बता रहे हैं, उनको लग रहा है कि वो कोई बड़ी गम्भीर और महत्वपूर्ण बात बता रहे हैं। वो बताये ही जा रहे हैं, बताये ही जा रहे हैं। और दो घंटे तक बताएं, कई बार तो चार-चार घंटे तक चला है।

अब वो बता रहे हैं, और जो वो बता रहे हैं वो मैंने तीसरे मिनट में पकड़ लिया था वो क्या बता रहे हैं। और उनको बताते अब दो सौ मिनट हो चुके हैं। और जब वो हाँफने लग जाएँ, किसी तरह रुकें, तो मैं दो-चार उनको बातें बोलूँ और दो-ही-चार बातों में ही निदान हो जाए सारा। क्योंकि दो चार बातों से आगे की किसी की कहानी होती ही नहीं है। किसी की नहीं होती। इसी को तो संत बोलते हैं — "इक अलफ् पढ़ो छुटकारा है।"

मैंने तो शब्द कह दिया था, अक्षर काफ़ी है शब्द की भी बात नहीं। उससे आगे की किसी की कोई दास्तान नहीं। लेकिन लोगोँ को बुरा लग जाए; वो बोलें, 'ये देखो, हमने ढाई घंटे तक अपना रोना रोया और इन्होंने उसके बाद दो मिनट में बात निपटा दी। और मेरे पास उससे ज़्यादा बोलने को कुछ है नहीं। लेकिन विनम्रता के नाते, शालीनता के नाते और मुझे बोलना पड़े और समझाना पड़े। अब ये भी दिख रहा है कि मुझे जो बोलना था, वो तो मैंने पहले ही वाक्य में बोल दिया। लेकिन सुननेवाला जब समझने को राज़ी नहीं है, तो फिर उसको और विस्तार से बताओ समझाओ चीज़ें खोलो, उसके कुतर्कों को निपटाओ। वो मैं कर सकता था, करता भी था। ऐसी मैंने सैकड़ों मुलाक़ातें करी। लेकिन फिर वक़्त बहुत लग जाए। पहले तो जो दो मिनट की बात थी उसको दो घंटे-ढाई घंटे सुनो फिर अपनी ओर से जो दो मिनट की बात है उसको दो घंटे-ढाई घंटे समझाओ। फिर हमने कहा कि ये कार्यक्रम बन्द किया जाए।

कोई इसमें जादू नहीं होताI कुछ ऐसा नहीं है कि अरे! 'आपने कैसे पकड़ लिया? ये बात तो बड़ी छुपी हुई थी। आप कैसे खोज लाये कहाँ से खोद लाये?' कोई जादू नहीं है। ये दो-ही-चार तो रोग हैं कुल मिला करके सारी दुनिया के। आपका रोग कुछ अलग थोड़े ही हो जाएगा। हर व्यक्ति को यही लगता है कि वो अनूठा है। अनूठा होता कोई नहीं। सबको यही लगता है कि उसका ही किस्सा कुछ अलग है, विचित्र है, विशेष है। कुछ नहीं होता किसी का अलग-विचित्र-विशेष। ठीक वैसे जैसे एक मिट्टी से सब उठे हैं, उसी तरीक़े से एक जैसे ही सबके किस्से हैं। बात आ रही है समझ में?

तो ये जो अर्जुन का किस्सा है, ये बहुत पुराना है। कृष्ण ने हज़ारों-लाखों बार सुना हुआ है ये किस्सा। अर्जुन के ज़रा सा बोलते ही, बल्कि अर्जुन के बोलने से पहले ही कृष्ण भाँप जाते हैं बिलकुल कि बात क्या है। और मैं फिर कह रहा हूँ कि इसमें कोई जादू नहीं है। ये तो बात नियम की है। धर्म से जो भी हटना चाह रहा है उसके पास कुल मिला-जुलाकर यही दो-चार कारण होते हैं — लालच आ गया है उसको, भ्रम छा गया है उसको, डर ने पकड़ लिया है, आसक्ति आ गयी है। यही दो-चार बातें होती हैं।

अब अर्जुन यहाँ पर धर्म से विलग हो रहे हैं तो यही दो-चार कुछ कारण होंगे। कृष्ण को क्षण भर लगा बात को पकड़ लेने में। अर्जुन चमत्कृत हो गये होंगे कि अरे बाप रे! 'मेरा इतना गहरा रहस्य, इतना ख़ुफ़िया राज़ इन्होंने इतनी जल्दी कैसे पकड़ लिया?' क्योंकि आपकी बातचीत में कुछ भी गहरा-रहस्यात्मक-गुप्त है ही नहीं।

आपकी बात उतनी ही सार्वजनिक है, जैसे सूरज की किरणें, जैसे हवा का बहना। आपको हवा लगती है, आप कहते हैं, वाह बड़ी अच्छी हवा चली। 'ठंडी-ठंडी मुझे हवा लगी।' अरे, वो सबको लग रही है! वो बात सार्वजनिक है। आपके अपने अनुभव में आ रही है इसका मतलब ये नहीं है कि सिर्फ़ आप ही के अनुभव में आ रही है। वो घर-घर का किस्सा है। वो हर मन की कहानी है। हम सब एक हैं, वृत्ति के तल पर। और हम सब कुछ नहीं हैं, आत्मा के तल पर। और हम सब सब विविध हैं, अनेक हैं, अनन्त हैं, मन के तल पर। बात आ रही है समझ में?

तो थोड़ा सा चौंक गये हैं अर्जुन कि अरे इतनी जल्दी पोल खुल गयी! कृष्ण ने तो पहली ही बात में पकड़ लिया। लेकिन अर्जुन के लिए सबसे अच्छी बात यही है कि कृष्ण ने सीधे ही पकड़ लिया है। जब कृष्ण ने सीधे ही पकड़ लिया तो अर्जुन ने भी अपने सारे कुतर्क त्याग दिये और अब अर्जुन भी सीधे मुद्दे की बात पर आ गये, और अब देखिए क्या कहते हैं अर्जुन। अभी तक क्या कह रहे थे कि अरे, ऐसा है, वैसा है; धर्म हमें मालूम नहीं किधर है, मारें — ये तो अच्छी बात नहीं है। और वो सब बातें — स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाएँगी, इत्यादि-इत्यादि। कितना उन्होंने लम्बा-चौड़ा कल्पना का जाल बुना था। लेकिन जैसे ही कृष्ण ने कहा कि अर्जुन मोह है, सिर्फ़ मोह, तो अर्जुन उत्तर आगे क्या देते हैं।

कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, अनार्यों के योग्य, स्वर्ग प्राप्ति का विरोधी निंदाजनक यह मोह तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुआ है?

ये भी नहीं कह रहे हैं कि अर्जुन, कहीं यह मोह तो नहीं? प्रश्न ये नहीं करा है कि कहीं यह मोह तो नहीं। प्रश्न बस ये पूछा है कि मोह तो है ही, बताओ मिला कहाँ से है? बात करने का तरीक़ा देखिए। ये नहीं कह रहे हैं कि प्रश्न तो करा ही है, पर प्रश्न में संदेह इस बात पर नहीं रखा है कि अर्जुन विचार करो किञ्चित् I कहीं मोह ग्रस्त तो नहीं? न! कहा है, 'मोह तो है ही। अब ये बताओ कि मोह आया कहाँ से है?' तो अर्जुन के पास भागने-छुपने के लिए कोई उन्होंने रास्ता छोड़ा नहीं है।

आगे क्या कहते हैं? 'हे अर्जुन, तुम कायरता को प्राप्त न हो, यह तुम्हारे योग्य नहीं है। हे शत्रु तापन अर्जुन, हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को छोड़कर चलो खड़े हो जाओ।' और अर्जुन तो बैठ गये थे। पिछला अध्याय ख़त्म ही इसी पर हुआ था। तो क्या करा था अर्जुन ने? धनुष वहीं छोड़ा और उधर पीछे जाकर के बैठ गये थे। दूरी बना करके कि जितनी दूर हो जाएँ कृष्ण के प्रभाव से उतना अच्छा।

कृष्ण कह रहे हैं, 'छोड़ो ये सब। तुम्हें मोह हो गया है। क्या कायरता दिखा रहे हो? चलो खड़े हो जाओ।' तो अब अर्जुन इधर-उधर का कोई तर्क नहीं दे पा रहे हैं। तो क्या बोलते हैं? आप कल्पना कर सकते हैं। बड़ी बेचारगी के स्वर में बोला होगा। 'हे शत्रु नाशक कृष्ण, मैं युद्ध में पूजनीय भीष्म देव और द्रोणाचार्य के प्रति बाणों से कैसे युद्ध करूँगा?'

असली बात पर आ गये। सीधी बात। कैसे? 'कैसे करूँगा बताइए? तो असली बात है वो ये है। मैं कल्पना ही नहीं कर पा रहा हूँ कि इन लोगों को छोडूँगा कैसे। यही तो सबकुछ हैं। एक ने मुझे शरीर दिया है, एक ने मुझे मन दिया है; एक पिता है, एक गुरु है, इनको मार कैसे दूँगा?'

देखिए, अर्जुन की जो स्थिति है वो हर जीव की स्थिति है। प्रकृति आपको शरीर देकर भेजती है। प्रकृति शरीर देकर भेजती है। और जिसने शरीर दिया है उसके प्रति कुछ तो निष्ठा व्यक्ति में आ ही जाती है। उससे कुछ मिला है। और जो चीज़ मिली है वो बड़ी प्रकट है। बड़ी स्थूल है। छूकर देख सकते हो, ये मिली है। और दूसरी ओर उसी शरीर से उत्पन्न चेतना है। जो उठी तो शरीर से है, पर जाना कहीं और चाहती है। अब कौनसा धर्म निभाएँ? जिस शरीर से आये हो उसके प्रति कर्तव्य का मान रखें या जो अपना धर्म, अपनी नियति, पता चल रही है, उसकी तरफ़ दृष्टि और दिशा रखें?

हर व्यक्ति इन्हीं मसलों में फँसा हुआ है। इसी स्थिति को संतों ने अक्सर एक स्त्री की स्थिति के माध्यम से अभिव्यक्त करा है। जो कि अपने मायके में है। वहाँ पिता है, माँ है, जिन्होंने जन्म दिया है। और मायके से बड़ा मोह है, बड़ा लगाव है। वहीं पैदा हुई, वहीं खायी, खेली, बड़ी हुई। लेकिन अब जी लग गया है किसी और से। वो जो पुरुष है। पुरुष किसका वाचक है? जो ऊँचाई है जहाँ सबको पहुँचना है। मन उससे लग गया है। अब एक ओर प्रेम है, एक ओर मोह है। प्रेम है पुरुष से, और मोह है अपने भौतिक जनक से। जाएँ तो जाएँ कहाँ। मायका छोड़ा नहीं जाता और प्रेम हमें नहीं छोड़ता। तो करें क्या? तो हम सब जो हैं उसी स्त्री की भाँति हैं। अर्जुन भी उसी स्त्री की भाँति हैं।

यहाँ पर मायके के प्रतिनिधि कौन हैं? भीष्म, द्रोण, सारे जो कौरव बन्धु हैं। यह सब मायके की ओर के हैं, क्योंकि इनके साथ अर्जुन का कौन सा नाता है? रक्त का नाता है। और दूसरी ओर धर्म की पुकार है। दूसरी ओर कृष्ण हैं। कृष्ण पुरुष के प्रतीक हैं। अब अर्जुन फँस रहे हैं। जैसे हममें से हर कोई फँसा हुआ है। अपनी पार्थिवता को महत्व दें या अपनी दैवीयता को। और नाम है उनका 'पार्थ'!(हँसते हैं) समझ में आ रही है बात?

सारा जीवन इन्हीं दो ताक़तों के आपसी संघर्ष की कहानी होता है। पहली ताक़त है तुम्हारी देह की, और दूसरी ताक़त है तुम्हारी नियति की। और ये जो चेतना है, वो इन दोनों ताक़तों के बीच में फँसी रहती है। चेतना के एक छोर पर शरीर है, दूसरे छोर पर आत्मा है। दोनों ही छोरों पर शान्ति है। पूरी तरह आप शरीर हो जाओ, तो शान्त हो जाते हो। जैसे मिट्टी शान्त होती है। मिट्टी को कभी तड़पते देखा है? मिट्टी को कभी व्यथित देखा है? वहाँ चेतना शून्य हो गयी है। बस पदार्थ बचा है- मिट्टी। वहाँ भी शान्ति है। पर वो मृत्यु की शान्ति है। जैसे जब शरीर राख हो जाता है; राख शान्त होती है न? मरने के बाद किसी को उद्विग्न देखा है?

तो शान्ति पाने का एक तरीक़ा तो ये है कि पूरी तरह से पार्थिव ही हो जाओ। मिट्टी हो जाओ। कह दो कि हमें कुछ सोचना समझना नहीं है। हम चेतना शून्य हो गये। हमने चेतना को अपने मिट्टी कर डाला, कुछ नहीं बचा। और दूसरा तरीक़ा ये है कि दूसरे छोर पर पहुँच जाओ। अहम् शून्य हो जाओ। कृष्ण में विलीन हो जाओ। इन दोनों ही छोरों पर शान्ति है। ये जो मिट्टी हो जाने वाला छोर है वो हमें आकर्षक तो लगता है, पर हमें उपलब्ध नहीं है। मिट्टी वाला छोर आकर्षक भी है, आसान भी है, पर मिलेगा नहीं। क्योंकि ये आपकी विवशता है किआप कितना भी चाहें आप चेतनाशून्य हो नहीं सकते। प्रयास करके देख लीजिएगा।

शराबियों को भी शराब पी करके नशे का स्वांग करना पड़ता है। क्योंकि जिस आशा के साथ उन्होंने शराब पी थी, वो कभी पूरी होती नहीं है। नशा व्यक्ति करता है होश भुला देने को। लेकिन होश ऐसी ढीठ चीज़ है कि पीछा नहीं छोड़ता। तुम कितना भी नशा कर लो होश तब भी बचा रह जाता है। और उसके बाद शराबी लोग नाटक करते हैं कि हमारा तो होश बिलकुल गुम गया। हम एकदम नशे में हैं। तुम एकदम नशे में होते, तो तुम्हें पता कैसे चलता कि तुम नशे में हो? तुम्हारा होश ही तो है, जो जान रहा है कि तुम नशे में हो। पूरे बेहोश हो गये होते तो जानने के लिए कौन बचता? बेहोशी में तो कुछ जाना नहीं जाता।

लोग नशा करते हैं। लोग कई अन्य तरह के साधन करते हैं। कुछ लोग आत्महत्या कर लेते हैं। कोई नशे के माध्यम से अपना होश दबाना चाहता है। कोई मनोरंजन के माध्यम से। कोई दुनिया के अन्य रंगीन तरीक़ों के माध्यम से। और कुछ लोग इस सीमा तक चले जाते हैं कि वो कहते हैं, आत्महत्या ही कर लें। होश तो मिटे। होश हमें क्यों मिटाना है? होश हमें इसलिए मिटाना है क्योंकि शान्ति सिर्फ़ दोनों छोरों पर है बीच में घोर अशान्ति है। अशान्ति स्वभाव नहीं है हमारा। तो उसी अशान्ति से पीछा छुड़ाने के लिए हम जीवन भर नाना प्रकार के यत्न करते हैं। आ रही बात समझ में?

अर्जुन ने पहला यत्न करा है बेहोशी की दिशा में। अर्जुन परेशान हैं। अर्जुन जल रहे हैं। अर्जुन ने अपनी दशा का जो विवरण दिया है, देखा है न, कैसा है! दया सी आ जाए। इतना बलिष्ठ योद्धा और क्या कह रहा है? पूरा शरीर काँप रहा है, रोएँ खड़े हो रहे हैं, इंद्रियाँ दुर्बल हो रही हैं, कुछ दिखायी-सुनायी नहीं दे रहा ठीक से, कुछ समझ में नहीं आ रहा। धनुष हाथ से छूट रहा है, शंख नहीं फूँका जा रहा। अब ये हालत कोई बहुत सुहा तो नहीं रही होगी। बुरी ही लग रही होगी। तो इस हालत से बचने के लिए, ये हालत हम सबकी है, हम सब इसी हालत में रहते हैं न? अर्जुन की हालत अभी पूरे तरीक़े से नाटकीय रूप से अभिव्यक्त है। हमारी हालत और हमारी अभिव्यक्ति में इतनी नाटकीयता नहीं रहती। लेकिन हालत हमारी भी लगभग रहती ऐसी ही है। तो अपनी इस गति से, इस दशा से निपटने के लिए, अर्जुन जो पहला यत्न करते हैं, वो वैसा ही होता है जैसा हम सबका होता है- 'चलो बेहोश हो जाओ'। और बेहोशी के लिए क्या कर रहे हैं? इधर-उधर की बातें करते हैं। झूठ बोलते हैं। अभी भी बोला है, आगे भी बोलेंगे।

इसलिए दो-तीन अवसरों पर गीता में कृष्ण को उन्हें डाँटना पड़ता है। कृष्ण उन्हें पाखंडी तक बोल देते हैं। क्योंकि अर्जुन वही कर रहे हैं, जो हम सबकी प्रकृति है। फँस गये हो तो बाहर निकलने का जो सबसे सस्ता और आसान तरीक़ा दिख रहा है वो पकड़ लो। और सबसे आसान तरीक़ा क्या है? पलायन।

पलायन माने क्या होता है? पलायन माने यही होता है; चेतना को मिट्टी कर दो, अपना सोचना समझना अब सब व्यर्थ कर दो। धर्म से जितनी दूर जा सकते हो भाग जाओ। ये हर व्यक्ति को पहला विकल्प दिखायी देता है किसी भी किंकर्तव्यविमूढ़ता की दशा में। आप जब भी अपने आपको कहीं फँसा पाएँगे, कोई धर्मसंकट होगा, देखिएगा कि जो पहली चीज़ आपको आकर्षित करेगी, वो यही है-'पलायन'। और पलायन हमेशा धर्म विरुद्ध होता है। धर्म के विरुद्ध ही पलायन किया जाता है। पलायन का अर्थ ही यही है। पलायन माने? 'भागना'। किस दिशा में भागना? 'धर्म के विरुद्ध भागना'। उसी को पलायन कहते हैं। आ रही बात समझ में?

और अधिकांश लोग सफल भी हो जाते हैं पलायन में, क्योंकि सामने कोई होता नहीं कृष्ण जैसा। उन्हें भागना था वो भाग गये। कोई मिला ही नहीं रोकने वाला। और प्रकृति ने तो प्रबन्ध पूरा कर ही रखा है, तुम्हारा भागना सलीके से हो जाए। कोई नहीं रोकेगा। दरवाज़ा है, कुंडी खोलनी है, भाग जाना है। कौन रोकनेवाला है?

मनुष्य को जो सबसे घातक शक्ति मिली हुई है वो है-'स्वेच्छा'। 'स्वेच्छा'। कौन आपकी स्वेच्छा बाधित करने वाला? इसीलिए अनुग्रह, अनुकम्पा, कृपा का दूसरा नाम जानते हैं क्या है? थोड़ा खतरनाक है- 'आपकी स्वेच्छा का बाधित होना'। इच्छा पूर्ति का न हो पाना ही अनुकम्पा है। क्योंकि इच्छा तो सबकी वैसी ही होती है जैसी अर्जुन की है। कुछ इधर-उधर की दो-चार गोल-मोल बातें करो और भाग निकलो।

अनुग्रह का मतलब ही यही है कोई मिल जाएगा, जो कान पकड़ लेगा और कहेगा कि किसको धता बताते हो? ये कुतर्क अपने जैसों के लिए रखना। हमारे सामने नहीं चलेंगे। अनुकम्पा के लिए आप शब्द कह सकते हैं 'अनिच्छा'। वो आपकी इच्छा विरुद्ध होती है। स्वेच्छा घातक शब्द है। स्वेच्छा सिर्फ़ उन्हीं के लिए शुभ शब्द है जो 'कृष्णमय' हो गये हों। अन्यथा स्वेच्छा अति घातक है।

अब आप समझिएगा कि आज का युग इतनी विभीषिका का क्यों है। अब आप समझियेगा कि आज पृथ्वी जितनी बुरी हालत में है, इतने अपने इतिहास में कभी क्यों नहीं हुई? क्योंकि दो घटनाएँ आज साथ-साथ घट रही हैं। पहला, कृष्ण को बिलकुल कोने पर, हाशिये पर ढकेल दिया गया है, आदमी के विचार द्वारा। और दूसरी बात, स्वेच्छा को बहुत महत्व दे दिया गया है। ये दोनों बातें ऐसी हैं जैसे कोढ़ में खाज। किसी को कोढ़ हो और उसी में फ़िर खाज भी हो जाए। ये दोनों बातें ऐसी ही हैं।आ रही बात समझ में?

पहली बात तो कृष्ण को क्या बना दिया? कोई ऐतिहासिक चरित्र। और ऐतिहासिक चरित्र बनाकर के सौ तरीक़े के चरित्र दोष भी निकाल दिए। उनको सत्य के प्रतीक से नीचे उतारकर एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व बना दिया और ऐतिहासिक व्यक्तित्व तो कोई भी हो उसमें सौ तरह के खोट होंगे ही। और जहाँ खोट मिल गयी बताने के लिए वहाँ कह दिया, अरे, इनमें तो खोट है। इनकी क्यों सुनें? इनकी गीता का क्या अनुगमन करना? तो किसका अनुगमन करना? स्वेच्छा का। ये दोनों चीज़ें साथ-साथ हुईं। स्वेच्छा तो पहले से ही तैयार बैठी थी कृष्ण विरुद्ध जाने को। अब उसके लिए सबकुछ बहुत आसान कर दिया गया है। तो फिर आज हमारी जो हालत है, वो है।

अप्रील का महीना चल रहा है। ऐसे ही थोड़े तापमान इतनी ऊँचाइयाँ पकड़े हुए है। ऐसे ही थोड़े आप सड़कों पर निकलिए तो कुछ-कुछ दूर पर प्यास से मरे हुए पक्षी मिल जाते हैं। तापमान इतना ज़्यादा है, पीने को पानी नहीं, ऊपर से पेड़ सारे काट दिए। ऊपर से कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए जिनसे तापमान और ज़्यादा बढ़ जाता है। मैं वीडियो देख रहा था। दिखा रहे हैं कि हर पांच-सात सौ मीटर पर एक मरा हुआ पक्षी मिल रहा है। अप्रील के माह में इतना तापमान पिछले लगभग सौ सालों में नहीं हुआ है। ये कोई प्राकृतिक संयोग नहीं है। ये मनुष्य की करतूत है।

स्वेच्छा जितनी बढ़ेगी पेड़ उतने घटेंगे। स्वेच्छा जितनी बढ़ेगी पशुओं की, पक्षियों की प्रजातियाँ उतनी घटेंगी। स्वेच्छा जितनी बढ़ेगी मांसाहार उतना ज़्यादा बढ़ेगा। और स्वेच्छा जितनी बढ़ेगी मनुष्य की दुर्दशा उतनी गहराएगी। और हर मनुष्य सबसे पहले तो स्वेच्छा का ही अनुगमन करना चाहता है। कोई कृष्ण चाहिए जो उसकी स्वेच्छा की राह में बाधा बने। पर कृष्ण उपलब्ध हैं। कृष्ण को पाना होता है। कृष्ण के निकट बैठना होता है। कृष्ण को सारथी बनाना होता है। नहीं तो निकट हो कर के भी बहुत दूर हैं।

हम कह रहे थे कि यहाँ इतनी लम्बी-चौड़ी बात चलेगी घंटों तक और थोड़े ही दूरी पर सब खड़े हुए हैं, कौरवों के सैकड़ों योद्धा। एक की भी रुचि नहीं हुई,कि कृष्ण क्या कह रहे हैं, थोड़ा सुनें क्या। एक की भी नहीं हुई? हम आज सैकड़ों वर्षों बाद भी श्रीमद्भगवदगीता का पाठ करते हैं। सोचिए वो कैसे अभागे रहे होंगे, और वो कैसे जादुई पाश में रहे होंगे किजिनके ठीक सामने गीता बरस रही होगी, और वो अभागे, दूर खड़े रहे? हमें तो बस पुस्तक रूप में उपलब्ध है। हम तब भी उस पुस्तक को लेकर के सिर पर रखते हैं। और ठीक जिनके सामने गीता पहली बार आविर्भूत हो रही थी, वो दूर अपनी गदाएँ और धनुष लिए खड़े हुए हैं। उनका दुर्भाग्य सोचिए!

कृष्ण उपलब्ध रहते हैं, हम दूर रहते हैं। हमारी स्वेच्छा हमें दूर रखती है। स्वेच्छा को कृष्ण नहीं चाहिए। स्वेच्छा को पाशविक सुख चाहिए। कैसा पाशविक सुख? अभी गर्मियाँ चल रही हैं। तो देखते हो सड़क पर कुत्ते क्या कर रहे होते हैं? गड्ढा खोदते हैं और उसमें सो जाते हैं। दो चीज़ें उन्हें मिलती हैं उसमें। पहला — शीतलता; थोड़ी ठंडक है। और दूसरा — नींद। स्वेच्छा यही माँगती है; ठंडा-ठंडा कमरा हो और सो जाएँ। कृष्ण के पास जाने का तो अर्थ होता है ताप से गुजरना। शरीर में लोहा खाना। स्वेच्छा ये क्यों चाहेगी?

हमारी वृत्ति क्या हमसे करवाना चाहती है, ये समझना हो तो पशुओं को देख लिया करिये। क्योंकि हममें और पशुओं में वही चीज़ साझी है — 'जीव वृत्ति'। हमारी वृत्ति ठीक हमसे वही करवाना चाहती है जैसा जीवन पशु जीते हैं। उसी की तरफ़ धकेलती रहती है वृत्ति हमें। हाँ, 'सभ्यता' और 'संस्कृति' का आवरण पहनाये हुए। तो काम हम सारे वही करते हैं जो पशु करते हैं। पर प्रदर्शित यूँ करते हैं कि जैसे कोई बहुत सभ्य काम कर रहे हों। जैसे संस्कृति का चलन हो उसी तरह के काम करना। आवरण कुछ भी हो, बहाने कुछ भी हों, तर्क कुछ भी हों। नीचे-नीचे काम तो पश्विक वृत्ति ही कर रही होती है। आ रही है बात समझ में?

अर्जुन एक तरीक़े से ‘कौरवों’ और ‘पांडवों’ की सेना के मध्य नहीं खड़े हैं। अर्जुन खड़े हैं — मनुष्य की पशुता और कृष्ण के मध्य। बीचों-बीच तो निःसंदेह खड़े हैं अर्जुन। पर ज़्यादा सही होगा ये कहना कि उनके एक तरफ़ खड़ी है- मनुष्य की पश्विकता और दूस दूसरे तरफ़ खड़े हुए हैं सिर्फ़ कृष्ण। अब अर्जुन को चुनाव करना है। किसको चुनें? हम सब बीचों-बीच खड़े हैं। हम सबको चुनाव करना है, किसको चुनें? बात आ रही है समझ में?

तो आगे कहते हैं, 'अर्जुन, 'मैं तो महानुभाव गुरुओं को मारकर न इस लोक में भिक्षान्न भोजन करना बल्कि कल्याणकर मानता हूँ। क्योंकि गुरुओं का वध करके मैं रक्त से सने हुए अर्थ और काम रूपी भोगों को ही तो भोगूँगा'।

कह रहे हैं गुरुओं को मारने की अपेक्षा भिक्षाटन करना श्रेष्ठ समझते हैं। क्योंकि गुरुओं को अगर मारेंगे भी, तो जो सुख भोगेंगे, वो रक्तिम होगा। स्वजनों के रक्त से सना हुआ। फिर आगे कहा — तर्क पर विचार करिएगा — 'फिर हम ये भी तो नहीं जानते कि हमलोगों के लिए श्रेयस्कर क्या है'।

हम माने? न 'मैं' जानता हूँ, न 'आप' जानते हैं।

'फिर हम ये भी तो नहीं जानते हैं कि हमलोगों के लिए श्रेयस्कर क्या है'? हम उन्हें जीत लें या वो हमें जीत लें? अभी तो ये भी पता नहीं कि ज़्यादा उचित बात क्या होगी? धर्म किस तरफ़ है, ये अभी कुछ तय नहीं। ये भी हो सकता है कि वही लोग धर्म की तरफ़ हों, और हम अधर्म की तरफ़ हों। तो हो सकता है कि उचित भी यही हो कि विजय दुर्योधन की हो।

'जिन लोगों को मारकर हम जीना नहीं चाहते वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र सामने खड़े हैं'।

देखिए, ऐसे खेल चलता है। ग़ौर करिएगा, पूरी प्रक्रिया पर। लम्बा-चौड़ा वक्तव्य दिया अर्जुन ने पहले अध्याय में। पोल खोल दी कृष्ण ने एक ही वाक्य में — 'अर्जुन, तुम मोहग्रस्त हो। और जैसे ही पोल खुली, अर्जुन अनायास ही स्वीकार भी कर बैठे — 'हाँ, ये बात तो सही है। मैं कैसे मार दूँ अपने गुरुओं, पितामहों को? लेकिन फिर जैसे यकायक याद आया कि अरे, अरे, अरे, इतनी जल्दी समर्पण थोड़े ही कर देना है। ये तो धोबी पाट हो गया। ये तो नॉक आउट हो गया। ये नहीं होने देना है तो कुतर्क का दौर अब फिर से जारी है।

अर्जुन वापस वहीं आ गये जहाँ पहले अध्याय में थे। बल्कि और ज़्यादा अब अड़ गये हैं अपनी पुरानी ही स्थिति पर। क्योंकि दिख गया है कि जो सामने शत्रु है वो प्रबल है। कौन है सामने शत्रु? कृष्ण। कह रहे हैं कि इस शत्रु ने तो एक बार में ही भाँप लिया कि मेरी समस्या मोह है। तो अब इसे और बड़े तर्क देने पड़ेंगे और घातक तर्क देने पड़ेंगे। तो इस बार देखिए क्या तर्क दिया है। बोल रहे हैं — 'मैं कैसे लड़ लूँ? मुझे तो यही नहीं पता, ये अधर्मी हम हैं या वो हैं। और 'हम' में कृष्ण को भी शामिल कर लिया। कि क्या पता कृष्ण आप ही अधर्मी हों? मैं लड़ाई कैसे कर लूँ? क्योंकि मैंने तो यही सुना है कि गुरुओं, स्वजनों, वरिष्ठों, पितामह इनसे युद्ध आदि करना कोई धर्म की बात नहीं होती। मुझे कैसे पता कि आप ही धर्म की तरफ़ हैं? आप तो उल्टा धर्म बता रहे हैं। हमारी संस्कृति तो यह सिखाती है कि जो भी हो जाए अपनों पर शस्त्र मत चलाओ। "अपने तो अपने हैं।" और आप कह रहे हैं शस्त्र चला दो। मुझे तो लग रहा है, कृष्ण कि अधर्म कहीं आप ही तो नहीं कर रहे!'

ये भारी बाण चलाना पड़ गया है अर्जुन को, क्योंकि दिख गया है कि दुश्मन में बड़ा दम है। शत्रु प्रबल है, तो इसपर तद्-अनुसार किसी भारी अस्त्र का उपयोग करना पड़ेगा। सीधे-सीधे यही कह दिया कि क्या पता, धर्म किधर है? 'मैं आपको ये कहने की भी सहूलियत नहीं दूँगा कि अर्जुन, धर्म और अधर्म की लड़ाई में, देखो तुम अधर्म की ओर जा रहे हो। क्योंकि अगर आप ये कह लेते हैं, तो आपका पलड़ा भारी हो जाता है। मैं क्यों आपको ये सुविधा दूँ? तो मैं ये कहे देता हूँ कि मुझे क्या पता धर्म किधर है। मैं आपसे दूर जा रहा हूँ। मैं धर्म से दूर थोड़े ही जा रहा हूँ। मैं आपकी बात काट रहा हूँ। मैं धर्म को थोड़े ही काट रहा हूँ। क्या पता धर्म दुर्योधन की तरफ़ हो तो? और ये इतने जो सामने महानुभाव खड़े हुए हैं, ये सब विधर्मी हैं क्या? पूरी दुनिया विधर्मी है? बस एक कृष्ण आप ही धर्म जानते हैं?' ये सब सुने-सुनाए तर्क लग रहे हैं कि नहीं लग रहे।

पैंतरा समझिए। 'क्यों मैं कृष्ण को अनुमति दे दूँ मुझपर आरोप लगाने की कि धर्म और अधर्म के संघर्ष में देखो, अर्जुन तुम अधर्म की ओर जा रहे हो। इससे पहले कि कृष्ण कुछ ऐसा कहें मैं घोषित किये देता हूँ कि मैं जानता ही नहीं कि धर्म किधर है और अधर्म किधर है। मैं क्यों कृष्ण को धर्म पर स्वामित्व घोषित करने दूँ? मैं क्यों स्वीकार कर लूँ कि धर्म पर कृष्ण का एकाधिकार है? तो मैं उस बात को ज़रा संदेह के घेरे में ले आ देता हूँ कि क्या पता धर्म किधर है! हो सकता है धर्म उधर हो कौरवों की तरफ़।'

अब अगर कृष्ण बोलेंगे भी कि अर्जुन, तुम ग़लत कर रहे हो। अर्जुन, तुम बात नहीं मान रहे। तो मैं क्या कह पाऊँगा? मैं कहूँगा — 'मैं आपकी बात नहीं मान रहा लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि मैं धर्म की बात नहीं मान रहा हूँ। धर्म किधर है न आपको पता है न मुझे पता है। और देखिए कोई व्यक्ति तो पूजनीय होता नहीं। पूजनीय तो धर्म होता है। मैं आपकी बात काट रहा हूँ, धर्म को थोड़े ही काट रहा हूँ । व्यक्तियों में क्या है? व्यक्ति तो सब मिट्टी के पुतले होते हैं।' अर्जुन ने बड़ी बढ़िया बाज़ी चली है। हम सब चलते हैं।

अर्जुन की बातों को समझिए ताकि आप समझ पाएँ कि हम सब किस तरीक़े से कृष्ण विरुद्ध जाने के लिए अपने ही खिलाफ षड्यंत्र-दर-षड्यंत्र रचते रहते हैं।

'जिन लोगों को मारकर हम जीना नहीं चाहते वही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।' कितना प्रेम छलछला रहा है। 'जिनको मारकर हम जीना नहीं चाहते वही धृतराष्ट्र के पुत्र सामने खड़े हैं'। कितना प्रेम है अर्जुन में!

यही प्रेम था, जब इतनी बड़ी सेना इकट्ठा करी थी? वो जो पांडवों की तरफ़ सेना खड़ी है, वो सिर्फ़ पांडवों भर की नहीं है। उसमें और दुनिया भर के राजा लोग हैं जो पांडवों के समर्थन में आकर खड़े हो गये हैं। और दौड़-दौड़कर, घूम-घूमकर बक़ायदा उन राजाओं का समर्थन हासिल किया गया था। वो एक गठबन्धन है, क्वालिशन् है।आसानी से नहीं बन जाता। राजाओं के पास गये होंगे उनकी माँगें मानी होंगी, समझाया होगा, बुझाया होगा।

ये राजा लोग भी अपना समय निकालकर, अपने संसाधन जुटाकर और अपनी जान ख़तरे में डालकर ऐसे ही थोड़े ही मैदान में आ गये होंगे पांडवों के पक्ष में। तब अर्जुन को याद नहीं था कि धृतराष्ट्र के पुत्र तो हमें जान से ज़्यादा प्यारे हैं? तब तो वहाँ जाकर कहा होगा कि दुर्योधन महापतित- महापापी है। और अभी कृष्ण से क्या कह रहे हैं? कि दुर्योधन जैसों को मारकर तो हम जीना भी नहीं चाहते। 'मेरा हृदय है दुर्योधन।'

अधर्म की रक्षा के लिए कोई भी तर्क गढ़ सकते हैं। अभी इस क्षण अर्जुन ऐसी स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं कि देखिए कृष्ण, दुर्योधन इत्यादि तो मेरे जिगर के टुकड़े हैं। 'आप ज़रा दूर के हैं। आप मुझे क्यों भड़का रहे हैं? क्यों गृह युद्ध करवा रहे हैं?'

चाल देख रहे हैं? ये चाल हम सब चलते हैं। जब सत्य सामने आता है, तो उसका अपमान करने में हम कोई कमी नहीं छोड़ते। और सत्य को अपमानित किया नहीं जा सकता। इसलिए सत्य को अपमानित करने के लिए हम तरह-तरह के झूठ गढ़ते हैं। कितना हास्यास्पद है, और कितना त्रासद!

जिन कौरवों को मारकर हम जीना नहीं चाहते वो धृतराष्ट्रपुत्र हमारे सामने खड़े हुए हैं। कितनी ही बार स्वयं अर्जुन ने प्रतिज्ञा करी है! भीम ने शपथ उठाई है कि कौरवों को मारे बिना जिएँगे नहीं, शान्ति नहीं पाएँगे। और अभी देखिए! क्या कह रहे हैं? अगर कौरव नहीं रहे तो हम भी जीना नहीं चाहेंगे। इतना प्यार उमड़ आया!

सच इतना ख़तरनाक होता है कि उससे बचने के लिए हम किसी भी तरीक़े की गन्दगी से प्यार कर सकते हैं! सच से बचने के लिए, हम गन्दी-से-गन्दी चीज़ के प्रति प्रेम घोषित कर सकते हैं! दुर्योधन के प्रति प्रेम घोषित करना बुरा है, लेकिन कृष्ण के प्रति समर्पण घोषित करना और ज़्यादा अस्वीकार्य। तो कृष्ण को समर्पित होने से बेहतर यह लग रहा है कि यही घोषित कर दो कि दुर्योधन तो मुझे प्राणों से प्यारा है। दुर्योधन चलेगा, सच नहीं चलेगा! या इसे कह दो — सच के अतिरिक्त कुछ भी चलेगा। कुछ भी चलेगा।

अब अर्जुन ने बात कुछ ऐसी कह दी कि कृष्ण की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया आनी आवश्यक है। और, वो कड़ी प्रतिक्रिया तत्काल आयी है। वो कृष्ण की भाव-भंगिमा से आयी है। अब अर्जुन ने कोई ऐसी बात कह दी है, जिससे अर्जुन और कृष्ण का सम्बन्ध ही खतरे में पड़ गया है। अर्जुन ने कृष्ण पर लगभग ये आरोप लगा दिया है कि आप मुझे अधर्म की ओर ले जा रहे हैं।

अर्जुन ने कृष्ण के समक्ष लगभग ये घोषित कर दिया है कि आप की अपेक्षा मुझे दुर्योधन कहीं ज़्यादा प्यारा है। कृष्ण कोई हल्के योद्धा तो हैं नहीं। इस तरह का प्रहार उनपर होगा तो तत्काल प्रतिकार भी होगा और प्रतिकार हुआ है। शाब्दिक रूप से नहीं, मौन रूप से। वो बात संजय, शब्दों में धृतराष्ट्र को अभिव्यक्त नहीं कर पाए होंगे। वो बात यहाँ किसी श्लोक में निरूपित नहीं है। पर उस बात का प्रमाण उपलब्ध है, अर्जुन के अगले ही वक्तव्य में। ये जो कुछ कह गये अर्जुन, उसपर कृष्ण का जो प्रतिसाद है, वो अब अर्जुन की वाणी में कुछ इस प्रकार देखने को मिलता है। 'अज्ञान-जनित कायरता के दोष से मेरा स्वभाव ढँक गया है।' एकदम पलट गये! 'धर्म के विषय में मेरा चित्त मोहित हो गया है। माफ़ कर दीजिएगा। आपका ये रुष्ट चेहरा मैं नहीं देख पाऊँगा।'

विराट रूप कोई आनेवाले अध्यायों में ही थोड़े दिखाया जाएगा। उसका आरम्भ यहीं से हो जाता है। झूठ के, कुतर्क के बहुत प्राण थोड़े ही होते हैं। सच क्रुद्ध हो जाए और अपनी लाल-लाल आँखें दिखाए, तो झूठ के पाँव उखड़ जाते हैं तत्काल। और ये देखिए उखड़ रहे हैं । कहाँ तो अभी-अभी कह रहे थे कि दुर्योधन मुझे जान से प्यारा है। और धर्म किधर, अधर्म किधर, अभी तो ये निश्चित ही नहीं हुआ है और तत्काल पलटना पड़ा, देखिए — 'क्षमा करिए, अज्ञान जनित कायरता के दोष से मेरा स्वभाव ढँक गया है। मैं अज्ञानी हूँ। मैं कायर हूँ। मैं मान रहा हूँ कृष्ण, क्षमा। धर्म के विषय में मेरा चित्त मोहित हो गया है। अरे, मुझे कहाँ पता क्या धर्म? क्या अधर्म? मुझे पता ही होता, तो मैं थोड़े बोल देता कि क्या पता धर्म कौरवों की तरफ़ हो। मैं तुमसे पूछता हूँ' — अब पूछने पर आ गये, अभी तक बता रहे थे — 'मैं तुमसे पूछता हूँ, जो मेरे लिए कल्याणकर हो, वो मुझे बताओ, कृष्ण। मैं तुम्हारा शिष्य हूँ, मैं बच्चा हूँ। मुझे शरण में ले लो। मैं तुम्हारा शिष्य हूँ। अपनी शरण में आये हुए मुझे उपदेश दो। मुझे बताओ।' अब कुछ बात बनी!

जब झूठ चरम पर पहुँच जाता है, वहीं अक्सर उसे टूटना पड़ता है। अर्जुन ने कुछ ऐसी बातें कह दीं कि जो इतनी झूठ है कि अर्जुन को टूटना पड़ा।

अब कह रहे हैं कि शरणागत हूँ, उपदेश दीजिए। 'धर्म नहीं जानता। चित्त मोहग्रस्त है। अज्ञानजनित कायरता ने जकड़ लिया है। सारी बातें मान लीं जो कृष्ण उनसे कह रहे थे। बड़े-बड़े कुतर्क, थोड़ी देर के लिए ही सही, पर पीछे छूट गये। और फिर कह रहे हैं कि बहुत दुख में हूँ, क्रोध न करें, रुष्ट न हों। 'मेरी स्थिति को समझें। कितना शोकाकुल हूँ, सुनिए — पृथ्वी पर निष्कंटक समृद्ध राज्य तथा देवताओं का साम्राज्य पाकर भी मैं ऐसा कोई उपाय नहीं देखता जो मेरी इंद्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। मेरी हालत भयानक है, कृष्ण। त्राहिमाम, रक्षा करिए। कुछ बोलिए। उपदेश दीजिए।'

और ये कहने के बाद संजय कह रहे हैं कि वो अर्जुन जो शत्रु को तापित कर पाते थे गोविंद से ऐसा कहकर एकदम मौन हो गये। बोले, 'युद्ध नहीं करूँगा। स्थिति नहीं है युद्ध करने की।'

'दुखी बहुत हूँ। अपने ही हठ के कारण दुखी हूँ। और चूँकि दुःखी हूँ, इसलिए हठ और पकड़कर रखूँगा।' ये हर शोकाकुल व्यक्ति की कहानी होती है। दुःखी बहुत हूँ। ठीक है। बिलकुल सही बात है, दुःख है। 'और अपने हठ के कारण ही दुःखी हूँ और चूँकि बहुत दुःखी हूँ इसलिए हठ को और पकड़ कर रखूँगा।' हम जितने दुःखी होते जाते हैं, उतना ज़्यादा हम उसी कारण को पकड़ते जाते हैं, जिसने हमें दुःखी किया। यही वजह है कि आनन्द इतना 'विरल' है। इतना 'अप्राप्य' है। और दुःख इतना 'सार्वजनिक'।

आनन्द स्वभाव है फिर भी इतना विरल क्यों? इतना अप्राप्य क्यों? और दुःख तो झूठ है। फिर भी इतना व्यापक क्यों? क्योंकि दुःख में यही विशेषता है। आप जितने दुःखी होंगे आप दुःख के कारण की ओर उतना ज़्यादा बढ़ोगे। हम सोचते हैं कि हम जब दुःखी होते हैं तो फिर हम प्रतिक्रिया में सुख की ओर बढ़ते हैं। नहीं, ऐसा नहीं है। आप दुःखी होते हो किसी कारण से। और जब आप दुःखी हो तब वो कारण बना हुआ है। आप दुःखी हुए हो क्योंकि आप दुख के कारण की ओर बढ़े। दुःख के कारण की ओर क्यों बढ़े? दुःख पाने के लिए नहीं, सुख पाने के लिए। आप थोड़े से दुःखी थे। आप थोड़े से दुःखी थे और आपको कोई बिन्दु दिख रहा था, जहाँ आपको लग रहा था कि सुख मिलेगा। तो आप उसकी ओर बढ़े। जो बात आपको लग रही थी वो उसकी बिलकुल उल्टी थी। आप उसकी ओर बढ़े तो आपको और क्या मिल गया? दुःख। आपका दुःख बढ़ गया।

जब आप कम दुःखी थे तो आप थोड़ी गति से उस कारण की ओर बढ़े थे। वो कारण जो वादा कर रहा था कि वो सुख देगा। जब उस कारण की ओर बढ़कर आप और दुःखी हो गये, तो आप कितनी गति से अब उस कारण की ओर बढ़ोगे? आप और ज़्यादा गति से बढ़ोगे।

और अब आप और दुःखी हो जाओगे तो आप दुःख देनेवाले कारण की ओर और त्वरा से बढ़ोगे। दुःखी व्यक्ति दुःख का इलाज़ ठीक वहीं ढूँढता है जहाँ से दुःख आया है। इसीलिए दुःख लगभग अमर है। अन्यथा तो आनन्द स्वभाव है। दुःख क्षण भर में मिट जाना चाहिए था पर मिटता नहीं। आप दुःखी आदमी से उसका दुःख छुड़वाकर दिखा दीजिए। वो नहीं छोड़ेगा।

ये दुनिया के कठिनतम कामों में से एक है — दुःखी आदमी से दुःख छुड़वाना। वो दुःख को मुट्ठी भींचकर पकड़ता है। वो अपने दुःख का इलाज स्वयं करना चाहता है। जैसे कोई अन्धा अपने आँखों की सर्जरी स्वयं करना चाहे। और दुःख जितना बढ़ता जाता है, उतना ज़्यादा, उसकी सोचने-समझने की शक्ति घटती जाती है। वो और अन्धे तरीक़े से, और तेज़ गति के साथ दुःखदायक बिन्दु की ओर, स्रोत की ओर बढ़ता है।

अर्जुन शोक में है। और जो उन्हें शोक से मुक्ति दिला सकते हैं वो अभी अर्जुन को बहुत भा नहीं रहे। उनकी बातों का अनुकरण करने को, अर्जुन का मन, सहज ही प्रस्तुत नहीं हो रहा। किसी का भी मन सत्य की तरफ़ सहज प्रस्तुत नहीं होता । तब चाहिए होता है अनुशासन।

अनुशासन के अलावा अध्यात्म में कहा जा सकता है कि किसी भी बात का कोई महत्व है ही नहीं। मन का काम है सदैव ग़लत दिशा भागना, सत्य के विपरीत भागना। और अनुशासन का अर्थ है मन को बाँधकर रखना। सही दिशा में उसे खींच-खींचकर लाना। इसके अलावा अध्यात्म माने क्या? कुछ नहीं।

तो, अर्जुन शोकाकुल होकर मौन हो गये हैं, बैठ गये हैं, 'मैं तो नहीं लडूँगा'। थोड़ी देर पहले हमने कृष्ण की भाव-भंगिमा की बात करी थी और कहा था कि संजय उस विषय में कुछ कह नहीं रहे पर एकदम स्पष्ट है कि कृष्ण अभी किस भाव से देख रहे हैं अर्जुन को, कि उनकी आँखें हँस भी रही हैं, और करुण भी हैं। फिर दो ही श्लोकों बाद कृष्ण की स्थिति का थोड़ा सा वर्णन संजय करे देते हैं — 'हे राजा धृतराष्ट्र! तब श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में अत्यंत दुःखी अर्जुन से मानो हँसते हुए कहा।' ये बड़ी विशेष हँसी है! बड़ी विशेष हँसी!

शोक को देखकर हँस रहे हैं कृष्ण। और शोक का निदान भी करेंगे, उपचार भी करेंगे। 'दया' और 'करुणा' में यही अन्तर होता है। दया, शोक को देखकर शोकाकुल हो जाती है। करुणा, शोक को देखकर हँसती है। दया शोक का उपचार नहीं कर पाती। दया बस शोक को सह-अनुभूत कर पाती है। तुम्हें शोक की अनुभूति हो रही है। उसी शोक की अनुभूति मुझे भी होने लग जाएगी, इसी को दया कहते हैं।

उपचार कहीं नहीं हो गया इसमें। हाँ, तुम्हें जो बीमारी थी वो संक्रमण मुझे भी लग गया। सह-अनुभूति हो गयी। सह-अनुभूति। तुम्हें दुःख की अनुभूति हो रही थी मुझे ही होने लग गयी, इससेे उपचार किसका हुआ? न तुम्हारा, और मेरा तो बिलकुल ही नहीं।

करुणा चीज़ दूसरी है। करुणा शोक को देखकर हँसती है। ठीक वैसे, जैसे कृष्ण यहाँ अर्जुन को देखकर हँस दिये। और करुणा चूँकि शोक को देखकर हँसती है, इसीलिए वो फिर गीता प्रस्फुटित कर पाती है और फिर वो शोक का उपचार भी कर पाती है। मैं आपसे ये नहीं कह रहा कि कोई दुःखी हो, कोई रो रहा हो, और आप ठहाका मारने लगें उसके सामने। यहाँ पर हँसने का मतलब है दुःख को गम्भीरता से न लेना। मनुष्य की वृत्ति को, मन की माया को बहुत गम्भीरता, बहुत महत्व न देना।

'हाँ, तुम शोकाकुल हो मुझे पता है। पर तुम्हारे शोक के पीछे अज्ञान मात्र है। मैं उसे गम्भीरता से कैसे ले सकता हूँ? तुम्हारा शोक वैसा ही है, जैसे कोई छोटा बच्चा खम्भे को देखकर डर जाए और रोने लगे कि राक्षस खड़ा है। क्या मैं भी उस छोटे बच्चे के साथ रोना शुरू कर दूँ? मैं कैसे रो सकता हूँ? मैं तो जानता हूँ न! कहीं कोई राक्षस नहीं है। तुम व्यर्थ ही शोक-ग्रस्त हो।' तो कृष्ण हँस देते हैं। कृष्ण इस शोक का यथार्थ जानते हैं।

'तुम शोक के अयोग्य लोगों के लिए शोक कर रहे हो, अर्जुन! और पंडितों की तरह बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो। (हँसते हैं) तुम शोक के अयोग्य लोगों के लिए शोक कर रहे हो, अर्जुन! और पंडितों जैसी बातें बता रहे हो! अरे, अगर तुम ज्ञानी होते तो तुम जानते कि मृत और जीवित लोगों में से किसी के लिए भी शोक नहीं किया जाता। सबसे पहले तो ये समझो कि तुम अज्ञानी हो। बेकार प्रवचन इतना न बताओ। देखो। समझो। शोक में भी अहंकार होता है।'

दुःख में भी गहरा अहंकार होता है। आप दुःखी होते हो किसी कारण से। आपने इतना तो मान लिया न कि आपने जो कारण पकड़ा है, वो दुःखी होने के लिए पर्याप्त है? कि आपके पास जो कारण है, वो वैद्य है। आप अपना आत्मविश्वास देख रहे हैं? जो जिज्ञासु होगा, जिसमें शिष्यत्व होगा, जो साधक होगा, वो दुःखी हो ही नहीं पाएगा, क्योंकि दुःखी होने के लिए बड़ा आत्मविश्वास चाहिए।

उदाहरण के लिए, ये कोई चीज़ है। ये खो गयी और मैं बहुत दुःखी हो जाऊँ। तो मेरे इस दुःख में एक मान्यता बैठी हुई है पहले। क्या है मान्यता? कि इस चीज़ का इतना महत्व था कि इसके न रहने पर मैं दुःखी हो जाऊँ। तो दुःखी होना भी बड़े अहंकार की बात है। दुःख में पंडिताई छुपी हुई है। बड़े ज्ञानी हो! तुम्हें तो पता है कि फ़लानी घटना दुःख की है! बड़े ज्ञानी हो, तुम्हें तो पता है कि फ़लानी घटना सुख की है। तुम्हें कैसे पता फ़लानी घटना सुख की है ही? तुम कैसे जानते हो कि फ़लानी स्थिति में तुम्हारे साथ कुछ बुरा हो गया? तुम्हें अच्छे-बुरे का क्या ज्ञान है बताओ?

तुम्हें ज्ञान कुछ नहीं पर तुम मानते हो तुम्हें ज्ञान बहुत है। वही ज्ञान तुम्हें सुख दुःख का झूला झुला रहा है। तो इसलिए कृष्ण व्यंग्य करते हैं। कहते हैं, 'क्या पंडित बने बैठे हो, अर्जुन! इतने ज्ञानी हो तुम? अपने शोक को देखो। शोक के लिए तो बड़ा आत्मविश्वास चाहिए। तुममें इतना निश्चय आ कहाँ से गया? क्योंकि इतना निश्चित तो सिर्फ़ सत्य होता है। जो अटल है, जो नित्य है, जो अपरिवर्तनीय है उस पर ही पूर्ण विश्वास किया जा सकता है। क्या वाक़ई तुम सत्य के सम्पर्क में हो, अर्जुन कि तुम्हें इतना विश्वास है? तुम्हारा शोक जितना प्रबल है, उतनी प्रबल तो सिर्फ़ सत्य के प्रति निष्ठा ही हो सकती है। तुम्हारे शोक में इतनी प्रबलता आ कहाँ से गयी, अर्जुन? ये तुम झूठा विश्वास कैसे पालकर बैठ गये? तुम शोक के अयोग्य लोगों के लिए शोक कर रहे हो। शोक के योग्य कोई भी नहीं है।'

यहाँ पर कह रहे हैं कि शोक के अयोग्य लोगों के लिए शोक कर रहे हो। इससे ये भाव पैदा हो सकता है कि कुछ लोग होते हैं जो शोक के योग्य होते हैं। उस भाव का खंडन कृष्ण ज़रा सा आगे चलकर ही कर देते हैं। कहते हैं, 'ज्ञानी लोग मृत और जीवित लोगों के लिए शोक नहीं करते।' कोई नहीं है जिनके लिए शोक किया जाए। शोक का अधिकारी कोई नहीं है।'

झूठ है नहीं, सत्य मरता नहीं, तुम शोक किसके लिए कर रहे हो? और शोक करने के लिए तो बड़ा समय और बड़ी ऊर्जा चाहिए। 'जो ऊर्जा सत्य के अनुगमन में लगानी चाहिए थी वो तुमने शोक में लगा दी। तुम्हारे पास इस क्षण में कोई कर्तव्य नहीं? तुम्हारे पास करने के लिए कोई काम नहीं? लड़ने के लिए कोई युद्ध नहीं? तुमने इतनी फ़ुर्सत, इतनी गुंजाइश निकाल कहाँ से ली? इतना अवकाश तुमने चुरा कहाँ से लिया कि तुम बैठकर के रथ में, पीछे, माथे पर हाथ रखकर शोक कर रहे हो? जीवन तो कर्तव्य पूर्ति की एक सतत् धारा है l उसमें हँसने-रोने के लिए तुमको कहाँ से अन्तराल मिल गया बताओ? शोक की यदि कोई बात हो सकती है तो वो यही है कि शोक मनाना नहीं था तुमने मना लिया, और शोक मना करके तुमने अपना अवसर गवाँ दिया।

जीवन आपसे अवसर सिर्फ़ ऐसे ही नहीं छीनता कि आप राग-रंग में डूबे रह गये। आमोद-प्रमोद में बह गये बिलकुल। जीवन जो एक स्वर्णिम अवसर है, वो आपसे ऐसे भी छिनता है कि आप भय-ग्रस्त या शोक-ग्रस्त रह गये। कोई बड़े राग-रंग में डूबा हो और कोई बड़े दुःख दर्द में डूबा हो इन दोनों ही व्यक्तियों में एक बात साझी होगी — ये निष्ठापूर्वक अपनी कर्तव्य पूर्ति तो नहीं ही कर रहे होंगे। एक को मज़े से फ़ुर्सत नहीं और दूसरे को आँसुओं से फ़ुर्सत नहीं। एक की हँसी नहीं रुक रही, एक के आँसू नहीं थम रहे। सही कर्म दोनों में से, करे तो कौन करे? कैसे करे? दोनों को ही अपने भाव, अपना चित्त, अपना विश्वास, ज़्यादा प्यारा है।

ज्ञानी लोग शोक नहीं किया करते न उनके लिए जो चले गये, न उनके लिए जो हैं, न उनके लिए जो आएँगे। जो ज्ञानी है, वो भली-भाँति अपने विषय में ज्ञान रखता है। वो जानता है वो कौन है। वो भली-भाँति जानता है कि उसके पास ज़रा सा समय है और उस समय का उसे सदुपयोग करना है। उस समय को वो किसी भी अन्य भाव में, अन्य प्रयोजन में नहीं निकाल सकता। सारे उपक्रम उसके लिए व्यर्थ और त्याज्य हो जाते हैं। उसे बस एक काम करना है, उसे कृष्ण की ओर बढ़ना है। उसे कृष्ण के पीछे-पीछे, कृष्ण की ओर बढ़ना है।

'ऐसा नहीं है कि मैं कभी नहीं था और तुम भी नहीं थे या ये राजा लोग भी नहीं थे। और यह भी नहीं कि इसके अनन्तर हम सब लोग नहीं रहेंगे। अर्जुन, रूप-रंग वेश-भूषाएँ बदल रही हैं। वही एक बहुत पुराना खेल है जो चल रहा है। उस खेल के मध्य में तुम हो, अर्जुन; उस खेल के एक सिरे पर मैं हूँ, अर्जुन; और उसके दूसरे सिरे पर ये सारा संसार है, अर्जुन। लगातार चल रहा है खेल। हाँ समय है, घड़ी की टिक-टिक है। हमें ऐसा लगता है कुछ बदल गया। क्या बदल जाता है? चेहरे बदल जाते हैं। अस्त्र-शस्त्र बदल जाते हैं। जगहें बदल जाती हैं। पर बात वही रहती है। जैसे एक नाटक लिखा गया हो। बार-बार खेला जाता हो वही नाटक। किरदार बदल जा रहे हैं, रंगमंच की साज-सज्जा बदल जा रही है। संवाद बदल जा रहे हैं। पर विषय-वस्तु एक ही रह रही है। नाटक का केन्द्रीय भाव जैसे कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। थीम बदल ही नहीं रही है। इन तीन के अलावा जैसे मंच पर कभी और कोई होता ही नहीं — अर्जुन, कृष्ण और संसार।'

तो ऐसा कब था कि समय रहा हो और अर्जुन न रहा हो? ऐसा कब था कि 'समय' हो और कृष्ण न हों और ये संसार न हो? समय का अर्थ ही यह है कि ये तीन ही रहे हैं लगातार। और इन तीन के अतिरिक्त कोई नहीं और इन तीन से कम कोई नहीं। ये तीन जबतक रहेंगे, तबतक समय रहेगा। और जबतक समय रहेगा, ये तीन रहेंगे। समय का अर्थ ही यह है कि इन तीनों का होना। जैसे समय बह ही इसीलिए रहा है कि अर्जुन जाएँ, और कृष्ण से एक हो जाएँ। जैसे समय स्वयं प्रतीक्षा कर रहा है, अर्जुन के शरणागत हो जाने की। समय चलता ही इसलिए जा रहा है, क्योंकि उसे वहाँ पहुँचना है, जहाँ अर्जुन झुक गये हैं, कृष्ण के सामने। और जब वैसा होता है तो समय रुक जाता है। और फिर, कोई और धारा, किसी और अर्जुन, किसी और कृष्ण की तलाश में आगे बढ़ जाती है। खेल चलता रहता है। जिस क्षण अर्जुन ध्यानस्थ हो गये कृष्ण के समक्ष, अर्जुन के लिए समय रुक गया।

कृष्ण के विराट रूप का अर्थ समझिए। विराट रूप का अर्थ यही नहीं है कि कृष्ण ने कौरवों को खा लिया। कि पूरी सेना कृष्ण में समाती जा रही है कौरवों की, और राख होती जा रही है। विराट रूप का अर्थ है — कृष्ण ने काल को ही खा लिया। समय रुक गया है उस समय। वो क्षण जैसे अंतिम है। अंतिम इसलिए है क्योंकि उसके बाद अर्जुन की तलाश मिट गयी। जब तक खोज है, तबतक समय है। उसके बाद घड़ी अपनी ओर से चलती रहेगी। घड़ी तो एक यंत्र है। घड़ी के चलने से समय नहीं चलता रहता।

आप भी एक ऐसी स्थिति में आ सकते हैं, जहाँ घड़ी तो चलेगी लेकिन आपके लिए समय रुक गया होगा। अब आपकी तलाश मिट गयी। समय अब आपके लिए चल नहीं रहा आगे। आठ बजता है, दस बजते हैं, ग्यारह बजते हैं, फिर दो बजते हैं, चार बजते हैं। ये सब बज रहा है। लेकिन समय का आगे बढ़ते रहना अब आपके लिए अर्थहीन हो गया है। समय की सार्थकता ही तबतक है जबतक आपकी यात्रा बची हुई है। तो समय के विषय में कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से — 'समय का कोई पल ऐसा रहा नहीं है जब तुम न हो, मैं न हूँ, या ये राजा लोग न हों। हम ही तीनों का नाम समय है।'

दो क्यों नहीं हो सकते समय में? क्योंकि सिर्फ़ अर्जुन होंगे और कृष्ण होंगे तो समय तत्काल समाप्त हो जाएगा। अर्जुन के पास कोई विकल्प ही नहीं होगा। अर्जुन को जा करके श्रीकृष्ण से ही मिल जाना होगा। ये त्रिभुज चाहिए जहाँ अर्जुन के पास विकल्प हो सदा — कृष्ण की ओर भी जा सकते हैं, और संसार की ओर भी जा सकते हैं। इसी त्रिभुज का नाम समय है। इसी त्रिभुज का नाम है, मनुष्य का जीवन, जीवन माने समय।

एक कोने में तुम खड़े हो, एक तरफ़ वो हैं, एक तरफ़ वो, बोलो जाना कहाँ है? और कभी भी तुम सिर्फ़ एक तरफ़ को जा नहीं पाते। घूमते-फिरते रहते हो। थोड़ा सा इधर बढ़े, थोड़ा सा उधर बढ़े। बड़ा लम्बा-चौड़ा त्रिभुज है। पूरा संसार उसमें समाया हुआ है। बहुत भटक सकते हो। बड़ी सुविधा है भटकने की। उम्र भर भटक लो।

'अर्जुन कोई समय ऐसा नहीं रहा है जब ये नहीं थे, मैं नहीं था या तुम नहीं थे। तुम शोक किसके लिए कर रहे हो? तुम्हें लग रहा है बात नयी-नयी है। तुम्हें लग रहा है कि तुम वही तो हो जो मां कुंती के गर्भ से पैदा हुए हो। कहाँ तुम अर्जुन अज्ञान में फँसे हुए हो? तुम्हारा एक संस्करण पैदा हुआ है। तुम तो बहुत पुराने हो। तुम अपने जन्म से पहले के हो, बहुत पहले के। तुम तब से हो जब से समय है। और मैं अर्जुन, मैं तबसे हूँ जब समय भी नहीं था। (हँसते हैं) ये राजा लोग भी तभी से हैं जबसे समय है। यहाँ कुछ नया नहीं है। यहाँ बस रूप बदलते हैं नया कभी कुछ होता नहीं। कहानी बहुत पुरानी है। लेकिन लगती हमेशा अनूठी है। एकदम नयी-नयी ताज़ी-ताज़ी।'

'हर बच्चा यही सोचता है-अभी अभी आया हूँ। जन्मदिन मनाता है। और हर मौत पर हमको यही लगता है कि कुछ मिट गया। अंत आ गया। कभी कहाँ अंत होता है? जो अंत मना रहे हैं, वो अगर अभी खड़े हैं, किसी का अंत मनाने के लिए, तो अंत अभी आया कहाँ? चल ही तो रहा है खेल। बाप को बेटा आग दे रहा है। बाप मर गया होता तो बेटा कहाँ से आता आग देने के लिए? बाप मरा कहाँ है? बाप ही तो अभी ज़िंदा है खुद को आग देने के लिए, और जो आग दे रहा है, वो अपने भीतर उसको बिठाये हुए है, जो उसको आग देगा। कोई कहाँ मर रहा है? कोई कहाँ जन्म ले रहा है? रूप बदल रहे हैं। भेष बदल रहे हैं। किस्सा पुराना है।'

पता नहीं अर्जुन को बात समझ में आई है या नहीं? नहीं आई है। (व्यंग्य कसते हैं)I अभी तो सत्रह अध्याय बाक़ी हैं।

'जिस प्रकार देहधारी जीव के लिए इस शरीर में, बचपन अवस्था और बुढ़ापे की अवस्थाएँ हैं। उसी प्रकार अन्य शरीर ग्रहण भी उसके लिए एक अवस्था है। उसमे ज्ञानी व्यक्ति मोह को प्राप्त नहीं होते।'

'इतना तो दिखता है न, अर्जुन कि एक व्यक्ति निरंतर अपने रूप बदलता रहता है। तब क्यों नहीं रोते हो अर्जुन, बोलो? परिवर्तन अगर इतना ही बुरा है, तो बाल अर्जुन कहाँ गया? उसके लिए क्यों नहीं रोये? क्यों नहीं कहा कि उसकी मृत्यु हो गयी? तब तो तुम्हारी स्थूल आँखों को दिख जाता है कि मरा नहीं है। बस परिवर्तित हो गया। तो क्या शोक मनाएँ? मुझे दिखाओ बाल अर्जुन कहाँ है? कहाँ है? बोलो कहाँ है? खोजकर लाओ कहाँ है? एक दिन उसका जन्म हुआ था आज वो कहाँ है खोजकर लाओ उसको। बाल अर्जुन कहाँ है? और अगर नहीं मिल रहा तो शोक क्यों नहीं कर रहे? अरे मर गया, मिल ही नहीं रहा। शोक क्यों नहीं किया? तब तो बड़ी चतुराई से कह दोगे — 'नहीं, मरा नहीं है, बस, परिवर्तित हो गया है।' तब तो कह दोगे — 'परिवर्तित हो गया है।'

'और वहाँ बात स्थूल थी, दिख गयी। यहाँ बात सूक्ष्म है, दिख नहीं रही। यहाँ भी कोई मरता नहीं, बस परिवर्तित होते रहते हैं। परिवर्तित न हो रहे होते, तो सब एक जैसे क्यों होते? अच्छा, बाल अर्जुन ही युवा अर्जुन बना है, ये तुम कैसे निश्चित कर पाते हो? ऐसे कि बाल अर्जुन के बहुत सारे गुणधर्म तुमको युवा अर्जुन में भी दिखायी देते हैं। हैं न! तो कह देते हो कि ये तो वही है। शोक क्या करना ये तो वही है। है न, बोलो? तो क्या, इसमें तो कोई दिक्कत नहीं है। और तुमको दिख नहीं रहा है कि जितने मर रहे हैं, और जितने जीवित हैं, उन सबमें एक ही मूल गुण है? प्रकृति का मूल गुण, प्रकृति की मूल वृत्ति, वो एक ही तो हैं। तो कोई कहाँ मर रहा है?'

तुम छोटे हो, तुम्हारा कुछ नाम है। तुम्हारा नाम राघव है। ठीक? और तुम्हारा एक चेहरा है। ठीक है? और उस चेहरे में सदा कुछ भाव रहता है। और जो भाव हैं वो पाँच ही छः प्रकार के रहते हैं। कौन से पाँच छः प्रकार के? काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ इत्यादि। यही सब रहते हैं? फिर तुम बड़े होते हो। और तुम्हारा नाम तब भी राघव रहता है। और तुम्हारे चेहरे पर भी वही भाव-भंगिमा रहती है। इसीलिए कोई शोक नहीं करता। कहते हैं, 'वो जो बच्चा था, वही तो बड़ा हो गया है। वही है। बच्चा मरा नहीं है। परिवर्तित हो गया है।' तो कोई शोक नहीं करता। अब तुम नहीं रहोगे। कोई और आ जाएगा। दोनों का असली नाम तो अभी भी एक ही है न! तुम्हारा नाम भी था 'अहम्', उसका नाम भी है 'अहम्'। नाम कहाँ बदला? जैसे छोटे राघव का नाम राघव था, वैसे ही बड़े राघव का भी क्या नाम था? राघव। वैसे ही तुम्हारा असली नाम क्या है? अहं। तुम मर जाओगे कोई और होगा। उसका असली नाम क्या होगा? तो कोई कहाँ मरा? अहम् तो अभी भी ज़िन्दा है।

तुम्हारे चेहरे पर जो भाव दिखायी देते थे, तुम मर जाओगे, दूसरे व्यक्ति के चेहरे पर भी तो वही भाव हैं। क्या भाव थे तुम्हारे चेहरे पर? भय, लोभ, मद, मात्सर्य- यही सब।वो जो दूसरा व्यक्ति है, उसके चेहरे पर भी क्या है? वही सबकुछ है न? तो तुममें और दूसरे में अन्तर कहाँ है मुझे ये बता दो? बस दिख नहीं रही है, और दिख इसलिए नहीं रही है, क्योंकि तुम्हारी आँखें अपने जीवनकाल को पैमाना बनाकर कुछ भी नापती हैं। बात समझ रहे हो?

तुम चूँकि अस्सी साल जीते हो लगभग। तो तुम अस्सी साल के पैमाने पर बदलाव का आकलन करते हो। तो इसलिए एक ही व्यक्ति में जब बदलाव होता है; वो पिछले दिन मर गया, अगले दिन जीवित हो गया, तो तुम्हें पकड़ में नहीं आता।क्योंकि 'अस्सी' साल की अपेक्षा, 'एक' पल बहुत छोटा है। एक पल में जो बदलाव हो रहा है वो तुम्हारी इंद्रियों की पकड़ में आता नहीं है। मामला टेक्निकल है। (हँसते हैं) नहीं समझे?

हर उपकरण का अपना एक कैलिब्रेशन होता है न? तुम थर्मोमीटर लेते हो। तुम्हारा तापमान आया 98.4 फ़ारेन्हेइट। ठीक? थोड़ा बढ़ गया। थोड़ा बढ़ गया। तुमने नापा। कितना आएगा? नहीं अभी भी 98.4 आएगा। बताओ क्यों? बताओ क्यों? क्योंकि उस उपकरण की उतनी सेंसिटिविटी नहीं है कि 98.4002 को पकड़ पाएगा। तो तुमको क्या लगता है कि तापमान अभी उतना ही है। जबकि बदल गया है। इसी तरह से तुम्हारी आँखों को दिखायी नहीं देता कि पिछले दो मिनट में ये मरके कुछ और बन गया। तो तुमको लगता है ये ज़िन्दा है। ये ज़िंदा नहीं है। ये इतनी देर में न जाने कितनी बार मर गया। न जाने कोई और कितनी बार पैदा हो चुका। तापमान बढ़ा है, बस तुम्हारा थर्मोमीटर उस बात को पकड़ नहीं पा रहा है। ये तुम्हारा जो उपकरण हैं न, ये उपकरण( आँखो की ओर इशारा करते हैं), इसकी एक सीमित संवेदनशीलता है, लिमिटेड सेंसिटिविटी। तो ये पकड़ ही नहीं पाता कि मृत्यु हो गयी। हाँ जब कोई स्थूल घटना घटती है, जैसे कि एक छः फुट की देह गिर गयी। तो तुम कहते हो अरे मर गया, अरे मर गया, अरे मर गया। क्योंकि वो बड़ी स्थूल घटना है। वो ऐसी है कि तापमान 106 हो गया। अब तुम्हारा थर्मोमीटर पकड़ लेता है। कहता है हाँ, अब तो बुखार है। पकड़ लिया। समझ में आ रही है बात?

परिवर्तन तो लगातार हो ही रहा है। और एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति में लगभग उतना ही अन्तर है, जितना कि बाल अर्जुन और युवा अर्जुन में। अच्छा इतना बता दो; चार वर्ष के अर्जुन में तीन तुमको इकाईयाँ दे रहा हूँ, ठीक है? चार वर्ष के अर्जुन,चालीस वर्ष के अर्जुन और चालीस वर्ष के कर्ण। इनमें से कौन हैं, जो दो बिलकुल एक जैसे हैं? हैं न? तो चार और चालीस के अर्जुन में बहुत अन्तर है। लेकिन वहाँ तुम मानते ही नहीं कि चार वाला मर गया। लेकिन चालीस वर्ष के अर्जुन और चालीस वर्ष के कर्ण में जब युद्ध होगा और दोनों में से एक मर जाएगा तब तुम कहोगे, 'देखो-देखो एक की मौत हो गयी।'

जिसको हम निरंतरता कहते हैं, कंटिन्यूइटी , वो बहुत बड़ा भ्रम है। वो स्मृति का खेल है। वो स्मृति की सीमाओं का खेल है। कुछ भी निरंतर यहाँ है नहीं। सब लगातार एक प्रवाह में है। सब बदल रहा है। बस सोच तुमको ऐसा भ्रम दे देती है कि चीज़ें वैसी ही हैं, जैसी कल थी। चूंकि आपके नापने का पैमाना बहुत सूक्ष्म नहीं है। इसीलिए जो लगातार आंशिक बदलाव हो रहे हैं, उनको आप या तो पकड़ नहीं पाते या पकड़ भी लेते हो तो उनको नज़रंदाज़ कर देते हो। आप कहते हो, ये बदलाव तो कोई बदलाव है ही नहीं। आप भूल ही जाते हो कि वही जो न्यूनतम बदलाव होते हैं; शून्य बराबर, वही जब अनन्त बार जुड़ जाते हैं, तो वो फिर एक निश्चित परिणाम दे देते हैं।

जीवन इंटीग्रल कैल्कुलस की तरह है। इंटग्रेशन में क्या होता है? अनन्त बार जोड़ा जाता है और जिन इकाइयों को जोड़ा जाता है वो सब कितनी बड़ी होती है? टेंडिंग टू ज़ीरो। चूँकि वो टेंडिंग टू ज़ीरो होती हैं, तो इसीलिए वो कितनी ज़्यादा होती हैं? वो इनफाइनाईट होती हैं और ये बड़ी मज़ेदार बात है किअनन्त बार अगर तुम शून्य को जोड़ देते हो, तो उससे एक निश्चित परिणाम सामने आ जाता है। हाँ, उनमें से अगर किसी एक टुकड़े को देखोगे तो कहोगे ये तो शून्य है, दूसरे को देखोगे तो भी कहोगे ये तो शून्य है, तीसरे को देखोगे तो भी कहोगे ये तो शून्य है। नहीं शून्य नहीं हैं। ये शून्य से ज़रा-सा हटकर है। वो टेंडिंग टू ज़ीरो है। इक्वल टू ज़ीरो नहीं है। इसी तरीक़े से परिवर्तन होता है जीवन में- टेंडिंग टू ज़ीरो। लेकिन वो जब अनन्त बार जुड़ता है, तो उसका एक निश्चित परिणाम आ जाता है।

आप जितना अपनेआप को चार साल वाला समझते हैं, उतने आप हैं नहीं। बस दो बातें आप ध्यान में रख लें। आप यदि आज चालीस वर्ष के हैं, तो आप जितना अपनेआप को मान रहे हैं कि आप वही जीव हैं, जो एक दिन चार वर्ष का था, तो आप वो जीव हैं नहीं।

थोड़ा वैज्ञानिक दृष्टि से, थोड़े ध्यान से देखिएगा। आप यदि आज चालीस के हैं, तो वो जो चार साल का था व्यक्ति, जो आप ही का नाम रखता है, आप वो व्यक्ति नहीं हैं। हाँ, आपको बस ऐसा लग रहा है, ग़ौर से देखिए। आपमें, उसमें, आज कितना साझा है? कुछ नहीं ठीक? ये पहली बात ध्यान में रखिए। दूसरी बात, चालीस ही वर्ष का कोई दूसरा व्यक्ति हो, आप उससे अपनेआप को जितना भिन्न समझते हो, उतने भिन्न आप हैं नहीं। आप आज चालीस के हैं। अपने चार वर्षीय सेल्फ से आप जितनी समानता या एकता सोचते हैं, उतनी है नहीं। और दूसरी बात, आप यदि आज चालीस के हैं, जो कोई दूसरा व्यक्ति है जो चालीस का है या पचास का है, उससे आप अपनेआप को जितना भिन्न समझते हैं, उतने भिन्न आप हैं नहीं। अब इन दोनों बातों को एक साथ रखकर देख लीजिए, अर्थ क्या हुआ? आप अपने अतीत जैसे बहुत कम हैं और दूसरे जो आपको आपसे बहुत भिन्न लगते हैं, वो बहुत ज़्यादा आपके जैसे हैं। आप अपने अतीत जैसे बहुत कम हैं और आप दूसरों जैसे बहुत ज़्यादा हैं। तो बताइए आप यदि आज नहीं भी रहेंगे, तो कोई अन्तर पड़ेगा? सौ दूसरे हैं जो बिलकुल आपके ही जैसे हैं। हाँ, बस व्यक्तित्व की परतों को उतारकर थोड़ी गहराई से देखने की ज़रूरत है।

आप भी मिटने से डरते हैं। दूसरा भी मिटने से डरता है। आप भी मोह में हैं, दूसरा भी मोह में है। आपकी आँखें भी कुछ तलाश रही हैं, दूसरे की भी। आप भी बदहवास हैं — कहीं प्रेम मिल जाए। दूसरा भी इस तलाश में है — कहीं प्रेम मिल जाए। मुझे बताइए कि आप किस आधार पर अपने आपको दूसरे से बहुत भिन्न मानते हैं? यही कृष्ण समझा रहे हैं अर्जुन को। जिस प्रकार देहधारी जीव के लिए इस बचपन अवस्था और बुढ़ापे की अवस्थाएँ हैं, जैसे वहाँ परिवर्तन होता रहता है न, इसी प्रकार अन्य शरीर ग्रहण भी उसके लिए एक अवस्था है। उसी प्रकार 'अहम् वृत्ति' सब शरीरों को ग्रहण किए हुए है।

जैसे वहाँ ये मान लेते हो जो मूल है वो मिटा नहीं, बस अवस्था परिवर्तन हुआ, इसी तरीक़े से जब दूसरे व्यक्तियों को भी देखो, तो वहाँ यही मानो कि वो दूसरे व्यक्ति नहीं हैं। बस दूसरी अवस्थाएँ हैं। वृत्ति एक ही है। वो कभी मेरी अवस्था लेकर प्रकट हुई है, कभी उसकी अवस्था में प्रकट हुई है। वृत्ति एक ही है। एक ही वृत्ति है, जो कभी इस नाम की अवस्था में प्रकट है, कभी उस नाम की अवस्था में प्रकट है। कभी इस लिंग में प्रकट है, कभी उस प्रजाति में प्रकट है। कभी बूढ़े में, कभी बच्चे में। एक ही है। एक ही वृत्ति है, जो सबमें प्रकट हो रही है। समझ में आ रही है बात?

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=mBIviDJZkEY&t=7s

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