घर से काम (वर्क फ्रॉम होम) पर पूरी बात || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी दिल्ली महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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घर से काम (वर्क फ्रॉम होम) पर पूरी बात || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी दिल्ली महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। मेरा प्रश्न वर्क फ्रॉम होम से सम्बन्धित है। मैं अहमदाबाद से हूँ और मेरे कई दोस्त अभी मिडिल मैनेजमेंट पोजीशन्स में हैं। तो पिछले जैसे दो साल में कोविड की वजह से बहुत से प्रतिबन्ध आ गये थे और वर्क फ्रॉम होम नियम बन गया था।

तो इसमें बहुत लाभ भी थे। जैसे कि लचीलापन वगैरह थी। फिर काम करने के लिए भाग-दौड़ नहीं करना पड़ता तो वो समय बच जाता था लोगों का, साथ ही प्रदूषण कम हो पा रहा है और ये सब चीज़ें थीं। उसकी वजह से कुछ योगदान उसका भी रहा होगा। लोगों को अपने शौक और परिवार इत्यादि के लिए भी समय मिल गया। अब जैसे प्रतिबन्ध हटा दिये गये तो वापस ऑफ़िस जाना पड़ता है।

अब ऑफ़िस जाने में फ़ायदा होता है कि टीम साथ में रहती है और जो मेंटरिंग होती है या जो कम्यूनिकेशन वगैरह होता है, वो सब एक तरह से ज़्यादा सरल हो जाता है। प्रबन्धन के स्थान से देखा जाए तो एक टीम को मैनेज करना आसान होता है जब सभी एक साथ हों। लेकिन हमारे लिए घर से काम करना अपेक्षतया अधिक सुविधाजनक होता है क्योंकि हमें कुछ लचीलापन मिल जाता है।

तो इस पर आपसे आपके विचार पूछने थे कि जैसे कुछ ऑफ़िसेज़ ने अभी ऐसा कर दिया कि दो या तीन दिन आ जाओ ऑफ़िस , बाक़ी दिन आप घर से काम कर सकते हो। क्या ये काम करने योग्य है?

आचार्य प्रशांत: देखो भाई, हमारा तो ये है कि जहाँ वर्क है वहीं होम है तो वर्क फ्रॉम होम तो टोटोलॉजी (दोहराव) हो गयी। है न? जहाँ वर्क है वहीं होम है तो वर्क फ्रॉम होम तो ए इज़ इक्वल टू ए हो गया, आइडेंटिटी है। इसमें अब मैं क्या बोलूँ! हाँ, कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका वर्क और होम अलग-अलग होता है। उन बेचारों की बड़ी दयनीय हालत रहती है जिसको आप बोलते हो द यूजुअल डिसटिन्क्शन बिटवीन पर्सनल एंड प्रोफेशनल लाइफ़ (व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन के सामान्य भेद)।

वो बड़ी बेचारगी की दयनीय हालत होती है। लेकिन उस दयनीय बात को एक ख़ासियत, विशेषता, वर्च्यू बनाकर पेश किया जाता है, उसको बोल देते हो वर्क लाइफ़ बैलेंस। मुझे नहीं मालूम, ये सवाल शायद तुम एक ग़लत व्यक्ति से कर रहे हो। मेरे लिए तो काम ज़िन्दगी है और मैं जहाँ भी होता हूँ वहाँ काम ही कर रहा होता हूँ।

और मैं जहाँ भी होता हूँ वही जगह मेरे लिए होम है, वही जगह मेरे लिए वर्कप्लेस (कार्यस्थल) है और मैं समझता हूँ जीने का ये एक अच्छा ही तरीक़ा है। या वो तरीक़ा अच्छा है कि घड़ी देख रहे हो कि कब पाँच बजेगा, छः बजेगा, घर भागें? और कह रहे हो कि एक हाइब्रिड मॉडल होना चाहिए जिसमें वर्क फ्रॉम होम भी हो और कभी वर्क प्लेस पर भी आना पड़े। ये तो सब उनके लिए है जो वर्क से एक तरह से नफ़रत सी करते हैं।

आप कहेंगे ये तो बहुत बड़ी बात बोल दी, वर्क से नफ़रत। मैं कहूँगा, अगर उससे नफ़रत नहीं करते होते तो क्यों चाहते होते कि वो कभी रुके? जिससे प्यार होता है, उसको कभी रोकना चाहते हो क्या? तो काम को शाम को छः बजे क्यों रोक देना चाहते हो? रोकी तो वही चीज़ जाती है जो पसन्द न हो, प्रेम तो नहीं रोका जाता, न दिल की धड़कन रोकी जाती है, न सॉंसें रोकी जाती हैं। तो काम क्यों रोका जाए?

काम रोकने की ज़रूरत इसलिए पड़ती है क्योंकि हम काम ही ऐसा चुनते हैं कि कमबख़्त को रोकना ही पड़ता है, न रोको तो खा जाएगा हमको। उस काम में कोई प्राण होता है, कहीं आत्मा होती है, उस काम में कहीं प्रेम होता है क्या? उस काम में तो बस यही होता है कि कैरियर और पैसा।

तो फिर आप नेगोशिएट (मोल भाव) करते हो। नहीं इतनी नहीं, इतनी लीव (छुट्टी) होनी चाहिए, एलटीए इतना होना चाहिए। बड़ा अच्छा लगता है, 'अच्छा! इतने घंटे का वर्क वीक है। अच्छा! फोर डे वर्कवीक है।' कोई मुझे बोल दे कि हफ़्ते में चार ही दिन काम करना है तो मैं कहूँगा, ‘तिहाड़ में डाल दो इससे अच्छा मुझे। मैं काम न करूँ तो मैं जियूँगा कैसे!’ काम के अलावा है क्या? जियोगे किस चीज़ के लिए? काम नहीं कर रहे हो तो क्या कर रहे हो?

‘नहीं, देयर इज़ लाइफ़ आउटसाइड वर्क (काम के बाहर ज़िन्दगी है) न? आचार्य जी, लाइफ़ आउटसाइड वर्क।

'नहीं, क्या है वो? क्या करते हो उसमें, क्या करोगे?'

‘आचार्य जी, काम से पैसा कमाते हैं और फिर लाइफ़ आउटसाइड वर्क में पैसा उड़ाते हैं।’

उड़ा लो, पर उड़ाते वक़्त क्या करोगे? समय है, उस समय में करोगे क्या? अच्छा ठीक है, थोड़ा-बहुत खेल लिया, मान लो खेलते वक़्त काम नहीं कर रहे। मूवी देख ली। हालाँकि मैं तो मानता हूँ कि खेलते वक़्त भी अगर तुमने सही काम चुना है तो वो चलता रहेगा। तुम खेल में ही कुछ ऐसा सीख रहे होगे जो तुम्हारे काम में काम आएगा। तुम उस मूवी से ही कुछ ऐसा उठाओगे जो तुम्हारे काम में काम आएगा। तुम कुछ भी कर रहे होगे तुम काम ही कर रहे होगे।

जो लोग काम यहाँ कर रहे हैं या जो लोग आगे चलकर के अपने लिए काम का चयन करने वाले हैं, उनको सबको मेरी सलाह है, मेरा निवेदन है, अपने लिए ऐसा काम चुनना जिसको कभी रोकना न पड़े। ऐसा काम चुनना जिसके लिए पैसे माँगने की ज़रूरत न पड़े, पैसा मिल जाए तो बोनस रहे।

मैं जानता हूँ ऐसे लोगों को, फ़िल्मों के डायरेक्टर्स हैं, आर्किटेक्ट्स हैं। अभी फ्लाइट में मिले थे, वो बड़े प्रोड्यूसर हैं बॉलीवुड के। वो सुनते हैं मुझे। बात करने लगे तो अपने डायरेक्टर के बारे में बोलने लगे। बोले, वो इतना परफेक्शनिस्ट (पूर्णतावादी) है कि जो सही शूट हो भी गया होगा, उसको दस बार करेगा और फ़िल्म ओवर बजट जाने लगेगी। और मैं टोकूँगा तो बोलेगा, ‘आप मेरे पैसों में से काट लो लेकिन मुझे करने दो जो मैं कर रहा हूँ, आपका जो भी बजट एक्सीड हो रहा है, वो आप मेरे पैसे से काट लेना लेकिन मुझे करने तो दो जो मैं कर रहा हूँ।’

ये होता है सही काम चुनने का अंजाम। ये पुरस्कार मिलता है। आपको पैसे की परवाह नहीं रह जाती। आप उससे कहते हो वो जो कर रहा हूँ, उसे करने दो और इसमें थोड़ा नुक़सान हो रहा है तो मैं भर दूँगा क्योंकि मैं पैसे के लिए कर नहीं रहा। पैसे तो तुम मुझसे ले लो। समझ में आ रही है बात?

वहाँ फिर वो रो नहीं रहा होता है कि फाइव प्वाइंट टू परसेंट हाइक मिली है, फाइव प्वाइंट थ्री परसेंट मिलनी चाहिए थी।

ये पृथ्वी होम है आपका, ये जो जगत है, ये होम है आपका और आप यहाँ कर्म करने के लिए आये हो। तो ये जो जीवन है यही क्या हो गया, वर्क फ्रॉम होम। द होम हैज टू बी द वर्क प्लेस (घर कार्यस्थल होना चाहिए)। घर और दफ़्तर में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। लेकिन ये बात हमारी समझ में ही नहीं आएगी।

‘कैसे, क्यों? घर में तो फैक्ट्री लगा नहीं सकते और फैक्ट्री में घर बना नहीं सकते।’

देखो, कोशिश करो क्या पता हो जाए। कोशिश तो करो, हो सकता है हो ही जाए। लेकिन इतना समझिए ये जो भेद है, विभाजन, डिस्टिंक्शन , पर्सनल और प्रोफेशनल का, ये बड़ा नर्क है। इन दोनों को जोड़िए। इनको पूरा एक नहीं कर सकते तो इन दोनों को कम-से-कम क़रीब लाइए। ये जितने क़रीब आ जाएँगे, जीवन उतना आनन्दित रहेगा।

मैंने वो जवाब दिये ही नहीं, जो चाहते थे। मुझे पता ही नहीं है वर्क फ्रॉम होम क्या होता है।

प्र: तो आपने अभी थोड़ी देर पहले जैसे कहा ए इज़ ए, लॉ ऑफ़ आइडेंटिटी, ए इज़ ए , तो कुछ महीने पहले आपने एपी सर्किल पर एक बुक रेकमेंडेशन (पुस्तक का सुझाव) शेयर (साझा) करी थी तो वो मैंने पढ़ी थी। तो उसमें भी जो मेन कैरेक्टर है जॉन गोल्ड, वो लम्बा सा एक मोनोलॉग (एकालाप) देता है उसमें भी उन्होंने यही बात कही थी। और इसके अन्दर जो मैं पूछना चाह रहा हूँ, ये है कि वो कह रहे थे कि बहुत बड़ी समस्या है आम आदमी के साथ क्योंकि वो ए इज़ ए की बात को स्वीकार नहीं करते।

अभी आपने जैसा कहा कि पैसों की पूरी बात सिर्फ़ पैसों की नहीं होती है। तो लोगों को लगता है कि पैसे कमाकर जो चीज़ें हैं, जो वैल्यूज़ हैं जो पैसे से आती हैं वो तो आ जाएँगी। तो इसको कैसे समझें?

आचार्य: देखो, पैसे को लेकर के जो कृष्ण का वक्तव्य है वो आख़िरी है बिलकुल। ठीक है? वो कह रहे हैं, 'जितना तुम्हारे पास है वो अपने जीवन यज्ञ में होम कर दो।' जितना तुम्हारे पास है, जो कुछ भी, सारे संसाधन जिसमें तुम्हारी ऊर्जा, बुद्धि, श्रम, समय और पैसा सब आ जाते हैं। वो कह रहे हैं, ‘जीवन को यज्ञ की तरह जानो और वो सबकुछ उसमें झोंक दो और अगर तुमने वास्तव में झोंका है तो तुमको और मिलेगा और झोंकने के लिए। और तुमको और अर्जित ही करना पड़ेगा क्योंकि तुमको और झोंकना है।’

वो चीज़ ऐसी है कि वो आहुति माँगती है, वो और ज़्यादा माँगती है, और दो उसे। और दोगे तो कमाना ही पड़ेगा। तो अपने लिए कितना भोगना है? अपने लिए उतना भोगो जितना आवश्यक है उसमें और झोंकने के लिए। पैसा अपने लिए नहीं है, पैसा अपने काम को आगे बढ़ाने के लिए है। पैसा अपने काम को आगे बढ़ाने के लिए है, सही काम को। उसको आगे बढ़ाने के लिए है पैसा। उसे आगे बढ़ाने के लिए पैसा चाहिए तो खूब कमाओ, खूब कमाओ। कमाओगे नहीं तो काम को आगे कैसे बढ़ाओगे, कमाओगे नहीं तो ख़ुद इस काबिल कैसे बनोगे कि काम को आगे बढ़ाओ।

कमाना इसलिए नहीं है कि ख़ुद खाना है, कमाना इसलिए है कि काम आगे बढ़ाना है। ख़ुद भी खाना है अगर तो इसीलिए कि खाऊँगा नहीं तो काम आगे कैसे बढ़ाऊँगा। और जैसे-जैसे काम आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे ये भी ज़रूरत बढ़ती जाती है कि चूँकि काम को आगे बढ़ाने वाले तुम हो तो तुम अपने ऊपर भी कुछ खर्च करो। इससे तय हो जाता है कि तुम्हें अपने ऊपर कितना खर्च करना चाहिए — उतना ही जितना ज़रूरी है काम को आगे बढ़ाने के लिए। पहलवान खाएगा नहीं तो जीतेगा कहाँ से! लेकिन पहलवान को उतना ही खाना है जितने से वो जीते। पहलवान इतना खाने लग गया कि भैंसा बन गया तो अब वो काम के लिए नहीं खा रहा है, वो पेट के लिए खा रहा है। इन दोनों में अन्तर समझ रहे हो?

एक तो ये है कि तुम इसलिए खा रहे हो क्योंकि खाओगे नहीं तो तुम्हारा काम ही रुक जाएगा और दूसरा ये है कि तुम इसलिए खा रहे हो कि तुम काम कर ही रहे थे सिर्फ़ खाने के लिए। ज़्यादातर लोग काम को ऐसे ही देखते हैं। कह रहे हैं, ‘काम करूँगा तो और खाने को मिलेगा।' पर तुम क्यों खाना चाहते हो, तुम्हारे जीवन का उद्देश्य क्या है? खाकर करोगे क्या? खाना तो संसाधन है, खाना तो फ्यूल (ईन्धन) है, उस फ्यूल से तुम्हारी गाड़ी जाएगी कहा को? जीना क्यों चाहते हो? क्यों जीना चाह रहे हो? खाकर क्या कर रहे हो? ये जवाब दिये बिना ज़िन्दगी जीते जाना समय की बर्बादी है।

देखो, जब काम को ज़िन्दगी बना लेते हो तो बहुत तरह के झंझटों से बच जाते हो। मानसिक बीमारी का बड़े-से-बड़ा स्रोत जानते हो न क्या होते है? मानवीय रिश्ते, हमारी रिलेशनशिप्स।

जब काम सही होता है तो तुम्हें किसी इंसान को अपनी ज़िन्दगी का केन्द्र बनाने की ज़रूरत नहीं रह जाती। तुम फिर ये नहीं कहते हो कि मैं इस इंसान के लिए जी रहा हूँ या इसके भरोसे जी रहा हूँ। तब तुम इंसानों को ज़िन्दगी में सही जगह दे पाते हो। और किसी भी इंसान की ये हैसियत नहीं होती कि तुम उसे ज़िन्दगी में केन्द्रीय या सर्वोच्च जगह दे दो, ऐसा कोई इंसान नहीं होता।

लेकिन आम आदमी ऐसे ही जीता है, वो काम इसलिए करता है ताकि सारा पैसा लाकर के उसके सामने रख दे या उनके सामने रख दे जो उसकी ज़िन्दगी का केन्द्र हैं। हम दफ़्तर में बेईमानियाँ करते हैं, हम दुकानों में घपले करते हैं, हम राजनीति में भ्रष्ट हैं, हम ये सबकुछ करते हैं। हम किसकी ख़ातिर करते हैं? अपने सम्बन्धों की ख़ातिर।

‘मैं सौ तरह के घपले करूँगा, मैं पूरी दुनिया का ख़ून चूसूँगा’, किसलिए? क्योंकि मुझे अपने बेटे को डोनेशन देकर के डॉक्टर बनवाना है, अपने परिवार को दुबई ले जाना है और उनको ज्वैलरी खरीदवानी है।' आम आदमी की ज़िन्दगी का केन्द्र कुछ इंसान होते हैं और जब भी तुमने किसी इंसान को अपनी ज़िन्दगी में सेंट्रल , केन्द्रीय जगह दे दी, तुमने अपने लिए नर्क तैयार कर लिया।

अपनी ज़िन्दगी का केन्द्र अपने काम को बनाओ। उसी से तुम्हारी आशिक़ी होनी चाहिए। गहराई से प्यार करो, किससे? अपने काम से। लेकिन काम भी फिर इस लायक़ होना चाहिए न कि दिल आ जाए उस पर। यही कोई ओंगा-पोंगा काम पकड़ लोगे तो ऐसे थोड़ी होता है किसी से भी प्यार हो जाए। ऐसा होता है क्या? कोई ऐसा होना भी चाहिए न इस क़ाबिल कि दिल दे दो उसको। काम भी ऐसे ही चुनो। बात समझ में आ रही है?

जिन्होंने काम को ज़िन्दगी बना लिया वो सम्बन्धों के कीचड़ से बच जाते हैं। और सम्बन्धों का कीचड़ दुनिया की अस्सी-नब्बे प्रतिशत मानसिक बीमारियों का कारण है। दुनिया में इस समय जो लोग घोषित रूप से मनोरोगी हैं, मेंटली डिज़ीज़्ड हैं, वो बस पाँच-दस प्रतिशत हैं जिनको छोटा या बड़ा कोई मानसिक रोग है। लेकिन ऐसे भी अनुमान लगाये गए हैं कि दुनिया की दो तिहाई से ज़्यादा आबादी न्यूरोसिस की गिरफ़्त में है। थोड़े-बहुत पागल शायद दुनिया के सभी लोग हैं या दस में से सात-आठ लोग हैं। और ये भी शोध से ही आया है कि आदमी को पागल करने में सबसे बड़ा योगदान उसके सम्बन्धों का, रिलेशनशिप्स का होता है।

एक तो हम पागल पैदा होते हैं और फिर जैसे हम रिश्ते बना लेते हैं वो हमें एकदम ही कहीं का नहीं छोड़ते। और ये सबकुछ क्यों? क्योंकि हमारे पास जीने के लिए कोई माकूल वज़ह नहीं है। हमारे पास करने के लिए कोई उचित काम नहीं है तो फिर हम अपनी ज़िन्दगी के केन्द्र में किसी राजा को, किसी रानी को, इनको बैठाते हैं। ये नहीं समझ में आ रही बात?

और ये राजा-रानी होते भी कैसे हैं? एक आदमी है जो काम के क्षेत्र में एकदम दिवालिया है, औसत से भी नीचे के स्तर का, वो तुम्हारे सपनों का राजा हो कैसे गया! मुझे तो ये नहीं समझ में आता। एक आदमी जो ज़िन्दगी के हर क्षेत्र में बिलकुल पैदल है, जहाँ जाता है वहीं मार खाता है, जो ‘अ’ को ‘अ’ और ‘ब’ क़ो ‘ब’ नहीं जान पाता, उसको तुम घोषित कर देते हो कि ये मेरा राजकुमार है। कैसे भाई, कैसे? उसमें क्या है राजकुमार जैसा?

और इसका ये नहीं मतलब है कि जो ज़िन्दगी अपनी समर्पित कर देंगे किसी काम को, किसी मिशन को, वो रिश्ते बनाएँगे ही नहीं। वो फिर सही रिश्ते बनाते हैं, वो ऐसे रिश्ते बनाते हैं जिसमें खोपड़ा नहीं ख़राब होता, क्योंकि उस रिश्ते में, जिससे तुम्हारा रिश्ता है उसको इतना महत्व दिया ही नहीं जाता कि वो तुम्हारी ज़िन्दगी खा जाए। उसको इंसान की तरह ही रखा जाता है, भगवान की तरह नहीं। हम अपने रिश्तों में सामने वाले को भगवान ही बना देते हैं पूरा। और तुम्हारा भगवान हो बिलकुल अंडू-पंडू तो बताओ ज़िन्दगी में अब बचेगा क्या? और होते सब अंडू-पंडू ही हैं। साधारण आदमी को भी भगवान बना दोगे तो वो अंडू-पंडू हो जाएगा।

भई, तुम्हारी ठीक-ठाक चलने वाली गाड़ी हो, साधारण गाड़ी, तुम उसको फेरारी की स्पीड पर दौड़ा दो, तो वो भी अंडू-पंडू हो जाएगी न? तो वैसे ही तुम जिसको ज़िन्दगी में लेकर आते हो, तुम उसको भगवान बना देते हो तो उससे झेला नहीं जाता, ढाई-सौ की स्पीड कौनसी गाड़ी झेल पाएगी! वो अंडू-पंडू हो जाती है और फिर तुम कहते हो, ‘धोखा हो गया।’ धोखा नहीं हो गया, तुमने सही काम के अभाव को एक इंसान से भरना चाहा, ये तुमने ग़लती करी है। तुमने जीवन का एक मूल सिद्धान्त नहीं समझा।

ज़िन्दगी किसी इंसान को समर्पित कर देने के लिए नहीं होती है। ज़िन्दगी सही काम करने के लिए होती है।

सही इंसान भी वही है जो आपको सही काम की तरफ़ प्रेरित करे। ऐसे लोगों को ज़िन्दगी में ज़रूर रखो। सही रिश्ता वो है जो सही काम के साथ-साथ चले। जो सही काम के रास्ते में बाधा बने ऐसा रिश्ता सही कैसे हो सकता है? अब समझ में आ रहा वर्क फ्रॉम होम का असली मतलब? काम सिर्फ़ अच्छा नहीं चुनो।

बी मैडली इन लव विद योर वर्क। एंड फॉर दैट चूज द काइंड ऑफ वर्क देट इज़ इंट्रिंसीकली लवेबल (अपने काम के साथ दीवाने की तरह प्यार में पड़ जाओ, और उसके लिए वो काम चुनो जो वास्तव में प्यार करने योग्य हो)। उल्टा-पुल्टा काम चुनकर तुम कहो कि लव व्हाटएवर यू डू (जो कुछ भी कर रहे हो उसे प्यार करो) तो ये बेवकूफ़ी की बात है। व्हाटएवर से नहीं चलेगा काम।

पहले तो काम सही चुनो। व्हाटएवर से इश्क़ किया जाता है क्या? कोई तुमसे पूछे, ‘हुम डू यू लव?’ (किससे प्रेम करते हो?) और जवाब दो, हू सो एवर, व्हाट्एवर, व्हेयरएवर, व्हेनएवर (कोई भी हो, जो भी हो, जहाँ भी हो, जब भी हो)! ये कोई जवाब है?

बंगाल के दो क्रान्तिकारियों का उदाहरण याद आ रहा है मुझे। एक तो नाम ठीक से याद नहीं रहता। क्या मैं सूर्यसेन और कल्पना दत्त की बात कर रहा हूँ? (श्रोता से पूछते हुए)। सूर्यसेन तो उनके टीचर थे, जिनमें आपस में प्रेम था और शायद विवाह की स्थिति तक बात पहुँची थी। बंगाल के दो क्रान्तिकारी थे, कौन थे? (श्रोता से पूछते हुए)

प्रेम हो तो ऐसा हो न, जीवन में कोई ऐसा व्यक्ति लेकर के आओ कि दोनों का पहला प्यार किससे है? क्रान्ति से। और दोनों आपस में भी एक साथ इसलिए हैं क्योंकि दोनों का पहला प्यार एक है। वो दोनों एक-दूसरे से प्यार नहीं करते हैं, दोनों किससे प्यार करते हैं? स्वतन्त्रता से, क्रान्ति से, आज़ादी से। आज़ादी दोनों का पहला प्यार है और चूँकि दोनों उस एक साझे बिन्दु के प्रेम में हैं इसीलिए दोनों एक साथ हैं। साथी ऐसा होना चाहिए। साथी ऐसा होना चाहिए जो काम में साथ हो। आ रही है बात समझ में? अब ये दोनों अपने होम में भी क्या करेंगे, क्रान्ति ही करेंगे। ये वर्क फ्रॉम होम है।

तुम्हे क्या लग रहा है, ऐसे दो लोग जब साथ घूम रहे होंगे तो डिजनीलैंड की बात कर रहे होंगे, परियों के देश के सपने ले रहे होंगे या ये प्लानिंग कर रहे होंगे कि अगला नुन्नू कब आएगा? ऐसे दो लोग अगर साथ होंगे तो लगातार बात भी क्या कर रहे होंगे? कि क्रान्ति की ओर अगला क़दम कैसे बढ़ाना है। ये हुआ वर्क फ्रॉम होम। सोचकर देखो, सोच में ही मज़ा आ जाएगा, तो जीने में कैसा आनन्द आएगा कि कोई ऐसा तुम्हारे साथ है जिसकी धड़कन और तुम्हारी धड़कन बिलकुल एक सी है और दोनों का दिल एक-दूसरे के लिए नहीं धड़क रहा है, दोनों का दिल किसी तीसरे के लिए धड़क रहा है।

श्रोता: प्रीतिलता वादेकर और निर्मलसेन। साथ थे, विवाह नहीं किया था।

आचार्य: ये बात! प्रीतिलता वादेकर और निर्मलसेन। विवाह नहीं किया था न, विवाह नहीं किया था, साथ थे। ट्रू लव ऑलवेज इन्वॉल्व्स थ्री (सच्चे प्रेम में हमेशा तीन होते हैं), रूमी की या हाफ़िज़ की है यह उक्ति।

तो आज से पाँच-सात साल पहले मैं बताया करता था कि जो थर्ड है, वो आत्मा है, वो सत्य है। अब मैं ज़्यादा व्यावहारिक तौर पर बोलता हूँ। कहता हूँ, ‘जो थर्ड है, वो काम है।’ बताने वाले ने एक पोएम (कविता) लिखी है। ’ट्रू लव ऑलवेज इन्वॉल्व्स थ्री।’ थ्री कौन-कौन? मैं, तुम और वो।

मैं कहता हूँ, वो तो बहुत एब्स्ट्रेक्ट (अमूर्त) हो गया, तो वो जो थर्ड है वो है 'सही काम’। ये जो सही काम है, यही किसी भी रिश्ते की जान होता है और जो तीसरा है इसी से पहला सम्बन्ध होना चाहिए इन दोनों का। तब इन दोनों का आपसी सम्बन्ध चलेगा।

मेरी बात सुनकर आप लोग आनन्दित होने की जगह तनावग्रस्त क्यों हो जाते हैं? पहले तो ये बताइए। बोल मैं रहा हूँ, गला कई लोगों का सूख रहा है, क्यों? कुछ घबराने की बात नहीं है, कुछ ऐसा मुश्किल नहीं है। जटिलता इन बातों में नहीं है। जटिलता भीतर की जलेबी में है। मीठे का मोह त्याग दो, जलेबी को बाहर रख दो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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