गीता-ज्ञान कॉर्पोरेट मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए है? || (2020)

Acharya Prashant

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गीता-ज्ञान कॉर्पोरेट मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए है? || (2020)

प्रश्नकर्ता: आज बहुत सारी ऐसी संस्थाएँ और मेनेजमेंट गुरु पनप आए हैं जो श्रीमद् भागवतगीता को मैनेजमेंट मानें प्रबंधन सीखने की पुस्तक बताते हैं। मैं एमबीए कर रहा हूँ दिल्ली से तो मैंने भी मेनेजमेंट सीखने के उद्देश्य से गीता दो बार पढ़ी पर कुछ फायदा लगा नहीं, कुछ समझाएँ कि हो क्या रहा है।

आचार्य प्रशांत: दो बहुत अलग-अलग उद्देश्य होते हैं व्यक्ति के। व्यक्ति वो जो निराशा पाता है, असफलता पाता है, जिसके सामने कष्ट हैं, ठोकरे हैं, जिसके सामने कोई-न-कोई समस्या खड़ी है, उसका नाम है व्यक्ति।

अब ये व्यक्ति या तो कह सकता है कि "मुझे जो पाना है वो पाना ही है। मैं जो मानता हूँ वो ठीक ही है। मेरी जैसी चाल है वो उचित ही है और मुझे तो बस थोड़ा सहारा चाहिए या निर्देश चाहिए कि मैं किसी तरह अपने द्वारा निर्धारित अपनी मंज़िल के अपने चुने हुए रास्ते में आ रही चुनौतियों से कैसे निपट सकूँ।" ये एक तरीके का मन है, जीवन है, दृष्टि है।

"मंज़िल भी मैंने चुनी, रास्ता भी मैंने चुना। अब जो मंज़िल चुनी है उसका पाना भी बहुत लाभ नहीं दे रहा, न पाना दुःख ज़रूर दे रहा है। जो रास्ता चुना है उस पर ठोकरें लगती हैं, खून बहता है। तो मेरे सामने समस्याएँ हैं, इन समस्याओं का कोई समाधान मिले।" ऐसा व्यक्ति भी जा सकता है गीता के पास, किसी भी ग्रंथ के पास, किसी भी तरह के ऐसे स्रोत के पास जो बोध जागृत करने के लिए रचित है। ये एक तरीका है जीने का।

और दूसरी दृष्टि होती है जीवन की जो कहती है कि "ये मंज़िल मैंने तय करी है। ये रास्ता मैंने तय करा है। क्या वाकई मैं इस लायक हूँ कि अपने-आप पर इतना भरोसा कर सकूँ? क्या वाकई मेरे निर्णय सब होश में हो रहे हैं? और अगर मंज़िलें और रास्ते चुनने का निर्णय ही सर्वप्रथम होश में नहीं हुआ है तो क्या फायदा रास्ते को सुविधाजनक बनाने का, छोटा रास्ता खोजने का, रास्ते को और रफ्तार से तय करने के उपाए करने का? अरे भाई मंज़िल भी ग़लत क्योंकि मैं ग़लत; मंज़िल का निर्धाता और रास्ता भी ग़लत क्योंकि मैं ग़लत, रास्ते का निर्धाता। ऐसे में और ज़्यादा कुशलता अर्जित करके क्या होगा?" ये दूसरी दृष्टि है जैसा हमने कहा। पहली दृष्टि आसान पड़ती है क्योंकि उसमें तकलीफें, कष्ट और असफलताएँ भले ही आती हों लेकिन एक सुकून रहता है, बड़ा केंद्रिय सुकून — मैं ठीक हूँ, मैं अपने अनुसार अपने हिसाब से जी रहा हूँ, अपना मालिक हूँ।

दूसरा रास्ता मंज़िल तक पहुँचा देता है लेकिन सर को झुकवा कर। आपको जो वास्तव में चाहिए आपको वो दे देता है लेकिन आपसे कुछ मनवा कर। पहले आपको मानना पड़ता है कि आप जो हो, आप जिन तरीकों से चल रहे हो वो‌ सब पूरा-का-पूरा ही झूठ है, ग़लत, भ्रम, मिथ्या मात्र है। अब मिलती हो बड़ी सहुलियत, हो जाता हो सही मंज़िल का निर्धारण और वो सही मंज़िल प्राप्त भी हो जाती हो तो भी इतना बड़ा दुःख कौन उठाए कि मान ले, कि, "भाई फैसला मैं कर रहा हूँ तो फैसला सही कैसे हो सकता है?"

ज़्यादातर लोग पहली कोटि के होते हैं; उन्हें करना वही है जो उन्हें करना है। हाँ, आप उनके सामने किसी तरह का ज्ञान ले जाएँ, कोई युक्ति बताएँ, कोई उपाय बताएँ तो वो सुन लेंगे लेकिन वो सुन सिर्फ इसलिए लेंगे ताकि वो अपने ही द्वारा निर्धारित लक्ष्य को और सुगमता और सहुलियत से पा सकें। वो आपकी बात इसलिए नहीं सुनेंगे क्योंकि उन्हें अपनी हस्ती में ही कोई मौलिक परिवर्तन लाना है। इतना तो वो मंज़ूर ही नहीं कर रहे। उनकी जो केंद्रिय सत्ता है, अस्मिता है, पहचान है उसमें ही कोई भूल है, उसे ही कोई सुधार की ज़रूरत है इतना मानने की तो उनकी तैयारी और विनम्रता ही नहीं है। हाँ, आप उनके सामने गीता ले जाइए वो ज़रूर गीता को सुनेंगे लेकिन उनके कान क्या खोज रहे होंगे? उनके कान तलाश रहे होंगे कोई ऐसी तरकीब, कोई ऐसी युक्ति जिससे कि गीता का भी दोहन किया जा सके, उपयोग किया जा सके अपने मंसूबों की प्राप्ति के लिए। अब आप समझ ही गए होंगे कि ये इस तरह का मूर्खतापूर्ण काम इतना क्यों होता है। हम बड़े चतुर लोग होते हैं अपनी नज़र में, हम कहते हैं, "हम गीता को भी अपने उद्देश्य के लिए प्रयुक्त कर लेंगे।"

क्या किया?

"साहब, हमने तो गीता का भी उपयोग कर लिया।"

किसलिए?

"उस काम के लिए जो हम करना चाहते थे।"

क्या काम करना चाहते हो? जैसा कि तुमने सवाल में लिखा कि, "हम मेनेजमेंट करना चाहते हैं।"

ये मेनेजमेंट क्या चीज़ है? किस चीज़ का मेनेजमेंट? क्या उद्देश्य है तुम्हारा?

तुम्हारे काम का जो उद्देश्य है और गीताकार का जो उद्देश्य है वो उद्देश्य ही मात्र भिन्न नहीं बल्कि दो अलग-अलग आयामों में है। गीता कही गई है अर्जुन को भ्रम, मोह, लोभ, देहभाव, ममत्व से मुक्त करने के लिए। ये गीताकार का, कृष्ण का उद्देश्य है कि "अर्जुन तू व्यर्थ ही अपने-आपको कर्ता समझ रहा है। अर्जुन तेरी व्यर्थ ही कर्म से आसक्ति है। अर्जुन तू व्यर्थ ही संसार से, संसारियों से और अपने प्रियजनों से रिश्ता जोड़े बैठा है। अर्जुन तू समझ ही नहीं रहा कि तू कौन है और सब मनुष्य जाति कौन है। अर्जुन तू जान ही नहीं रहा है परमतत्व को, सत्य को।" ये सब समझाना उद्देश्य है गीता का। इस उद्देश्य से कही गई थी गीता कि अर्जुन मुक्त हो जाए उन सब चीज़ों से जो व्यर्थ की हैं।

और जो लोग मेनेजमेंट में लगे हुए हैं उनका क्या उद्देश्य है? वो इसलिए मेनेजमेंट में लगे हुए हैं ताकि वो देहभाव से मुक्त हो सकें? उनकी जो संस्थाएँ हैं, कंपनियाँ हैं वो इसलिए काम कर रही हैं कि लोगों के मन से अहम् का अंधकार हटे, कि लोगों में कर्ताभाव दूर हो? मह्, मद, ममत्व, मोह इन सबसे उन संस्थाओं के ग्राहकों को निवृत्ति मिले — ऐसा मकसद होता है इन संस्थाओं का और इन कम्पनियों का? नहीं, ऐसा तो मक़सद नहीं होता।

अब कृष्ण का उद्देश्य है अर्जुन को सीख देने का कि अर्जुन को दुनिया के बंधनों से निजात मिले। और कृष्ण की गीता का दूरूपयोग किया जा रहा है एक ऐसी कंपनी में जो चाह रही है कि किसी तरीके से अपना माल ग्राहकों को ज़्यादा-से-ज़्यादा बेच सके या जो चाह रही है कि किसी तरीके से अपने सब कर्मचारियों को प्रोत्साहित रख सके कि "चलो जाओ और उत्पादन करो, और माल बेचो। दुनिया में आगे बढ़ो, एक नंबर कहलाओ। जो तुम्हारी प्रतिद्वंद्वी कंपनी है उससे आगे निकल जाओ। ज़्यादा पैसा कमाओगे तभी तो तुम्हारे परिवार की तरक्की होगी न। थोड़ा-सा और अगर तुम काम करोगे तो संस्था के भीतर तुमको प्रोन्नति दे देंगे। देखो इससे तुम्हारी कीर्ति में बढ़ोतरी होगी।"

तो ये दुनिया के ही जाल में लिपटे रहने और दूसरों को भी लपेट लेने, फाँस लेने का पूरा आयोजन है ज़्यादातर वाणिज्यिक, व्यावसायिक संस्थाएँ। उनमें गीता का उपयोग हो कैसे सकता है? वो संस्था काम कर रही है कि बंधन बने रहें। वो संस्था मर जाएगी अगर बंधन खुल गए, टूट गए। और गीता है ही इसीलिए कि बंधन खुलें, टूटें। वो संस्था गीता का समुचित-सदुपयोग कर कैसे लेगी? तो निश्चित रूप से वहाँ गीता जाएगी तो उसमें से कुछ दो-चार शब्द उठाए जाएँगे, कुछ इधर-उधर की बातें ले ली जाएँगी, श्लोकों का अर्थ का अनर्थ किया जाएगा, झूठे संदर्भ खड़े करके या तो कर्मचारियों को या ग्राहकों को कुछ घुट्टी पिलाई जाएगी। बात समझ में आ रही है?

ये जितनी मूर्खतापूर्ण बात है उससे कहीं ज़्यादा ये पतित और दुष्टतापूर्ण बात है। 'मैनेजमेंट प्रिंसिपल्स फ्रॉम द भगवद गीता ' इस तरह के लेख भी बहुत होंगे, किताबें भी छप गई होंगी, सेमिनार्स भी होते होंगे, वार्ताएँ, प्रवचन, कॉन्फ्रेंस , टॉक्स भी होते होंगे। जहाँ कहीं इस तरह की कोई चीज़ होते देखना समझ लेना कि कोई बिलकुल पिशाच है जिसने देववाणी को भी बाज़ार की खातिर बेच दिया।

कृष्ण जो बोल रहे हैं इसलिए बोल रहे हैं क्या कि तुम्हारा माल बाज़ार में ज़्यादा आसानी से बिके?

एक कंपनी क्या होती है?

जब आप मेनेजमेंट की बात करते है, अठानवे-निन्यानवे प्रतिशत जिसको आप मेनेजमेंट कहते हैं उसका उपयोग व्यावसायिक संस्थाओं में ही होता है। अब वैसे तो मेनेजमेंट का उपयोग सरकार में भी हो सकता है, अस्पतालों में भी हो सकता है, जो लाभ रहित नॉन-प्रॉफिट सेक्टर हैं वहाँ भी हो सकता है। पर अगर आप किसी प्रबंधन संस्थान में जाएँगे, किसी भी मेनेजमेंट इन्स्टीट्यूशन के प्लेसमेंट सेल में चले जाएँ और वहाँ पता करें तो आपको पता चलेगा कि निन्यानवे-प्रतिशत प्लेसमेंट तो मैनेजमेंट ग्रैजुएट का प्रॉफिट बिजिनेस के लिए ही होता है, ऐसी कम्पनियों में उनकी नियुक्ति होती है जो लाभ यानी मुनाफे के लिए ही चल रही हैं। तो मतलब व्यवहारिक रूप से देखें तो मेनेजमेंट और मुनाफा एक-दूसरे के पर्याय हैं, निन्यानवे-प्रतिशत ऐसा ही है। कोई एक-आध प्रतिशत मेनेजमेंट ग्रेजुएट होते होंगे जो मुनाफा कमाने की जगह किसी और क्षेत्र में निकलते होंगे।

तो साहब एक कंपनी है, कोई प्राइवेट लिमिटेड है; जो पहली चीज़ सिखाई जाती है या सिखाई जानी चाहिए वो है कि “एक कंपनी शेयरधारकों के फायदे के लिए ही अस्तित्व रखती है।” ये जो कंपनी नाम की ईकाई है, इन्टीटी है इसके अस्तित्व मान होने का औचित्य क्या है? ये है ही क्यों? तो उसका बड़ा सीधा सिद्धांत होता है मेनेजमेंट में कि कंपनी इसलिए है ताकि उसके जो शेयरधारक हैं उनके मुनाफे को अधिकाधिक किया जा सके, उनके मुनाफे को मैक्सिमाइज किया जा सके। बस इसलिए है।

तो जब आप कहते हैं कि आपको मेनेजमेंट करना है तब आप वास्तव में क्या कर रहे हो? जब आप एक कंपनी में जा रहे हो मेनेजर बनकर, मेनेजमेंट एक्सपर्ट या कंसल्टेंट (सलाहकार) बनकर तो आप वास्तव में वहाँ क्या करने जा रहे हो? क्योंकि कंपनी की तो हस्ती का ही एक ही मकसद है कि इसके जो शेयरधारक हों उनकी जेबें गर्म करनी हैं, भरनी हैं, तो कुल मेनेजमेंट का फिर मकसद क्या हुआ? कुछ लोग हैं दो-चार-पाँच उनका मुनाफा बढ़ता रहना चाहिए। आप पलट करके तर्क कर सकते हैं, आप कह सकते है कि, “साहब पब्लिक ऑर्गनाइजेशन भी तो होते हैं जिनके लाखों शेयरधारक होते हैं तो वहाँ पर अगर मेनेजमेंट अच्छा हो रहा है तो जन सामान्य को फायदा होता है। इतनी सारी जनता है उन सब ने जो शेयर खरीद रखे होते हैं, उन सबको मुनाफा होता है।” हाँ, वो सब होता है पर वो बहुत बाद की बात है। तुम्हारे पास होंगे किसी बड़ी कंपनी के सौ शेयर, लाला जी के पास हैं उसी कंपनी के चालिस-लाख शेयर तो तुम्हें जो मुनाफा हो रहा है और लाला जी को जो मुनाफा हो रहा है उसकी तुम क्या तुलना कर रहे हो?

अर्जुन को कृष्ण गीता इसलिए पढ़ा रहे थे ताकि अर्जुन की जेब गर्म हो जाए? अर्जुन से तो वो साफ कह रहे थे, “अर्जुन तू ही नहीं है तेरी जेब कहाँ से बचेगी? मैं ही मैं हूँ।”

अब यहाँ जो संस्था चल रही है जिसमें मेनेजमेंट की बात हो रही है वहाँ लाला जी ही लाला जी हैं। और लाला जी को कृष्ण से कोई लेना-देना नहीं, गीता उनके लिए प्राणघातक है। वास्तव में अगर उनके कर्मचारियों और ग्राहकों को गीता समझ में आ जाए तो लाला जी की ये जो कंपनी है, दुकान है वो चलनी बंद हो जाए। जनसमान्य को अगर गीता समझ में आ जाए तो अर्थव्यवस्था जैसी चल रही है वैसी चलेगी क्या?

अर्थव्यवस्था का मतलब समझते हो क्या होता है? लोग सोचते हैं कि ये जो पूरी भौतिक व्यवस्था है, मटेरियल स्ट्रक्चर है, हमारे होने का ये जो पूरी इकोनॉमिक्स है वो एक चीज़ है और अध्यात्म बिलकुल दूसरी चीज़ है। नहीं, वो कुछ बात समझते नहीं।

ध्यान से समझो। अर्थव्यवस्था कैसे चलती है? आप कहते हो ये चीज़ है (बगल में रखे एक रुमाल को उठाते हुए), इसका कुछ दाम है। चूँकि इसका कुछ दाम है, कुछ मूल्य है तो इसीलिए कोई खड़ा हो जाएगा और कहेगा, “ठीक है, मैं इसका उत्पादन करूँगा। क्योंकि इसका उत्पादन करूँगा तो कोई आएगा तो इसका मूल्य लगाएगा।” है न? फिर कोई आएगा जो इसको बेचने को तैयार हो जाएगा। फिर कोई आएगा जो इसका रिटेलर बनेगा। कोई रिसेलर बनेगा। एक पूरी सप्लाइ चैन खड़ी हो जाएगी। कोई ट्रांसपोर्टर भी बनेगा इसका। इसकी पैकेजिंग भी होगी। उन सब चीज़ों के लिए पूरा एक तंत्र खड़ा हो जाएगा। पर उस पूरे तंत्र के पीछे जो मूल बात है वो क्या है? वो मूल बात ये है कि मैं ग्राहक हूँ और मैं कह रहा हूँ कि "मैं इसकी (उत्पाद की) कीमत करता हूँ। ये मेरा एक व्यक्तिगत निर्णय है कि मुझे लग रहा है कि ये चीज़ कीमती है। कोई विज्ञान सिद्ध नहीं कर सकता, कोई सिद्धांत सिद्ध नहीं कर सकता कि इसमें कीमत है ही। ये तो जो मेरे मूल्य हैं, जो मेरा वैल्यु सिस्टम है वो निर्धारित कर रहा है कि मुझे इसे कीमत देनी है या नहीं देनी है। मैं इसको जितनी ज़्यादा कीमत दूँगा अर्थव्यवस्था में ये उतने महत्व की चीज़ हो जाएगी।”

बात समझ रहे हो?

जब आप कहते हो कि कोई अर्थव्यवस्था है इतने बिलियन या इतने ट्रिलियन डॉलर की तो वास्तव में आप क्या कह रहे हो? आप कह रहे हो कि उस अर्थव्यवस्था में कुछ चीज़ें हैं जिनका मूल्यांकन किया जाता है, वैल्यूएशन किया जाता है मान लो दस-ट्रिलियन डॉलर जितना लेकिन ये मूल्यांकन कौन कर रहा है? कौन है जो कह रहा है कि, "हाँ साहब इसकी कीमत है", कौन है? वो मैं ही तो हूँ न। माने मन, माने इंसान। इंसान कहता है कि किसी चीज़ की कीमत है। जब इंसान किसी भी चीज़ की कीमत लगाने लग जाता है तो वो चीज़ फिर अर्थव्यवस्था में क्रय-विक्रय के चक्र में आ जाती है, अब वो खरीदी जाएगी, बेची जाएगी क्योंकि उसकी लोगों ने कीमत लगाई है। अब मुझे बताओ—कीमत लगाने वाले लोग हैं और लोग जो कीमत लगा रहे हैं उसी कीमत से अर्थव्यवस्था चल रही है, उसी कीमत की बुनियाद पर पूरी अर्थव्यवस्था खड़ी है—अगर कीमत लगाने वाला व्यक्ति ही बदल जाए तो?

बात समझ रहे हो?

ऐसे समझ लो — एक जगह है जहाँ के लोगों को किसी तरीके से ऐसा संस्कारित कर दिया गया है कि उनके लिए ज़िंदगी में सबसे कीमती चीज़ अफ़ीम है, क्या है? अफीम है। बहुत कीमती है अफीम उनके लिए। एक ग्राम अफीम वहाँ पर दस-लाख रुपए की है। इतनी कीमती चीज़ है अफीम। तो उस जगह की जो पूरी अर्थव्यवस्था है वो किस पर आधारित रहेगी? अफीम पर रहेगी। उस जगह में सबसे प्रतिष्ठित और सबसे बड़े लोग कौन से रहेंगे? जो अफ़ीमबाज होंगे, जिनके पास अफ़ीम का करोबार होगा, जिनकी अफ़ीम की दुकानें होंगी। उस जगह पर कौन से नेता होंगे जो चुनाव जीतते होंगे? जो अफ़ीम के समर्थक होंगे, जो अफ़ीम का गुण गाते होंगे, जो अफ़ीम की पैदावार को नियंत्रण में रखते होंगे। तो ये जो पूरी जगह है, ये अफ़ीम पर चल रही है। और यहाँ पर चूँकि लोग अफ़ीम का सेवन करते हैं तो बहुत सारी अफ़ीम है जो अर्थव्यवस्था में चक्रण में है, सर्कुलेशन में है। ठीक है न? सब कुछ अफ़ीम पर ही चल रहा है।

अब इस जगह पर गीता पहुँच जाती है। इस जगह की जो पूरी अर्थव्यवस्था है वो मान लो दस-ट्रिलियन डॉलर की है और ये दस-ट्रिलियन डॉलर सब कहाँ से हैं? अफ़ीम से हैं। अब इस जगह पर गीता पहुँच गई और लोगों ने गीता पढ़ ली—अब बहुत कम संभावना है ऐसा होने कि पर मान लो—लोगों ने पढ़ भी ली और समझ भी ली। अफ़ीमबाजों को गीता समझ में आ गई, चमत्कार हो गया। यहाँ की अर्थव्यवस्था लुढ़क जाएगी, ढह जाएगी, बर्बाद हो जाएगी, बात समझ रहे हो न? क्योंकि यहाँ की पूरी अर्थव्यवस्था ही किसपर आधारित थी? तुम अफ़ीम की कीमत करते थे इस बात पर। ये बहुत बड़ा देश माना जाता था क्योंकि यहाँ पर अफीमों के बड़े-बड़े भंडार थे और एक-एक भंडारों की कीमत करोड़ों रुपए की थी।

वो अरबों की कीमत लगा कौन रहा था? लोग। अब गीता पहुँच गई इस जगह पर। वो अफ़ीम के बड़े-बड़े भंडार और गोदाम अभी भी खड़े हुए हैं लेकिन अब उनकी कीमत कितनी रह गई? शून्य, कुछ नहीं बचा, अर्थव्यवस्था ही खत्म हो गई। बड़े-बड़े अमीर रातों-रात भीखारी हो गए। क्यों? क्योंकि आदमी बदल गया।

बात समझ में आ रही है?

तो जिसको आप अर्थव्यवस्था बोलते हो न, वो भी अपने-आपमें कोई ऑब्जेक्टिव या वस्तुनिष्ठ चीज़ नहीं होती है। जब आप कहते हो कि कोई अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी है और कोई अर्थव्यवस्था बहुत छोटी है, आपको कैसे पता कि वो अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी है? और कैसे पता कि यहाँ जो अर्थव्यवस्था है वो बहुत छोटी है?

आप कहते हो, उदाहरण के लिए, कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी है, भारत की अर्थव्यवस्था उसके मुकाबले छोटी है, आपको कैसे पता?

आप बस ये कह रहे हो कि उनके पास जो चीज़ें हैं उनका दाम वो लोग ज़्यादा लगा रहे हैं और आप भी उन्हीं की नज़र से देख कर उनका दाम लगा रहे हो। और हो सकता है कि कुछ चीज़ें ऐसी हों जो उनके पास हो भी नहीं और उन्हें उनका दाम भी लगाना ना आता हो। उदाहरण के लिए किसी जगह पर अगर बोध नहीं है और शांति नहीं है तो इनकी अनुपस्थिति से होने वाले नुकसान का कुछ मूल्य लगेगा या नहीं लगेगा?

और जब तुम गिन लेते हो कि हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था बस इतने ही डॉलर की है तो मान लो कि यहाँ पर थोड़ी शांति ज़्यादा है थोड़ा बोध ज़्यादा है, बस मान लो, है ज़्यादा या नहीं ज़्यादा वो तो अलग एक बहस का मुद्दा है। पर अगर यहाँ पर शांति ज़्यादा है, बोध ज़्यादा है तो उसका कुछ मूल्य लगना चाहिए या नहीं लगना चाहिए? और कितना मूल्य है उसका? लेकिन अगर आपका जो पूरा मूल्यांकन का तंत्र है, जो आपकी जो आंतरिक मूल्य व्यवस्था है, वैल्यु सिस्टम है वही बर्बाद कर दी गई है तो आपको समझ में ही नहीं आएगा कि कौन-सी चीज़ ऐसी है जिसकी कीमत लगाई जाए। हो सकता है कि आपकी व्यवस्था किसी और देश की व्यवस्था से कहीं ज़्यादा बड़ी हो वास्तव में, लेकिन आप इसी हीन-भावना में पड़े रह जाओ कि मेरी अर्थव्यवस्था तो बहुत छोटी है।

भाई लोग जैसे होंगे वो अपने मुताबिक किसी चीज़ की कीमत लगा लेंगे। इसका मतलब ये थोड़े ही है कि वो चीज़ वास्तव में बहुत कीमती हो गई। अफीमचियों के देश में अफीम की बहुत कीमत है और वो कह रहे है, "देखो, हम अरबों के लोग हैं।" और वो अरबों के लोग क्यों हैं? एक खड़ा हुआ है, वो कह रहा है, "मैं अरबपति हूँ।" वो अरबपति अपने-आपको क्यों बोल रहा है? क्योंकि उसके पास दो-टन अफ़ीम पड़ी हुई है तो वो अपने-आपको अरबपति समझ रहा है। अरे, चलो वो अफ़ीमची है उसने अपने-आपको बोल दिया कि मैं अरबपति हूँ। तुम्हें तो हँस देना चाहिए न उसके ऊपर। तुम क्यों हीन-भावना में आ रहे हो कि "अरे, ये इतना बड़ा सेठ, इतना बड़ा आदमी है। मैं तो हूँ ही नहीं।"

उसने अपनी दृष्टि से किसी चीज़ का मूल्य लगाया है, तुम उस चीज़ का मूल्य क्यों लगा रहे हो?

किसी अर्थव्यवस्था में बहुत बड़े-बड़े पूल हैं, बहुत बड़ी-बड़ी सड़कें हैं और बहुत बड़े-बड़े बूचड़खाने, कसाई घर हैं और वो उनका मूल्य लगा रहे हैं। वो कह रहे हैं, "देखो इतना बड़ा कसाई घर है, इसकी कीमत है चार-सौ करोड़ की।" उनको ये मूर्खता करने दो कि उनको लग रहा है कि कसाईघर बना देने से उनकी अर्थव्यवस्था बहुत बढ़ गई है, हमें तो पता है न कि उस कसाईघर की कोई हैसियत नहीं। वो तो दुःख का और दुष्टता का और पाप का अड्डा है। या तुम भी मानने लग गए कि जहाँ पर इस तरह के काम बहुत हो रहे हैं वो जगह आर्थिक रूप से बड़ी उन्नत हो गई?

बात समझ रहे हो?

आदमी पगला जाए और किसी भी चीज़ के दाम बहुत बढ़-चढ़कर के लगाने लगा जाए तो वो चीज़ बाज़ार में बड़ी ऊँची कीमत पर बिकने लगेगी या नहीं बिकने लगेगी?

समझो। आदमी का दिमाग खराब हो जाए, किसी एक जगह के लोग हैं वो बिलकुल पगलाए हैं, वो किसी भी चीज़ का दाम बहुत बढ़ाकर लगा रहे हैं तो वही चीज़ बहुत कीमती हो जाएगी कि नहीं वहाँ की बाज़ार और अर्थव्यवस्था में? इसका मतलब ये थोड़े ही है कि उस चीज़ की वास्तव में कुछ दाम है, कुछ मूल्य है। ये तो व्यर्थ की चीज़ों को लोगों के सर मढ़ा जा रहा है, वो भी लोगों को बहका-बहका कर, विज्ञापनों द्वारा उनका पूरा जो सोचने का, समझने का, जीने का तरीका है उसको प्रभावित करके, दोषपूर्ण बनाकर, कुसंस्कारित करके किसी भी तरीके से अपनी चीज़ों को बेचने का आयोजन किया जा रहा है। ये है वो मेनेजमेंट जिसकी खातिर दुनिया भगवद्गीता का भी दुरपयोग करने को तैयार है।

बात आ रही है समझ में?

इससे बड़ा दुस्साहस, धृष्टता दूसरी हो सकती है क्या? "मैं ठीक वो करूँगा जिसकी मनाही कर रहे हैं कृष्ण। मैं सब कुछ वो करूँगा जो करने के लिए कृष्ण मना कर रहे हैं। मैं अपने-आपको बिलकुल वही समझूँगा, बिलकुल वही हो जाऊँगा जो कृष्ण ने समझाया है कि मैं हूँ नहीं और ये सब कुछ करने के लिए, कृष्ण की ही बातों का विरोध करने के लिए, कृष्ण की ही सीख के विपरित जाने के लिए मैं इस्तेमाल किसका कर लूँगा? कृष्ण की ही गीता का।"

ये क्या पागलपन है?

कृष्ण वास्तव में तुम्हें बता रहे हैं कि कौन-सी चीज़ मुल्य की है। जिस चीज़ को मूल्यवान कृष्ण बता रहे हैं, कंपनियाँ क्या उस चीज़ का मूल्य लगाकर बाज़ार में बेचती हैं, बोलो?

जब कृष्ण अर्जुन को सीख दे रहे हैं तो क्या कह रहे हैं?

अर्जुन कौन-सी चीज़ मूल्यवान है?

वो कह रहे हैं, "अर्जुन समझदारी मूल्यवान है। अर्जुन होश मूल्यवान है। अर्जुन सत्य के प्रति समर्पण मूल्यवान है। अर्जुन निष्काम कर्म मूल्यवान है।"

ये कृष्ण सीख दे रहे हैं अर्जुन को। वो अर्जुन से कह रहे हैं, "इन सब चीजों को मूल्यवान जानों, वैल्युएबल जानों।"

और कंपनियाँ किस चीज़ की वैल्यु लगा रही हैं? वो घड़ी की, जूते की, बाल रंगने के लोशन की।

वो (कृष्ण) कह रहे हैं कि "क्लेश से मुक्ति मिलनी चाहिए अर्जुन" और यहाँ आयोजन हो रहा है केश रंगने का और केश रंगने का घोल, रंग और ज़्यादा बिके इसके लिए समझाया जा रहा है कि "लेट्स यूज़ सम प्रिंसिपल्स फ्रॉम कृष्णा (चलिए कृष्ण के सिद्धांतों का प्रयोग किया जाए)।"

दुर्योधन तो इनके मुकाबले बड़ा मासूम आदमी था। इतना कपट उसको नहीं पता था। दुर्योधन की निश्छलता देखिए न, अगर वो कृष्ण के विरोध में है तो खुलेआम विरोध में है। हथियार वगैरह लेकर के सामने खड़ा हो गया है कि "कृष्ण हम तुमको मानते नहीं। तुम्हारी बात हमको कुछ समझ में आती नहीं। तो हम बिलकुल तुम्हारे सामने खड़े हैं। तुम्हारे अर्जुन को भी मारेंगे और कोई भटका-बहका तीर तुम्हें भी लग गया तो हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं।" तीर का क्या भरोसा? जा अर्जुन की ओर रहा था थोड़ा-सा झुक गया आदर में। ये जो लोग हैं जो कृष्ण का दुरुपयोग करके मुनाफा बढ़ाना चाहते हैं, ये तो कहीं ज़्यादा कपटी हैं दुर्योधन की अपेक्षा, ये कृष्ण का विरोध भी कर रहे हैं और कृष्ण का ही उपयोग करके। ये बिलकुल ख़िलाफ जा रहे हैं कृष्ण के लेकिन ये कहेंगे भी नहीं कि हम उनके ख़िलाफ हैं। ये उन्हीं की गीता का इस्तेमाल कर रहे हैं उन्हीं की सीख को काटने के लिए।

समझ में आ रही बात?

अध्यात्म का तुम जब भी इस तरह का इस्तेमाल होता देखो तुरंत सतर्क हो जाना, दाल में कुछ काला नहीं है, काली दाल है। कि कोई धर्म गुरु पहुँचे हुए हैं किसी कंपनी में और वहाँ के सब कर्मचारियों को, एम्प्लोयीज़ को बता रहे कि 'हाऊ टू बी रिलैक्स्ड व्हाइल वर्किंग ? (काम करते समय रिलैक्स्ड कैसे रहे?)' यहाँ पूछा ही नहीं जा रहा है कि तुम्हारा 'वर्क ' क्या है बस कहा जा रहा है कि "कर तो तुम जो रहे हो, करते रहो। लाला जी की जेब भरते रहो।" और लाला जी थोड़ा-बहुत अपनी जेब में से धर्मगुरु साहब की ओर सरकाते रहेंगे और धर्मगुरु आकर के सब कर्मचारियों को अफ़ीम चटाते रहेंगे।

वो कहेंगे, "देखो कृष्ण ने बताया था न कि अपना काम डूब कर करो। तो तुम ये जो भी कर रहे हो, जो तुमको अपने-अपने काम में जिम्मेदारियाँ दी गईं हैं, अपनी जिम्मेदारियों का पूरा वहन करो। यही तो कृष्ण की सीख है गीता में कि जो भी काम कर रहे हो जी जान से करो, डूब कर करो। और जो उन्होंने कहा है, 'मामेकं शरणं व्रज' उसका मतलब है लाला जी के शरण में पूरे तरीके से समर्पित हो जाओ और किसी की ओर देखना भी नहीं है, बस लाला जी की शरण में।"

पूंजीपतियों का और धर्म गुरुओं का जब तुम रिश्ता बनता देखो, तो एकदम चौंकन्ने हो जाना। जहाँ कहीं भी ये सब बातें चल रही हों — गीता फ़ॉर हायर प्रोडक्टिविटी (अधिक उत्पादकता के लिए गीता), गीता फ़ॉर बेटर एम्प्लोयी रिटेंशन (कर्मचारियों के उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए गीता), गीता फ़ॉर अ मोर सेटिस्फाइड एन्ड अग्रेसिव सेल्स फ़ोर्स (सन्तोषजनक और आक्रामक रूप से माल बेचने के लिए गीता), वहाँ समझ लेना कि ये शकुनि का कोई नया अवतार है।

धर्म ग्रंथ इसलिए नहीं होते कि तुम उनका इस्तेमाल अपने सांसारिक धंधों को और चमकाने के लिए करो। आध्यात्मिक ग्रंथ होते हैं ताकि तुम्हारे संसारिक धंधों की निस्सारता तुमको दिखा सकें। धर्म ग्रंथ इसलिए नहीं होते कि तुम्हारा जो किस्सा चल रहा है, तुम्हारी जो व्यवस्था चल रही है वो व्यवस्था और चहक कर और बहक कर और उन्मत्त होकर चले। अध्यात्म का ये काम नहीं है कि तुम्हारे चलते हुए चक्कों में वो ग्रीस और तेल डाल दे।

अध्यात्म का काम है तुमसे पूछना कि, "ये तुम्हारी गाड़ी जा किधर को रही है? क्यों जा रही है? क्या पाओगे? गाड़ी का चालक किसको बना दिया है?" हम सोचते हैं अध्यात्म का काम है कि गाड़ी को तेल पानी दे देगा, गाड़ी की सर्विसिंग कर देगा, गाड़ी की गति थोड़ी और बड़ा देगा। नहीं, अध्यात्म का काम है तुम्हारी चलती हुई गाड़ी को रोक देना। अध्यात्म का काम है तुम्हें दिखा देना कि तुम ग़लत गाड़ी में बैठे हुए हो और जी हाँ, हम सब ही ग़लत ही गाड़ी में बैठे हुए हैं, आप कोई अपवाद नहीं हैं। भीतर से अगर तुरंत अभी प्रतिवाद उठा हो, तर्क उठा हो कि "नहीं, नहीं, होगी सबकी गाड़ी ग़लत मेरी गाड़ी तो सही ही है।" नहीं साहब, सभी की गाड़ी ग़लत है। अध्यात्म का काम है सबको बार-बार चेताना कि गाड़ी की गति मत बढ़ाओ, देख तो लो कि गाड़ी किसकी है, किधर को जा रही है, और उसको चलाने वाला कौन है।

ये अंतर याद रहेगा?

किसी को तर्क जीतना है तो गीता का सहारा ले रहा है। देखे हैं न ऐसे लोग? उनको गीता के कुल चार श्लोक याद होंगे और वो भी इसलिए क्योंकि बीस साल पहले जो महाभारत आती थी टीवी में उसमें वो श्लोक उन्होंने बचपन में सुन लिए थे या घर में उनके बूढ़े दादा थे जो जब चीखा-चिल्ली करते थे तो चार श्लोक सुना-सुना करके करते थे। तो उनको वो चार श्लोक रट गए हैं। तो उन्हें कुल चार श्लोक पता होंगे पर जब भी इन्हें अपनी किसी वाहियात हरकत को या सोच को जायज़ ठहराना होगा तो ये क्या करेंगे? ये वो चार श्लोक उठा लाएँगे और खट-खट दे मारेंगे।

संस्कृत है भाई! पहली बात तो देव भाषा, दूसरी हमको आती नहीं। तो जहाँ किसी ने संस्कृत हमारी मुँह पर देकर मारी कि एकदम हमारी रीढ़ झुक जाती है। एक तो गीता से उद्धृत किया कुछ, दूसरी बात संस्कृत में किया और तीसरी बात हमें आती नहीं। ये तीनों चीज़ें मिलकर के बिलकुल हमसे कह देती हैं कि "जी, ये बहस आप जीत गए, तर्क आप जीत गए।"

ये वो आदमी है जो कृष्ण से न सिर्फ दूर है बल्कि गहराई से कृष्ण के ख़िलाफ है। ये कृष्ण की उपेक्षा भी नहीं कर रहा है, ये कृष्ण का दुरुपयोग कर रहा है। ये चार श्लोक गीता के इस्तेमाल कर रहा है अपने अहंकार को बढ़ाने और जिताने के लिए। इसी तरीके से वो उद्योगपति है जो गीता का इस्तेमाल कर रहा है अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए। इसी तरीके से वो लेखक है जो गीता पर किताबें लिख रहा है 'हाऊ टू यूज़ गीता टू इम्प्रूव ऑर्गनाइज़ेशनल प्रोडक्टिविटी ?' और इन सब से भी ग्रहित, पतित, निकृष्ट कोटि का वो आध्यात्मिक गुरु है जो कंपनियों में जा-जाकर वहाँ के एम्प्लॉयीज़ , कर्मचारियों को गीता के माध्यम से और बेहतर एम्प्लोई बनने की शिक्षा देता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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