गीता का भद्दा इस्तेमाल || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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गीता का भद्दा इस्तेमाल || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: तुम्हारे काम का जो उद्देश्य है और गीताकार का जो उद्देश्य है वो उद्देश्य ही मात्र भिन्न नहीं बल्कि दो अलग-अलग आयामों में है। गीता कही गई है अर्जुन को भ्रम, मोह, लोभ, देहभाव, ममत्व से मुक्त करने के लिए। ये गीताकार का, कृष्ण का उद्देश्य है कि "अर्जुन तू व्यर्थ ही अपने-आपको कर्ता समझ रहा है। अर्जुन तेरी व्यर्थ ही कर्म से आसक्ति है। अर्जुन तू व्यर्थ ही संसार से, संसारियों से और अपने प्रियजनों से रिश्ता जोड़े बैठा है। अर्जुन तू समझ ही नहीं रहा कि तू कौन है और सब मनुष्य जाति कौन है। अर्जुन तू जान ही नहीं रहा है परमतत्व को, सत्य को।" ये सब समझाना उद्देश्य है गीता का। इस उद्देश्य से कही गई थी गीता कि अर्जुन मुक्त हो जाए उन सब चीज़ों से जो व्यर्थ की हैं।

और जो लोग मेनेजमेंट में लगे हुए हैं उनका क्या उद्देश्य है? वो इसलिए मेनेजमेंट में लगे हुए हैं ताकि वो देहभाव से मुक्त हो सकें? उनकी जो संस्थाएँ हैं, कंपनियाँ हैं वो इसलिए काम कर रही हैं कि लोगों के मन से अहम् का अंधकार हटे, कि लोगों में कर्ताभाव दूर हो? मह्, मद, ममत्व, मोह इन सबसे उन संस्थाओं के ग्राहकों को निवृत्ति मिले — ऐसा मकसद होता है इन संस्थाओं का और इन कम्पनियों का? नहीं, ऐसा तो मक़सद नहीं होता।

अब कृष्ण का उद्देश्य है अर्जुन को सीख देने का कि अर्जुन को दुनिया के बंधनों से निजात मिले। और कृष्ण की गीता का दूरूपयोग किया जा रहा है एक ऐसी कंपनी में जो चाह रही है कि किसी तरीके से अपना माल ग्राहकों को ज़्यादा-से-ज़्यादा बेच सके या जो चाह रही है कि किसी तरीके से अपने सब कर्मचारियों को प्रोत्साहित रख सके कि "चलो जाओ और उत्पादन करो, और माल बेचो। दुनिया में आगे बढ़ो, एक नंबर कहलाओ। जो तुम्हारी प्रतिद्वंद्वी कंपनी है उससे आगे निकल जाओ। ज़्यादा पैसा कमाओगे तभी तो तुम्हारे परिवार की तरक्की होगी न। थोड़ा-सा और अगर तुम काम करोगे तो संस्था के भीतर तुमको प्रोन्नति दे देंगे। देखो इससे तुम्हारी कीर्ति में बढ़ोतरी होगी।"

तो ये दुनिया के ही जाल में लिपटे रहने और दूसरों को भी लपेट लेने, फाँस लेने का पूरा आयोजन है ज़्यादातर वाणिज्यिक, व्यावसायिक संस्थाएँ। उनमें गीता का उपयोग हो कैसे सकता है? वो संस्था काम कर रही है कि बंधन बने रहें। वो संस्था मर जाएगी अगर बंधन खुल गए, टूट गए। और गीता है ही इसीलिए कि बंधन खुलें, टूटें। वो संस्था गीता का समुचित-सदुपयोग कर कैसे लेगी? तो निश्चित रूप से वहाँ गीता जाएगी तो उसमें से कुछ दो-चार शब्द उठाए जाएँगे, कुछ इधर-उधर की बातें ले ली जाएँगी, श्लोकों का अर्थ का अनर्थ किया जाएगा, झूठे संदर्भ खड़े करके या तो कर्मचारियों को या ग्राहकों को कुछ घुट्टी पिलाई जाएगी। बात समझ में आ रही है?

ये जितनी मूर्खतापूर्ण बात है उससे कहीं ज़्यादा ये पतित और दुष्टतापूर्ण बात है। 'मैनेजमेंट प्रिंसिपल्स फ्रॉम द भगवद गीता ' इस तरह के लेख भी बहुत होंगे, किताबें भी छप गई होंगी, सेमिनार्स भी होते होंगे, वार्ताएँ, प्रवचन, कॉन्फ्रेंस , टॉक्स भी होते होंगे। जहाँ कहीं इस तरह की कोई चीज़ होते देखना समझ लेना कि कोई बिलकुल पिशाच है जिसने देववाणी को भी बाज़ार की खातिर बेच दिया।

कृष्ण जो बोल रहे हैं इसलिए बोल रहे हैं क्या कि तुम्हारा माल बाज़ार में ज़्यादा आसानी से बिके?

एक कंपनी क्या होती है?

जब आप मेनेजमेंट की बात करते है, अठानवे-निन्यानवे प्रतिशत जिसको आप मेनेजमेंट कहते हैं उसका उपयोग व्यावसायिक संस्थाओं में ही होता है। अब वैसे तो मेनेजमेंट का उपयोग सरकार में भी हो सकता है, अस्पतालों में भी हो सकता है, जो लाभ रहित नॉन-प्रॉफिट सेक्टर हैं वहाँ भी हो सकता है। पर अगर आप किसी प्रबंधन संस्थान में जाएँगे, किसी भी मेनेजमेंट इन्स्टीट्यूशन के प्लेसमेंट सेल में चले जाएँ और वहाँ पता करें तो आपको पता चलेगा कि निन्यानवे-प्रतिशत प्लेसमेंट तो मैनेजमेंट ग्रैजुएट का प्रॉफिट बिजिनेस के लिए ही होता है, ऐसी कम्पनियों में उनकी नियुक्ति होती है जो लाभ यानी मुनाफे के लिए ही चल रही हैं। तो मतलब व्यवहारिक रूप से देखें तो मेनेजमेंट और मुनाफा एक-दूसरे के पर्याय हैं, निन्यानवे-प्रतिशत ऐसा ही है। कोई एक-आध प्रतिशत मेनेजमेंट ग्रेजुएट होते होंगे जो मुनाफा कमाने की जगह किसी और क्षेत्र में निकलते होंगे।

तो साहब एक कंपनी है, कोई प्राइवेट लिमिटेड है; जो पहली चीज़ सिखाई जाती है या सिखाई जानी चाहिए वो है कि “एक कंपनी शेयरधारकों के फायदे के लिए ही अस्तित्व रखती है।” ये जो कंपनी नाम की ईकाई है, इन्टीटी है इसके अस्तित्व मान होने का औचित्य क्या है? ये है ही क्यों? तो उसका बड़ा सीधा सिद्धांत होता है मेनेजमेंट में कि कंपनी इसलिए है ताकि उसके जो शेयरधारक हैं उनके मुनाफे को अधिकाधिक किया जा सके, उनके मुनाफे को मैक्सिमाइज किया जा सके। बस इसलिए है।

तो जब आप कहते हैं कि आपको मेनेजमेंट करना है तब आप वास्तव में क्या कर रहे हो? जब आप एक कंपनी में जा रहे हो मेनेजर बनकर, मेनेजमेंट एक्सपर्ट या कंसल्टेंट (सलाहकार) बनकर तो आप वास्तव में वहाँ क्या करने जा रहे हो? क्योंकि कंपनी की तो हस्ती का ही एक ही मकसद है कि इसके जो शेयरधारक हों उनकी जेबें गर्म करनी हैं, भरनी हैं, तो कुल मेनेजमेंट का फिर मकसद क्या हुआ? कुछ लोग हैं दो-चार-पाँच उनका मुनाफा बढ़ता रहना चाहिए। आप पलट करके तर्क कर सकते हैं, आप कह सकते है कि, “साहब पब्लिक ऑर्गनाइजेशन भी तो होते हैं जिनके लाखों शेयरधारक होते हैं तो वहाँ पर अगर मेनेजमेंट अच्छा हो रहा है तो जन सामान्य को फायदा होता है। इतनी सारी जनता है उन सब ने जो शेयर खरीद रखे होते हैं, उन सबको मुनाफा होता है।” हाँ, वो सब होता है पर वो बहुत बाद की बात है। तुम्हारे पास होंगे किसी बड़ी कंपनी के सौ शेयर, लाला जी के पास हैं उसी कंपनी के चालिस-लाख शेयर तो तुम्हें जो मुनाफा हो रहा है और लाला जी को जो मुनाफा हो रहा है उसकी तुम क्या तुलना कर रहे हो?

अर्जुन को कृष्ण गीता इसलिए पढ़ा रहे थे ताकि अर्जुन की जेब गर्म हो जाए? अर्जुन से तो वो साफ कह रहे थे, “अर्जुन तू ही नहीं है तेरी जेब कहाँ से बचेगी? मैं ही मैं हूँ।”

अब यहाँ जो संस्था चल रही है जिसमें मेनेजमेंट की बात हो रही है वहाँ लाला जी ही लाला जी हैं। और लाला जी को कृष्ण से कोई लेना-देना नहीं, गीता उनके लिए प्राणघातक है। वास्तव में अगर उनके कर्मचारियों और ग्राहकों को गीता समझ में आ जाए तो लाला जी की ये जो कंपनी है, दुकान है वो चलनी बंद हो जाए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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