गीता मृत्यु के समय ही काम आती है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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गीता मृत्यु के समय ही काम आती है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा एक प्रश्न है श्रीमद्भगवद्गीता से संबंधित। श्रीकृष्ण अर्जुन को बोल रहे हैं कि धर्म की स्थापना करो और बल दे रहे हैं कि कर्म करो। पीछे मत हटो, कर्म करो और धर्म की स्थापना करो।

लेकिन टीवी पर जो भागवत कथा सुनाते हैं, उनकी शुरुआत होती है एक कहानी से; वो राजा परीक्षित और एक तक्षक साँप की कहानी से शुरु करते हैं कि परीक्षित को बता दिया जाता है कि वो मरने वाला है किसी साँप के काटने से जिसका नाम तक्षक है। तो परीक्षित इधर-उधर भाग रहा है कि मैं मरने वाला हूँ, मुझे बचाने के लिए कोई चाहिए; कोई दवा दे दो, साँप के ज़हर का तोड़ दे दो। लेकिन उसको मिलता नहीं है।

तो अंत में ऋषि के पास जाता है तो ऋषि ने फिर एक तरह से मुझे ऐसा लगता है कि तरस खाकर उसको दे दिया कि चलो तुमको गीता सुना देते हैं, तुम्हारा डर कम हो जाएगा। जो तुम्हें मरने से डर लग रहा है, वो डर तुम्हारा कम हो जाएगा।

टीवी पर समझा रहे हैं कि गीता की ज़रूरत सिर्फ़ उसी समय आएगी जब मरना होगा। जब मरना होगा तब कर लेंगे, बाक़ी मज़े करते रहो; जो काम कर रहे हो, करते रहो। यानी कि बल के लिए प्रेरणा नहीं दे रहे हैं वो लोग। कर्म के ऊपर उनका कोई ज़ोर नहीं है कि कर्म करो। बस बोल रहे हैं कि ठीक है, जब मरने का समय आएगा तब गीता सुन लेना।

तो मेरा ये प्रश्न है कि मेरी समझ ग़लत है या फिर टीवी पर कुछ और समझा रहे हैं जो मैं समझ नहीं पा रहा?

आचार्य प्रशांत: टीवी के किस कार्यक्रम की आप बात कर रहे हैं, मैंने देखा नहीं है।

प्र: ये जितने भी भागवत सुनाते हैं — संस्कार टीवी वगैरह पर जो सुनाते हैं — उनकी शुरुआत परीक्षित और तक्षक से ही होती है।

आचार्य: देखिए वो जो सुना रहे हैं वो ग़लत नहीं है पर अधूरा है। अधूरा ऐसे है कि अगर वो वही बताते हैं जो आपने कहा तो वो शायद ये संदेश दे रहे हैं कि जब तुम्हें मरने का डर लगेगा या मौत सामने खड़ी होगी तो उस वक़्त गीता तुम्हारे काम आएगी।

यही संदेश देते हैं?

प्र: हाँ।

आचार्य: हाँ, तो ये संदेश ग़लत नहीं है, ये संदेश सही है; बस इसमें जो बात बताई नहीं गई है वो ये है कि आप प्रतिपल मर रहे होते हैं।

ये बात बिलकुल ठीक है कि मौत की घड़ी में गीता काम आती है। लेकिन शायद उन्होंने आपको इस तरह से बताया है कि मौत की घड़ी अस्सी साल की उम्र में आती है। कि जब आप अस्सी-नब्बे के हो जाओगे तब मरोगे, तब गीता काम आएगी।

जो चीज़ वो बताना भूल गए या जो चीज़ उनको शायद ख़ुद भी पता नहीं है तो बताएँ कैसे, वो ये है कि मृत्यु प्रतिपल है इसीलिए गीता भी प्रतिपल काम आती है। अस्सी की उम्र में नहीं काम आएगी गीता, अभी काम आएगी गीता, क्योंकि मर आप आज रहे हैं, अभी रहे हैं।

अर्जुन मरने वाले थे क्या जब गीता उनके काम आई थी? शारीरिक रूप से नहीं, शारीरिक रूप से तो अर्जुन बहुत बाद में मरे हैं। तो फिर गीता उनके काम कैसे आई? क्योंकि मर रहे थे अर्जुन — शारीरिक रूप से नहीं, मानसिक रूप से। हम भी मर रहे हैं लगातार — शारीरिक रूप से नहीं, मानसिक रूप से। तो जैसे गीता अर्जुन के काम आई, वैसे ही हमारे भी काम आएगी।

ये मरने वगैरह का इंतज़ार मत करने लगिएगा। गंगाजल नहीं है गीता कि जब मर रहे हैं तो मुँह में डाल लिया तो मोक्ष वगैरह मिल जाएगा या स्वर्ग मिल जाएगा। जीवन भर अगर गीता काम नहीं आई तो अब मरते समय काम नहीं आएगी।

बहुत बेहूदी बात है ये कि अभी तो बच्चे हो या जवान हो या अभी तो गृहस्थ हो, अभी गीता का क्या करोगे? जब आँखों से दिखाई देना बंद हो जाए, नाक सूँघ न पाए, मुँह में दाँत न रहे, पेट में आँत न रहे, सबकुछ समझ में आना बंद हो जाए, एकदम लाश हो जाओ, तब गीता पढ़ना शुरू करना। जब अ-ब-स बिलकुल पता न चलता हो, जब कोई पूछे, ‘तुम कौन हो?’ तो बोलो, ‘आह! मैं हूँ क्या!' तब गीता पढ़ना शुरू करना। ये मूर्खता की बात है।

जैसे ही ज़िंदगी में थोड़ा भी समझने-बूझने लायक हो, सबसे पहले गीता पढ़ो, अगर हर पल की मौत से बचना चाहते हो तो। क्योंकि ये बात तो बिलकुल ठीक है कि गीता मौत से बचाती है। अज्ञान प्रतिपल मृत्यु देता है। यही तो जीव का कष्ट है, क्लेश है — वो प्रतिपल मरता है। और उसी प्रतिपल की मृत्यु से बचने का रामबाण इलाज, औषधि है श्रीमद्भगवद्गीता।

अगर छ: बरस की उम्र में पढ़ सकते हो तो छ: बरस की उम्र में पढ़ो। जितनी जल्दी शुरू कर लो उतना अच्छा और ये मत कह देना कि पढ़ डाली। वेदान्त विषयक जितने ग्रंथ हैं वो सब बड़े अनूठे तरीक़े से काम करते हैं।

समझिएगा!

आप चेतना के जिस भी स्तर पर होते हैं वो ग्रंथ उससे थोड़े ऊपर के स्तर पर होगा। अब समझाने के लिए जैसे बच्चों को समझाते हैं, मैं उस तरह से बोलूँगा। मान लीजिए आपकी चेतना का स्तर एक फुट है — कहने मत लग जाना कि ये कैसे आचार्य हैं एक फुट की चेतना बता रहे थे। (श्रोतागण हँसते हैं)

हाँ, तुमको अगर ये बात समझ में नहीं आएगी तो तुम्हारी चेतना आधी फुट की है। (श्रोतागण हँसते हैं)

तो तुम्हारी चेतना मान लो एक फुट की है तो तुम्हारे लिए गीता डेढ़ फुट की होगी; तुमसे बस थोड़ी-सी ऊपर की, ताकि गीता हाथ बढ़ा करके तुम्हें थाम सके और तुम्हें खींच सके डेढ़ फुट तक। और जैसे ही तुम्हारा कद डेढ़ फुट का हो जाएगा, गीता ढ़ाई फुट की हो जाएगी, अपनेआप। तुम पाओगे गीता के अर्थ बदल गए हैं तुम्हारे लिए। तुम्हारी समझ बढ़ी, गीता में गहराई बढ़ जाएगी; गीता नहीं बदल गई, तुम्हारी समझ बढ़ गई है।

तुम डेढ़ फुट के हुए, गीता ढ़ाई फुट की हो जाएगी। गीता फिर से हाथ बढ़ाएगी, हाथ तुम्हें थामना है। ये तुम्हारा निर्णय है, ग़लत चुनाव मत करना, हाथ थाम लेना। गीता तुम्हें फिर से ढ़ाई फुट की ऊँचाई तक खींच देगी। तुम ढ़ाई फुट के होओगे, तुम पाओगे गीता साढ़े तीन फुट की हो गई। वो फिर से!

तो उसको बार-बार पढ़ना होता है। तुम उसे जितनी बार पढ़ोगे, अलग पाओगे। वो कोई आम पुस्तक या नोवेल (उपन्यास) वगैरह नहीं है। लोग कहते हैं न, ‘जी साहब, हमने भी जवानी में गीता पढ़ी थी, ये सब क्या, हम भी पढ़ चुके हैं।' इसका मतलब है आपने एक बार भी नहीं पढ़ी। जो लोग कहते हैं, ‘हम भी पढ़ चुके हैं। नहीं-नहीं, ये सब हम भी जानते हैं अद्वैत वगैरह, हमें भी पता है।'

मुँह देखो! पता है।

रोज़ पढ़नी होती है। और रोज़ नए और ऊँचे उससे अर्थ निकलते हैं।

आ रही है बात समझ में?

ये बहुत निचले तल का अर्थ है कि मरने की घड़ी में गीता काम आ गई। ये बिलकुल ऐसे समझ लो कि एक नैनोमीटर वाला अर्थ है। मैंने कहा, ‘ग़लत नहीं है ये अर्थ भी लेकिन बहुत क्षुद्र अर्थ है ये।' धीरे-धीरे अर्थ उठते जाते हैं, उठते जाते हैं। एक बात पक्की है — आपकी ऊँचाई कितनी भी हो जाए, आप पाएँगे गीता आपसे एक फुट ऊपर की है, हमेशा काम आनी है।

कोई दिन ऐसा नहीं होगा कि आप कह सकें कि गीता के समतुल्य हो गया या मैं गीता से ऊँचा ही हो गया, ये कभी नहीं होने वाला। नहीं हो सकता माने नहीं हो सकता। वजह है इसकी — वहाँ पर वस्तुनिष्ठ ज्ञान नहीं है।

मान लो न्यूटन ने जो कुछ लिखा है उसको नील्स बोर ने पढ़ा या श्रोडिंगर ने पढ़ा या आइंस्टीन ने पढ़ा, वो उससे आगे निकल सकते हैं और तीनों ही उससे आगे निकल भी गए। क्योंकि वो जो ज्ञान था वो ऑब्जेक्टिव (वस्तुनिष्ठ) था। ऑब्जेक्टिव नॉलेज (वस्तुनिष्ठ ज्ञान) को सौ प्रतिशत समझा जा सकता है और उससे आगे भी निकला जा सकता है। न्यूटन की बात से आगे की बात कर दी आगे के वैज्ञानिकों ने।

बात समझ रहे हो?

गीता का ज्ञान ऑब्जेक्टिव नहीं है; क्या है? सब्जेक्टिव (व्यक्तिपरक) है। उसका संबंध अहंकार से है, संसार से नहीं। उसका संबंध समझे जाने वाली चीज़ से नहीं है, समझने वाले से है। और जो समझने वाला है वो अगर अभी बचा हुआ है तो अभी उसका विकास होना बाक़ी है, अभी उसकी यात्रा बाक़ी है। यात्रा बाक़ी है माने गीता अभी जो उसको समझा रही है, वो अभी चुका नहीं है, उसको अभी पूरी तरह समझना बाक़ी है।

तो जब तक आप हैं गीता को पढ़ने के लिए, तब तक गीता आप से एक फुट ऊपर की ही रहेगी। ऐसे आदमी से बचिएगा जो कहे, ‘अरे! ये सब तो हम जवानी में पढ़कर छोड़ चुके हैं। तुम ये सब नया-नया अभी पढ़ रहे हो इसलिए तुम्हें बड़ा रोमांच लगता है। तुम्हारे ताऊजी तो ये सब कब का छोड़ चुके; आगे निकल आए, आगे निकल आए। उपनिषदों से आगे आ गए हम।'

मिले हैं न ऐसे लोग? ‘हाँ, ये सब तो हम भी जानते हैं।’ ये आदमी बहुत ख़तरनाक है। ये आदमी उस आदमी से भी ज़्यादा ख़तरनाक है जिसने कभी गीता छुई ही नहीं। जिसने छुई ही नहीं, वहाँ तो शायद ये संभव है कि वो आदमी संयोग का मारा हो, उसे गीता का पता ही न हो, तो कैसे छूता?

लेकिन जिस आदमी ने छू कर छोड़ दी, ये आदमी राक्षस वृत्ति का है। इसको तो पता चला था कि वो क्या चीज़ है, ये फिर भी छोड़ आया। और कहता है, ‘मैं तो अब पढ़ के छोड़ चुका हूँ, आगे निकल आया।' नहीं।

बहुत कम ऐसे ग्रंथ होते हैं जो अपनेआप को परत-दर-परत उद्घाटित करते हैं, गीता उनमें से है। नए व्यक्ति के लिए गीता का एक अर्थ होगा, थोड़ा विकसित साधक के लिए गीता का दूसरा अर्थ होगा। आप और ज़्यादा आगे बढ़ेंगे, आप उसमें और अनूठे अर्थ पाएँगे।

समझ रहे हैं बात को?

कभी धारणा मत बना लेना कि एक बार देखी थी, कुछ ख़ास तो लगी नहीं। आपको अगर वो ख़ास नहीं लगी तो उसकी वजह ये है कि आप ख़ास नहीं थे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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