संतों, सो निज देश हमारा। जहाँ जाए फिर हंस न आवे, भवसागर की धारा ।। सूर्य-चन्द्र नहीं तहाँ प्रकाशित, नहीं नभमंडल तारा । उदय न अस्त दिवस नहीं रजनी, बिना ज्योति उजियारा ।। पाँच तत्व गुण तीन तहाँ नहीं, नहीं तहाँ सृष्टि पसारा । तहाँ न मायाकृत प्रपंच यह, लोक कुटुम्ब परिवारा ।। क्षुधा-तृषा नहीं शीत-उष्ण तहाँ, सुख-दुख को संचारा । आधि न व्याधि उपाधि कछु तहाँ, पाप-पुण्य विस्तारा ।। ऊँच-नीच कुल की मर्यादा, आश्रम वर्ण विचारा । धर्म-अधर्म तहाँ कछु नाहीं, संयम नियम आचारा ।। अति अभिराम धाम सर्वोपरि, शोभा जासु अपारा । कहें कबीर सुनो भाई साधो, तीन लोक से न्यारा ।।
~ कबीर साहब
आचार्य प्रशांत: “साधो, सो निज देश हमारा”— देश, घर, वास्तविक स्थान, केन्द्र हमारा। हममें से ऐसा कोई नहीं है जिसको अपनी ओर से ये न पता हो कि उसका घर कहाँ है। पर क्या होता है घर? एक ईंट-पत्थर का मकान? पदार्थ? या क्या होता है घर? एक ऐसी जगह जहाँ आपके नात-रिश्तेदार रहते हों, परिवार रहता हो, समाज के दिये हुए सारे सम्बन्ध रहते हों, ख़ून के रिश्ते, मर्यादा के रिश्ते?
कहने को घर सभी के पास है लेकिन अगर वो वास्तव में घर होता है तो हमें चैन होता। घर की परिभाषा ही यही है कि जहाँ तुम विश्राम में आ जाओ, तुम्हारी वो जगह जो तुम्हारा स्वभावगत आसन है। जहाँ तुम्हें किसी प्रकार की सतर्कता की ज़रूरत न पड़े, जहाँ तुम पूरे तरीक़े से वो हो सकते हो जो तुम हो, वो देश है तुम्हारा, वो घर है तुम्हारा।
घर वो नहीं जो तुम्हें कुछ और बनाने पर उतारू हो, घर वो नहीं जिसने तुम्हें आदतें और संस्कार दिये हों। घर वो है जहाँ पर सारे संस्कारों को उतार कर तुम पूर्णतया नग्न हो सकते हो। घर वो है जहाँ पर मन को किसी कर्तव्य या मर्यादा का पालन करने की कोई ज़रूरत नहीं है। घर वो है जहाँ तुम्हें किसी तरह का कोई मुखौटा नहीं पहनना है, सत्य ही काफ़ी है।
घर वो है जहाँ परम मुक्ति है, जहाँ किसी तरह की कोई बेड़ियाँ न हों, सिर्फ़ वही घर हो सकता है तुम्हारा। घर वो नहीं है जहाँ प्रवेश करते ही बेचैन हो जाओ या एक प्रकार की बेचैनी दूसरी प्रकार की बेचैनी में तब्दील हो जाए। घर वो है जहाँ तुम हर प्रकार के बोझ से मुक्त हो सको, आनन्दपूर्ण हो सको।
घर वो नहीं है जहाँ पर सम्बन्धों का आधार आदान-प्रदान है, व्यापार है। घर मात्र वो स्थान, वो आसन हो सकता है जहाँ पर व्यापार नहीं है, प्यार है। जहाँ पर सम्बन्ध बनते ही प्रेम के हैं, प्रेम के अतिरिक्त सम्बन्धों का और कोई कारण नहीं है, और कोई रंग ही नहीं है सम्बन्धों में प्रेम के अलावा। लेने-देने, पाने-छोड़ने जैसी कोई बात ही नहीं है।
समझ ही गये होंगे आप कि घर पदार्थ तो हो ही नहीं सकता, घर संस्कारित मनोदशा भी नहीं हो सकती। घर तो मन की वो दशा है जिसमें मन अपनी पूरी सामग्री से, अपनी पूरी कंडीशनिंग (संस्कार) से, अपने पूरे बोझ से मुक्त हो जाता है। जब मन ऐसा हो जाता है तब आप कह सकते हैं कि मन घर आया, मैं घर आया; मात्र तभी आप कह सकते हैं।
तो किसी भौतिक जगह, किसी फ़िज़िकल प्लेस (भौतिक स्थान) का नाम तो घर नहीं ही है, किन्हीं व्यक्तियों के साथ होने का नाम भी घर नहीं है। घर वास्तव में पूर्णतया अपने साथ हो जाने का नाम है। वो जगह जहाँ आप आप हो सकते हैं, वो जगह है घर।
कह रहे हैं कबीर, “संतों, सो निज देश हमारा, जहाँ जाए फिर हंस न आवे, भवसागर की धारा।” जो मन लगातार सिर्फ़ उलझनें, बेचैनी और तड़प जानता है, वो एक बार ऐसे घर की झलक पाने लग जाए तो उसका लौटने का मन नहीं करता है वापस कलह और विषाद की दुनिया में।
“जहाँ जाए फिर हंस न आवे।" हंस क्या है? मन का अपने घर में होना ही हंस होना है, मन का अपने केन्द्र पर होना ही हंस होना है। केन्द्र पर स्थित मन ही आत्मा है। हंस को आत्मा के लिए ही प्रयुक्त किया जाता है। मन का अपने केन्द्र पर होना ही आत्मा है।
तो भटकता हुआ मन जब अपने घर पहुँच जाता है, उस घर को छोड़ने की उसकी कोई तबीयत नहीं होती। "जहाँ जाए फिर हंस न आवे।" उस प्रक्रिया में वापस लौटने की गुंजाइश होती नहीं है। कौन जाएगा दोबारा नकली के पास जिसे असली का स्वाद मिलने लगा! “हंसा नहाये मानसरोवर, ताल तलैया क्यों डोले?” बुल्लेशाह कहते हैं “हंसों की चाल देखकर, भूल गयी कागा टोरनी।”
“वहाँ जाए फिर हंस न आवे, भवसागर की धारा।” अब उसे दोबारा इस भवसागर में आने में कोई रुचि ही नहीं रह जाती, उसे मानसरोवर मिल गया है। भवसागर क्या है? वह सबकुछ जो होता प्रतीत होता है, आम आँखें जो देखती हैं, आम कान जो सुनते हैं, और मन साधारणतया जिस चिन्तन में लगा रहता है, उसी का नाम है भवसागर। एक बार लेकिन मन ने सत्य का, मुक्ति का, आनन्द का स्वाद चख लिया तो अब वो दोबारा व्यर्थ की चिन्ताओं में, अपने ऊटपटांग गणित में उलझना ही नहीं चाहेगा।
वो कहेगा, ‘कौन जोड़े-घटाये, किसको फ़िक्र है ऊँच-नीच की, कौन सोचे क्या पा रहे हैं क्या खो रहे हैं; घर आ गये, जो सबसे क़ीमती था वो मिल ही रहा है, अब इधर-उधर क्या घट रहा है, उससे हमें प्रयोजन क्या! हमारा तो एक ही स्थान है और वो हमें उपलब्ध हो गया है और उस स्थान के अलावा वैसे भी कुछ असली है नहीं। जो असली है, जब वो मिल ही गया तो नकली की फ़िक्र कौन करेगा!’
“सूर्य-चंद्र नहीं तहाँ प्रकाशित, नहीं नभ मंडल तारा।” नहीं, वहाँ पर वो सबकुछ भी नहीं है जो हमारी आँखें हमें दिखाती हैं। भूल न हो जाए हमसे, हम ये न सोचने लगें कि अपने वर्तमान घर में खुश नहीं हैं तो किसी और शहर चले जाएँगे, किसी और के साथ बस जाएँगे; नहीं, ऐसा हो नहीं पाएगा। आप सोचें कि किसी और ग्रह भी चले जाएँ तो भी ऐसा नहीं हो पाएगा। जहाँ-जहाँ सूरज की रोशनी पहुँचती है, जहाँ-जहाँ चाँद मौजूद है, जहाँ नभ है और मंडल हैं और तारे हैं, वो सब मात्र मन का विस्तार है, वो आपका घर नहीं हो सकता। वहाँ चैन आप पाओगे नहीं।
आप जगहें बदलते रहो, आप एक से दूसरी जगह विस्थापित होते रहो, आप एक सम्बन्ध तोड़ करके दूसरा सम्बन्ध बनाते रहो, आप चैन नहीं पाओगे। निर्वासित होने का भाव लगातार बना ही रहेगा।
हम घर से विस्थापित हैं, हम घर में नहीं हैं। एक तीर सा चुभा सा रहेगा कलेजे में कि सब खड़ा कर लिया है, सुख-सुविधाओं से पूर्ण घर खड़ा कर लिया है, अपने चारों ओर रिश्तों का जाल बिछा लिया है पर चैन नहीं आ रहा है। एक हूक सी उठती ही रहती है कलेजे में, कभी भी हल्का अनुभव नहीं करते। तमाम साधन बना लिये हैं इस दर्द को भुलाने के और उन साधनों में लिप्त रहते हैं, तब भी ये दर्द, ये चोट, ये टीस, अपना एहसास कराती ही रहती है।
“सूर्य चंद्र नहीं तहाँ प्रकाशित, नहीं नभ मंडल तारा।” नहीं, वो ब्रह्माण्ड में पाया जाने वाला कोई भौतिक स्थान नहीं है। जगहें बदलने से कुछ हासिल नहीं होगा, नौकरियाँ बदलने से कुछ हासिल नहीं होगा। सम्बन्धों को बदल देने से, व्यक्तियों को बदल देने से कुछ हासिल नहीं होगा।
“उदय न अस्त दिवस नहीं रजनी, बिना ज्योति उजियारा।” उसकी महिमा का वर्णन कर रहे हैं। वहाँ आवागमन नहीं है।
“उदय न अस्त दिवस नहीं रजनी, बिना ज्योति उजियारा”, ये आना-जाना ही तो टीस है न मन की। “उदय न अस्त” — जो उठता है वो गिर जाता है; जो आता है वो चला जाता है। मन में बड़े भाव उठे, अनेकों ने वादे किये, पता नहीं कौन-कौन ज़िन्दगी में आया और जो ही आया, जाने के लिए आया। जितने भी फूल खिले, कुम्हलाने के लिए खिले। आज जो सच्चा लगा, कल पता नहीं कहाँ गया। आज जिसपर ज़िन्दगी लुटा देने का मन करता था, कल वो आँखों को नहीं सुहाता।
कबीर कह रहे हैं — ,‘न, जो तुम्हारा सच्चा घर है वहाँ ये सब नहीं होता, “उदय न अस्त”,वो आवागमन से मुक्त है।’ वहाँ आना-जाना, उठना-गिरना, पैदा होना, ख़त्म हो जाना, वो होता ही नहीं। कोई द्वैत नहीं पाया जाता वहाँ। वहाँ नफ़रत नहीं है, वहाँ आकर्षण भी नहीं है; न आकर्षण, न विकर्षण। न वहाँ खोने का डर है, न पाने की उत्तेजना।
"उदय न अस्त दिवस नहीं रजनी, बिना ज्योति उजियारा।"
“बिना ज्योति उजियारा।” साधारण प्रकाश को अपने होने के लिए अपने पीछे किसी कारण की ज़रूरत पड़ती है। आपने जितने भी प्रकाश देखे हैं उनके पीछे कोई कारण है। आप रोशनी अभी देख पा रहे हैं तो मात्र इसलिए क्योंकि सूरज उगा है। सूरज कारण है प्रकाश का और सूरज न रहे तो प्रकाश आपको दिखायी न देगा।
ये प्रकाश है जो आँखों को दिखायी देता है, इसी तरह से आपके मन में जब भी रोशनी हुई है, उसके भी कारण रहे हैं। आप कहते हैं, ‘बड़ा हर्षित हूँ, हज़ार दीप जल रहे हैं आज मन में’, उसके पीछे कोई कारण होता है। कोई प्रिय मिल गया होता है, कोई कामना पूरी हो गयी होती है, कारण ज़रूर होता है। कारण हटेगा, आपके मन के सारे दीप भी बुझ जाएँगे। सूरज ढल जाएगा, रात आ जाएगी।
सूरज, याद रखिएगा, सिर्फ़ आसमान में नहीं ढलता, कितने सूरज हमारे मन में उगे हैं और ढल गये हैं, अनगिनत। आदमी सिर्फ़ शाम के बाद आने वाली रात के ख़ौफ़ में नहीं जीता, हज़ार रातें हैं जो मन पर छायी हैं और उनके ख़ौफ़ से हम गुज़रते ही रहे हैं। कितने ही दीपों के साथ हमने उम्मीद बाँधी है कि ये कभी नहीं बुझेगा, ये रात को कभी आने नहीं देगा पर हर दीप बुझा है, रात आयी है।
रात आएगी क्योंकि आपके उजालों के पीछे कोई कारण रहा है। पर जहाँ बिना ज्योति उजियारा हो वहाँ उजियारा शाश्वत हो जाता है। अब इस उजियारे को कोई आपसे छीन नहीं सकता। इसमें एक नित्यता आ जाती है। कारण नहीं है कुछ इसका, ये तो आपका अकारण स्वभाव है, पा लिया आपने। उजियारा है; क्यों है? क्योंकि मैं उजियारा हूँ। मेरा होना ही तो प्रकाश है।
मुझसे तुम सब छीन सकते हो, मुझको तो नहीं छीन सकते। और मैं स्वयं प्रकाश-रूप हूँ, स्वभाव है मेरा प्रकाश। जब तुम मुझसे मुझको नहीं छीन सकते तो तुम मुझसे मेरा उजियारा भी नहीं छीन सकते, मैं ही तो उजियारा हूँ, मैं ही तो प्रकाश हूँ।
प्रकाश क्या है? प्रकाश वो है जिसमें आप देख सकें, समझ सकें। मैं बोध-स्वरूप हूँ, और कुछ मैं हूँ ही नहीं। अष्टावक्र कहते हैं, “बोधोअहं — बोध ही तो हूँ मैं।” वही एकमात्र प्रकाश है जो असली है और वो हमसे छिन नहीं सकता। जो कुछ बाहर से आएगा छिन कर रहेगा, नष्ट होकर रहेगा; ये प्रकृति है उसकी। अपने बोध में स्थापित हो जाना ही अपने घर को पा लेना है। और वो घर निरंतर हज़ार सूर्यों की रोशनी से जगमगाता रहता है, वहाँ कभी अंधेरा होता ही नहीं, कोई अमावस वहाँ कभी आती नहीं।
“पाँच तत्व गुण तीन तहाँ नहीं, नहीं तहाँ सृष्टि पसारा।” अष्टावक्र जब कहते हैं 'बोधोअहं', तो साथ में ये भी कहते हैं कि मैं प्रकृति से परे हूँ, "बोधोअहं प्रकृति: परे।" वहाँ प्रकृति के गुण नहीं पाये जाते क्योंकि प्रकृति और पुरुष तो अपनेआप में द्वैत है। वो आख़िरी द्वैत है, याद रखिएगा; बाक़ी सारे द्वैत प्रकृति के भीतर पाये जाते हैं।
दिन-रात, काला-सफेद, सुख-दुख, ये सब द्वैत प्रकृति के भीतर पाये जाते हैं लेकिन एक आख़िरी द्वैत भी होता है, वो आख़िरी द्वैत स्वयं प्रकृति और पुरुष का द्वैत है। प्रकृति अपनेआप में द्वैत का एक सिरा है जिसके दूसरे सिरे पर साक्षी पुरुष है। नहीं, वहाँ पर प्रकृति का कोई गुण नहीं पाया जाता — न तो पाँच भूत हैं, न सत्-रज्-तम् जैसा कुछ है।
वहाँ तो बस एक है — अपना होना। और वो ‘अपना होना’ निश्चित रूप से आपकी प्रकृति का होना नहीं है, न आपके शरीर का होना है जो पंचभूत का है। कबीर स्पष्ट कर रहे हैं, “पाँच तत्व गुण तीन तहाँ नहीं।” पाँच तत्व से अर्थ है कि शरीर नहीं है वहाँ पर; शरीर पाँच तत्वों से बना है। “गुण तीन तहाँ नहीं” — तीन गुण नहीं है यहाँ पर, मन नहीं है। सत्-रज्-तम् , ये तीनों क्या हैं? ये मन हैं; प्रकृति के गुण, मन। न शरीर है, न मन है, वहाँ मात्र आप हैं अपने आत्म स्वरूप में।
“पाँच तत्व गुण तीन तहाँ नहीं, नहीं सृष्टि पसारा।” वहाँ पर वैभिन्य नहीं है। हम जिसको सृष्टि बोलते हैं उसका अर्थ ही होता है कि सब अलग-अलग दिख रहा है। आप हरे को देख पा रहे हैं क्योंकि हरे के पीछे सफेद रंग है।
विस्तार वहाँ भी है, अनंत विस्तार है, ऐसा विस्तार जिसको हमने पहले कभी देखा नहीं। पर वो एकत्व का विस्तार है, वैभिन्य का विस्तार नहीं है। जहाँ कहीं भी विस्तार इस कारण दिखेगा कि सब अलग-अलग है, वहाँ ही डर होगा और हिंसा होगी; वहाँ ही भेद होगा; वहाँ ही पसंद-नापसंद और रुचि-अरुचि होगी; वहाँ ही उद्देश्य होंगे, लक्ष्य होंगे और दौड़ होगी।
कुछ अच्छा है, कुछ बुरा है, तो निश्चय ही जो अच्छा है उसको पाना है, जो बुरा है उससे बचना है; जो पसंद है उसको पकड़ना है, जो नापसंद है उसे छोड़ना है। नहीं, वहाँ ऐसा कुछ नहीं है जिसे आप पसंद कर सकें या जिसे आप नापसंद कर सकें। पसंद और नापसंद दोनों तनाव हैं एक प्रकार का। पसंद में तनाव है पा लेने का, नापसंद में तनाव है मुक्त हो जाने का, छोड़ देने का। वहाँ तो न पसंद की बात है, न नापसंद की बात है, वहाँ तो होने की बात है। मैं हूँ, मात्र मैं ही हूँ; कैवल्य। अब क्या पसंद और क्या नापसंद! कोई तनाव नहीं है, पूर्णतया निर्बोझ हूँ। नहीं कुछ हासिल करना है, नहीं किसी से बच लेना है।
जिस किसी ने अपनेआप को सृष्टि के मध्य बैठा पाया, जिस किसी ने सोचा कि मेरे चारों तरफ़ ये बड़ा विस्तार है प्रकृति का, लोगों का, वस्तुओं का, देशों का और उसके बीच में मैं एक हूँ, जिस किसी ने सत्य की ये अवधारणा बनायी उसने अब अपनेआप को ढकेल दिया है दुख में, तनाव में, एक अंधी दौड़ में।
लगातार उसे डर रहेगा कि मैं इस पूरे अस्तित्व से भिन्न हूँ। अगर मैं इस पूरे अस्तित्व से भिन्न हूँ तो निश्चित सी बात है मुझे अपनी रक्षा करनी पड़ेगी। अस्तित्व अलग है, मैं अलग हूँ, तो एक परायेपन का भाव लगातार बना रहेगा। वो डर में जिएगा, वो अपनी सुरक्षा के तमाम इंतज़ाम करेगा। वो चुनेगा, क्या है जो मुझे सुरक्षित कर सकता है, क्या है जिससे मुझे बचने की ज़रूरत है। जो उसे सुरक्षित कर सकता है वो उसके पीछे दौड़ेगा। उसे वो कहेगा, ‘ये मेरा गोल है, ये मेरा लक्ष्य है, ये मुझे पाना है।’
हम समझ भी नहीं पाते हैं कि लक्ष्यों का पीछा करना कितनी गहरी मानसिक बीमारी है। हमारी शिक्षा व्यवस्था भी ऐसी है जो सिखाये जाती है कि लक्ष्य बनाओ और उन्हें हासिल करो। जिन्होंने ये बनाया है उन्होंने शायद ध्यान को कभी जाना ही नहीं, उन्होंने जीवन को कभी समझा ही नहीं, मन क्या है — इसमें वो कभी गहरे उतरे ही नहीं। थोड़ा भी यदि ध्यान उपलब्ध हुआ होता तो समझ जाते तुरन्त कि ये दौड़ कहाँ से आती है और क्या है, कि क्यों मन सुरक्षित अनुभव करना चाहता है।
जो मन सुरक्षा हासिल करने के लिए भाग रहा है, वो डरा हुआ है, सुरक्षा कभी उस डर को मिटा नहीं पाएगी।
तमाम तरीक़ों से हम सुरक्षा की तलाश में रहते हैं। हम कहते हैं कि मैं बहुत लोगों को जानने लग जाऊँ, मैं सुरक्षित अनुभव करूँगा। हम कहते हैं कि मैं बहुत सारा पैसा इकट्ठा कर लूँ, मैं सुरक्षित अनुभव करूँगा। हम कहते हैं मैं किसी ख़ास जगह पर पहुँच जाऊँ, मैं सुरक्षित अनुभव करूँगा। एक पद हासिल कर लूँ, एक मुक़ाम मिल जाए, मैं सुरक्षित अनुभव करूँगा।
आप नहीं कर पाएँगे सुरक्षित अनुभव जीवनभर। आख़िरी साँस तक आपका मन असुरक्षा में ही तड़पेगा क्योंकि जो मूल व्याधि है उसको आप देख नहीं पा रहे हैं। आप एक झूठी बीमारी का इलाज कर रहे हैं, असली बीमारी कहीं और छुपी बैठी है।
नकली बीमारियों का इलाज करने से असली बीमारियाँ बची रह जाती हैं, वो छुपी रह जाती हैं।
“तहाँ न मायाकृत प्रपंच यह, लोक कुटुम्ब परिवारा।” "तहाँ न मायाकृत प्रपंच यह" — सारा प्रपंच जो चारों ओर फैला हुआ है, नाटक, ड्रामा; ड्रामा ही तो है, अभिनय ही तो कर रहे हैं हम।
क्या है अभिनय? अभिनय वो जहाँ आप बस किसी और के लिखे हुए संवादों को पढ़ रहे हैं, जहाँ आप किसी और की रोल अदायगी कर रहे हैं, जहाँ आपका चरित्र, किरदार पहले ही किसी और ने तय कर दिया है। वो प्रपंच है, वो नाटक है। और क्या हम ऐसे ही नहीं जीते? तुम दफ़्तर में जाते हो, पहले ही तय कर दिया गया होता है कि दफ़्तर में तुम्हें क्या व्यवहार करना है। तुम दफ़्तर में वो होते ही नहीं जो तुम बाज़ार में हो, तुम बाज़ार में वो होते ही नहीं जो तुम कॉलेज में होते हो। यही तो प्रपंच है।
और अगर जगह बदलने से और व्यक्तियों के बदलने से तुम्हारे चेहरे के भाव बदल जाते हैं तो निश्चय ही तुम्हारा चेहरा हज़ार मुखौटे लेकर के चल रहा है। “मायाकृत प्रपंच।” कबीर कह रहे हैं, ‘न-न-न, तुम जानते भी नहीं हो कि तुम्हारे दिल पर कितना बड़ा भार है इन मुखौटों को ढोना।’
ज़रा सोचो, तुम अपने चेहरे पर अनगिनत मुखौटे लगाकर के चल रहे हो और लगातार तुम्हें सतर्क रहना है कि कब कौनसा मुखौटा धारण करूँ, कहीं ग़लती न हो जाए, चूक न जाऊँ। अमुक व्यक्ति सामने आया है, इसके सामने इस तरह से मुस्काना है। अमुक व्यक्ति सामने आया है, ये रुतबे में मुझसे नीचे है, इसके सामने तो मुझे भौंहें तरेरनी हैं। ये स्त्री पत्नी है, इससे ऐसा व्यवहार करना है। करना होता है, किरदार है ऐसा। पति का किरदार है, उसके साथ ऐसे-ऐसे वचन बोलने पड़ते हैं। ये स्त्री कोई और है, इसके साथ मैं एक दूसरा चेहरा दिखा सकता हूँ।
काश! ये सारी बातें आपकी अपनी होतीं। काश! आप ये कह रहे होते कि मैं चुन रहा हूँ कि मुझे कहाँ पर कौनसा मुखौटा पहनना है। डबल वेहमी (दोहरा झटका) है, दोहरी मार है। पहली बात तो ये कि मुखौटा पहनो और दूसरी बात ये है कि मुखौटा क्या पहनना है ये भी किसी और ने तय कर रखा है। आप इस भ्रम में मत रहिएगा कि देखिए हम मुखौटे तो पहनते हैं लेकिन अपनी मर्ज़ी के पहनते हैं।
अक्सर हमें ये भ्रम रहता है। हम कहते हैं, ‘ये हमारी चतुराई का हिस्सा है कि हम किस व्यक्ति को क्या मुखौटा दिखाते हैं।’ कहते हो कि नहीं? तुम कहते हो, ‘देखो, मैं इतना होशियार हूँ कि इस मौक़े पर, इस अवसर पर मैं ऐसा मुखौटा पहन लेता हूँ; ये मेरी बड़ी होशियारी है, चालाकी है।’ तुम भूल ही जाते हो कि जिसने तुम्हें मुखौटा दिया है उसने साथ ही तुम्हें वो नियम भी दिया है कि कब ये मुखौटा पहनना है। तुम भूल ही जाते हो।
तुम भूल ही जाते हो कि कितनी गहरी तुम्हारी ग़ुलामी है। जैसे कोई अभिनेता इतना चूर हो शराब के नशे में कि वो भूल ही जाए कि वो अभिनय कर रहा है, कि वो भूल ही जाए कि वो इस चरित्र से हटकर भी कुछ है।
“तहाँ न मायाकृत प्रपंच यह, लोक कुटुम्ब परिवारा।” लोक, कुटुम्ब, परिवार — ये तीनों और क्या हैं रस्म-अदायगी के अलावा? कहाँ से आ गया परिवार? या तो आता है तुम्हारे शरीर के साथ कि फ़लानों ने तुम्हें जन्म दिया या दिये जाते हैं सम्बन्ध तुम्हें समाज द्वारा।
शरीर के साथ आता है तो भी अपने नियम-क़ायदे लेकर के आता है; पहले ही तुम्हें पता है कि ये सम्बन्ध है और इसे ऐसे निभाना है। पहले ही तुम्हें बता दिया गया है कि ये स्त्री माँ है और माँ होने के ये-ये अर्थ होते हैं। और अब तुम बेटे हो और बेटे होने का ये-ये अर्थ होता है — आदर करो, सम्मान करो, प्यार करो। जैसे कि सम्मान और प्यार सिखाने से आ जाएँगे, जैसे कि वो किसी किरदार का हिस्सा हों!
फिर तुम्हारा शरीर ही एक उम्र में पहुँचकर के तुमसे कहता है कि अब एक सम्बन्ध और बनाओ — काम का, वासना का; नाम उसे देते हो तुम प्रेम का। पर भूलना नहीं, वो सम्बन्ध भी तुम्हें किसी और ने दिया है, उस किसी और का नाम है तुम्हारा अपना शरीर। तुम्हारे शरीर ने तुमसे कहा कि बनाओ अब ये सम्बन्ध और बना लेते हो तुम उसे।
फिर तुम विवाह भी कर सकते हो और वो करते ही एक अभिनेता और पैदा हो जाता है। अब स्त्री को पता है पति परमेश्वर हैं, उनके साथ इस-इस प्रकार का व्यवहार करना है और पति को पता है कि मैं रक्षक हूँ पत्नी का। ये रहा चौखटा सम्बन्ध का, इसी में सम्बन्ध रहना चाहिए।
"लोक कुटुम्ब परिवारा।"
पूछो ध्यान से अपनेआप से — कोई भी सम्बन्ध है तुम्हारा जिसमें तुम तुम हो? और अगर तुम्हारे सम्बन्धों में, कुटुम्ब में, परिवार में, पूरे लोक में तुम तुम नहीं हो तो निश्चित रूप से तुम्हारा प्रत्येक सम्बन्ध अभिनय मात्र है। उसी को कबीर कह रहे हैं "मायाकृत प्रपंच"।
मायाकृत प्रपंच! कोई भी है जिसके सामने दिल खोलकर रख सकते हो और जहाँ भय नहीं है तुम्हें कि शोषण हो जाएगा तुम्हारा? कोई भी है जो तुम्हारे लिए सन्देह से बाहर है? ईमानदारी से जवाब देना होगा। कोई भी है जिसके बारे में अगर तुम्हें पाँच बार बताया जाए कि उसने ऐसा कह दिया, उसने ऐसा कर दिया, तो तुम्हारा विश्वास डोलने न लगे?
तुम्हारे प्रिय से बढ़कर प्रियतम के विषय में भी अगर पाँच बार तुम्हें कह दिया गया कि मैंने सुना है, मैंने देखा है कि वो तुम्हें गालियाँ दे रहा था तो कहीं-न-कहीं तुम्हारे मन में शक़ पैदा हो जाएगा। ऊपर-ऊपर तुम भले कहते रहो, 'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मेरी बेटी है, मुझे गाली कैसे देगी!’ ‘मेरी माँ है, मुझे गाली कैसे देगी!’ ‘मेरा गहरा दोस्त है, मुझे गाली क्यों देगा!’ ‘मेरा भाई है, मेरा बाप है, मुझे गाली क्यों देगा!' ऊपर-ऊपर तुम भले ही ये कहते रहो पर अगर पाँच लोग पाँच बार आ करके तुमसे ये कह जाएँ तो तुम्हारे मन में शक़ पैदा हो जाना है। पक्का नहीं है कुछ भी, सन्देह का साँप लगातार तैयार है फ़न उठाने को।
कुछ पक्का नहीं है और अगर कुछ पक्का नहीं है तो तुम्हारे सम्बन्ध अभिनय मात्र हैं। ठीक वैसे जैसे कभी भी किसी अभिनेता को अभिनीत किये जा रहे चरित्र के बारे में पक्का कुछ पता नहीं हो सकता। वो तो विचारभर करता है, सोचता भर है कि जो चरित्र मैं निभा रहा हूँ वो ऐसा होगा, तुक्का है एक तरह का।
और जो निर्देशक होता है वो आकर के कुछ बातें उसे पढ़ा देता है कि देखो ऐसा-ऐसा चरित्र है। पर वो पक्का-पक्का जानता नहीं है, जीता नहीं है उस चरित्र को कभी, कभी नहीं जीता है। जिस निर्देशक ने उसे बताया है कि तुम्हारा चरित्र अमुक स्थिति में नाराज़ हो जाएगा, वही निर्देशक अगर उससे आकर के कहे कि सुनो मुझे ग़लत-फ़हमी हुई थी, तुम्हारा चरित्र इस स्थिति में नाराज़ नहीं होता है दुखी हो जाता है, तो अभिनेता को मानना पड़ेगा।
अभिनेता प्रतिवाद कर सकता है एक-दो बार पर अंततः मान लेगा। कहेगा, ‘ठीक है, निर्देशक आप हैं, आप कह रहे हैं तो शायद सही ही कह रहे होंगे। चरित्र आपका गढ़ा हुआ है, तय आपने किया है कि चरित्र का ख़ाका क्या है, इसकी रूपरेखा आपने खींची है तो आप बेहतर जानते होंगे। मैं तो बस संवाद अदायगी कर रहा हूँ, मैं तो बस निभा रहा हूँ।’ ऐसे ही हैं हमारे सम्बन्ध भी, सन्देहों में लगातार घिरे हुए।
जहाँ सन्देह है, जहाँ शक़ है, वहाँ गहरा डर है और डर ही नर्क है। नर्क को घर कहोगे? कौन उत्सुक है नर्क में घर बनाने को? है कोई ऐसा जो कहे कि नर्क में अड्डा जमाना है? पर हमने और कर क्या रखा है? हमारे सारे अड्डे नर्क के अड्डे हैं। हमने दस घर बनाये, हमने दस जगह ठिकाने ढूँढे पर हमने इतना ही करा है कि नर्क के एक कोने से उठकर नर्क के दूसरे कोने में आ गये हैं।
हम कहते हैं कि ये मेरा नया घर है और बड़े शान-ओ-शौकत से और धूमधाम से हम कहते हैं कि गृह प्रवेश है, आप आमंत्रित हैं, आइए। नर्क की गली नंबर एक में रहता था, अब गली नंबर दो में रहता हूँ। आओ, मेरा नया घर देखो।
अरे! नर्क तो नर्क है, किसी चौराहे पर खड़े हो जाओ, एक गली से दूसरी गली चले जाओ, एक मोहल्ले से दूसरा मोहल्ला बदल लो, एक शहर से दूसरा शहर, क्या फ़र्क पड़ेगा! तुम्हारा पर्मानेंट एड्रेस (स्थायी पता) तो एक ही है — नर्कवासी। और कहीं पाये न जाओ, वहाँ ज़रूर पाये जाते हो।
कबीर कह रहे हैं — न, वो नहीं है तुम्हारा स्थायी पता, भूल हो गयी तुमसे। तुम अधिकारी हो स्वर्ग के। तुम अधिकारी हो सुन्दरतम, शांत, अतिशांत जगह पर रहने के। तुम क्यों अपनेआप को सज़ा दिये जा रहे हो? तुम क्यों नहीं जगते, क्यों नहीं आँखें खोलते? थोड़ा धीरज धरो, थोड़ा साहस करो, जहाँ तर्क साथ न दे वहाँ श्रद्धा में उतरो।
“क्षुधा तृषा नहीं शीत उष्ण तहाँ, सुख दुख को संचारा।” नहीं, कोई द्वैत नहीं है वहाँ। न भूख है न भूख का मिट जाना है, न प्यास है न पानी है, न जाड़ा है न गर्मी है, न सुख है न दुख है।
'न सुख है न दुख है' का अर्थ समझिएगा।
सुख और दुख, दोनों वास्तव में दुख ही हैं। सुख आपको अनुभव होगा नहीं अगर पहले आप दुख में नहीं थे। जितना गहरा सुख, उतनी संभावना उसके चले जाने की और जितना गहरा दुख, उतनी तैयारी है आपकी अब सुखी हो जाने की।
आप दिनभर पानी न पीजिए और शाम को जब आप पिएँगे तो बड़ा सुख प्रतीत होगा। गहराई से दुख दीजिए अपनेआप को, आपने सुख की तैयारी कर ली है। और आप सुख के पीछे भागते हो, एक ही निष्पत्ति है — और दुखी हो जाओ। और आप करते भी यही हो।
सुख पाने का एकमात्र तरीक़ा है — और दुखी हो जाना। जितने दुखी होओगे सुख उतना प्रगाढ़ लगेगा, बड़ा घना सुख मिलेगा।
दिनभर अपनी पैंट को ख़ूब कसकर बाँधे रहो — कि दम सा घुट रहा है, खाया-पिया नहीं जा रहा है — और रात में जब उसे उतारोगे तो ऐसा लगेगा जैसे स्वर्ग, मुक्ति, परमसुख।
जिन्हें चाहिए परमसुख, उन्हें बस इतना ही करना है कि अपने नाप से दो इंच छोटी पैंट पहनना शुरू कर दें, रोज़ शाम को उन्हें परमसुख की अनुभूति हुआ करेगी। रोज़ाना का पक्का है, गारंटी।
द्वैत का अर्थ ही यही है कि दोनों सिरे दिखायी एक दूसरे के विपरीत दें पर हों एक। कल हम कह रहे थे कि सुख-दुख में एक से भागना और दूसरे को पकड़ना वैसा ही है जैसे कि कोई साँप का मुँह छोड़कर के भागे और उसकी पूँछ को पकड़े। दुख साँप का मुँह है तो सुख साँप की पूँछ है, किधर से भी पकड़ो, पकड़ा साँप को ही। और जिसने पूँछ को पकड़ा है, साँप के मुँह से वो बहुत दूर नहीं है। पूँछ को पकड़ना, मुँह को झेलने की तैयारी है।
न जाड़ा न गर्मी, न पाना न खोना, न सुख न दुख; आनन्द मात्र। और भूलिएगा नहीं, आनन्द सुख नहीं है, आनन्द तो अकारण है। आनन्द स्वभाव है, आनन्द दुख के होने पर निर्भर करता ही नहीं। सुख तो आश्रित है दुख पर, सुख तो आश्रित है कारण पर, आनन्द नहीं आश्रित है। आनन्द तो आपका अपना आंतरिक खालीपन है। जब मन मल से खाली हुआ, वो दशा आनन्द की है। निर्मल मन ही आनन्द है। तमाम झंझट छोड़कर, खाली होकर के घर में स्थापित हो जाना ही आनन्द है।
“आधि न व्याधि उपाधि कछु तहाँ, पाप-पुण्य विस्तारा।” नहीं, न वहाँ बीमारियाँ हैं, न क्लेश है, न नाम है, न विशेषण हैं। तीन प्रकार के ताप, दुख कहे गये हैं। वहाँ कोई भी नहीं है, कोई बीमारी नहीं है, कुछ वहाँ विशेष भी नहीं है — विशेष को उपाधि कहते हैं।
ख़ासियत को, कुछ ऐसा जिससे आपको पहचाना जा सके, वो उपाधि कहलाती है। जो आपको अलग बनाता है वो आपकी उपाधि है। अलग होने का अर्थ ही भय है, हिंसा है। तो उपाधि कैसे दोगे! वहाँ तो तुम उससे एक हो जिसकी कोई संज्ञा, कोई उपाधि, कोई नाम होती ही नहीं, वो निर्विशेष होता है; ऐसे हो तुम। पर जीवनभर अगर विशेष होने की दौड़ लगायी है तो उपाधियाँ तुम्हें बड़ी प्यारी लगेंगी।
ये भी हमारी शिक्षा का हिस्सा रहता है कि हमें सिखाया जाता है कि ख़ास बनो, एक विशिष्ट तारा बनकर चमको, दूसरों से अलग दिखायी दो। ये सब उपाधि इकट्ठा करने की शिक्षा दी जा रही है और उपाधि इकट्ठा करने का अर्थ ही है व्याधि इकट्ठा करना, बीमारी इकट्ठा करना, दुख इकट्ठा करना। धन्य हैं हमारे शिक्षक और धन्य हमारी शिक्षा जो लगातार यही सिखाये जाती है कि तुम्हें विशिष्ट कैसे बनना है, विशेष, ख़ास कैसे बनना है।
आज दुनिया दुखी है, विध्वंस की कगार पर खड़ी है, हज़ार तरीक़े की बीमारियाँ, व्याधियाँ हम देख ही रहे हैं। मानो दुनिया के शरीर पर हज़ार फोड़े हों और उनमें से मवाद, ख़ून चू रहा हो, ऐसा ये संसार हो गया है। हमने कभी जानना चाहा कि इसका उत्तरदायी कौन है? कौन हैं ये लोग जो ऐसे निर्णय ले रहे हैं जो सबके लिए दुख का कारण बन रहे हैं? कौन हैं ये लोग, कहाँ से आ रहे हैं? क्या ये आसमान से टपके?
नहीं, ये हमारे स्कूलों और कॉलेजों से निकले हैं और इनको तैयार किया है हमारे शिक्षकों ने, आचार्यों ने, प्रिंसिपल्स (प्रधानाचार्यों) ने। यही लोग तो हैं न? तुम्हें क्या लग रहा है, सारे आतंकवादी अनपढ़ हैं? न, वो भी कभी किसी स्कूल गये थे, उन्हें घर पर भी शिक्षा मिली है।
तुम्हें क्या लग रहा है, ये दुनिया में जो लोग सत्तासीन हैं, ऊँचे पदों पर बैठे हैं और जिनके अनिर्णय की वजह से आज धरती गर्म, और गर्म होती जा रही है, मौसम बदलते जा रहे हैं, प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं, ये लोग अनपढ़ हैं? न, ये बड़े-से-बड़े स्कूलों और कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज़ (विश्वविद्यालयों) की पैदाइश हैं। ऊँचे-से-ऊँचे, आइवी लीग , वहाँ से निकले हैं ये। और ये इनकी शिक्षा है जिसने इनको ऐसा संस्कारित किया है कि इन्होंने दुनिया को लहूलुहान कर दिया है।
वो शिक्षा जो हमें बताती है कि उपाधियाँ बड़ी बात हैं। शिक्षा और है क्या — उपाधि देने का नाम ही तो शिक्षा है। तुम ग्रेजुएट (स्नातक) हो गये, तुम पोस्ट ग्रेजुएट (स्नातकोत्तर) हो गये और तुम्हें अब डॉक्टरेट (डॉक्टर) की उपाधि दी जाती है। और जिन्होंने जाना है उन्होंने सदा कहा है, ‘ख़ास न बनो, उपाधियाँ न इकट्ठी करो, अस्तित्व से एक रहो। विशिष्ट नहीं, अविशिष्ट, साधारण।’ और आप कहते हो असाधारण बनो।
उल्टी शिक्षा के अगर उल्टे परिणाम आ रहे हैं सामने, तो फिर हमें अचंभा क्यों होता है? फिर हम क्यों कहते हैं कि अरे! ये नाश कहाँ से आ रहा है? ये कहीं से आ नहीं रहा है, हम इसकी तैयारी करते हैं पूरे योजनाबद्ध तरीक़े से। सिलेबस (पाठ्यक्रम) बना-बनाकर हम नाश आमंत्रित करते हैं और पूरा भरोसा है हमें कि जो पाठ्यक्रम हमने बना रखे हैं, जो सिलेबाई (पाठ्यक्रम) हमारे विश्वविद्यालयों में चल रहे हैं, वो उचित हैं; पूरा भरोसा है हमें।
“आधि न व्याधि उपाधि कछु तहाँ, पाप-पुण्य विस्तारा।” न, वहाँ न पाप है न पुण्य है, न सही है न ग़लत है, न अच्छा है न बुरा है। पर करें क्या हम, हमसे तो जीवनभर यही कहा गया कि अच्छे को पाओ, बुरे को छोड़ो। हमें तो यही बताया गया कि बेटा, पुण्य करना, पाप से बचना। और कह रहे हैं कबीर, नहीं, नहीं, ये क्या मूर्खता है पाप और पुण्य जो एक के लिए पाप, दूसरे के लिए पुण्य हो जाता है। तुम्हारे लिए ही जो अभी पाप है वो दूसरी मनोदशा में तुम्हें पुण्य लगने लगता है। एक समाज में जो वर्जित है, दूसरे समाज में वांछित है। एक ही समाज में एक काल में जो पाप समझा जाता था, दूसरे समय में वह बड़ा पुण्य हो जाता है।
तुम दुई के इस फेर में पड़ो ही मत कि ये अच्छा ये बुरा। अरे! जग करके तुमने जो करा, मात्र वही करणीय है, अब अच्छे-बुरे का कोई हिसाब ही नहीं। ये प्रश्न ही छोड़ो कि क्या अच्छा, क्या बुरा। तुम्हारा घर में होना, तुम्हारा निज देश में होना, वही एकमात्र अच्छा है और तुम्हारा निज देश से निर्वासित रहना, वही एकमात्र बुरा है।
स्वदेश का अर्थ समझते हो? स्वदेश का अर्थ भारत और पाकिस्तान और अमेरिका और रूस और जर्मनी नहीं है। पर क्या करो तुम, ग़ज़ब घुट्टी पिलायी गयी है। स्वदेश का अर्थ है अपने अंतस में बैठना; वो है तुम्हारा देश। उसको कह रहे हैं कबीर, "संतों सो निज देश हमारा।" "संतों सो निज देश हमारा।" पर तुम तो अपनेआप को अपना पासपोर्ट ही मानते हो कि पासपोर्ट जो घोषणा करेगा कि हम फ़लाने देश के हैं, हम तो उसी देश के हैं।
और इतना ही नहीं, कुछ लोग अपनी मर्ज़ी से देश बदलते भी हैं, आज वो जहाँ के नागरिक थे, कल कहीं और के हैं। असली देश पाया नहीं, देश और देश और देश की ठोकरें खाते फिर रहे हो। समझा ही नहीं तुमने कि वो सारे देश मात्र विदेश हैं। जहाँ भी हो तुम, वो विदेश ही है, स्वदेश तो तुम कभी पहुँचे ही नहीं।
तो कोई पूछे तुमसे कि क्या कर रहे हो, तो बड़ा उचित उत्तर होगा’ अगर एक ही उत्तर दिया करो, ‘विदेश यात्रा कर रहा हूँ।’ हम सब निरंतर मात्र विदेश यात्रा करते हैं, जहाँ ही होते हैं वहीं विदेश होता है। इतने होशियार हैं हम कि जहाँ ही होते हैं, वहीं विदेश खड़ा कर देते हैं, स्वदेश को तो हमने कभी जाना नहीं। हमारा हवाई जहाज़ कभी वहाँ लैंड (अवतरण) किया ही नहीं। क्या करें, एयरलाइंस (हवाई कम्पनी) वहाँ जाती नहीं और वहाँ जैसे जाया जाता है उसका हमें कोई होश नहीं।
“ऊँच-नीच, कुल की मर्यादा, आश्रम वर्ण विचारा।” कौनसा आश्रम, कौनसा वर्ण, क्या जात क्या पात, क्या उम्र! क्या स्वांग है ये कि अभी तुम्हारी ये उम्र है तो ये कर्तव्य है तुम्हारा।
आते हैं मेरे पास लोगों के माँ-बाप कि अभी तो सिर्फ़ पच्चीस साल का है हमारा लड़का, अभी इसकी उम्र कहाँ है ये सब बातें सुनने की। उनके मन में वही आश्रम व्यवस्था घूम रही है अभी तक, जो कहती है कि पच्चीस से पचास तक तो गृहस्थ आश्रम चलना चाहिए। उस बात ने इतनी गहराई से संस्कारित कर दिया है कि आएँगे और कहेंगे, ‘आप कबीर और गीता, उपनिषद्, कुरान, जीसस, इनकी चर्चा क्यों करते हैं?’
अच्छा तो कौनसी चर्चा की जाए?
‘नहीं, अभी तो ज़रा सांसारिकता के पाठ पढ़ाइए।’
अच्छी बात है, तो कबीर से कब मिले वो?
‘नहीं, उसका अलग आश्रम है, उसकी एक अलग उम्र है।’
क्या उम्र है?
‘पचास के बाद, बल्कि भला हो पचहत्तर के बाद।’
अच्छा ठीक है, पचास के बाद। आपकी क्या उम्र है?
‘हम पचपन के हैं।’
आप आ जाइए!
ग़ायब! कहाँ गये? गधे के सिर से सींग।
जब न मुँह में दाँत रहेंगे, न पेट में आँत रहेगी, तुम उस समय होश में आओगे भी तो क्या होश में आये! पछताने के अलावा क्या हाथ लगा? सबकुछ लुटा कर होश में आये तो क्या किया? पर बड़ी बेवकूफ़ी है कि जब पूरी ज़िन्दगी जी लो तब कृष्ण के पास जाओ। अब करोगे क्या कृष्ण के पास जाकर के? उम्र तो गुज़ार दी भटकते-भटकते, अब क्या?
इसी तरीक़े से जब कबीर वर्ण की बात कर रहे हैं, कोई न समझ ले कि किसी भी तरह की आइडेंटिटी (तादात्म्य) तुम्हारी पहचान बन सकती है।
देखो, परंपरागत रूप से जिसे जाति कहा जाता था उसकी पकड़ कमज़ोर हो रही है, अच्छी ही बात है। लेकिन अब दूसरी जातियाँ उभरकर आ रही हैं। प्रोफेशनल (पेशेवर) नाम की एक जाति बड़े चढ़ाव पर है। ‘मैं क्या हूँ, मैं प्रोफेशनल हूँ।’ अब यही उनका धर्म है, ‘मैं प्रोफेशनल हूँ।’ और उसमें भी अलग-अलग हिस्से होते हैं, जैसे जातियों में गोत्र होते हैं।
तो प्रोफेशनल में एक कॉर्पोरेट प्रोफेशनल (निगमित पेशेवर) है, एक एकैडमिक प्रोफेशनल (शैक्षणिक पेशेवर) है, एक स्पोर्ट्स प्रोफेशनल (खेलों का पेशेवर) है, एक आर्ट्स प्रोफेशनल (पेशेवर कलाकार) है, एक प्रोफेशनल पॉलिटिशियन (पेशेवर राजनेता) है। ये नयी जातियाँ हैं, इनको नये कर्तव्य बता दिये गए हैं, इन्होंने नयी मर्यादाओं का काढ़ा पी लिया है।
वर्ण माने क्या? जब भी इंसान पर कोई ठप्पा लगा दिया गया, उसी का नाम वर्ण है। हज़ार तरीक़े के ठप्पे हम पर लगते रहते हैं और हम उन्हें लगने देते हैं। ये शादीशुदा है, ये ग़ैर-शादीशुदा है; ये अभी पढ़ ही रहा है, ये नौकरी में आ गया है। और हर ठप्पा अपने साथ ग़ुलामियों का एक नया दस्तावेज़ लेकर आता है, हमारे हस्ताक्षर के साथ।
'देखिए साहब, अब आप शादीशुदा हैं, अब आपको इस-इस तरीक़े से आचरण करना चाहिए।’ ‘अरे साहब! अब आप सिर्फ़ शादीशुदा ही नहीं हैं, अब आप बाप हैं, अब आपको ऐसे-ऐसे आचरण करना चाहिए।' 'देखिए, पहले आप सिर्फ़ पढ़ाते थे, अब आप डायरेक्टर (निर्देशक) हैं, पहले की तरह नहीं चलेगा। ये मिलना-जुलना कम कीजिए, आप बहुत ज़्यादा हिल-मिल जाते हैं छात्रों के साथ, न।' 'देखो, अब तुम्हारी उम्र हो गयी है, ये हँसी-मज़ाक ज़रा कम करो। तुम जवान हो गयी हो, लड़कों के साथ उठना-बैठना कम करो।' 'तुम जवान हो गये हो, अरे! ज़रा लड़कियों के साथ उठा-बैठा करो।' (सभी हँसते हैं)
आ रही है बात समझ में?
आश्रम, वर्ण, समय, स्थिति, मर्यादा, आचरण — बेहूदी बातें हैं, क्यों फ़िक्र करनी है इनकी। तुम्हारा एकमात्र कर्तव्य है अपने देश में स्थापित रहना, आँखें खुली रखना, होश में रहना। उसके बाद तुम जो करो वही तुम्हारी मुक्ति है। पूरा अधिकार है तुम्हें अपने अनुरूप होने का और तुम जो भी करोगे वही शुभ होगा। अस्तित्व गवाही देगा कि तुमने जो किया बिलकुल ठीक किया, वही होना चाहिए था, उसके अतिरिक्त कुछ हो नहीं सकता था।
होश के अलावा तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, कोई फ़र्ज़ नहीं है। और हम उस एक फ़र्ज़ को जानते नहीं, उसके अलावा हज़ार फ़र्ज़ हमने अपने ऊपर डाल रखे हैं।
होश हम नहीं जानते, जगे हम नहीं, जाना हमने नहीं; विचार बहुत हैं हमारे पास, ध्यान हमने पाया नहीं। जानकारी बड़ी इकट्ठा की, समझा कभी नहीं, सार तक कभी नहीं पहुँचे। सुना ख़ूब, समाधान तक कभी नहीं गये।
“धर्म-अधर्म तहाँ कछु नाहीं, संयम-नियम आचारा।” क्या संयम, क्या नियम, क्या आचरण, क्या अधर्म, क्या धर्म! पर ये बात तुम मुझसे सुन पा रहे हो इस खुली जगह पर। इस मुक्त माहौल में इसको जान पा रहे हो, विचार कर पा रहे हो, अच्छा है। लेकिन यही बातें जैसे ही तुम अपने घरों में करोगे और दफ़्तरों में करोगे और बाज़ारों में और स्कूलों में और विश्वविद्यालयों में करोगे तो दिक्क़त हो जानी है, तुरन्त होगी।
जैसे ही तुमने कहा कि कोई धर्म नहीं है, कोई अधर्म नहीं है, मैं किसी संयम पर नहीं चलूँगा, कोई मर्यादा नहीं, किन्हीं नियमों में बँधूँगा नहीं और कोई आचरण, संहिता मेरे ऊपर लागू नहीं होती। जैसे ही तुमने ये हुंकार भरी, तुम पाओगे कि दुनिया तुम्हारे विरुद्ध खड़ी हो जाएगी। और अफ़सोस, गहरे अफ़सोस की बात ये है कि जिनको तुम अपना प्रियजन कहते हो, वो भी तुम्हारे विरुद्ध खड़े हो जाएँगे।
तुम कहकर के देखो अपने अभिभावकों से कि हम किसी संयम पर नहीं चलेंगे और देखो क्या होता है। तुम कहो अपनी पत्नी से कि हटाओ मर्यादाएँ और ये क्या नियम हमने एक-दूसरे पर आरोपित कर रखे हैं, तुम भी मुक्त, हम भी मुक्त; फिर देखो कैसा तूफ़ान आता है।
कबीर कह रहे हैं, ‘ढोंग ही करते रहोगे, नाटक ही करते रहोगे या कभी जियोगे भी?’ जीना कब शुरू होगा? तुम्हारे मुँह से नाटक के ही बोल निकलते रहेंगे या कभी तुम्हारी आत्मा का वचन भी फूटेगा? अपने किरदार की ही आवाज़ में बोलते रहोगे, अपनी आवाज़ नहीं सुनना चाहोगे? तुममें से सुनी है किसी ने कभी अपनी आवाज़, अपनी आवाज़ सुनी है कभी? नहीं सुनी होगी।
इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि हमने कभी अपनी शक़्ल नहीं देखी, जब भी देखा आईने में मुखौटे को देखा और हमने कभी अपनी आवाज़ नहीं सुनी, जब भी आवाज़ सुनी वो हमारे किरदार की आवाज़ थी।
कैसी है तुम्हारी आवाज़? कैसा होगा तुम्हारा अपना बोल? हतप्रभ रह जाओगे। अपनी ही आवाज़ सुनोगे, हठात खड़े रह जाओगे।
'ये क्या हुआ! मैं ये हूँ, मैं ऐसे बोलता हूँ! कभी सुना ही नहीं था। मैं, मैं, हूँ।' अभी तो तुम्हें अपने होने का कुछ बोध ही नहीं है। 'मैं हूँ? आइ एग्ज़िस्ट; रियली? (मैं सचमुच अस्तित्व में हूँ?)' अभी तो तुम्हारे नाम पर हज़ार तरीक़े के किरदार जिये जा रहे हैं, तुमने जीना शुरू ही नहीं किया।
“अति अभिराम धाम सर्वोपरि, शोभा जासु अपारा।” बड़ा सुंदर, अति सुंदर है वो धाम। तुम सुंदरता जानते नहीं, तुमने तो जिसको भी आजतक अभिराम कहा है, प्यारा कहा है, वो सजायी हुई कुरूपता है। तुम कुरूपताओं के वर्ग जानते हो। तुम घोर कुरूप से कम कुरूप में जाना जानते हो। तुम हरे कुरूप से नीले कुरूप जाना जानते हो। तुम पाप की कुरूपता को जानते हो और तुम पुण्य की कुरूपता को जानते हो। लेकिन रूप को तुम जानते नहीं, सौंदर्य को तुम जानते नहीं।
हर प्रकार की अग्लिनेस (कुरूपता) से तुम्हारा ख़ूब वास्ता है। और अपने मन को टटोलो न, क्या वो अग्लिनेस को ख़ूब नहीं जानती? दुनियाभर की चालें समझती है, चतुराइयाँ समझती है, शक़ समझती है।
तुम ख़ूब जानते हो कि कहाँ शक़ कर लेना है, तुम ख़ूब जानते हो कि तुम्हारे विरोधी और तुम्हारे मित्र भी कहाँ क्या चालें चल सकते हैं। कुरूपताओं से तुम्हारा अच्छा परिचय है, पूरा परिचय है। तुम ख़ूब जानते हो कि किसी व्यवस्था में सेंध कैसे लगायी जा सकती है। तुम किसी घर को देखते हो, तुम्हें तुरन्त समझ में आ जाता है कि इसमें चोरी कैसे-कैसे हो जाएगी।
देखो, घर का जो मालिक है वो लगातार उन सब जगहों को बंद करने की कोशिश करता है जहाँ चोरी हो सकती है और चोर लगातार उन जगहों को ढूँढने की कोशिश करता है जहाँ से चोरी हो सकती है। पर दोनों का मन एक हुआ कि नहीं? दोनों ही जानते हैं कि चोरी कहाँ हो सकती है और दोनों का ही मन लगातार इसी में लगा है कि चोरी कहाँ हो सकती है।
एक चोरी रोकना चाहता है, दूसरा चोरी करना चाहता है पर मन तो दोनों का एक ही कुरूपता में संलग्न है, चोरी-चोरी-चोरी। घर के भीतर जो बैठा है उसके मन में भी चल रही है बात चोरी की, ‘कहीं चोरी हो न जाए।’ घर के बाहर जो है उसके मन में भी लगातार बात चल रही है चोरी की, कि चोरी कैसे की जाए। पर मन तो दोनों का ही चोरी की ही कुरूपता से भरा हुआ है।
सौन्दर्य हम जानते नहीं। मन में सन्देह उठे ही न, ऐसा मन हम जानते नहीं। ऐसा मन जो जाने उसको जिसपर कभी सन्देह होता ही नहीं, ऐसा मन मिल सकता है, उपलब्ध है, चाहो तो। इसका अर्थ ये नहीं है कि वो पागल होगा, कि बेवकूफ़ होगा, कि उसको कुछ समझ में ही नहीं आता होगा। कि जानता ही नहीं होगा कि चोरी क्या चीज़ है। जानकारी उसे भी है, ज्ञान उसे भी है, पर उसे कुछ ऐसा मिल गया है जो चुराया नहीं जा सकता। इसी कारण चोरी का ख़याल उसके मन में घूमता नहीं रहता। चोरी की जानकारी उसे है पर चोरी से ऑब्सेस्ड (आसक्त) नहीं है वो। चोरी अब उसके लिए कोई बहुत महत्वपूर्ण बात नहीं रह गयी है।
“कहें कबीर सुनो भाई साधो, तीन लोक से न्यारा।” इससे ज़्यादा क्या कहेंगे! बुला रहे हैं तुम्हें। तुमसे कह रहे हैं, तुम्हारे जितने लोक हो सकते हैं, ये, वो, उससे भी अगला, समस्त त्रिपुटियों से न्यारा है वो, प्यारा है वो।
न्यारा होने के दो अर्थ हुए। पहला, यहाँ मत खोजना, किसी भी त्रैत में मत खोजना। न तीन लोकों में खोजना, न ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय में खोजना। इनसे न्यारा है, इनसे अलग है। और न्यारा का दूसरा अर्थ है प्यारा। इनसे अलग है और इनकी अपेक्षा बहुत सुंदर है और अतुलनीय है। अपेक्षा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि अपेक्षा में तुलना हो गयी। वो किसी और तल पर है, उसका आयाम दूसरा है। वो न्यारा है।
आमंत्रण है ये कबीर का, घर वापसी का — घर वापस आ जाओ। स्वदेश बुला रहे हैं। भटकना छोड़ो, इस भटकने में सिर्फ़ कष्ट पाओगे और कष्ट पाया है। अपनी ही स्थिति पर ध्यान दे लो — बात साफ़ हो जाएगी — कष्ट के अलावा और क्या पाया है। तुम्हारे दुख तो दुख हैं ही, तुमने जो सुख भी पाया है वो भी दुख ही है। घर लौट आओ, दरवाज़े खुले हैं, जब चाहो अंदर आ जाओ। बुला रहे हैं कबीर।
आ रही है बात समझ में कुछ?