आचार्य प्रशांत: यहाँ चल रहे हैं उपनिषद् और उसके (एक श्रोता की ओर संकेत) दिमाग में खाना और खटिया है। ये आदमी घटिया है। सब घटिया है। किसी एक की नहीं बात हो रही है आदमी ही घटिया है। ‘आचार्य जी, आप तो मनुष्यमात्र के गौरव की ज़रा भी परवाह नहीं करते। हम ईश्वर की सन्तानें हैं। क्या हमारी किंचित भी गरिमा नहीं?’ नहीं, हम ईश्वर की नहीं जंगल की सन्तानें हैं, होश में आओ। किसी ईश्वर ने बड़े अनुराग से बड़े लाड़ से हमें नहीं बनाया है। हम गोरिल्ला से निकलकर आये हैं। ‘पर आचार्य जी, मनुष्य तो ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है न।’ नहीं, ओरंगउटान की। खुद को देखो, अपनी हरकतों को देखो, अपने विचारों को देखो। तुम्हें वाकई लगता है कि हमारे भीतर कुछ भगवत्ता जैसा है? किसी भगवान ने हमारा निर्माण करा है? वाकई लगता है? किसको झाँसा दे रहे हो?
गनीमत ये है कि ज़्यादातर जो हमारी करतूतें हैं वो दिमाग में ही रह जाती हैं। वो कभी प्रकट होकर कार्यान्वित होकर के सामने नहीं आती है। नहीं तो कोई गलतफ़हमी नहीं रह जाती कि हम किसकी औलादें हैं। कानून का, पुलिस का, दंड का, समाज का ज़रा डर है। इसीलिए हमारे भीतर की पशुता एकदम समक्ष प्रकट नहीं होती। तो हमें ज़रा सा बोलने का अधिकार मिल जाता है कि देखिए हम तो बड़े अच्छे बड़े गरिमावान लोग हैं।
और किसी तरह से यन्त्र ऐसा एक बना दिया जाए कि आपके दिमाग में जो विचार हैं, यही दीवार पर लिख जाएँगे अपनेआप। तो क्या करोगे? और विज्ञान ऐसी तकनीक कोई-न-कोई खोज निकालेगा। कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। क्योंकि जितने विचार होते हैं, वो होती तो सब मस्तिष्क के सर्किट की तरंगें ही हैं। उनको पढ़ा जा सकता है। जैसे इइजी होता है, इसीजी होता है, वैसे ही ब्रेनवेव्स (मस्तिष्क की तरंगें) को भी रीड किया जा सकता है। और जिस चीज़ को पढ़ा जा सकता है उसको किसी भाषा में अनुवादित भी किया जा सकता है तो हिन्दी में अंग्रेजी में यहाँ लिखा जाएगा जो कुछ सोच रहे हो। उसके बाद बोलना कि हम तो भगवान की औलाद हैं।
अहंकार ने बड़ी ज़ोर से अपनी पीठ थपथपायी और कहा कि भगवान ही मेरा बापू, भगवान ही मेरी माई। अध्यात्म की ज़रूरत ही इसीलिए है न क्योंकि हमारी शुरुआत ही गड़बड़ होती है। मान लो इस बात को। कर लो मुझसे नफ़रत लेकिन मान लो इस बात को। मुझे मालूम है कि कोई आपको मुँह पर बोले कि आप ठीक नहीं हो — आप क्या ठीक नहीं हो? पूरी मनुष्यता ही ठीक नहीं है, न आप ठीक हो, न वो ठीक है, न मैं ठीक हूँ, कोई ठीक नहीं है तो बुरा तो लगता ही है। हम अपनेआप को यही सुनाना चाहते हैं कि साहब हम बड़े ऊँचे लोग हैं। अध्यात्म की ज़रूरत ही इसीलिए है क्योंकि हम ऊँचे नहीं है।
ऊँचाई सम्भव है अगर तुम खुद से दूर जा सको। हम तलहटी के कीड़ों जैसे हैं। ऊँचाई पर जाना है तो उस तलहटी से पराया होना पड़ेगा। पाताल से बहुत परे है न आकाश लोक। तो परायापन सीखो।
जन्म हम सबका पाताल में ही होता है। अगर खुद से परे नहीं हो पाये तो पाताल में ही पड़े रह जाओगे। और जो कोई ऊँचाइयों को नहीं प्राप्त कर पा रहा है जीवन में, उसकी असफलता का एकमात्र कारण भी यही है — उसे बहुत मोह है अपनी जन्मगत चीज़ों से। जो कुछ उसे जन्म के साथ मिला था, उसके मोह में ही पड़ा हुआ है। कहीं-न-कहीं उससे बड़ा मोह है इसीलिए वो प्रगति नहीं कर पा रहा। ऊपर को उठ नहीं पा रहा, उन्नति हो नहीं रही है उसकी क्योंकि नीचे पाताल की किसी-न-किसी चीज़ से मन लगा हुआ है उसका।
तुम्हारे अतीत में तुम्हारे शरीर में कुछ ऐसा बैठा है जो तुम्हें बहुत प्यारा है तुम्हें पता है तुम ऊपर उठोगे तो तुम पुराने से पराये होओगे तो वो जो पुराना है वो छोड़ना पड़ेगा। तुम्हारा मोह है उससे तुम छोड़ना नहीं चाहते, इसलिए तो उठ नहीं पा रहे।
समझ में आ रही है बात?
एक सत्र हुआ था २०१६ में। जब मैं पश्चिम के लोगों से पहली बार मिला था, उसका, मुझे याद है, विषय ही यही था — ‘नॉट बिलॉन्गिंग’। नॉट बिलॉन्ग ज़ोर देकर बार-बार कहा था, ‘डू नॉट बिलॉन्ग’। बहुत जल्दी किसी के हो मत जाया करो। बहुत जल्दी कहीं के हो मत जाया करो। तुम्हें तो पराया होना है, तुम्हें किसी का नहीं होना है।
अरे, तुम्हें अपना ही नहीं होना है, तुम किसी और के कैसे हो बैठे भाई? तुम्हें तो दूर जाना है, तुम इस शहर में कैसे अपने पाँच पते लिखा रहे हो? उनसे पूछ रहे हैं, ‘पता बताओ।’ कह रहे हैं, ‘बताता हूँ, मेरे यहाँ पाँच घर है। ये, ये, ये, ये, ये।’
उड़ना तुम्हें आकाशों में हैं और पते तुम बता रहे हो केचुओं के जगत के। जैसे केचुएँ देखा है न क्या करते हैं? वो थोड़ी-थोड़ी मिट्टी खोदकर वहीं घुस जाते हैं और मिट्टी के गोले बनाते रहते हैं, छोटे-छोटे। वहीं घर है उनके।
हृदय तुम्हारा पुकारता है आकाश को। स्वभाव तुम्हारा है उड़ान। पते लिखवा रहे हो तुम माँदों के, बिलों के। खरगोश एक पकड़ लिया उसके माँद से उसको धमकाकर भगा दिया। कह रहे हो ये मेरा पता है। खरगोश कह रहा है ये तो मेरा है। फिर मुस्कुराता है कहता है, समझ गया मैं तेरे अन्दर भी एक खरगोश हैं जिसे माँद बहुत प्यारा है। फिर तुमने केंचुआ पकड़ लिया, फिर तुमने एक साँप पकड़ लिया, साँप का बिल है। साँप को भी धमका दिया, ‘दूर हट ये मेरा है।’ साँप कह रहा है, ‘दूर हट जाऊँगा। क्योंकि भाई है न तू मेरा। समझ गया बहुत अच्छे से। जिस्म तेरा इंसान का है पर भीतर से है तू साँप ही है। नहीं तो तू बिल क्यों बनाता? तू आकाश में उड़ न जाता?’
आ रही है बात समझ में कुछ?
प्र१: आचार्य जी, आपने कहा था कि हम गोरिल्ला से ही आये हैं और कानून इत्यादि के डर के कारण ही सम्भाले हुए हैं अन्यथा पूर्णतया ही जंगली व्यवहार करने लगेंगे। पर ये कानून भी तो गोरिल्ला रूपी मनुष्य से ही आये हैं तो विरोधाभास नहीं है इसमें?
आचार्य: तो कानून इसलिए थोड़े ही आये हैं कि वो कानून तुमको गोरिल्ला से उठाकर के विशुद्ध चेतना बना दें। कानून इसलिए है ताकि तुम गोरिल्ले ही बने रहो और बाहर से शर्ट-पैंट पहन लो।
जिन्होंने सवाल पूछा है वो कह रहे हैं, ‘अगर गोरिल्ला इतना ही बुरा होता तो इतने बढ़िया बढ़िया कानून कैसे बना देता?’ कौन कह रहा है कि तुम्हारे कानूनों में कोई दम है? तुम्हारे कानून गोरिल्ला को देवता छोड़ो, इंसान भी नहीं बना पाते। इतना ज़रूर कर देते हैं कि वह गोरिल्ले का मुँह पोत देते है। वो गोरिल्ले के हाथ में लैपटॉप दे देते हैं। वो गोरिल्ले को अंग्रेज़ी बोलना सीखा देते हैं, गोरिल्ला वहाँ पर खड़ा होकर के अदालत में फिर बोलता है कानून की भाषा ‘माइ लॉर्ड’।
लेकिन उसके भीतर क्या बैठा हुआ है? जानवर ही तो बैठा हुआ है वो बाहर से वो बड़ी बातें कर रहा है, कानूनी बातें कर रहा है, भीतर जानवर बैठा है। कौनसा जानवर बैठा है? जो पेट के लिए झूठ बोलने को तैयार हो गया वो जानवर होता है। जानवरों को रोटी दिखाओ वो कुछ भी करता है न, किसी के पीछे भी आ जाता है। वैसे ही क्या अदालतों में नहीं होता? वकीलों को पैसा दिलाओ। वो कोई भी जिरह करने को तैयार हो जाते हैं। सब वकील ऐसे नहीं होते, पर बहुत सारे ऐसे होते है कि नहीं होते हैं? तो ये काम गोरिल्ला का हुआ या नहीं हुआ?
आप क्यों सोच रहे हैं कि आपकी जो पूरी सभ्यता है जिसमें ये आपकी सब संस्थाएँ आ गयीं, न्यायपालिका, संसद और पचास चीज़ें ये जंगल से बाहर की कोई चीज़ है, आपको ऐसा क्यों लग रहा है? या क्यों लग रहा है कि आपकी ये जो पूरी संस्कृति है, जिसमें आपके विचार आ गये, मान्यताएँ आ गयी, प्रथाएँ आ गयी, ये जंगल से बाहर की कोई चीज़ है? इसमें बहुत कम ऐसा है जो आदमी की चेतना को उत्थान देता है। इसमें से ज़्यादातर वही है जो आदमी को जानवर ही बनाये रखता है, बस मुखौटा पहनाकर के।
बल्कि जानते हो हकीकत क्या है? तुम सचमुच अगर मुक्त चेतना के प्राणी बनने लगो तो तुम्हारे कानूनों को दिक्कत हो जाएगी। हमारे ये जो कानून है ये दो तरह के लोगों को माफ़ नहीं करते। एक वो जो मँजे हुए अपराधी होते हैं और दूसरे वो जो गहरे रूप से आध्यात्मिक होते हैं। कानून उन्हें माफ़ नहीं करता। अपराधियों को तो कानून फिर भी माफ़ कर देगा। सच्चे आदमी को तुम्हारे कानून माफ़ नहीं करेंगे। क्योंकि सच्चा आदमी कानून मानेगा ही नहीं। सच्चा आदमी तो सच्चाई मानेगा न।
सच्चे आदमी को आपके कानूनों से बड़ा खतरा रहता है। हालाँकि वो ऐसा कोई खतरा मानता नहीं। जब तक आप एक मध्यमवर्गीय जीवन जी रहे हो, हर तरीके से तब तक कानून आपके लिए अच्छा है। कानून आपकी रक्षा करेगा। लेकिन अगर आप इस तरफ़ निकल गये, अपराधी बन गये तो कानून आपके पीछे आ जाएगा आपको गिरफ़्तार करने। और अगर आप उस तरफ़ भी निकल गये, आप सन्त बन गये तो भी कानून आपके पीछे आ जाएगा आपको गिरफ़्तार करने।
तो आपको क्यों ऐसी गलतफ़हमी है कि कानून आदमी में देवत्व का, भगवत्ता का संचार करने के लिए बनाये गए हैं। कानून तो साहब ऐसे हैं जो शरीर के अलावा चेतना को मानते ही नहीं। कानून आपका कहता है, ‘इंसान और इंसान बराबर है।’ इंसान-इंसान बराबर होता है? वो कहता है, ‘एक शरीर ये, एक शरीर ये, दोनों बराबर हैं।’ दोनों बराबर हो सकते हैं कभी? पर कानून की नज़र में सब बराबर है, क्यों बराबर है भाई? क्यों बराबर है? क्योंकि आपके कानून को चेतना समझ में ही नहीं आती तो कह देता है हम तो अन्धे हैं, कानून अन्धा होता है।
अन्धा नहीं है, पागल है। जिसे चेतना न समझ में आये, जो सिर्फ़ ये देखे कि व्यवहार किसने क्या किया, कानून व्यवहार पर ही लागू होता है न तुमने किया क्या? ये नहीं पूछता, ‘क्यों किया?’ ये नहीं पूछता, ‘पीछे विचार क्या था?’ ये नहीं पूछता कि कर्म का स्रोत क्या था, बस ये देख लेते हैं, ‘अच्छा, इतना करा इतना करने पर फ़लानी धारा लागू होगी। चलो, बेटा, जेल में जाओ व्यवहार देखा जाएगा, कर्म देखा जाएगा। कर्म के पीछे क्या है वो हमें देखना आता ही नहीं, हम तो अन्धे हैं, हम तो कानून है।’
उदाहरण देता हूँ, तुम्हारे कानून को बिलकुल ये बात समझ में नहीं आती कि ये जो जीव-जन्तु हैं इनसे भी प्रेम किया जा सकता है। इनको भी रक्षा की ज़रूरत होती है। कोई आकर के खरगोश मार दे। कानून की नज़र में अपराधी बिलकुल नहीं हुआ वो। पर कोई खरगोश मार दे, मैं उसको मार दूँ, तो मैं अपराधी हो गया। मैं तो मारूँगा।
तुम्हारे कानून को ज़रा भी अक्ल होती तो सबसे पहले उसको पकड़ता न जिसने खरगोश मार दिये। खरगोश नहीं, कुछ नहीं। तो गिनतियाँ गिनता है वो भी सिर्फ़ इंसानों की। अधिकार है। किनको है? इंसानों को है।
मैं ऐसा नहीं कह रहा बिलकुल कि कोई कानून होना नहीं चाहिए, वगैरह वगैरह। हमने कहा न जितने भी लोग बीच में आते हैं नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन के, कानून उनके लिए ठीक है। उनको रक्षा भी मिल जाती है। उनकी जो एक सुचारु सामाजिक व्यवस्था है वो चलती रहती है। कानून वहाँ पर उपयोगी है। पर इस कर्व (वक्र) के दोनों सिरों पर कानून गड़बड़ हो जाता है। अपराधी वाले सिरे पर इसलिए गड़बड़ हो जाता है क्योंकि अपराधियों को पकड़ नहीं पाता, न उनको ठीक से सज़ा दे पाता है। न उनका ठीक से उपचार कर पाता है। और ऊँची चेतना का जो सन्तों वाला जो सिरा है, वहाँ भी कानून असफल हो जाता है क्योंकि वहाँ कानून को समझ में ही नहीं आता है इनके साथ करें क्या। इनके लिए तो कोई कानून बनाया नहीं जा सकता।
प्र२: आचार्य जी, अभी जो चर्चा हो रही थी उसी पर एक प्रश्न है कि ये सभ्यता का मुखौटा भी फिर क्यों हैं?
आचार्य: सभ्यता का मुखौटा भी इसलिए है क्योंकि कुछ लोग हुए ऊँची और मुक्त चेतना के, जो बार-बार, बार-बार बोल गये कि सभ्य होना ज़रूरी है, अनुशासित होना ज़रूरी है। वो सभ्यता की और संस्कृति की और अनुशासन की बात कर गये थे आध्यात्मिक कारणों से और उनकी बात में, उनके व्यक्तित्व में, उनकी हस्ती में इतना दम था कि आप उनकी बात ठुकरा नहीं सकते। तो उन्होंने अगर कह दिया कि साहब ये सब चीज़ें हैं जो ज़रूरी हैं तो आपको माननी पड़ेगी।
लेकिन वो बातें जहाँ से आ रही हैं उन व्यक्तियों के भीतर का जो स्रोत था जहाँ से उनकी बातें आयीं, उस स्रोत से आप कोई सम्बन्ध नहीं बिठा पाये। वो बातें बस आपने पकड़ ली क्योंकि उन बातों को न पकड़ने का आपके पास विकल्प नहीं रह गया था। वो बातें इतने आग्रह के साथ कही गयी थीं, इतनी सत्यता के साथ कही गयी थीं, वो प्रकाश की एक चकाचौंध की जैसी थीं वो बातें, आप उनको ठुकरा नहीं सकते थे, तो बातें आपने पकड़ ली। अब वो बातें बन गयी नैतिकता कि ऐसा करना होता है। ऐसा क्यों करना होता है? उस स्रोत से, उस सूत्र से आपका कोई सम्बन्ध नहीं बन पाया। उतनी गहराई पर आप नहीं जा पाये। लेकिन उन्होंने कहा, ‘ऐसा करना होता है’, वो आपने पकड़ लिया। वो चीज़ नैतिकता बन गयी।
हमारे सारे कानून नैतिकता से निकले हैं। हमारे कानून इसलिए नहीं है कि आदमी एक दिन उत्थान कर-करके अपनी उच्चतम सम्भावना को प्राप्त हो जाए। हमारे सारे कानून ऐसे ही हैं कि ऐसा करना ठीक होता है और ऐसा करना गलत होता है। बस।
कोई पूछे, ‘क्यों?’ आप बता नहीं पाएँगे। आप कहेंगे, ‘क्योंकि सभी ऐसा कहते हैं।’ सभी ऐसा कहते हैं तो ऐसे ही है बस। उदाहरण के लिए, चोरी करने पर सज़ा मिलेगी कानून है। बिलकुल साधारण सी बात। चोरी करना क्यों गलत है? बड़ा मुश्किल होगा कि आप किसी कानूनविद् को पकड़े और वो इसका सही सही उत्तर दे पाये। चाहे वकील हो, चाहे न्यायाधीश हो, चाहे उच्चतम न्यायालय ही क्यों न हो, बड़ा रोचक होगा उनसे इस विषय में बातचीत करना कि चोरी करना गलत ही क्यों है। वो फँस जाएँगे, नहीं बता पाएँगे।
अब ‘अचौर्य’ की शिक्षा हमारे अवतारों और सन्तों ने दी है। उनकी सीख में ‘अचौर्य’ आता है। ‘अचौर्य’ माने चोरी नहीं करना। तो उन्होंने समझा दिया अचौर्य तो कानून बन गया, चोरी नहीं करना है, पर उन्होंने अचौर्य इसलिए समझाया था क्योंकि चोरी करोगे तो कभी अहंकार से मुक्ति नहीं पाओगे। उन्होंने अचौर्य इसलिए समझाया था या अपरिग्रह उन्होंने इसलिए समझाया था। लेकिन कानून बन गया चोरी करने पर इतने साल की सज़ा है।
ये कानून इसलिए थोड़े ही बनाया है कि अगर चोरी कर रहे हैं तो मुक्ति नहीं मिलेगी। ये कानून तो इसलिए बनाया है कि उसकी चीज़ें हैं, तुमने चुराई क्यों? अहंकार परिग्रह करना ही चाहता है वहाँ पर अचौर्य और अपरिग्रह साथ-साथ चल रहे थे। वहाँ पर अचौर्य और अपरिग्रह एक साथ चल रहे थे। ‘अचौर्य’ कह लो, ‘अस्तेय’ कह लो, ये सब ‘न चुराने’ के नाम है। ‘चुराना नहीं है।’ तो वहाँ न चुराना और संग्रहण न करना, परिग्रह माने संग्रह करके रखना। अस्तेय माने ‘न चुराना’ तो वहाँ ये दोनों शिक्षा एक साथ दी जा रही थी कि न चुराओ, न संग्रह करो।
कानून कहता है, ‘उसने संग्रह कर रखा था उसकी चीज़ तूने चुराई क्यों?’ उसने संग्रह करा था — ये तो बात ही अजीब हो गयी। क्योंकि कानून को पता ही नहीं है कि चुराना गलत है क्यों। कानून को नहीं पता है कि चुराना गलत क्यों है। वहाँ तो बस ऐसे ही है ‘नहीं चुराना चाहिए, नहीं चुराना चाहिए।’ पर क्यों नहीं चुराना चाहिए? क्यों नहीं चुराना चाहिए? बताओ न। ‘क्योंकि उसकी चीज़ थी।’ अरे, तो चीज़ तो किसी की कुछ नहीं होती, “उड़ जाएगा हंस अकेला”। चुराना क्यों नहीं चाहिए? बता ही नहीं पाएँगे। वो होंगे माननीय न्यायाधीश, कुछ नहीं बता पाएँगे। वो तुम्हीं पर धारा लगा देंगे कि देखो अवमानना करता है न्यायालय की, जेल भेजो इसको।
समझ में आ रही है कुछ बात?
तो बात तो सन्तों से ही आ रही है। कोई भी ऊँची बात होगी, एक ही जगह से आ सकती है ऊँची चेतना से। तो अचौर्य, अस्तेय, अपरिग्रह — सब वहीं से आ रहा है। लेकिन यहाँ पर आ गया है बस उसकी बाहर की खाल बची है। उसके भीतर का हृदय नहीं है क्योंकि बात आध्यात्मिक नहीं है, अब बात हो गयी सामाजिक।
किसी भी कानून की किताब में ये नहीं लिखा है कि इन कानूनों का पालन करोगे तो निर्वाण मिल जाएगा। जबकि जितनी भी सीखें दी गयी थी, वो सीखें इसलिए दी गयी थी कि इन चीज़ों का पालन करोगे तो मुक्ति मिल जानी है। चोरी गलत है क्योंकि जो चोरी करेगा वो और ज़्यादा धँसता जाएगा अहंकार की दलदल में। इसलिए चोरी गलत है।
समझ में आ रही है?